न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

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आज वर्त्तमान और चौरी चौरा

चौरी चौरा आज अपनेअतीत पर गर्वित आह्लादित पूरुखों नेमाँ भारती की आज़ादी केमहायज्ञ मेंअपने प्राणों की आहुति देकर शौर्य पराक्रम कीराह दिखाई।।उत्तर प्रदेश पूर्वांचल गोरखपुर जनपद काकस्बा भारत का गौरवशालीपड़ाव

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चौरी चौरा आज़दी के संघर्ष के बाद का परिपेक्ष्य

बारह फरवरी सन उन्नीससौ बाईस को चौरी चौराआजादी का विद्रोह असयोग आंदोलनस्थगतित किया महात्मा गांधी।।महात्मा का निर्णय असहयोग आंदोलनसत्य अहिंशा और हिंसा दर्शन चौरी चौरा अहिंसाआंदोलनहिंसा परिवर्तन का परिभाषी।।महात्मा के

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चौरी चौरा भारत की आजादी का पड़ाव कारण

सन उन्नीस सौ बाईस चार फरवरीशांत प्रिय भारतवासी।।निकल पड़े जुलूस में मन मे आजादी का जज्बादेने आजादी की खातिरकोई भी कुर्बानी।।सर पे टोपी जुबान पेजय माँ भारती की आजादीशांत प्रदर्शन

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प्रेम

प्रेम  ​​​​​​​​     ​डा. रतन कुमारी वर्मा प्रेम की सरिता बहाते चलो, गले से गले मिलाते चलो। प्रेम-सुधा रस बरसाते चलो, जाति-पाति, वर्ग-भेद मिटाते चलो। प्रेम की ऊर्जा जगाते

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता बेटी का अभ्युदय नारी का अस्तित्व

आज की बेटी कल की नारीयुग की आधी शक्ति आधीआबादी माँ बहन बेटी नारी की शान।।शक्ति है नारी साक्षात नव दुर्गा अवतारी बेटी ही नारीना झुकती ना टूटती ना मानतीहार।।राष्ट्र

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता नैतिकता और नारी

घृणा घमंड का उत्पातअनैतिकता अत्याचार कीबोझिल नारी ।।युग मानवता परम् शक्तिसत्ता पर भारी नारी।।दहेज का दानव होया वहसी का व्यभिचारया कोख की शोक युगमानवता नारी से हारी।।नारी का सम्मान प्रगतिशील

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता नारी और समाज

नैतिकता का अभिमानपुरुषार्थ पराक्रम कीअर्थ आवाज़ ।।नारी कमजोर नहीपग प्रगति की शक्तिभाग्य काल भगवान कीअंतर शक्ति मान।।कोमल हृदय भावुक भावशांत शौम्य मधुर मार्मिककरुणा वात्सल्य प्यार दुलार।।कमसीन नादा नाजुक भोलीदिल दौलत

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मुझे उस ओर जाना है

मुझे उस ओर जाना है मुझे उस ओर जाना है” कविता समस्त स्त्री वर्ग की जिजीविषा को उन्मुक्त वातावरण में जीने, खुलकर हँसने, अपने अरमानों को पूर्णता की ओर ले

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वो पल

                                     वो  पल                                                             दिल के कोने में                                                              चुपके चुपके  झरोखों  से,                                                                हवा के साए आये                                                                कुछ गुनगुना गये,                                                               यादें नहीं जाती,                                                               गुजरे हुए पलों

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मोह

मोह़़़़़़़़़़़़सांसों से मोह कभी छूटता नहीं ,बंधनों में बंध कर भी दम घुटता नहीं!! शाम निराश तो करती है, पर सुबह की किरणें देख आस का धागा टूटता नहीं! तिरस्कार,

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मोह

मोह़़़़़़़़़़़़सांसों से मोह कभी छूटता नहीं ,बंधनों में बंध कर भी दम घुटता नहीं!! शाम निराश तो करती है, पर सुबह की किरणें देख आस का धागा टूटता नहीं! तिरस्कार,

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सूर्य और देव

पवन पुत्र शिष्य पुत्र शनिदुःख भय भंजक न्याय दंडके दाता सारे सूरज संगभाग्य दुर्भाग्य के दाता।।धर्म शास्त्रों में देवता विज्ञान वैज्ञानिक कीशोध कल्पना परिकल्पनाअविनि परिक्रमा करतीदिवस माह वर्ष युग कालकी

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सूर्य और सत्य

युग के हर प्राणी की निद्राशौर्य सूर्य के सुबह शाम कीप्रतिद्वंनि आकर्षक ।।नई सुबह आशा विश्वाशसंबाद संचार गति चाल कालसूरज का युग ब्रह्मांड व्यवहारना जाने कितने ही है पर्याय नाम।।सूरज

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सूर्य और जीवन

ना कोई लाचारी ना कोईदुःख व्याधि कायनात मेंखुशियों खुशबू का हर मनआँगन घर आँगन से नाताशौर्य सूर्य कहलाता।।युग मे नित्य निरंतर कालकी गति अविराम काल कदाचितसूरज  गति का सापेक्ष कालनिरन्तर

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सूर्य और संसार

ब्रह्म मुहूर्त की बेला मेंमंदिर में घन्टे घड़ियालेबजते गुरु बानी सबदकीर्तन गुरुद्वारों मेंमस्जिदों में आजाने होती।।सबकी उम्मीदे चाहतनई सुबह के आने वाले सूरज से होती।।आएगा अपनी किरणोंसंग सृष्टि की दृष्टी

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प्रेम परक कविता – प्रिय छवि

प्रिय छवि  कवि अपने नैसर्गिक वितान में अपना प्रिय ढूंढता है उसी में कवि की खुशियाँ व काव्य-धारा के शब्द की महक बिखरती हैं। मेरे इसी नैसर्गिक प्रियतम जहाँ ऊपर

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नंगे पाँव

आजकल शहरों में लोग  नंगे पाँव नहीं चलते  कुछ तो घर में भी  नंगे पाँव नहीं रहते  बिस्तर से उठने से लेकर  खाने की टेबल तक  पाँव ज़मीन को नहीं

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एक पागल भिखारी

  जब बुढ़ापे में अकेला ही रहना है तो औलाद क्यों पैदा करें उन्हें क्यों काबिल बनाएं जो हमें बुढ़ापे में दर-दर के ठोकरें खाने के लिए छोड़ दे ।

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उम्मीद

अधमरी सी उम्मीदें कभी सो न सकी इंतज़ार मेंबिलख- बिलख कर रोया है मन साथी तेरे प्यार में दूर से ही तो चाहा था तुमको बस पास तुम्हारे ये दिल

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और इंतजार

  यह तेरी आंखों का जादूकुछ इस तरह कर गया है असरसिर्फ तेरे सिवा दुनिया मेंनहीं आता कुछ नजर ना जाने किस वजह सेमेरी मोहब्बत को कर रही इनकारदिल मेरा

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कहो, कौन हो तुम?

कहो तुम कौन हो प्रकृति ही मेरी संगिनी है, मेरे अह्सास है, मेरी कलम के शब्द हैैं अतः उसी प्रकृति के आँचल में मेरी काव्य धारा प्रवाहित होती है। प्रकृति

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नन्ही सी जान

  नन्हीं सी जान उड़े बनके पुरवाईसपनों के देश में जहां बसे परि रानीचाँद तारों संग खेले छुपन छुपाईअपनी ही मस्ती में रहे गुड़िया रानीजादुई हँसी से अपनी करे दुनिया

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता वर्तमान की खुशहाल बेटी भविष्य की सक्षम नारी

बेटी की किलकारी मन आँगन घर आँगन कीखुशियों का प्यार परिवार।।पढ़ती बेटी बढ़ती बेटीउम्मीदों की नारी का आशीर्वादसंसार।।कली किसलय फूलगुलशन की चमन बाहरखुशी खास खासियत खुशबूमुस्कान।।बेटी आवारा भौरों केपुरुष प्रधान

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कर्म बोध की कन्या नारी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता

कर्म बोध की कन्यादुष्ट दमन की दुर्गाब्रह्म ब्रह्मांड।।कर्म धर्म की संस्कृतियुग समाज राष्ट्र विश्वसमाज की संस्कृतिसंस्कार सत्यार्थ प्रकाश।।भाग्य भविष्य की प्रेरणानैतिक नैतिकता रिश्तों काआधार।।पुषार्थ प्रेरणा की गहना बहनाउत्कर्ष उत्थान की

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता नारी और मर्यादा

मर्यादाओं महत्व काकरना है समाज विश्वराष्ट्र निर्माण।।साहस शक्ति की नारीविश्व समाज राष्ट्र काअभिमान।।बेटी हो नाजों कीखुले पंख अंदाज़ों कीसमाज विश्व राष्ट्र चेतना कीजागृती जांबाज़ इरादों कीनाज़।।जननी है शौर्य पराक्रम कीतारणी

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लोक दर्शन की अवधारणा

हिन्दी ललित निबंध मे लोक दर्शन  Last Updated on January 28, 2021 by vdubey424 रचनाकार का नाम: डाॅ विजय नारायण दूबे पदनाम: शोधार्थी संगठन: उच्च शिक्षा ईमेल पता: [email protected] पूरा

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प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता (प्रेम आज-कल)

प्रेम!आजकल प्रभावित है…उपभोक्तावादी बाजारी संस्कृतिऔर फिल्मी देह बाजारी से।फलिभूत कर्ज और उधारी से।रोज नए फूल खिलते,तन से तन मिलते,कौड़ियों के भाव परअवसरवादी स्थापित-विस्थापितभावनात्मक जुड़ाव है।मादा की क्षणिक काया,नर के पाकेट

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महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता ( स्त्रीत्व)

डर कर,थक,ऊब करवह प्रत्येक स्त्री!जो आत्महत्या करके मर गई;कमल और कुमुदिनी थी। और जो जिंदा रह गईफिक्र में घर-गृहस्थी,बाल-बच्चों के। वह औरत मुझे,पोखर की हेहर/थेथर(नहर, तालाब के किनारेउगने वाले हरे

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कामना

मेरी हार्दिक इच्छा है कि लोग भूल जाएंँ,पपड़ियों की तरह उधड़ते,पंखुड़ियों की बिखरते,उद्वेलित नश्वरता की क्षणभंगुरता में झड़ता मेरा चेहराऔर रूप-रंग!पर सदियों तकउनके मन-मस्तिष्क में,मेरे शब्द और कविताएँकुछ इस तरह

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जय भारती

  जय भारती   जय हो आज दिन है भारत के गणतंत्र. रह पाए हैं हम, अब सर्व-स्वतंत्र, लहराकर आज अपना तिरंगा प्यारे, रहे सदा पुलकित भारतवासी न्यारे।   जलाकर

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बेटी

बिटियाँ रूप तुम्हारा रानी बेटी लगता है प्यारा-प्याराघर की रौनक तुम सबकी आँखों का तारा। श्वेत लाल रंगों की फ्रॉक जैसे लटके बलूनछोटे-छोटे पैर तुम्हारे लगें मुलायम प्रसून। उस पर

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ए भारत माँ…..

            ए भारत माँ फिर से एक एहसान कर दे वही सोने की चिड़िया वाला मेरा हिंदूस्तान कर दे,            

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सैनिक

सैनिक देश के रक्षक देश की शान ,है अपने ये सैनिक महान ।इनके बल पर अपनी चैन,इनके ही भरोसे है दिन रैन ।कोई कितना ऊँचा होजाये ,इनतक कोई पहुँच न

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गणतंत्र दिवस

*गणतंत्र दिवस मनायें* गणतंत्र दिवस मनायें,ये गणराज्य मुस्कुराये।पावन धरा ये है हमारी,इसको और जगमगायें।नदियां गाती कल-कल,चलो निर्मल इसे बनायें।पर्वत कहते सिर उठाके,सबसे ऊंचा इसे बनायें।नवजागरण लेकर चलें,हमारा  देश जगमगाये।गणतंत्र दिवस

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गणतंत्र दिवस पर स्वर्णिम अध्याय लिखने की तैयारी में शांति-संयम का गठजोड़…

सुशील कुमार ‘नवीन’ ‘एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति!’ अर्थात् एक मैं ही हूं दूसरा सब मिथ्या है। न मेरे जैसा कभी कोई आया न आ सकेगा। आप

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गणतंत्र दिवस पर सभी देशवासियों समर्पित “मेरा भारत”

मेरा भारत सब देशों से न्यारा भारत सबसे प्यारा हमारा भारतजन्म लिया देवों ने भारत मेंइतना मनमोहक सुंदर हमारा भारत विविधता में एकता की पहचान यही है मेरे भारत की

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बेटी बिटिया

बेटी है दुनियां का नाजबेटी करती हर काज आजबेटी अरमानों का अवनिआकाश।। शिक्षित बेटी नैतिक समाजबेटी संरक्षण संरक्षित समाजबेटी बुढापे का सहाराबेटी माँ बाप के लिये ज्यादा संवेदन साज।। बेटी

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सवा लाख से एक लड़ाऊं तौ गुरु गोविंद सिंह नाम कहाऊँ

आहत होता युग संसयअन्धकार के अंधेरो मेंदम  घुटता।।न्याय धर्म की सत्ता डगमग होताईश्वर का न्याय भरोसा युग जीवन में आशा कासंचार झोंका आता जाता।।निर्जीव हो चुके सोते युग समाजचेतना को

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बेटियां केवल भाव की भूखी होती हैं

बेटियां केवल भाव की भूखी होती हैं! उन्हें कहां धन दौलत की होती है परवाहउनके लिए ये सब सूखी रूखी होती हैं,वो तो बस अपनों की हिफाजत चाहे बेटियां सिर्फ

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सती शंकर भारतीय नाग संतो का बलिदान

कौन कहता है माँ भारती केसत्य सनातन का साधु संतधर्म कर्म साधना आराधना शास्त्रआचरण का सिर्फ प्रवचन सुनाते।।जब- जब राष्ट्र समाज पर क्रुरता आक्रांता आता।। जागृत हो साधु संतों का

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नारी हूँ मैं…

महिला दिवस प्रतियोगिता हेतु कविता “नारी हूँ मैं…”  एक मूक अभिव्यक्ति हूं मैं,खुद में सम्पूर्ण शक्ति हूं मैं,विश्वास का दूसरा नाम हूं,चलती-फिरती भक्ति हूं मैं…हां,नारी हूं मैं… स्रष्टा हूँ मैं,

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राष्ट्रीय बालिका दिवस पर समर्पित कविता – “बेटी”

बेटी मैं भी बेटी हूँ किसी की हर बेटी का सम्मान करती हूँबेटी है स्वाभिमान किसी काजो जाकर पराये घर,उस घर को, परिवार कोो अपनाती है जन्म देती, जीवन को,संस्कारों कोधन-धान्य

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राष्ट्रीय बालिका दिवस पर समर्पित कविता – “बेटी”

बेटी बेटी है घर की फुलवारीबेटी है माँ पिता की दुलारी महके घर का कोना कोना वह घर स्वर्ग जहाँ बेटी का होना बेटियाँ घर को महकाती है सुन्दर गुलशन

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राष्ट्रीय बालिका दिवस पर समर्पित कविता – “कहो मुझे भगवान”

कहो मुझे भगवान जब जन्मीं ममता के आँचलहँसकर माँ ने गले लगाया सबने बता कर भार घर का खुशियों से मुझको ठुकराया तूं ही बता मेरी जग में, है कैसी

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राष्ट्रीय बालिका दिवस पर समर्पित कविता – “शिक्षित बेटी”

शिक्षित बेटी मैं बेटी, पत्नी और माँ बनआज बनी सशक्त नारी हूँ एक जीत की कोशिश में हजारों बार बार मैं हारी हूँ संघर्ष मेरे बचपन के याद जब –

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मृत्यु

जन्म और मृत्यु,जीवन के दो छोरएक है प्रारंभ तो दूजा अंतइस मध्य ही है जीवन का सार। क्या खोया क्या पायाक्या छोड़ा क्या अपनायाक्या भोगा क्या त्याग दियाबस यही है

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सोचता हुँ

सोचता हुँ,सभी की भलाईसब हो खुशहालना हो कोई बदहाल। सब करे प्रगतिसब करे उन्नतिसबको मिले अधिकारफले फुले सबका परिवार। ना किसी से ईर्ष्या है ना ही प्रतियोगिताना किसी से अपेक्षा

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एक दिया वहाँ भी जलाए

  लो आ गयी दीवाली का त्योहारउल्लास और उमंग का लिए संचारकरती धन और समृद्धि का फुहार। हां इस बार थोड़ी  परिस्थिति की है मारप्रकृति ने जता दी अपनी गुस्सा

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मकर संक्रांति

आज है मकर संक्रान्ति सूर्य देव हुए उत्तरायणलेकर गुनगुनी धूप और ऋतु परिवर्तन की तरंग। वसुधा ने फैलाई प्यारी मुस्कानओढ़ सुरमई बासंती परिधानलिए सरसो की भीनी भीनी सुगंधलिए लोहड़ी, पोंगल

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नव वर्ष

जो बीत गया उसे भूल जायेजो आ रहा  उसे अपनायेहालांकि जाते जाते बहुत रूलायाकईयों को अपनो से बिछड़ायादुख तकलीफ की बढ़ाई छाया। पर,जीना भी वो सिखलायाएकता और भाईचारा बढ़ायासंयम और

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पगला

हाँ वो पगला हैलोग तो उसे यही कहते हैऔर समझते भी यही है। एक दिन मैं चल रहा था कुछ गुनते अचानक से मिल गया मुझे वह राह चलतेवह मुझे

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उबंटू

उबंटू,सच मे थोड़ा अजीब सा शब्द हैमन मे सवाल उठा कि ये क्या हैजिज्ञासा उठी कि इसका मतलब क्या होता है। मन में उठी जिज्ञासा को शांत करनेउस अनूठे शब्द

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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यौगिक क्रियाओं का स्वस्थ जीवन शैली में योगदान

http://परिचय : वैज्ञानिक प्रौद्योगिकी के इस आधुनिक समय मे हमने भले ही कितनी तरक्की कर ली हो तथा व्यक्ति के पास भले ही जीवन यापन की सभी भौतिक सुख सुविधाएं

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आ अब लौट चलें

                     ” आ अब लौट चलें”             ————————– हैं चारों ओर वीरानियाँखामोशियाँ, तन्हाईयाँ,परेशानियाँ, रुसवाईयाँसब ओर ग़ुबार है

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नश्वरता

अस्ताचलगामी सूर्य के अवसान पर,मध्य में जीवन की प्रवाहमान सरिता शान्त स्तंभित!मूकदर्शक मैंने देखा,उसका म्लान मुख अचंभित!एक तरफ उन्मादी हुल्लड़बाज भीड़ थी,भ्रमवश वासनामय अमरता की उत्तेजना में।और नदी के दूसरे

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अनुभूति

||अनुभूति || प्रेम एक ऐसी अनुभूति है जो दिलों की गहराइयों में बसती है व्यक्तित्व से प्रेम करती है प्रेम की अनुभूति को क़ायम रखने के लिएउम्र-आकर्षणरूप-रंगस्त्री-पुरुषदौलत- शोहरत मज़हब-मुल्क आदि

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“मेरे भी सपने हैं “

“मेरे भी सपने हैं”नारी हूं मैं वस्तु नहीं मेरे भी सपने हैं।जननी हूं मैं सृष्टि कीनवजीवन मुझसे पाता।केवल जननी नहीं मात्रमैं भी हूं जग की ज्ञाता।शक्ति तुझको मिली अधिकबांधा जिसने

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महिला दिवस पर प्रतियोगिता हेतु रचना, “शक्ति स्वरूपा “

 “शक्ति_स्वरूपा” हे -नारी तू ही है नारायणी और तू ही है शक्ति स्वरूपा जीती है तू दो -दो रूपों को लेकर जन्म नारी रूप में इस पावन वसुधा पर हे

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भारत मां का यौवन

भारत मां का यौवन भारत मां के यौवन को न छेड़ों ,ये मुश्किल से संवरा है ।श्रृंगार झलकता है, स्त्री से कलित,इसके क्षोभ से सुरक्षित रहो न ।।     

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दोहे

  दोहे अन्न वस्त्र भी चाहिये,      थोड़ी बहुत जमीन ।   समाधान खोजें सभी,      किस पर करें यकीन ।।    कृषक देश की आन है,    कृषक

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बेगाना बेगाना लगता है

हर रातें तो अंधेरी लगती हैं पर हर सुबह भी धुंधला धुंधला लगता है। Last Updated on January 22, 2021 by drark23021972 रचनाकार का नाम: डॉ आलोक रंजन कुमार पदनाम:

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संघर्ष : संघर्षविराम ( भाग ७ )

संघर्षविराम…!!! दिन बीतते रहे। साल जाते रहे। अनगिनत समस्याएं आयीं , परंतु राधेश्याम के संकल्पों और दृढ़ इच्छाशक्ति के सम्मुख उन कठिनाइयों को परास्त होना पड़ा। शिक्षा के क्षेत्र में

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संघर्ष : परवरिश ( भाग ६ )

परवरिश…!!! हेलीकॉप्टर की गड़ गड़ गड़ गड़ करती आवाज़ से सारा आसमान गूंज रहा था। रोहन “पापा…पापा…” चिल्लाते हुए छत की ओर भागा। किसी काम में व्यस्त राधेश्याम भी दौड़ता

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संघर्ष : संकल्प (भाग ५)

संकल्प…!!! रात के अंधेरे में उम्मीद की कोई रोशनी अगर दिखाई ना दे…तो अंधेरे की कालिमा और बढ़ जाती है। सामान्य सी रात भी अमावस की रात का रूप ले

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संघर्ष : जीवनसाथी ( भाग ४ )

जीवनसाथी….!!! “जीवनसाथी”…!!! ये शब्द सुनते ही मन में सर्वप्रथम “पत्नी” शब्द की आवृत्ति अवश्य होती है। लेकिन मेरे विचार से पत्नी, जो ये शब्द है…थोड़ा संकुचित भावार्थ से पूर्ण है।

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संघर्ष : पुरस्कार…! ( भाग २)

पुरस्कार…!!! सुबह सुबह राधेश्याम अखबार बांट कर घर पहुंचा ही था… कि रोहन स्कूल ना जाने की जिद्द लिए बैठा था। और जिद्द इतनी की वो रोने लगा कि वो

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संघर्ष : अखबार वाला ( भाग १ )

अख़बार वाला…!!! दसवीं की परीक्षा के परिणाम का दिन था आज। राधेश्याम सुबह सुबह करीब तीन बजे ही उठ गया। “अरे…इतनी सुबह सुबह ही उठ गए…क्या हुआ..?? आज जल्दी जाना

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चाय भाग ३ : चाय की तासीर…!!

चाय की तासीर…!!! चाय के दीवानों का भी क्या कहना है। गर्म से गर्म चाय की तासीर को भी वे ठंडी ही बताते हैं। ठंडी हो चुकी चाय में कोई

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चाय भाग २ : दो चम्मच शक्कर…!!!

दो चम्मच शक्कर…!!! “प्रीती….चाय बन गई है…आ जाओ जल्दी से।” मानसी ने शाम होते ही आवाज़ लगा दी। मानसी और प्रीती को मानों रोज़ ऐसी ही आवाज़ सुनने की आदत

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चाय भाग १ : परिचय….!!!

परिचय…!!! चाय…! प्रथम दृष्टया ये शब्द सुनते ही किसी देश भक्त को  तो यही लगता होगा… कि अंग्रेजियत का ये फॉर्मूला आज हम भारतीय अपने मत्थे लिए ढो रहे हैं।

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प्रतिशोध भाग ४ : अवसान…!!!

अवसान….!!! अंधेरे का रंग ज्यादा गाढ़ा और गहरा होता है। कुविचारों का प्रभाव भी सुविचारों पर जल्दी ही होने लगता है। अविनाश के मन की नकारात्मकता भी उस पर पूरी

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प्रतिशोध भाग ३ : पश्चाताप…!!!

पश्चाताप….!!! इच्छित कार्य पूर्ण ना हो तो व्यक्ति कितना भी मजबूत क्यूं ना हो…एक आघात सा अवश्य लगता है। सुमन भी आजकल ऐसे ही दौर से गुज़र रही थी। सुमन

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प्रतिशोध भाग २ : अपराध बोध…!!

अपराध बोध…!!! अपमान के बादल आसानी से नहीं छटते। रोज़ यादों की ऐसी मूसलाधार बारिश करते हैं कि एक एक दिन गुजारना मुश्किल हो जाता है। अविनाश को भी लखनऊ

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प्रतिशोध भाग १ : प्रणय निवेदन…!!

प्रणय निवेदन….!!! शाम का समय। सूर्य क्षितिज पर उतरने को था। सुमन अपने छत के एक कोने में खड़ी मुस्कुराए जा रही थी। रोज़ सूर्य की लाली के सामने खड़े

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जमीन…!

गोधुलि बेला का वक़्त। आकाश की लालिमा किसी अशुभ घटना का संकेत लिए हुए रात्रि के अंधेरे में डूबने को व्याकुल हो रही थी। एक वृद्धा अपने पति के सिरहाने

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A Rainy Day With a Beautiful Girl…!!

सुबह के नौ बजे थे। मैं तैयार था स्कूल जाने को। आंगन में किसी के पायल की आवाज़ एक मधुर गीत का संचार कर रही थी। मेरी उत्सुकता ने बाहर

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बरसात की एक रात…!!!

ये बात है १२ जुलाई २०१७ की। ऋषभ अभी अभी अपने ऑफिस से घर पहुंचा ही था। रात के करीब आठ बज रहे थे। बारिश की हल्की हल्की फुहारें पड़

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आराध्या…एक प्रेम कहानी…!

आराध्या : एक प्रेम कहानी…!!! जीवन में किसी से पहली बार मुलाकात हो..ये संयोग हो सकता है। लेकिन उस “किसी” से ही दुबारा मुलाकात हो जाए…और मुलाकात ऐसी कि रोज़

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बाबू साहब..!!!

एक कहानी : बाबू साहब…!!! तपस्या, संकल्प सिद्ध करने का एक मात्र सर्वमान्य रास्ता है…मेरे विचार से। लेकिन एक वक़्त होता है…जब विमुखता आ जाती है…कर्तव्य मार्ग से, तप भाव

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कैसे प्रिय पर अधिकार करूं…??

रचना शीर्षक :” कैसे प्रिय पर अधिकार करूं : एक अन्तर्द्वन्द “________________________________________ तुम प्रेम गीत का राग चुनो,मैं कर्कश ध्वनि विस्तार करूं,प्रणय मिलन कैसे हो फिर,कैसे प्रिय पर अधिकार करूं…!

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हे मेघ…हृदय के भाव सुनो…!!!

हे मेघ…! हृदय के भाव सुनो…!!_________________________निर्जन वन के पुनर्सृजन को,हे मेघ…! घुमड़ के आ जाओ,मन की दुर्बलता पर सघन वृष्टि,बादल बन कर तुम छा जाओ…! विश्वास विकल दुर्बल हृदय,इस एकांत

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तुम सरल जरा बन कर देखो…!!!

जीवन पथ यदि कठिन लगे,तुम सरल ज़रा बन कर देखो,रस सुधा मात्र की होड़ मची,तुम गरल ज़रा बन कर देखो। क्षुधा नहीं मिट सकती,धन लोलुपता की आसानी से,सघन कपट के

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निः स्वार्थ प्रेम…!!!

मन की दीवारों के भीतर,मौन धरे वो कौन पड़ा..?अहम और निःस्वार्थ प्रेम में,हर क्षण सोचे है कौन बड़ा..?? निःस्वार्थ प्रेम की परिभाषा में,अहंकार का मान नहीं,फिर सबल रूप लेकर इस

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संवाद होना चाहिए…!!

रिश्तों की डोर में,हो तनाव जब ज्यादा,टूटने को आतुर,और खिचाव हो ज्यादा, बादलों का क्षितिज पर,इक झुकाव होना चाहिए…!तोड़ कर खामोशियां,संवाद होना चाहिए…!!तोड़ कर खामोशियां,संवाद होना चाहिए…!! अहम का वर्चस्व

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निर्भया…! तुझे जीना होगा…!!!

निर्भया..! तुझे जीना होगा…!हैं घूंट भले कड़वे इस जग के,घूंट घूट कर के ही पीना होगा,निर्भया..! तुझे जीना होगा…! है मिला कहां इंसाफ तुझे,तू तो अब भी बस शोषित है,जो

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पिता…!!!

पिता…!!! विघ्न चुन लिए सभी,पथ सुपथ भी कर दिया,कठिनाइयों की चादरों को,खुद वरण ही कर लिया…! स्वयं को अभाव दे,हमें संवारते रहे,खुद के मन को मारकर,हमें जीवंत कर दिया…! विलाप

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संबंधों में अपनापन हो…!!!

शीर्षक : “संबंधों में अपनापन हो” रिश्तों के उपवन में जब,मधुर पुष्प का सूनापन हो,प्रेम वृक्ष का अवरोपड़ हो,और संबंधों में अपनापन हो…! धन कुबेर की चाह लिए,सब व्याकुल मन

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अधूरा प्रेम.!!

अधूरा प्रेम…!!! बंजर मन के इस उपवन को,मैं सींच सींच कर हार गया…!उत्साह प्रेम जो हृदय बसा,थक कर अब वो भी हार गया…!! मेरे जीवन की, हर एक घड़ी,तब व्याकुल

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चलते रहना ही जीवन है…!

शीर्षक : “चलते रहना ही जीवन है” देख हिमालय सी कठिनाई,क्यूं राहों का परित्याग किया,अथक परिश्रम करते करते,बढ़ते रहना ही जीवन है…!चलते रहना ही जीवन है…!! ठहराव अगर जल में

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बस यूं ही…!

देखो ढल गया है दिन…और शायद तुम भी…मेरे जीवन में…! पर इक आस तो बाकी है…शायद…फिर से निकले ये सूरज,शायद…फिर से हो इक सवेरा,मेरे जीवन में…! देखो…ढल गया है दिन….ठीक

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सुमन शूल में श्रेष्ठ कौन…??

कैसा स्वभाव है मानव का,सब चाह करे बस फूलों की…!शाखों का मान करे कोई क्यूं,अस्तित्व भला क्या शूलों की…!! सोचो बिन शाखों कांटों के,ये सुमन भला कैसे जीते…!मन के अंदर

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सवाल…!!!

आज फिर तेरा खयाल आया,बेवजह मन में इक सवाल आया…! कल साथ थे जो गर,अब दूर कैसे हो…?है इश्क़ गर मुझसे,मजबूर कैसे हो…?तेरी आवाज़ की गूंजें,मेरे संगीत की सरगम,मुझे तन्हाइयां

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बचपन…!!!

जब अभाव के सागर में,संघर्ष पिता का अथक रहा,खुद के सुख से हर क्षण उनका,जीवन जैसे हो पृथक रहा,मैं हठ के भाव से प्रेरित तब,कैसे खुद से अब न्याय करूं?कैसे

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स्मृति अब अवशेष नहीं…!!!

स्मृति अब अवशेष नहीं,स्मृति अब अवशेष नहीं…!!! सृजित हुई यादें तेरी,इक पल में भी इक काल सदृश,घोर शीत के ऋतु के मध्य,थी जैसे कोई शाल सदृश,मैं चकोर सा व्याकुल,मुख मंडल

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अशांत मन…!!

अशांत मन… मन का युद्ध स्वयं के मन से,जीत भला कैसे होगी…!विमुख हुए अपने वादों से.,प्रीत भला कैसे होगी…! मौन शब्द का अर्थ…अगर ना समझो तुम…हृदय मध्य का मर्म…अगर ना

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तब गांव हमें अपनाता है…!!!

रचना शीर्षक : “तब गांव हमें अपनाता है…!!!”__________________________________ ग्रामीण भाव की धारा में,जब शहर कोई बह जाता है,शहरी होने का दंभ हृदय से,मिट्टी सा बन रह जाता है, तब गांव

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