दो चम्मच शक्कर…!!!
“प्रीती….चाय बन गई है…आ जाओ जल्दी से।” मानसी ने शाम होते ही आवाज़ लगा दी। मानसी और प्रीती को मानों रोज़ ऐसी ही आवाज़ सुनने की आदत सी हो गई थी।
मानसी जैसे ही बरामदे में चाय की ट्रे लेकर पहुंची… प्रीती पहले से वहां बैठी हुई थी। अब इसे चाय के प्रति सम्मान की भावना कहें या दोनों के मध्य उत्पन्न हो चुके आत्मीय प्रेम में समर्पण का भाव…चाय की पुकार पर कभी भी मानसी या प्रीती की ओर से कोई भी देरी या कोई भी इंतजार संभव ही नहीं था।
अभी पहली ही चुस्की ली थी दोनों ने…. कि मानसी उठ खड़ी हुई और प्रीती के हांथों से कप ले लिया।
“अरे क्या हुआ दीदी….???” प्रीती समझ ही नहीं पाई।
“सॉरी यार…बहुत मीठी हो गई है चाय। भूल से एक की जगह दो चम्मच शक्कर डल गई। क्या हो गया है मुझको…?? रुको…मैं दूसरी बना के ले आती हूं।” मानसी के चेहरे पर एक सशंकित भय के बादल व्याप्त थे…मानों कोई अपराध हो गया हो उससे।
“अरे दीदी…बहुत अच्छी चाय है। बस थोड़ी मीठी ज्यादा है आज। वैसे दीदी…एक बात कहूं…शक्कर चाय को कभी मीठी कर ही नहीं सकती। ये तो आपका प्यार है मेरे लिए…जो ये चाय इतनी मीठी लग रही है।” असीम प्रेम के भाव थे…प्रीती के इस कथन में।
वैसे तो प्रेम भाव से उत्पन्न हुए प्रीती के इस बात पर, मानसी क्षण भर के लिए मुस्कुराई जरूर थी…लेकिन अचानक वो बिल्कुल उदास हो गई और बैठे बैठे एक स्वप्न में खो गई…………!!!!
“मानसी…एक कप चाय मिल सकती है क्या…??” अमित अभी अभी ऑफिस से घर पहुंचा था।
अमित…मानसी का पति…एक कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट है। वैसे तो उच्च शिक्षित और एक संभ्रांत परिवार से संबंध रखता है अमित…लेकिन बात बात में क्रोध के वशीभूत हो जाना…अपशब्दों की बौछार कर देना…आपा खो बैठना…अमित के स्वभाव में है।
“हां…बस अभी ले आयी…! तुम फ्रेश हो लो।” मानसी की चाय करीब करीब तैयार ही थी।
“कैसा रहा दिन…??” मानसी ने अमित को चाय देते हुए पूछा।
अमित ने कोई जवाब ना देते हुए पहली ही चुस्की ली थी कि,
“अरे यार…तुम्हे इस जन्म में चाय बनाने नहीं आयेगी। महीने भर का शक्कर इसी एक कप में डाल दिया है क्या तुमने।” अमित गुस्से से मानों लाल हो चुका था।
“अमित…ये तो मेरा प्रेम है इस कप में…जो ये इतनी मीठी लग रही है…शक्कर तो बस दो चम्मच ही डाली है मैंने।” मानसी ने अमित के गुस्से पर अपने प्रेम की चादर बिछा देने की कोशिश की।
गरम चाय मानसी के हांथों पर जा गिरी…और चाय की प्याली कई टुकड़ों में जमीन पर बिखर गई।
“असल में गलती तुम्हारी नहीं है…तुम्हारे मां बाप की है। जाहिल बना कर बांध दिया मेरे मत्थे। चाय बनाना तक नहीं सिखाया। पूरे दिन ऑफिस में माथा खराब कर के घर आओ…और फिर तुमको झेलो। किस मनहूस घड़ी में तुमसे मेरा विवाह हुआ… हे भगवान…!!!” अमित का गुस्सा सातवें आसमान पर था।
मानसी स्तब्ध और भयाक्रांत चुपचाप खड़ी रही। अपने हांथों में पड़े छालों पर तो उसकी नज़र ही नहीं गई। अश्रुपूरित आंखों और जले हुए हांथों से कप के टुकड़ों को उठाती मानसी अपनी मां की यादों में खो गई…….
“बेटा…घर का काम मत सीख…!! जब शादी के बाद पति खाना मांगेगा तो बस यही गाना बजाना परोस देना…। एक कप चाय तो बनाना सीख लो…मेरी नाक तो कटवा के ही रहोगी तुम ससुराल में…!” मां के ऐसे ताने सुनना अब मानसी की आदत सी हो गई थी। गाने का बहुत शौक था उसको।
“हां…हां…परोस दूंगी गाना ही। अब खुश….! वैसे भी मेरी शादी जहां होगी…वहां नौकरों की फौज़ होगी…माताश्री…! रानी बन के रहूंगी मैं…रानी…।” मानसी और उसकी मां के बीच ऐसे वाद विवाद होना एक आम बात थी।
“अरे फिर सुबह सुबह शुरू हो गई…मेरी प्यारी बिटिया को कोसने का कोई भी मौका मत छोड़ो।” मां बेटी के इस विवाद में मानसी के पापा बिना बुलाए ही कूद पड़े थे।
“मेरी बेटी नहीं…मेरा बेटा है ये…क्यूं बनाएगी ये खाना…इसका पति बनाएगा…और अपने प्यार भरे हांथों से खिलाएगा भी। काशी नरेश के खानदान में करूंगा अपने बेटी की शादी…मैं। मानसी की मम्मी…शास्त्रीय संगीत की संध्या में जब मेरी बेटी अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही होगी ना…तुम्हारे जैसे चाय बनाने वाले तब इससे मिलने को तरसेंगे…!!!” मानसी का भरपूर पक्ष ले लिया था उसके पापा ने।
“बिगाड़ लो…बेटी को…मेरा क्या है..!! तुम भी चले जाना ससुराल साथ निभाने…! जिसका घर चूता है ना…उसी को छवाना पड़ता हूं….।” मानसी की मां ने हथियार डाल दिए थे।
हमारे समाज की भी एक अलग ही परिपाटी है…एक अलग ही विडंबना है। यहां स्त्री को पूज्य माना जाता है…लेकिन तब जब वो सर्व गुण संपन्न हो। उसे खाना बनाना आता हो…वो भी अच्छा खाना। उसे घर के सारे काम हंसते हुए करने होते हैं। मां सबसे पहले अपनी बेटी को ही रसोई में आने को प्रेरित करती है। मां के हांथ से छूटा बेलन सबसे पहले बेटी के हांथ में ही आता है।
लेकिन बेटे के हांथों में क्यूं नहीं???
इस सवाल का जवाब व्यक्तिगत तौर पर शायद नहीं दे सकता मैं। मेरा अहंकारपूर्ण पुरुषत्व मुझे इसकी आज्ञा नहीं देता। हां…लेकिन एक लेखक के तौर पर…अवश्य कुछ कह सकता हूं।
शायद, ये व्यवस्था किसी पुरुष ने ही लिखी होगी। शायद फिर बलात अपनी इस व्यवस्था का पालन भी सुनिश्चित करवाया होगा। शायद, हर मां को मजबूर किया होगा…इस पुरुष प्रधान समाज को स्वीकार करने के लिए। शायद, यह भी कहा हो… हे मां…तेरा कर्तव्य सिर्फ पुरुष को जन्म देने के साथ ही पूर्ण हुआ…अब तुझे उसी पुरुष के बनाए नियमों पर चलना होगा। शायद, दमन कर दिया होगा…एक स्त्री के सभी उन्मुक्त विचारों को…जो उसके अंतर्मन में उत्पन्न हुए होंगे।
फिर किसी मां ने इसका विरोध क्यूं नहीं किया…?? क्यूं नहीं कहा… कि खाना बनाना एक कार्य नहीं…एक कला है… जो समान रूप से बेटे और बेटी दोनों को सीखना होगा। क्यूं नहीं कहा कि पुरुष और स्त्री, एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं…दोनों एक दूसरे के बिना पूर्ण नहीं। क्यूं नहीं बताया कि…चाय की मिठास शक्कर से नहीं…दो लोगों के आत्मीय प्रेम से होती है।
अपने ही स्वप्नों में खोई मानसी को अमित ने बांह पकड़ के ऐसे जोर से झकझोर दिया…मानो आज अमित के उपर तो जैसे कोई शैतान ही सवार हो गया हो।
मानसी चौंक गई। स्वप्न लोक से बाहर आ गई थी वो।
“अरे दीदी…क्या हुआ??? कहां खो गई आप??” प्रीती, मानसी की बांह पकड़े उसे स्वप्न से जागते हुए बोली….
“ऐसा क्या सोचने लगी दीदी…दो चम्मच शक्कर ही तो है….कौन सी बड़ी बात हो गई…?? अच्छा मैं चलती हूं…कल की चाय मैं बनाऊंगी…! और बिना शक्कर की फीकी चाय पिलाऊंगी आपको….!!!” प्रीती मुस्कुराती हुई अपने घर की ओर चल दी।
जारी है……………
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02
- ऋषि देव तिवारी
- सहायक प्रबंधक
- भारतीय स्टेट बैंक
- [email protected]
- L-4, NAI BASTI RAMAI PATTI MIRZAPUR UTTAR PRADESH BHARAT DESH PIN 231001