प्रणय निवेदन….!!!
शाम का समय। सूर्य क्षितिज पर उतरने को था। सुमन अपने छत के एक कोने में खड़ी मुस्कुराए जा रही थी। रोज़ सूर्य की लाली के सामने खड़े होकर मुस्कुराना अब सुमन की आदत में शुमार था। वैसे तो सुमन मोहल्ले के तमाम नौजवानों के मुस्कुराहट का एक जरिया थी, लेकिन आज कल सुमन की मुस्कुराहट का कारण था…उसके सामने की छत पर खड़ा एक छः फुटा नौजवान अविनाश। अविनाश अभी अभी एमबीए की पढ़ाई करने लखनऊ पहुंचा था। कुछ एक माह से अविनाश और सुमन के मनोभाव, रोज़ एक दूसरे को खामोश आंखों से पढ़ने व समझने की कोशिश कर रहे थे।
करीब उन्नीस वर्ष की सुमन, अपने कौमार्य की आभा, सूर्य की सुनहरी लालिमा की तरह अनायास ही अपने चारो तरफ बिखेर देती थी। उसके चेहरे का तेज़, मानों पूर्ण चन्द्र के समान अद्भुत व प्रकाश वान सा प्रतीत होता था। अपने नाम के ही अनुरूप, पुष्प के समान आकर्षक सुमन, अपने हृदय पटल पर अविनाश का नाम अंकित कर चुकी थी। अब सुमन को तलाश थी तो बस एक मौके की… कि कैसे वो अपने मन के भावों से अविनाश को परिचित करा सके। अपना प्रणय निवेदन अविनाश को समर्पित कर सके।
वैसे तो अब तक अविनाश भी सुमन के खामोश प्रेम से पूर्णतया वाक़िफ हो गया था, परंतु दोनों के ही हृदय में बैठा एक अनजान सा डर, प्रणय भाव व्यक्त कर पाने में एक दीवार की भूमिका निभा रहा था।
बड़े मंगल का भंडारा लगा हुआ था। अविनाश प्रसाद लेने लाइन में लगा ही हुआ था। तभी उसे महसूस हुआ कि कोई उसे पीछे से देख रहा है। वो सुमन ही थी। मुस्कुराती सुमन की आंखों ने अविनाश से बिन कुछ कहे ही केह दिया था कि आज मुझे तुम्हारा थोड़ा सा वक़्त चाहिए। दोनों निकल पड़े थे आलमबाग से चिनहट वाली सिटी बस में सवार हो कर अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए।
“क्या इतना ही आसान था दोनों का इश्क़, जो आज इतनी आसानी से व्यक्त हो गया। क्यूं मैंने पिछले ढाई माह से अपने भावनाओं को व्यक्त नहीं किया। अविनाश ने भी तो कुछ नहीं कहा। वो तो लड़का है…आगे आ के बोल सकता था। लेकिन नहीं… मैं लड़की हो के बोलूं…वो सही है।” घर लौटते वक्त कुछ ऐसे ही सवाल सुमन के मन में चल रहे थे। लेकिन सुमन और अविनाश दोनों की ही खुशी का ठिकाना नहीं था आज। अब दोनों एक दूसरे से रोज मिलते थे, बातें करते थे, घंटों साथ रहना, घूमना फिरना अब उनकी दिनचर्या में शामिल था। करीब सात आठ महीनों के साथ में ही , सुमन ने अविनाश से असंख्य वादे कर डाले थे। अविनाश भी अब सुमन की बातों का आंख बंद कर विश्वास करता था।
“हैलो…सुमन…!” अविनाश ने फोन किया।
“हां…बोलिए जनाब…!!” सुमन ने एक कृत्रिम हंसी के साथ जवाब दिया।
“यार एक सरप्राइज है… मैं तुम्हारे घर के बाहर खड़ा हूं…! गेट तो खोलो..!”
“अरे…मजाक मत करो अविनाश। मैं नहीं आ सकती। घर पर पापा, मम्मी, भैया भाभी सभी हैं। तुम जाओ।” सुमन ने आश्चर्यचकित भाव से बोला।
“अरे यार… मैं भी क्या तुमसे मिलने आया हूं क्या…मेरे पापा आएं हैं मेरे साथ…आज तुम्हारे घर वालों से मिलने। आओ दरवाजा खोलो।” अविनाश ने अधिकार भरे लहजे में जैसे सुमन को एक आदेश सा दिया।
एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता था अविनाश। अविनाश के पापा रेलवे में एक क्लर्क थे। बड़ी मुश्किल से आज उसने अपने पापा को सुमन से शादी करने के लिए तैयार कर पाया था और अचानक ही ले आया था उन्हें सीधे सुमन के घर…सुमन का हांथ मांगने। अविनाश के पिता थोड़ा संकोच में थे। और हों भी क्यूं नहीं…एक बनी बनाई सामाजिक रीति के विरूद्ध ही तो आज आए थे वहां वो। हमारे समाज में तो लड़की वाले जाते हैं..लड़कों के यहां..शादी की बात करने। लेकिन अविनाश और उसके पिता दोनों ही ऐसी रूढ़िवादी विचारधारा से बैर रखते थे। सुमन के घर के सभी सदस्य बैठे थे वहां…बस नहीं थी तो सुमन। अविनाश की आंखे हर क्षण उसे ही ढूंढ़ रही थी। सुमन के घर के सभी सदस्यों को अविनाश ने प्रभावित कर लिया था।
तभी अचानक सुमन वहां आयी और बिल्कुल खामोशी से अपनी भाभी के बगल में बैठ गई। जैसे उसने अविनाश को देखा ही नहीं और ना ही अविनाश के पापा को।
“अरे सुमन…पैर छू कर आशीर्वाद तो लो..! देखा नहीं तुमने अंकल आए हैं। तुमने कभी बताया नहीं कि तुम और अविनाश एक दूसरे को पसंद करते हो। भई…हम सबको तो अविनाश बहुत पसंद है।” सुमन के पिता जी बोले जा रहे थे। लेकिन सुमन के चेहरे पर जैसे खुशी के कोई भाव ही नहीं थे। अविनाश और अविनाश के पापा दोनों ही सुमन के इस व्यवहार से आश्चर्य में थे।
“पापा… अगर आप लोगों का पारिवारिक मिलन हो चुका हो तो… मैं अविनाश से अकेले में कुछ बात करना चाहती हूं।” मन के ज्वार मानों सुमन के मुख से बाहर आए थे। एक अजीब सा सन्नाटा छा गया घर के उस हाल में। सुमन खड़ी हुई और अविनाश को इशारा किया…उठ कर आने के लिए।
शाम का समय था। संयोग कुछ यूं कि…जहां खड़ी होकर सुमन रोज़ अविनाश को दूर से निहारा करती थी…आज उसी छत पर दोनों एक साथ थे। लेकिन अविनाश को आज सुमन खुद से बहुत दूर खड़ी नज़र आ रही थी।
“देखो अविनाश… मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती। प्यार व्यार तक तो ठीक है…लेकिन मेरी लाइफ के भी कुछ मायने हैं। कुछ सपने हैं मेरे।” अविनाश स्तब्ध आंखों से बिल्कुल मूक…बस सुने जा रहा था।
“मुझे ऐसी मीडियम क्लास लाइफ नहीं जीनी। शादी करो…बच्चे करो..हो गया जीवन समाप्त। तुम्हे यहां आने से पहले एक बार मुझसे पूछना चाहिए था। बस मुंह उठा के चले आए।” सुमन की आंखों में आसूं थे।
“फिर वो सब साथ रहने के वादे…क्या सब झूठ थे???” अविनाश के दुखी मन से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े।
“यार…प्यार तो हम जानवरों से भी करते हैं…तो क्या शादी कर लें?? मैं एक हाई स्टैंडर्ड लाइफ जीना चाहती हूं। पैसे रुपए गाड़ी बंगले। वर्ल्ड टूर करना है मुझे। मेरी शादी उससे होगी जो ये सब सपने पूरे कर पाए। है ये सब तुम्हारे बस का??? बोलो??? बस एम बी ए कर लिए… दस बीस पच्चीस हजार की नौकरी पा लिए और आ गए शादी करने। तुमसे प्यार करना सिर्फ एक जरिया था… कि मैं अपने अधूरेपन को दूर कर सकूं…बातें कर सकूं…अपना समय गुजार सकूं। लेकिन तुम लड़कों को समझ ही नहीं आता। चले आए घर पर…मुझे अपने परिवार वालों की नजरों में गिराने..!” सुमन बोलती ही जा रही थी। अविनाश को यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही सुमन है। दोनों एक दूसरे की ओर देखते बस खामोश से खड़े थे।
तभी अविनाश ने अपनी चुप्पी तोड़ी।
” सुमन…तुम परेशान मत हो…! किसी की नजरों से नहीं गिरोगी तुम। जा रहा हूं मैं।” अविनाश अपने क्रोध का घूंट पिए नीचे की ओर आया। सभी के पैर छुवे और अपने पिता जी को साथ लेकर चलते हुए बस इतना ही बोल पाया,
“अंकल…मेरी गलती है…आप लोग सुमन को गलत मत समझना। मैं उसके योग्य नहीं। क्षमा कर दीजिए हमको।”
अविनाश निःशब्द था। अपने पिता जी की बातों को याद कर रहा था शायद…” बेटा जी…ये प्यार व्यार कुछ नहीं होता। मात्र क्षणिक आकर्षण ही तो होता है। किसी को देखने, साथ कुछ दिन व्यतीत कर लेने से प्रेम कभी पूर्ण नहीं होता। तीनों युगों में प्रेम तो सिर्फ कृष्ण और राधा था। कुछ भी पाने की भावना नहीं थी वहां…सिर्फ त्याग था, वैवाहिक बंधनों से मुक्त… निष्काम..! पूज्य है वो प्रेम!”
दूसरे ही क्षण अविनाश के अंतर्मन ने उसे धिक्कारा।
“यही प्रेम किया तुमने। ऐसी ही विश्वास की डोर थी तुम दोनों के बीच। छिः…!!! कैसा अपमान किया तुम्हारा। प्रेम का कोई मूल्य नहीं है…इस सुमन को…तुम्हारी सुमन को। जानवरों से तुलना कर दी तुम्हारी। तुम्हारे पिता जी का कैसा अपमान किया। और तूने क्या किया। अविनाश, सुमन के योग्य नहीं। उसकी कोई गलती नहीं। धिक्कार है तुझे अविनाश। अपना ना सही अपने पिता जी के अपमान का बदला लेना होगा तुझको। अपनी भावनाओं के साथ खेलने वाले को ऐसे ही छोड़ दोगे क्या?? क्या सोच रहे हो??बोलते क्यूं नहीं??” उसका अंतर्मन मानों खेल रहा था अविनाश के मन से।
“हां… वो ऐसा नहीं कर सकती…!!! मैं अपने अपमान का बदला लूंगा सुमन से..!!” अविनाश ने खुद से एक प्रतिज्ञा ले ली थी। और चल पड़ा था अपने घर की ओर…गोरखपुर की बस में….!!!!
कहानी अभी जारी है….पढ़े भाग -२ में….जल्द ही आएगा।
🙏
Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02
- ऋषि देव तिवारी
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