कविता
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तुम कैसे हो?
अब नहीं कह पाती हूँ,
जीवन की आपा -थापी में
निश्चल अनुराग के इस बंधन में
संग पीरों कर तुझ संग,
अपने मन के तारों से
अक्सर उलझ-उलझ कर मैं,
आस की तस्वीर लिए ,
यादों के तट से तटिनी बन कर,
कह न सकी तुमसे ये
“मेरे जीवन हो”
या जीवन जैसे हो |
प्रीत की धारा में बह कर
कल्पना के सागर में ,
सर्द हवाओ में,
ठिठुरती आँगन में पड़ती धूप हो !
या वक्त की क्यारी में सिमटे हुए
तन्हाईयों के दामन से लिपटे
मेरी आँखों में बसे स्वप्न जैसे
जाने कैसे हो ?
अब नहीं कह पाती हूँ
कि तुम कैसे हो?
तुम कैसे हो ?
डॉ कविता यादव
Last Updated on January 19, 2021 by drkavitayadav42
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