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प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता

  कविता 

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तुम कैसे हो?

अब नहीं कह पाती हूँ, 

जीवन की आपा -थापी में 

निश्चल अनुराग के इस बंधन में 

संग पीरों कर तुझ संग,

अपने मन के तारों से 

अक्सर उलझ-उलझ कर मैं, 

आस की तस्वीर लिए ,

यादों के तट से तटिनी बन कर, 

कह न सकी तुमसे ये 

“मेरे जीवन हो”

या जीवन जैसे हो |

प्रीत की धारा में बह कर 

कल्पना के सागर में ,

सर्द हवाओ में, 

ठिठुरती आँगन में पड़ती धूप हो !

या वक्त की क्यारी में सिमटे हुए 

तन्हाईयों के दामन से लिपटे 

मेरी आँखों में बसे स्वप्न जैसे 

जाने कैसे हो ? 

अब नहीं कह  पाती हूँ 

कि तुम कैसे हो?

तुम कैसे हो ?

डॉ कविता यादव