पथिक (नवगीत)
जो सदा अस्तित्व से
अबतक लड़ा है।
वृक्ष से मुरझा के
पत्ता ये झड़ा है।
चीर कर
फेनिल धवल
कुहरे की चद्दर,
अव्यवस्थित से
लपेटे तन पे खद्दर,
चूमने
कुहरे में डूबे
उस क्षितिज को,
यह पथिक
निर्द्वन्द्व हो कर
चल पड़ा है।
हड्डियों को
कँपकँपाती
ये है भोर,
शांत रजनी सी
प्रकृति में
है न थोड़ा शोर,
वो भला इन सब से
विचलित क्यों रुकेगा?
दूर जाने के लिए
ही जो अड़ा है।
ठूंठ से जो वृक्ष हैं
पतझड़ के मारे,
वे ही साक्षी
इस महा यात्रा
के सारे,
हे पथिक चलते रहो
रुकना नहीं तुम,
तुमको लेने ही
वहाँ कोई खड़ा है।
जीव का परब्रह्म में
होना समाहित,
सृष्टी की धारा
सतत ये है
प्रवाहित,
लक्ष्य पाने की ललक
रुकने नहीं दे,
प्रेम ये
शाश्वत मिलन का
ही बड़ा है।
बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया
Last Updated on November 27, 2020 by basudeo
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