न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

महिला दिवस पर आयोजित काव्य प्रतियोगिता हेतु

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(1)
औरतें प्रेम में तैरने से प्यार करती हैं
*****

ऐसा नहीं था कि वह रोमांटिक नही थी.. पर दमन भी तो था उतना ही

तुम्हें देख बह निकली…अदम्य वेग से समन्दर को लपकती है जैसे नदी

अब जब विचारणा मस्तिक से गायब है कुड़कुड़ाहट बेचैनी शांत है
तुम्हे रख लिया है उसने सम्भालकर हथेली के छाले की तरह

पता है उसे प्रेम उसका अर्पित है सदा-सदा के लिए अंकुरा गई है फिर भी
उसकी आशाएं,आकांक्षाएं फिर से बादलों की फुईयों से गुंजायमान हो उठी हो घाटी जैसे तुम्हें प्यार करते वह घाटी के विस्तार को पार कर चुकी है
गहराई में डूब गई है दोहराते हुवे प्रेम उसके पोर-पोर से किरणों के सदृश्य फूटता है प्रेम

तुम्हे प्यार करते हुए पहली बार जाना उसने औरतें प्रेम में तैरने से प्यार करती हैं औरतें प्रेम के लिए जीती हैं औरतें प्रेम के लिए मरती हैं…!

2)
‘बन्द घड़ी के’
*****
मन की गहराइयों में
विरक्ति की पृष्ठभूमि ने
अपना धुगिया सुलगा लिया…
दुनिया भर की
उदास-उदास सी भावनायें
आ पहुँचती
कहाँ गई वो तेरी बोल बतरान..
किधर गया तेरा घूमना-फिरना..
..तू न अब गाती है
न कोई शौक करती है..
मुस्कुराहट तेरी
न घटती है
न बढ़ती है
..स्थिर है
बन्द घड़ी के
काँटो की तरह…!

3)
मुझे नहीं पता

*****

सोचती हूँ…
क्या सोचती हूँ…. क्यूँ सोचती हूँ नही पता…

हाँ,नही पता मुझे कि गहरे आकाश के अंत:तल में उतरती गोल मेखलाओं पर

मेरे मन का शहर क्यूँ बसा है…
हर रात…जब वो
अपनी आधी उम्र तैर चुकी होती है, दूर…बहुत दूर खड़ा कोई पहाड़ इक धुन छेड़ता है और मैं बावरी..उठकर चल पड़ती हूँ
उसके पीछे..पीछे..पीछे.. पहाड़ पुकारना तो नही चाहता मगर पुकार लेता है
पर याद नही रहते उसके अनगिन बार गुनगुनाये गीत
याद नही रहती…उसकी वो मदलसायी धुन जो बिना अनुमति उतर जाती है मेरी देह की अजानी उपत्यकाओं के नीरव बीहड़ में यात्रा की उस अदृश्य डोर के पीछे-पीछे… मेरे पांव बेरोक उठते चले जाते हैं चारों तरफ फैली है बर्फ की काली सिहरन जो तलवों में सीधे पैबस्त हो जाती ..और फैल जाती है पूरे वजूद में
दरवाजे-खिड़कियां बन्द..बत्तियां सोई हुई मानो स्टेच्यू-स्टेच्यू खेलते सारी क़ायनात ठहर गयी हो मगर मदलसायी धुन की तान कम नही होती
नही रुकते पांव उनींदी आंखे…बाहर कुछ भी टटोलने में नाकामयाब होकर बार बार लौटकर थक चुकी हैं

कुछ भी तो नही…
बस,मानुषी रोशनियाँ कहीं-कहीं जगमगा रहीं लौट चलने की बेला हो चली है शायद..
पर कहां… क्यूँ ?? नही पता मुझे…!

4)
पकती औरत
****
खाली …बेरंग…बेबस कैनवास सी मीलों लम्बी सड़क के साथ – साथ पड़ी लावारिश ज़मीन सी एक पकती औरत

प्रेम संवाद खुद से भी तो नही करती

बिना बोले चुपके से अपने कानों में दुहरा लेती है
या सहमकर चटख रंग पहनने लगती है
और नहीं तो अकेले में रो-रो लेती है…!

वसुन्धरा पाण्डेय
फीचर एडिटर नेशनल फ्रंटियर
[email protected]
प्रकाशन- शब्द नदी है (कविता संग्रह, बोधि प्रकाशन जयपुर)
साझा संकलन-सारांश समय का /स्त्री होकर सवाल करती है/सुनो समय जो कहता है
दैनिक जागरण,कथादेश,साहित्य अमृत तथा अन्य समाचार पत्र पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित।

139 गंगापुरम आवास कॉलोनी
किशोरीलाल पीजी कॉलेज के सामने
एडीए रोड नैनी,प्रयागराज
पिन कोड -211008

Last Updated on January 20, 2021 by vasundhara.pandey

  • वसुन्धरा पाण्डेय
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3 thoughts on “महिला दिवस पर आयोजित काव्य प्रतियोगिता हेतु”

  1. गौरव अवस्थी

    वसुंधरा पांडे जी की कविताएं भाव पूर्वक लिखी गई है शब्द शिल्प भी बहुत अच्छा है इन कविताओं के अच्छे संदेश पाठकों तक पहुंच रहे हैं

    1. वसुंधरा जो को अकसर पढ़ा हमने,, बेहद उम्दा शब्द विन्यास,, उनकी कवितायेँ दिल की गहराई को छूते हैं,, पाठक खुद को उनकी रचना से कनेक्ट कर पाता है,,,

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