“मालिक ! अब मुझे इस कर्ज़ से उऋण कर दीजिए। जितने रूपये मैंने आपसे लिए थे, उसके तीन गुना तो अबतक दे चुका हूँ। ” – हरिया, बाबू श्यामलाल के सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था। बाबू श्यामलाल जमींदार थे। वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर गाँव वालों को सूद पर पैसे भी लगाते थे। संतान के नाम पर एक ही लड़का था, जो शहर में पढ़ता था। कल वह दीवाली की छुट्टी में गाँव आने वाला था।
” जितने रुपये तूने अब तक दिए हैं, वो तो सूद में ही चले गये। मूलधन तो अभी जस-का-तस पड़ा है। फिर तू ही बता, मैं तुझे कैसे उऋण कर दूँ? ” – बाबू श्यामलाल बोले।
” ऐसा अन्याय मत कीजिए, मालिक। जिस बेटे की बीमारी में मैंने आपसे रुपये लिए थे, उसे भी भगवान ने छीन लिया। थोड़ी बहुत ज़मीन थी, वह भी बिक गई। अब मेरे पास बचा ही क्या है, सिवाय इस घर के ? ” – हरिया बोलते-बोलते रोने लगा था।
“तो बेच दे घर, और मुक्ति पा ले इस ऋण से…।” – बाबू श्यामलाल ने बड़ी निर्दयता से उसकी ओर देखते हए कहा। हरिया गरीब जरूर था, पर आजतक उसने किसी का एक रुपया भी नहीं रखा था। उसने सोचा…अब पास में है ही क्या…और बचाकर रखें भी, तो किसके लिए ?
दूसरे ही दिन वह घर की ज़मीन के कागज़ात लेकर बाबू श्यामलाल के घर की ओर चल पड़ा। अभी कुछ दूर ही आया होगा कि सड़क किनारे से किसी के कराहने की आवाज़ ने उसके बढ़ते कदमों को रोक लिया। पास जाकर देखा तो एक नौजवान लड़का औंधे मुँह गिरा हुआ था और उसके सिर से खून निकल रहा था। सड़क पर कुचली हुई मोटर साइकिल पड़ी थी और बैग-जूते बिखरे हुए थे…! हरिया दौड़कर उसके नजदीक गया और ज्योंही उस लड़के को देखा, तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। उसने सड़क की दोनों तरफ नज़र दौड़ाई, पर कहीं कोई गाड़ी आती न देख, उसे अपने काँधे पर लादकर तेजी से अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा…..। बाबू श्यामलाल को जब इस बात का पता चला, तो वह भी दौड़ते-हाँफते बदहवास-से अस्पताल पहुँचे। डाक्टर ने बताया कि अगर थोड़ी भी देर हो जाती, तो उसे बचा पाना मुश्किल था। वो तो भला मनाइए उस देवता का जिसने सही समय पर आपके लड़के को यहाँ पहुँचाया और अपना खून देकर उसे बचाया।
बाबू श्यामलाल ने बेड पर पड़े अपने बेटे को देखा। उसके सिर पर पट्टी बँधी हुई थी। पास ही बेड पर हरिया लेटा हुआ था और उसका खून बेटे को चढ़ाया जा रहा था। श्यामलाल हरिया के पास गये और उसकी बेड पर बैठ गये। हरिया ने सिरहाने से घर की ज़मीन के कागज़ात निकाले और बाबू श्यामलाल को देते हुए हाथ जोड़ लिए – ” मालिक ! अब मुझे इस कर्ज़ से उऋण कर दीजिए।” बाबू श्यामलाल की आँखों से अश्रुधार बह चली। उन्होंने हरिया का हाथ पकड़ लिया और हरिया को उसकी ज़मीन के कागज़ात लौटाते हुए कहा – “हरिया! मुझे माफ़ कर दे।….तू तो उऋण हो गया। पर, तूने मुझे आजीवन अपना सबसे बड़ा कर्ज़दार बना लिया। अब मैं इस कर्ज़ से कैसे उऋण होऊँगा….? “
मैं प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी मौलिक और अप्रकाशित रचना है।
_______ राकेश कुमार पंडित
Last Updated on February 12, 2021 by rakeshjnd01
- राकेश कुमार पंडित
- सहायक शिक्षक
- राजकीय अम्बेदकर आवासीय बालिका उच्च विद्यालय हरपुर ऐलौथ समस्तीपुर
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- पिता- श्री सत्य नारायण पंडित, ग्राम- हीरपुर, पोस्ट- जन्दाहा, जिला- वैशाली राज्य- बिहार पिन कोड- 844505