न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

बाल साहित्य और मनोविज्ञान

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पोपट भावराव बिरारी
सहायक प्राध्यापक
कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला,
विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नासिक
ईमेल – [email protected], मो. – 9850391121

सार

बाल साहित्य का आधार बाल मनोविज्ञान है। बालक के विकास में बाल साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण है। बाल साहित्य का अध्ययन करना बाल मनोविज्ञान के आधार तथ्यों की जानकारी के बगैर संभव नहीं है। बच्चों की रूचि एवं मनोवृति का सम्यक् ज्ञान बाल मनोविज्ञान के द्वारा प्राप्त होता है। बच्चों में कहानियों, गीतों एवं पुस्तकों के प्रति एक स्वाभाविक अभिरूचि होती है। बच्चों के मानसिक विकास एवं उनकी प्रगति हेतु बाल मनोविज्ञान को समझना वर्तमान समय की आवश्यकता है। यदि बाल मनोविज्ञान न होता तो बाल साहित्य का जन्म ही न हुआ होता। बच्चों में पढ़ने एवं ज्ञानार्जन करने की प्रवृत्ति ने एक अलग साहित्य विधा को जन्म दिया है; जिसको आज बाल साहित्य कहा जाता है। अनादि काल से कथा-कहानियों एवं लोरियों में बच्चों की विशेष रूचि रही हैं।

बाल साहित्य और मनोविज्ञान

बालक की अवस्था का मनोविज्ञान कीदृष्टि से तीन प्रकार से विभाजन है- १) शिशु अवस्था (तीन से छः-सात वर्ष की आयु तक) २) बाल्यावस्था (छः-सात से तेरह-चौदह वर्ष की आयु तक) ३) किशोरावस्था (तेरह-चौदह से सत्रह-अठारह वर्ष की आयु तक) बाल साहित्य के इन अवस्थाओं के अनुसार तीन भेद किए गए है। डॉ. श्रीप्रसाद के अनुसार-‘‘१) शिशु अवस्था के लिए शिशु-साहित्य २) बाल्यावस्था के लिए बाल साहित्य और ३) किशोरावस्था के लिए । मनोविज्ञानिक दृष्टि के विकास के साथ-साथ बाल साहित्यकारों से भी यह अपेक्षा की गई कि वे इन्हीं तीनों वयवर्गों को दृष्टि में रखकर बाल साहित्य की रचना करें।’’1 प्रारंभिक समय में मनोविज्ञानिक वयवर्ग की साहित्यकारों को यथावश्यक जानकारी नहीं थीं। इसलिए साहित्यकार पूर्ण बाल जीवन को दृष्टि में रखकर साहित्य सर्जन करते थे।

ऐसा अनुमान लगाया जाता है, कि रोते हुए बालक को मनाने की समस्या जब माता-पिता के सामने आई होंगी तब उस समस्या के समाधान हेतु कुछ गुनगुनाया गया होगा या रंग-बिरंगे पशु-पक्षियों, पेड़-पौधें, फूलों एवं रात्री के समय चाँद-तारों का आश्रय लिया होगा। अर्थात बालक को समझाने एवं उसका मनोरंजन करने हेतु विविध तरीके अपनाने की स्थिति बनी होगी तब क्रमशः उसमें विकास होकर बाल साहित्य का जन्म हुआ। प्राचीन युग विशेष का बाल साहित्य पुराण लोक कथाओं के रूप में दिखाई देता है। यह साहित्य सिर्फ बालकों के लिए नहीं अपितु मानव जीवन संघर्ष एवं सांस्कृतिक विकास का भी समायोजन है। इसमें बाल साहित्य के तत्व है। तथा अनेकानेक कहानियाँ बालोपयोगी रही है। बाल साहित्य के तत्वों का अध्ययन बाल मनोविज्ञान के अध्ययन एवं बालजीवन के निरीक्षण करने से संभव हो पाता है। इसलिए श्रेष्ठ बाल साहित्यकार बालकों के बीच रहकर उन अनुभूतियों को साहित्य में अभिव्यक्ति प्रदान करता है।

बाल साहित्य की सीमा अत्यंत विस्तृत है। डॉ. श्रीप्रसाद का मानना है कि ‘काव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, यात्रावृत, स्थान परिचय और रिपोतार्ज-सभी कुछ बाल साहित्य के अंतर्गत आता है और इन सभी विधाओं में बाल साहित्य की रचना होनी चाहिए।’ बाल साहित्य के अनेक उद्देश्य है। इसमें एक तरह से बाल जीवन का मनोरंजक अध्ययन होता है। बाल साहित्य का अध्ययन शिक्षाविदों के साथ-साथ बाल साहित्यकारो, बाल कल्याणकर्ताओं एवं अभिभावकों के लिए भी महत्वपूर्ण रहा है। मनोविज्ञान के अनुसार ‘‘बालकों में सभी कार्य करने की प्रवृत्तियां तो होती है, किंतु उसका स्फुरण स्वाभाविक रूप से नहीं, बल्कि दूसरों से सीखने पर होता है।’’2 बचपन में जो मुख्य प्रवृत्तियां होती है, उनके प्रति सजग होना बालक के विकास के लिए आवश्यक है। बालक में उत्सुकता, रचनात्मक प्रवृत्ति, उपार्जन प्रवृत्ति, आत्मप्रदर्शन की प्रवृत्ति, द्वंद्व की प्रवृत्ति, विनय कीप्रवृत्ति, स्पर्धा, सहानुभूति आदि प्रवृत्तियां आरंभ में प्रमुख होती है।

हिंदी साहित्य में बच्चों के लिए प्रारंभ में ‘पंचतंत्र’, ‘कथासरित्सागर’, ‘सिंहासनबत्तीसी’, ‘बैतालपच्चीसी’, ‘अलिफलैला’ आदि की कहानियाँ मौजूद थी। लोककथाएँ, भूत-प्रेत, ठगों एवं राजा-रानी की कहानियाँ ही मौलिक कहानियों के नाम पर प्रचलित थी। बच्चों के लिए स्वतंत्र रूप से पत्रों-‘शिशु’, ‘बालसखा’, ‘बालविनोद’ एवं ‘बालक’ आदि के प्रकाशकों ने साहित्यकारों को बच्चों के लिए अधिक मौलिक एवं रोचक कहानियाँ लिखने की ओर प्रवृत्त किया। महावीरप्रसाद द्विवेदी, शेख नईमुद्दीन मास्टर, प्रेमचंद, जहूरबख्श, स्वर्णसहोदर आदि लेखको ने बच्चों के लिए कहानियाँ लिखीं। इन कथाओं से बच्चों का बहुविध मनोरंजन होता था।

जिन लोककथाओं, परिकथाओं, पौराणिक कथाओं को आज प्रमुखतः बच्चों का साहित्य माना जाता है, वह साहित्य उस पौराणिक जीवन के चित्र दर्शाता है; जो आज के युग के लिए बच्चों को अंतर्बाह्य रूप से तैयार कर सके। डॉ. नगेंद्र का कथन है कि ‘‘हमें मनोविज्ञानिक व व्यावहारिक पृष्ठभूमि पर ऐसी कथाएं चाहिए, जो आज के धरातल पर, आज के बालपात्रों को लेकर, उनके स्वस्थ व सुखी जीवन के निर्माण के लिए रची गई हों-साथ ही वे इतनी सरल हों कि बच्चों के लिए सुगमता से ग्राह्य हो, इतनी मनोरंजक हों कि वे राक्षसों और जादूगरों की कहानियां भूल जाएं, और वे दैनिक जीवन से सामंजस्य भी स्थापित करती हों।’’3 ऐसी विचारधारा का अनेकानेक कथाकारों ने साथ दिया एवं बच्चों के लिए भावबोध की कथाएँ लिखी गई। इस दौर के उल्लेखनीय बाल कथाकारों में मनहर चौहान, महीपसिंह, अवतार सिंह, हरिकृष्ण तैलंग, शीला इंद्र, मालती जोशी, विष्णु प्रभाकर, मस्तराम कपूर, देवेश ठाकुर, हरिकृष्ण देवसरे, सत्यस्वरूप दत्त, राजेष जैन, मनोहर वर्मा, वीरकुमार अधीर, हसनजमाल घीपा, हमीदुल्लाखां आदि प्रमुख हैं। इन्होंने बच्चों के मनोविज्ञान को समझकर अपनी रचनाओं में उनकी समस्याओं को दर्शाया है तथा समस्याओं का समाधान भी प्रस्तुत किया है।

बाल मनोविज्ञान से जुड़ी अनेक बालकथाएँ लिखी गई है। मनहर चौहान द्वारा लिखित ‘शेर बच्चा’ इस कहानी संग्रह में लिखित कथाएँ मनोवैज्ञानिक समस्याओं को लेकर लिखी गई है। ‘शेर बच्चा’ की कहानी में चोरी करने एवं न करने के बारे में बालपन के अंतर्द्वंद्व को चित्रित किया गया है। ‘मजाक से उपदेश तक’, ‘तुम दुखी हम दुखी’, ‘क्या और कितना’ आदि भी सशक्त कहानियाँ रहीं है। मालती जोशी द्वारा लिखित ‘दादा की घड़ी’ यह कथासंग्रह बच्चों की समस्याओं एवं उनके बाल मनोविज्ञान के आधारपर लिखा गया है। तथा बच्चों में अपनी पहचान बनाने की प्रवृत्ति उसमें निहित है। विष्णु प्रभाकर ने बच्चों के लिए पौराणिक, नीतिपरक एवं शिक्षाप्रद कथाएँ लिखी है, साथ ही नए भावबोध की कहानियों का भी सर्जन किया है। देवेश ठाकुर बच्चों की रचनाओं में बच्चों की सहज एवं व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने की ओर आग्रही रहे है।

जैनेंद्र कुमार मनोविज्ञान पर आधारित साहित्य लेखन करनेवाले प्रसिद्ध रचनाकार है। उनकी ‘खेल’ कहानी बहुचर्चित रही है। कहानी में चित्रित बच्चों में खेलने की मनोभावना का अंकन है। जिसमें गंगा के बालुका स्थल पर एक बालक एवं बालिका विश्व के समस्त क्रियाकलाप भूलकर गंगातट के बालू और पानी के साथ आत्मीयता से एकाग्र होकर खेलते है। बालिका अपने एक पैर पर रेत जमाकर एवं उसे थोप-थोपकर एक भाड़ बनाती है। भाड़ बनाते समय बालिका के मन में उसके खेल के सहयोगी मनोहर की कल्पना घुम जाती है। अतः बच्चों के मन में संसार के प्रति जिज्ञासा एवं कौतूहल भाव अवष्य होता है किंतु उसके लिए संतुष्टि भीआवश्यक है। बगैर मनोरंजन के उन्हें आनंद प्राप्त नहीं होता है। डॉ. देवसरे का मंतव्य है कि ‘‘बालकों की जिज्ञासा इतनी प्रखर और कल्पना इतनी ऊंची होती है कि वे निरंतर कुछ न कुछ जानना चाहते है। वे स्वभाव से संवेदनशील होते है। फिर भी वे भावात्मक रूप उचित संरक्षण के आकांक्षी होते हैं। उनमें क्रियाशीलता का बाहुल्य होता है और साहसिक कार्यों तथा खेल-कूद में उन्हें बहुत आनंद आता है।’’4 गीतों में संगीतात्मकता होने के कारण बच्चे उन्हें जल्दी याद कर लेते है। यह गीत खेद-कूद के भी हो सकते है या किसी नाटक के या अभिनयगीत भी हो सकते है। गीत गाते समय अभिनय करने में बच्चे अधिक रूचि लेते है। अभिनय के द्वारा बालक की रचनात्मक कल्पना उद्देश्यपूर्ण हो जाती है तथा वह रचनात्मक कार्यों में कुशल बनता है।

आधुनिक काल में प्रेमचंद ने नमक का दरोगा, कफन, दो बैलो की कहानी, पंच परमेश्वर, परीक्षा, प्रेरणा, ईदगाह आदि अनेक कहानियों को पढ़कर बालक आनंदित होने लगे। पौराणिक तथा धार्मिक नीति कथाओं को पढ़कर बालक ऊब उठे है; इस कारण प्रेमचंद की कहानियाँ उन्हें अधिकाधिक रोचक एवं अपनी मनोवृति के अनुकूल लगने लगी। डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा का कथन है कि ‘‘प्रेरणा तो बाल समस्याओं को लेकर मनोवैज्ञानिक आधार पर लिखी पहली कहानी है जो बड़ी प्रसिद्ध हुई।’’5 ईदगाह कहानी में बच्चों की मानसिकता का मार्मिक चित्रण है। पात्रों के द्वारा भी बालको की ललक, मन की इच्छाओं को दर्शाया गया है। बच्चों के बौद्धिक स्तर को देखते हुए कहानियों का लेखन कार्य होना चाहिए। उस संदर्भ में प्रेमचंद एक सचेत साहित्यकार कहें जा सकते है। ‘बाल साहित्य सम्मान’ प्राप्त सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘हीगवाला’ कहानी बाल मनोविज्ञान का सजीव चित्र रेखांकित करती है। साथ ही सियारामशरण गुप्त की ‘काकी’, जयशंकर प्रसाद की ‘मधुआ’ आदि कहानियाँ इसी श्रेणी में आती है। बाल उपन्यासों में पिला सुब्बाराव का ‘घर से भागा मटरू’ उपन्यास मनोवैज्ञानिक समस्याओं को लेकर लिखा गया है। इसमें शहरी परिवेश की चमक-दमक से प्रभावित होकर घर छोडनेवाले बालक की दुर्दशा का चित्र बड़ा ही मार्मिक ढ़ंग से चित्रित किया गया है।

विभिन्न देशों में बाल साहित्य का सर्जन हुआ है। इग्लैंड में विशेषतः सभी बड़े लेखको ने बालको के लिए कुछ न कुछ लिखा है। अमरीकी बाल साहित्य में जीवन के भावत्मक पक्ष पर कम, व्यावहारिक पक्ष पर अधिक महत्व दिया जा रहा है। उसमें काल्पनिक एवं जादूभरी कहानियों के लिए स्थान नहीं है। मशीन कैसे बनती है, हवा में कैसे उड़ती है आदि विज्ञानपरक दृष्टिकोण बाल साहित्य में रहा है। रूस में बच्चों के विकास एवं उनके जीवनमूल्यों पर विशेष ध्यान दिया गया है। उस देश के बालसाहित्य रचना का उद्देश्य नई पीढ़ी में अपनी कल्पनाओं का मार्गदर्शन करने की क्षमता उत्पन्न करना एवं उसे सही दिशा में आगे बढ़ाना है। साथ ही साम्यवादी विचारधारा को बनाए रखने के लिए प्रेरित करना है। जर्मनी में महायुद्धोपरांत बच्चों के साहित्य का स्वरूप परिवर्तित हुआ है। बालक में प्रारंभ से ऐसी विचारधारा जन्म ले जो उसे जीवनमूल्यों एवं उद्देश्यों को समझने योग्य बना सके यह उनकी सोच रही है। फ्रांस में बालसाहित्य का उद्देश्य सुखी जीवन बिताने के लिए बच्चों को हालातों सेसंघर्ष कराने की सीख देना है।

विदेशों में बाल साहित्य की भूमिका का विश्लेषण करते है तब एक ओर जहाँ नए वैज्ञानिक वातावरण के अनुसार बालसाहित्य की रचना निर्माण हो रही है वही दूसरी ओर पौराणिक एवं परंपरागत बाल साहित्य का भी सर्जन हो रहा है। इसलिए भारतीय बच्चे दुहरी मानसिकता में जी रहे है। ऐसी स्थिति में सवाल उठता है कि आज का बालसाहित्य बच्चों के विकास में क्या सच में सही भूमिका का निर्वाह कर रहा है? आज के समाज में बच्चे किस समस्याओं से जूझ रहे है तथा उनकी कौनसी आवश्यकताएँ है; यह जब तक साहित्यकार समझ नहीं पाता तब तक वह सही मायने में बाल साहित्य की रचना नहीं कर सकता। अधिकांश बाल साहित्यकारों की ऐसी वैचारिक धारणा होती है कि उन्होंने अपने बचपन में जो देखा एवं अनुभव किया है वैसे ही आज के बच्चों की स्थितियाँ है या वैसा ही उनका माहौल है; ऐसा मानना गलत होगा है। इसलिए वर्तमान परिपेक्ष्य में बच्चों की मानसिकता को ध्यान में रखकर बाल साहित्य का लेखन करना समय की आवश्यकता है।

निष्कर्षतः स्पष्ट है कि बालको में जिज्ञासा एवं कल्पना इतनी बलवती और विस्तृत होती है कि उनकी भावनाएँ विश्व के मानव जीवन के हर पहलुओं को छूती है। बच्चों में हमेशा नया जानने की उत्सुकता बनी रहती है। इसतरह बच्चों की रूचियाँ भी उनकी जिज्ञासा की तरह विस्तृत होती है। अतः बच्चे स्वभाव से समझदार एवं संवेदनशील होते है; फिर भी उनके लिए भावात्मक रूप से संरक्षण की विशेष आवश्यकता है। वे नज़दीक के परिवेश से अधिकआकर्षित होते है। इसलिए कुछ संकेतो के आधारपर कहानी के पात्रों के साथ तादात्म्य प्रस्थापित कर लेते हैं। अतएव बालको के मानसिक विकास के लिए बाल साहित्य उपयोगी है। इसतरह बच्चों की मनोवैज्ञानिक आधारभूमि को केद्र में रखकर किया गया लेखन कार्य बालसाहित्य की दृष्टि से अधिक प्रभावकारी सिद्ध होता है।

संदर्भ ग्रंथ :-

  1. हिन्दी बाल साहित्य की रूपरेखा, डॉ. श्रीप्रसाद, पृ. 3
  2. बालसाहित्य : एक अध्ययन, डॉ. हरिकृष्ण देवसरे, पृ. 41
  3. रचना और समीक्षा, संपा. हरिकृष्ण देवसरे, पृ. 73
  4. वही, पृ.35
  5. हिन्दी में बाल साहित्य का विकास, डॉ. विजयलक्ष्मी सिन्हा, पृ. 106

Last Updated on December 5, 2020 by srijanaustralia

  • पोपट भावराव बिरारी
  • सहायक प्राध्यापक
  • कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला, विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नासिक
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  • कर्मवीर शांतारामबापू कोंडाजी वावरे कला, विज्ञान व वाणिज्य महाविद्यालय सिडको, नासिक
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