विदेशो मे हिन्दी शिक्षण
सन 1998 के पूर्व, मातृभाषियो की संख्य की दृष्टि से विश्व मे सर्वाधिक बोली जानेवाली भाषओ के जो आँकडे मिलते है, उनमे हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था।
1998 यूनेस्को, प्रध्नावली के आधार पर उन्हे महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर स्वीकृत की मातृभाषियो को सख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओ मे चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है।
विश्व के लगभग 100 देशो मे या तो जीवन के विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रयोग है। अथवा उव देशो हिन्दी के अध्ययन, अध्यापन की व्यवस्था है।
1) प्रत्येक देश के शिक्षण स्तर एंव हिन्दी पशिक्षण के लश्यो एवं उद्देश्यो को ध्यान मे रखकर हिन्दी शिक्षण के पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए। पाठ्यक्रम इतना व्यापक एवं स्पष्ट होना चाहिए जिससे शिक्षक एवं अध्येता का मार्गदर्शन हा सके।
2) विदेशो मे हिन्दी शिक्षण करने वाले शिक्षको के लिए शिक्षण-प्रशिक्षण एवं नवीकरण पाठ्यक्रमो का आयोजन एवं संचालन होना चाहिए।
3) देवनागरी लेखन तथा, हिन्दी वर्तनो व्यवस्था
4) वास्ताविक भाषा व्यवहार को आधार बनाकर व्यावहारिक हिन्दी संरचना – ध्वनि संरचना, तथा पदबंध संरचना और पाठो का निर्माण शिक्षार्थी के अधिगम की पृष्टि के लिए प्रत्येक बिन्दू पर विभिन्न अश्यासो की योजना।
हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने वाले विदेशी अध्येताओ के लिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का निर्माण करते समय प्रत्येक काल की मुख्य धाराओ, प्रमुख्य प्रवृत्तियो, प्रसिद्द रचनाकारो का विवरण भारत के हिन्दी है।
विदेशियो के लिए हिन्दी शिक्षण कार्यक्रम मे प्रशिक्ष्ति होने वाले अनेक प्रतिभागी पाठ्यक्रम को सफलता पूर्वक पूरा करने के बाद अपने अपने देशो मे जाकर विविध श्रेत्रो मे हिन्दी का प्रचार-प्रसार का कार्य कर रहे है। कुछ लोगो ने अपने देश मे हिन्दी विभाग की स्थापना की कुछ लोग रेडियो या दूरदर्शन के कार्यक्रमो के प्रसारण से जुडे है, कुछ लोग पत्रकारिता के श्रेत्र मे सकिया है, कुछ विदेशो विश्वविद्यालयो या विध्यालयो मे हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे है। दिल्ली केन्द्र मे छात्रवृत्ति पर आने वाले प्रतिभागियो के लिए किराए के भवनो मे आवास की व्यवस्था करना कठिन होता जा रहा था और मुख्यालय आगरा मे छात्रावासो की सुविधा थी।
जव विदेशी हिन्दी पाठ्यक्रम का प्रारंभ हुआ था, तब मात्र एक कक्षा की व्यवस्था थी। जब विभिन्न देशो से अलग अलग स्तर के छात्र आने लगे, तो पूरे कार्यक्रम को प्रमाण पत्र और डीप्लोमो के दो स्तरो मे बाँटा गया। उसी समय विदेशियो के चतुवर्षिय कार्यक्रम का आयोजन होता आ रहा है। उदाहरण के लिए माँरीशस मे डा भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना इसी दृष्टिकोण का परिचायक था।
अब इस पहलू पर विचार किया जाए कि विदेशो की विविध सरकारो की ओर से हिन्दी के प्रति कैसी खोया है, और किन संदर्भो मे हिन्दी की व्या स्थिति है। विश्व के इस बडे भूभाग से संर्पक करने के लिए उन्हे विदेशो मे हिन्दी की स्थिति, प्रचार तथा प्रसार को लेकर दो भिन्न दृष्टेयो से विचार करना होगा। देशो मे जहाँ की भारतवासियो लोगो की संख्या अच्छी खासी है और वह हिन्दी और भारतीय संस्कृति के लिए डाँ भगवतशरण उपाध्याय जैसे लोगो को भेजा जाना। इसी दृष्टिकोण का परियाचक या विभिन्न प्रमुख देशो की सरकारो ने अपने विश्वविध्यालय मे हिन्दी के अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था और सुविधा की ओर ध्यान दिया। अपने छात्रो को छात्रवृत्तियो प्रदान कर हिन्दी प्रदान कर हिन्दी पढने के लिए भारत भी भेजा। जिसमे हिन्दी एक मात्र देश की राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा बनेगी।
जिन विदेशी विश्व विध्यालयो मे हिन्दी अध्ययन अध्यापन की व्यवस्था है, उनकी आर्थिक व्यवस्था भेल ही सरकार भरेगी। यह रूप विश्व हिन्दी कहा जा सकता है। पर व्यवहार श्रेत्र मे हिन्दी की एक अपनी दुनिया है। आइए हिन्दी की इस दुनिया का विश्व हिन्दी का नही अपितु हिन्दी विश्व का रूप देखे।
भारत मे हिन्दी बोलने वालो की सख्या निरंतर बढ रही है। भारत के किसी भी भाग जाइए मिलन की संपर्क भाषा प्रायः हिन्दी मिलेगी। सेनिक जीवन मे रेल यात्राओ मे तीर्य स्थानो मे छात्र सम्मेलन मे प्राकृतिक ऐतिहासिक दर्शनिय स्थ्लो मे बाज़ारो मे आपको इस हिन्दी विश्व को क्षमता और उपयोगीता का पता चल सकेगा। हिन्दी को व्यवहारिक जीवन मे उपयोग करने वालो की सख्य निरंतर बढ रही है।
तीसरे वर्ग मे यूरोप अमरिका आदि वे विकसित राष्ट्र जा सकते है, जहाँ बहुत बडी सख्यो मे भारत के लोग बस भी गए है और अस्थायी रूप से जा भी रहे है। उदाहरण के तौर पर अमरिका, कनाडा मे गुजराति भाषी काफी संख्या मे बसे है। भारत के उच्च और उच्च भासी वर्गो की संपर्क भाषा अंग्रेजी है। जिनकी सख्या 3 प्रतिशत से अधिक नही है, हिन्दी जानने वाले व्यक्ति को इस फैली हुई हिन्दी की दुनिया मे अंग्रेजी न जानने पर भी कोइ कठिनाई नही होती। हिन्दी उनके लिए माहयम का काम कर रही है।
हिन्दी मानवीय मूल्यो की भाषा के रूप मे विकसित हुई है। उसमे मानवीय संस्कृति के उदार मूल्यो और प्रेम करूण और उदारता के गीत गाने की वृत्ति रही है। जिन विरो और संतो ने जिन भक्तो और महात्माओ ने इसे पनपाया और फैलाया है, धर्म, जाती, प्रांत, ऊँच, नीच, पूंजी प्रशासन सबकी छाया से मुक्य उदात्त चेतनाओ ने हिन्दी को खडा किया। एक भाषा खडी करने के लिए नही उदात्त मानवीय मूल्यो के रूपायन के लिए, हिन्दी मे आज भी वह शक्ति आत्मा के रूप मे प्रतिष्ठित है, मानवता के कल्याण के लिए उसका प्रसार, प्रचार आज के अकेले भारत के लिए नही विश्व के अपने हित मे है।
हिन्दी को उठाने की माँग करते समय हिन्दी विश्व भारत मे ही नही, विदेशो मे भी हिन्दी विश्व इस उत्तरदादित्व की भाषा का संयोजन है। विश्व हिन्दी की इस भावना को भारत मे भी विकसित करना होगा और विदेशो मे भी। विदेशो मे हिन्दी के प्रचार प्रसार की बात करने समय इस बात की और प्रमुख ध्यान देकर चलना होगा।
हिन्दी भारतीय हृदय की वाणी है। यह भारत भारती है। जिसमे भारतीय आत्मा मुखरित है। इसमे हिन्दीतर अनेक भाषाओ इसमे मुखरित हो। यही हमारा द्रुढ संकल्प होना चाहिए। हमे इस सिद्दि की प्राप्ति के लिए तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए।
मूल रूप मे विदेशो मे हिन्दी शिक्षण का एक ही प्रमुख कारण होसकता है। कहा कारण चही है कि भारतवासी अलग अलग कारणो से विदेश मे जाकर बसता है। वहाँ जाने के उपरान्त किसी हाल मे भारत से नाता तोडना नही चाहता वही एक अपनापन प्यार, स्नेह, वहा भाषा के ऊपर दिखाता है, अपनी भाषा को न भूलते हुए वहाँ जाकर धीरे धीरे भाषाओ का आदर सम्मान बढाने के लिए संघ की स्थापना करते है, वही संघो मे भाषा की जन्म, उत्पत्ति, बढना, जान प्राप्त ही एक मूल उद्देश्य बनता है, इस तरह विदेशो मे केवल हिन्दी भाषा की उन्न्ति के साथ साथ, कन्नड, तेलूगू, तमिल, सभी भाषाओ की बढाव हो रहा है।
यही एक मूल जड है भाषाको बढावा देना संघो की माँग से विदेश की विश्वविध्यालयो मे हर एक भाषा का एक एक छोटा विभाग़ का जन्म है। भाषा विभागध्यक्ष अनिर्वाय रूप से भारतीय ही हो सकता भाषा विभागध्याक्ष का मूल उद्देश्य, भाषा का प्रसार, प्रचार के साथ, भाषा की प्रति अपनापन और प्रेम जताना है पढता है। इससे ही भाषा का वेग और उन्न्ति तथा टिकाऊ विर्भर है। अगर विदेशो मे भी हिन्दी भाषा का बढाव बहुत दीर्घ से बहुत उन्न्ति हो रहा उसका नीव हर एक भारतीय सदस्य पर निर्भर है।
यह बात इन पर निर्भर करती है, मूल रूप से अनुवासि भारतीयो के लिए है, वे वही भसते है, अनेक के लिए यहा डर बना रहता है कि कही भी जाय मगर अपना मूल्य नही भूले अपनी पेहचान, अपनी चरित्र केवल भाषा है, भाषा से चरित्र, चरित्र से साहित्य साहित्य से पहेचान पहेचान से यश मिलता वह यश और द्रिडता को पाने के लिए, अपना नीव को मजबूत कर लेता है। पहेला शिक्षा को सीखता है सीखकर दूसरो को सीखाता है, शिक्षा मे कितने सारे मुस्किल आने दिजिए वह अपने को विदेशो मे मजबूत बनाने के लिए साधारण पाठशाला से विश्व विध्यालय तक पहुँचता है।
शिक्षा के श्रेत्र मे होने दीजिए, संस्कृति के श्रेत्र मे होने दिजीए अपना बढाव के लिए वही से ही जुडता है, और वहाँ के सरकार से जुडकर भाषा का एक विभाग़ का निर्माण करता है। तभी सरकार यहा बातो से सहमत रहती है, भाषा के अर्शित कितने सख्या मे अनुचायी है, वह जानकारि देखकर ही सरकार सहमती बरकार करती है।
अंत यही बात कहेना चाहते है, अमेरिका जपान, योरूप, रूस जैसे बडे बडे राष्ट्रो मे हिन्दी का विभाग जीवित है, उसेक अनुवासि भारतीयो को यह महसूस कराते की वहा कही नही है भारत देश मे ही है। अपनी भाषा संस्कृति, साहित्य का एहसास दिलाते है कि हम भारतीय है, भारतीय ही बन कर रहेंगे। साहित्यकारो का यही कहना है कि मजबूरी वह थी कि हम यहाँ आके बसे मगर हमारा रिश्ता मरते दम तक देश की उन्नती लहराती हुई झण्डा से है।
Last Updated on November 19, 2020 by suvarnakencha123
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