“महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता
मुझे नहीं बनना है अब देवी कोई
मुझे नहीं बनना है अब देवी कोई, मुझे तुम साधारण ही रहने दो,
तुम तो यार मेरे बस इतना करो, मेरे भी ख्वाबों का दरिया बहने दो।
तुम्हारा घर, तुम्हारे बच्चे, तुम्हारी नौकरी, तुम्हारी चाकरी,
यह रखती हूं मैं सदैव अपने सर-माथे पे,
पर जो मेरी ये दबी, संकुचाई-सी ख्वाईशें हैं,
धीरे ही सही मगर अब मुझको कहने दो।
तुमने तो हमेशा से ही जब भी, कुछ भी, जीवन में करना था,
किया नहीं कभी भी अनुरोध कभी, बस इक आदेश-सा जारी करना था,
ये जो मेरा दिल, मेरी धड़कन मुझसे जो हरदम कहती है,
फिर मेरे सपनों की दुनिया क्यों आखिर युं छिपी-छिपी सी रहती है,
पहचान बनानी है मुझको अपनी, तुम अब यह एहसान जताने रहने दो।
मुझसे तो बेहतर लागे पवन मुझे, जो निश्चित होकर तो बहती है,
क्यों व्यर्थ ख्वाब सजाती हो, पलकें आंखों से शिकायत करती हैं,
तुम में, मुझ में तो कोई फर्क नहीं इक जैसा रक्त, इक जैसा दिल
जो तुम्हें सहज मैं देती हूं मुझको देने में क्यों हो तुमको मुश्किल,
साथ निभाउगीं तुम्हारा हरदम, बस बेधड़क मेरे दिल को धड़कने दो,
मीनाक्षी भसीन ©
ये कमबख्त जुबान चलाने वाली शिक्षित स्त्रियां
मां बहुत ज़ोर देती थी पढ़ाने में मुझे,
पढ़ना जरुरी है, मेरे लिए नहीं,
मेरे भविष्य के लिए,
यदि शादी के बाद कुछ जम नहीं पाया
तो,
कुछ तो होना चाहिए न हाथ में मेरे,
वो क्या है न प्रोफेशनल डिग्री,
ताकि इतना की अच्छा लड़का मिल जाए,
पर थोड़ा कम क्योंकि फिर तुझसे बेहतर
खोजने में होगी मुश्किल,
पर —आज सोचती हूं कि शिक्षा ने तो
ऐसे किवाड़ खोले मेरे मन के,
स्पष्टता से महसूस करने लगती हूं,
मैं वो असमानताएं,
वो सीमाएं,
वो भेद, वो मनभेद
जो हर पग में झेलने पड़ते हैं मुझको,
पर शिक्षित हूं,
अनपढ़ होती तो हर बार मेरी कुंठाओं पर विवेक हावी न होता
क्योंकि शिक्षित स्त्रियों से कुछ ज्यादा ही बढ़िया आचरण की
अपेक्षाएं लगा बैठते हैं लोग,
आप चिल्ला कैसे सकती हैं,
शिक्षित हैं तो घर भी ज्यादा अच्छी तरह संभालना चाहिए न,
जो हो रहा है, सभी कर रहे हैं, तुम कुछ एहसान नहीं कर रही हो,
सदियों से होता रहा है, होता रहेगा,
अनपढ़ औरतें ज्यादा समझदार होती हैं,
वे अनुकूल हो जाती हैं इस भेदभाव के परिवेश में रहने के लिए,
पर ये सिरचढ़ी शिक्षित स्त्रियां,
हर समय सिर पर सवार रहती हैं,
जुबान बहुत चलती है कैंची की तरह,
वो क्या है न तिमिर से ग्रसित मन को
जिसमें थोप दिया जाता है कि खाना खिलाना,
कपड़े धोना, बर्तन साफ करना, साफ-सफाई से लेकर
सारी बिखरी हुई चीज़ों को समेटना,
और तुम्हें खुश रखना ही धर्म होता है,
एक स्त्री का,
तो इन ठूसी हुई दकियानुसी धारणाओं से अभिशप्त
मन से सहन नहीं हो पाती,
अचानक प्रकट हुई
शिक्षित स्त्री के मन से, प्रस्फुटित होती
चमकदार किरणें,
जो हर क्षण भेदना चाहती हें,
इस अंधेरे को,
पूरी शिद्दत के साथ,
कोई हो जाता है प्रकाशित,
तो कोई होने लगता खंडित,
और चीखता रहता, कोसता रहता, सिर पकड़कर
हाय कहां से आ गई यह जुबान लड़ाने वाली,
गलत को सही न कहने वाली,
घर को तोड़ने वाली,
खुदगर्ज, तेज़, चालाक स्त्रियां
ये बदतमीज, सिरचिढ़ी शिक्षित स्त्रियां——-
मीनाक्षी भसीन, सर्वाधिकार सुरक्षित
कुछ गहरी, कुछ ढीठ, कुछ जिद्दी, कुछ सरसों-सी पीली, कुछ शैतान लहरों-सी मैं—-इक स्त्री
अक्सर भागते-दौड़ते हुए रह जाता है,
कुछ-कुछ आटा मेरी अंगूठी के बीचोबीच,
जो मुस्कराता रहता है और याद दिलाता रहता है,
घर की मुझको,
जो कई बार तो हो जाता है इतना सख्त कि उतरना ही
नहीं चाहता, जिद्दी बच्चे जैसे अड़ जाते हैं अपनी कोई
बात मनवाने को,
कुछ-कुछ हल्दी का रंग भी जैसे मिल गया है मेरी हथेलियों से
इस शिद्दत से ,
अब पता चला कि हाथ पीले होने का वास्तविक अर्थ क्या है,
मन भी समुंद्र सा रहता है आजकल,
खामोश तो रहता है पर भीतर ही भीतर,
उठती, बैठती, मचलती, कूदती, सुबकती, कोसती
रहती हैं लहरों पे लहरें,
शांत ही नहीं होता कई बार दिखाई आंखें मैने
कि बस हो गया अब कितना सोचोगी तुम,
पर मानता ही नहीं है यह ढीठ-सा हो गया है,
भारी-भारी सा लगता रहता है मन,
अरे– गंभीर कुछ भी नहीं,
बस घर को उठा कर चलना पड़ता है,
घर से बाहर भी,
कोई एक कोना नहीं,
पूरा का पूरा घर, हरेक कमरा, हरेक कोना,
सोच कर मकान नहीं जब घर को उठा कर
चलना पड़ता है घर से बाहर, और करना पड़ता है काम,
तो होता नहीं आसान,
तो जब इतना मुश्किल काम कर लेती हैं हम इतनी सहजता
से, सरलता से, कुशलता से,
वक्त बना ही देता हैं हमें सख्त,
तो कुछ गहरी, कुछ ढीठ, कुछ जिद्दी,
कुछ भारी, कुछ सरसों-सी पीली, कुछ शैतान लहरों-सी
कुछ सख्त-सी होकर मैं आजकल चले जा रही हूं,
इतने मुश्किल काम को मुस्कराते हुए,
जो मैं किए जा रही हूं,
तभी तो दो नावों पे सवार हो अठखेलियां भी संग-संग
किए जा रही हूं,
शायद सशक्त होने की जरुरत मुझे नहीं है,
परिवेश को है, समाज को है——
थाम सकते हो मुझको,
धिक्कारने के लिए नहीं किसी को थामने के लिए
ही चाहिए न मजबूती, है यह शक्ति तुम्हारे पास,
नहीं है तो लाओ, चूंकि मैं तो अब रुकने वाली नहीं हूं,
किसी भी स्थिति में अब मैं सिमटने वाली नहीं हूं——–
मीनाक्षी भसीन, सर्वाधिकार सुरक्षित
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रचनाकार का नाम-मीनाक्षी भसीन
पदनाम– कनिष्ठ हिंदी अनुवादक
संगठन-आईसीएमआ-राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान
सैक्टर-8, द्वारका, नई दिल्ली-110 075
पूरा डाक पता– ग्रीन वैली अपार्टमैंट, सैक्टर-22, जी-403 द्वारका, नई दिल्ली-110 077
ईमेल पता–[email protected]
मोबाईल नंबर-9891570067
Last Updated on January 13, 2021 by meenakshinimr
- मीनाक्षी भसीन
- कनिष्ठ हिंदी अनुवादक
- आईसीएमआ-राष्ट्रीय मलेरिया अनुसंधान संस्थान सैक्टर-8, द्वारका, नई दिल्ली-110 075
- [email protected]
- ग्रीन वैली अपार्टमैंट, सैक्टर-22, जी-403 द्वारका, नई दिल्ली-110 077
1 thought on ““महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता”
महिला दिवस हेतु लिखी गई कविता
विधा काव्य
दिनांक: 14जनवरी 2021
विधा :कविता
शीर्षक :ऐसे जाने ना दूंगी
अभी अधूरी है बातें बहुत
मैं अभी जाने ना दूंगी तुम्हें।
जब तक रहेगी एक भी स्वास
तब तक मैं भी रहूंगी पास
लडूंगी , झगड़ूंगी , तुमसे मैं।
हर बात का लूंगी हिसाब
रहने ना दूंगी कोई बात अधूरी।
बनाके यू दूरी जाने ना दूंगी।
मोड़ कर मुंह मुझसे यूं तुम
कब तक रहोगे तन्हा-तन्हा।
नज़रे चुरा कर जाने ना दूंगी।
सात जन्म संग जीने मरने
की खाई थी कसमे हमने
कसमें तोड़कर जाने ना दूंगी.
अभी तो ज़रा ठहरी थी मैं
अभी तो प्रेम परवान चढ़ा था
मैंने मन भर तुम्हें चाहा भी नहीं था
संग तेरे जीवन भर बनकर दासी
सब सुख भूलकर मैं रह लूंगी
पर तुम्हें ऐसे जाने ना दूंगी….
चाहे आ जाए मौत भी मुझे
रोक लूंगी मैं यमराज को भी
… पहन लूंगी खुद मृत्यु का हार
. खुद से पहले तुमको जाने ना दूंगी
सरिता सिंह गोरखपुर उत्तर प्रदेश