प्रेम-काव्य प्रतियोगिता हेतु रचना
तुमने ही हृदय बिछाया….
तुम धूप हो, तुम छाँव हो
पसरी हुई निस्तब्धता में
जीवंत हुआ-सा ठाँव हो ।
घिर-घिरकर जब आया तम
तुमने ही दीया जलाया
जब-जब हाथों से छूटे हाथ
तुमने ही हृदय बिछाया ।
अभिलाषा को प्राण दिए
मन को फिर आकाश दिया
विकल हुई बुझती लौ को
अपना स्नेह प्रकाश दिया ।
संसृति की साध मिटी जब-जब
तुमने ही नवसंचार किया
खिलते-हँसते मधुमास दिए
अपना सारा अभिसार दिया ।
मृतप्राय हुए चिंतन को
स्पंदन का अधिकार दिया
शीतल, संसिक्त स्नेह दिए
प्रतिक्षण नूतन संसार दिया ।
(बीना अजय मिश्रा)
Last Updated on January 18, 2021 by beena9279
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