न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – निर्भया भविष्य की

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कविता – 1

सास-ससुर-माँ-बाप रखने की चीज हैं?

एक दिन मेरी शादी शुदा सहेली ने

बातों-बातों में मुझसे कहा कि

मैं अपने सास-ससुर को रखे हूँ

इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठा रखी है

चुपचाप उन लोगों को

जो मिल जाय उसे खा लेना चाहिए

जो मिल जाये उसे पहन लेना चाहिए

अब इस उम्र में पूजा-पाठ

करनी चाहिए लेकिन नहीं

हर वक्त कुछ-न-कुछ

नुक्श निकालते रहते हैं।

मैं सुन रहा, गुन रहा था।

कुछ मन-ही-मन बुन रहा था।

मुझे एक बात अपनी सहेली की

कुछ ज्यादा चुभ गई

सास-ससुर को

‘‘हम रखे हुए हैं‘‘

मैं बोला क्या जमाना

आ गया है,

अब सास-ससुर-माँ-बाप

घर में रखने की वस्तु हो गए

अगर मेरी सहेली यह कहती कि

हम अपने सास-ससुर के

साथ रहते हैं

शायद यह बात सुकून देती

सनातन संस्कारों की अमित छाप लगती

लेकिन नये जमाने की शायद नई तस्वीर है

माँ-बाप-सास-ससुर रखने की चीज हो गए

हम किधर जा रहे हैं

मुझे अब लगने लगा है कि हम

अपने संस्कारों से कितने दूर हो रहे हैं?

अब इन्हीं नये गढ़े संस्कारों के

साथ-ही अब हमें जीना है

या यूँ कहें कि जीने को मजबूर होना है।

यह दिन आज नहीं तो कल

सभी के साथ आयेगा।

आधुनिक माँ-बाप ही तो बेटे-बेटियों को

ये नये संस्कार दे रहे हैं कि

सास-ससुर-माँ-बाप रखने

की चीज हैं?

 

 

 

कविता – २

हुस्न और इश्क का मेल

हुस्न जब-तब आवारा हुआ

इश्क तब-तब बदनाम हुआ

यह देख एक दिन

लज्जा ने हुस्न से पूछा कि

मेरी बहन रह-रह कर तुम मुझसे

खफा क्यों हो जाती हो

मुझसे रूठ क्यों जाती हो

जब-जब तुम मुझसे रूठी हो

तब-तब इश्क के दामन पर

कोई ना कोई दाग लगा है।

इसलिए मेरी बहन

मुझसे खफा न हुआ करो

मुझसे दूर न जाया करो

न ही मुझसे रूठा करो

न ही मुझसे मुंह छिपाया करो

मैं ही हूँ जो इश्क को

इबादत के योग्य बनाती हूँ

इश्क को गौरवमयी बनाती हूँ

इसलिए मेरी बहन

तुम मेरा दामन मत छोड़ो

जब मैं तुम्हारे साथ होती हूँ

तुम अपने को

ज्यादा सुरक्षित, समर्पित और खुशहाल

नजर आती हो

इतना अपनापन देख

हुस्न ने लज्जा को गले लगाया

और कहा मैं भटक गयी थी बहना

देख लिया संसार मैंने तुम बिन

कोई मुझे आवारा कहता है

कोई बदचलन कहता है,

कोई वेश्या कहता है,

कोई बेलगाम कहता है

मैंने यह समझ लिया अब

कि मैं तुमसे अभिन्न हूँ

तुम बिन मेरी कोई बिसात नहीं,

न ही मेरी अकेले, कोई हैसियत

लज्जा ने मुस्कुरा कर हुस्न को गले लगाया।

दोनों ने एक दूसरे का दामन

न छोड़ने का संकल्प दोहराया,

यह देख इश्क मुस्कुराया और अपने आप पर इतराया।

कि अब न होंगे हम बदनाम कभी भी।

 

 

 

 

कविता – 3

रात की तितलियाँ

रात की तितलियां

उजालों से नफरत करती है

यह बात मैंने जब

रात की तितलियों से पूछा

तो वो हँस कर बोली। साहब

दिन के उजालों में जगमगाने वालों ने

हमें अंधेरी गलियों का रास्ता दिखाया है

अंधेंरों में रहना अब हमें भाने लगा है

जिन्दगी की सुबह से

अब डर सा लगने लगा है

अंधेरों ने ही अपने आंचल

में जगह दी है

हमारे आंसू छिपाये हैं,

खुशियों से तो हमारा।

दूर-दूर तक नाता ही न है,

उजाले में हम त्याज्य हैं,

अग्रहणीय हैं, परित्यक्त है,

अजीब जिन्दगी है हमारी साहब

रातों में हमारी पूजा करने वाले

दिन के उजालों में

पहचानने से भी इंकार करते हैं,

जबकि इनकी रातें

हमसे ही आबाद होती है,

अपने दिन के उजालों

की काली कमाई

रातों में हमारे चरणों में

बिछाते हैं खुशी-खुशी

बड़े-बड़े कस्में-वादे खाते हैं

हम जानते हैं साहब

सफेद झूठ बोल रहे हैं

क्या करें हम

पापी पेट का सवाल है,

उजालों से हमें नफरत है

अंधेरा ही हमारी नियति है

कम-से-कम छिपने-छिपाने

को तो कुछ नहीं है

हम रात की तितलियों

इस कारण उजालों से नफरत करती है,

हमें अपने अंधेरे से प्यार है

यही हमारी जिन्दगी का अब आधार है।

 

 

 

कविता – ४

निर्भया भविष्य की

मेरा शरीर ही मेरी सम्पत्ति है

इसको मेरी आज्ञा के बिना छूना मना है

यह सिर्फ मेरा अस्तित्व है

मेरी शारीरिक सीमा रेखा में

प्रवेश का हक किसी को नहीं है।

वरना भोगना ही पडेगा मेरा आक्रोश

मैं इसे अपना कर्त्तव्य ही नहीं

अपना धर्म समझती हूँ

मेरा शरीर कोई सामान नहीं है

जिसे राह चलते कोई

भी देख ले, छू ले

चूम ले, गले लगा ले

मैं अपने इस तन मंदिर

की अकेली स्वामिनी हूँ

इस पर नहीं है, हक किसी का

हाँ यह अलग बात है

कि मैं अपने इस तन को

अपने मन को

किसी और के हवाले

अपनी स्व-मर्जी से कर दूं

जिसे मैं अपना समझूं

उसे सौंप दूं।

यह मेरा प्राकृतिक एवं नैसर्गिक अधिकार है।

क्योंकि मेरा शरीर ही मेरी सम्पत्ति है

इसको मेरी आज्ञा के बिना

छूना मना है, मना है, मना है।

————————————————————————————————————————–

रचनाकार का नाम – डॉ. पंकज सिंह

पदनाम- अध्यक्ष, हिंदी विभाग

संगठन- कालीचरण पी. जी. कॉलेज, चौक, लखनऊ

पूरा डाक पता- ६४५ए/४७८ जानकीविहार कॉलोनी, जानकीपुरम, लखनऊ २२६६३१

ईमेल पता – [email protected]

मोबाईल नंबर- 9453323784

वट्स्ऐप नंबर – 9453323784

 

Last Updated on January 13, 2021 by drpankajkcpg

  • डॉ. पंकज सिंह
  • अध्यक्ष हिंदी विभाग
  • कालीचरण पी. जी. कॉलेज, चौक, लखनऊ
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