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“हे नारी! हे सदा सबल!” (शीर्षक)
हे नारी!
अब रूप धरो
दुर्गा, काली, शतचंडी का,
जग के असुरों का नाश करो
संहार करो पाखंडी का।
तुम बन महिषासुरमर्दिनी,
विनाशिनी हे कपिर्दिनी।
जग में असंख्य हैं रक्तबीज
व शुम्भ निशुंभ के प्राण हरो,
कलुषित विचार को हर लेना
जन जन के हिय में प्रणय भरो।हे नारी!
हे जगजननी!
तुम सृजनकार हो सर्वश्रेष्ठ,
तुम जन्मदात्री मातेश्वरी
चर अचर जीव में परम ज्येष्ठ।
नारी महान हर रूपों में
भगिनी, भार्या, तनया, माता,
बिन नारी के सृष्टि शून्य
और कोई नहीं जीवन पाता।
तुममें राधा सा प्रीत भी है,
परित्यक्ति, विरह का रीत भी है।
तुम सहिष्णुता की मूर्ति सी हो,
हर क्षेत्र कर्म की पूर्ति सी हो।हे नारी!
हे सदा सबल!
तुम हो विनम्र
तुम हो प्रबल,
सृष्टि के काज और कर्म
होते हैं तुमसे ही सफल।
तुम हो असीम तुम ही अनंत,
तुमसे ही सृजन तुममें ही अंत।© दीपक चौरसिया
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“मैं विहग बनूँ”
आजाद परिंदों के जैसे,
मैं भी चाहूँ नभ में उड़ना।
इतना ऊँचा मैं उड़ जाऊँ,
जैसे गिरि चोटी पर चढ़ना।
कर्तव्यों पर नित डटा रहूँ,
जीवन पथ पर आगे बढ़ना।
मुश्किलों से मैं संघर्ष करूँ,
जैसे पाषाणों को गढ़ना।
पर उतना ऊँचा मैं नहीं उडूँ,
रवि ऊष्मा से जल जाए पर।
अहं गगन की ऊँचाई से,
नीचे गिर जाऊँ धरा पर।
है चाह मेरी कि ऊँचाई छू लूँ,
पर धरा प्रीति ना छोड़ूंगा मैं।
है चाह मेरी कि विहग बनूँ,
पर श्येन नहीं बनूँगा मैं।
खगराजा का अहं लिए,
बेघर कर दे गौरैया को।
भय से सुनी कर दे जो,
इस उपवन को अमरैया को।
पर कौआ नहीं बनूँगा मैं,
जिनकी बातें धमकाती है।
उनके आदेशों पर केवल,
कोयल गीतों को गाती हैं।
है चाह मेरी कि विहग बनूँ,
पर ऐसा नहीं बनूँगा मैं। -
“आह्वान”
स्वतंत्र भयी भारत भूमि उन वीरों की बलिदानों से,
राष्ट्रप्रेम में कर अर्पित कतरा कतरा लहुदानों से।
फांसी का फंदा चूम लिया मां के उन वीर सपूतों ने,
विद्रोही बिगुल बजा शत्रु का प्राण हरा यम दूतों ने।
मिटने ना पाए कभी शहादत बलिदानों का सम्मान करें,
सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें।उठो, जाग अब कमर कसो फिर से तलवार उठानी है,
कबसे प्यासी इस धरती की रिपुलहू से प्यास बुझानी है।
है परम शत्रु इस भारत का छल -दंभ द्वेष और भ्रष्टाचार,
जाति धर्म का भेद- भाव फैली समाज में अनाचार।
अरि छाती पर लहराएं तिरंगा भारत का जयगान करें,
सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें।यह जन्मभूमि श्री राम की है गोवर्धनधारी श्याम की है,
ये बुद्ध- विवेकानन्द की है गांधी, आजाद, कलाम की है।
ये लक्ष्मीबाई, सुभाष की है राणा प्रताप के शान की है,
चाणक्य, सूर, तुलसी की है ये वाल्मीकि, रसखान की है।
मिला जन्म इस पुण्य धरा पर हम इसका अभिमान करें,
सोयी शक्ति को करे जागृत आओ मिल आह्वान करें। -
“स्त्री की सहिष्णुता”
स्त्रियां,
होती है धरती के समान
जो थामे रहती हैं बोझ
उस समाज का,
जिस समाज में
उनकी इजाज़त के बगैर
स्पर्श की जाती है
उनकी देह।
जहां दहेज़ के खातिर
उन्हें जला दिया जाता है,
और मंदिरों- मस्जिदों का दरवाज़ा
बन्द कर दिया जाता है।
जहां उनकी शिक्षा पर
अंकुश लगाकर
बांध दिया जाता है,
परिणय सूत्र में।
और सन्तान न होने का दोषी
ठहराया जाता है सिर्फ स्त्री को।
ऐसी अनंत वेदनाओं को
सहती है स्त्री।
और उन्माद में पुरुष
खुद को समझता है श्रेष्ठ।
उस दिन होगी भीषण त्रासदी
जिस दिन समाप्त हो जाएगी,
स्त्री की सहिष्णुता।
तब फट जाएगी धरती
जिसमें समा जाएगा,
सारा का सारा समाज। -
“सावन सुरम्य”
नीम डार पर पड़ गए झूले
शीतल पछुवा पवन से डोले
काली घटा मनोरम छायी
जब आयी सबके उर भायी
बादल गरजे चमकी चपला
रिमझिम रिमझिम बारिश आयी।खेतों में हो गई रोपनी
जगह जगह हरियाली छायी
रक्तिम पुष्प खिले वृंतों पर
वायु में खुशबू महकायी
प्रातः किरण जब धरती चूमे
धवल हरित मानो मुस्कायी।यह सावन मन के भाव जगाती
विस्मित स्मृतियां याद दिलाती
कुछ बिछड़े भूले भटके अपने
है सावन उनकी कमी बताती
बिछड़े प्रेमी को प्रेमी की
है प्रेम विछोह सताती।सावन है शिव भक्ति भरा
शिव से हर्षित यह पुण्य धरा
कण कण में शिव छवि समायी
सावन है शिव को अति भायी
शिव उपस्थिति महसूस हो रही
ओमकार ध्वनि गूंज रही। -
“मुलाक़ातों की यादें”
मिलते हैं अजनबी की तरह दोनों
देखते हैं अजनबी की तरह एक दूसरे को दोनों
व्यक्त करना चाहते खुद की भावनाएं दोनों
पर यह संसार रूपी कटु वृक्ष रोक देती है,
तब तक समय समाप्त हो जाता है।
और फिर सताती है –
मुलाक़ातों की यादें।
पुनः वहीं चक्र आरंभ हो जाता है
पर इस बार इस चक्र में कुछ और जुड़ जाता है
नज़रें मिलाना चाह रहे हैं दोनों
नया क़दम जीवन का उठना चाह रहे हैं दोनों,
पर फिर सामाजिक भय, भेद, रीतियां रोक देती हैं।
और फिर सताती है –
मुलाक़ातों की यादें।
अगली बार फिर यहीं से शुरू हो जाता है
इस बार कहानी का सही अर्थ समझ में आता है
जैसे दोनों आगे बढ़ते चले जाते हैं
उन्हें कोई रोक नहीं पाता है,
अंततः दोनों के साहस को सफलता प्राप्त हो जाता है।
फिर याद आता है और प्रसन्न कर जाता है –
मुलाक़ातों की यादें। -
“मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में”
जब जब मैं रोता था तू दौड़ी दौड़ी आती थी
भूखा होता जब भी मैं तू खाना मुझे खिलाती थी
मेरे सोने के लिए तू लोरी मुझे सुनाती थी
कभी कभी कहानियां सुनाते आधी रात बीत जाती थी
फिर भी मैं बसता था तेरी आंखों की काजल में
मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में।होते थे सपने तेरी आंखों में ऐसे
आगे बढ़ेगा बेटा समय के जैसे
कभी कभी जब कोई गलती कर जाता था
पिता जी के डर से दौड़ा तेरे पास आता था
छिपा लेती थी तू मुझे अपने आंचल में
मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में।मेरी मां तू प्यार का समंदर है
माता पिता गुरु सभी के गुण तेरे अंदर है
एक पल भी तुझसे दूर रह नहीं पाऊंगा
जुदा होके भी जुदा हो नहीं पाऊंगा
मन करता है अब भी सो जाऊं तेरे आंचल में
मां मेरी दुनिया तेरी आंचल में। -
“मरीचिका”
इस मरुस्थलीय संसार में
मीलों तक बस रेत ही रेत;
जिसने नहीं भरा घड़े में जल
इस सफर के लिए,
जब छल्ली होगी उनकी देह
नागफनी के कांँटों से
तब उन्हें सताएगी तृष्णा।
और अनवरत बनती रहेंगी
मरीचिकाएंँ।
वह तृष्णा है- जल की
लोभ-लिप्सा और आकांक्षाओं की,
वे मरीचिकाएँ जो बनाती हैं
नए- नए स्रोत।
उन स्रोतों की तलाश में
भटकते- भटकते जब;
बूंँद- बूंँद करके बह जाएगा
शरीर का सारा रक्त,
उन रक्तबिंदुओं के साथ ही
बह जायेंगी सारी इच्छाएँ।
और विशाल मरु क्षेत्र में
धराशायी हो जाएगा यह देह
जैसे कोई पुरानी इमारत की भीत;
और उस पर उग जाएंगे
नागफनी और बबूल के पौधे,
जिनके काँटों से पुनः छल्ली होगा
एक लोभी मदांध शरीर।
Last Updated on January 13, 2021 by chaurasiyadeepak327
- दीपक चौरसिया
- अध्ययनरत
- कोई संगठन नहीं
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- ग्राम बसहवा, पोस्ट कटया जनपद बस्ती उत्तर प्रदेश, पिनकोड 272302