द्रुत गति से
बहती सरिता की
कलकल है
या विस्मय के
होठों पर ठहरा
पल है
काश.. कभी
आगे भी इसके
जान सकूँ
अभी तो..
नारी मेरे लिए
कुतूहल है
***
जीवन नौका को
तिरछी धारों पर
चलना है
कठिन मोड़ है
दोनों पतवारों पर
बढ़ना है
याद रखो तुम
आज समय का
समादेश यह है
एक युद्ध स्त्री को लेकर
खुद से लड़ना है
Last Updated on January 9, 2021 by asheesh.dube
- कुमार आशीष
- कवि
- स्वतंत्र अध्येता
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