व्यंग्य
“पतंग का चस्का और थानेदार साहब का डण्डा “
मकर संक्रांति पर सुबह से ही पतंगबाजी का माहौल था। आसमान में रंग-बिरंगी पतंग, ऊंगलियों के इशारों पर नाच रहीं थी, वहीं कुछ उड़नदस्ते गली-गली में घूमकर पतंग लूटने में मशगूल थे। जैसे ही एक पतंग कटकर आंगन में गिरी, बरबस बचपन के दिन याद आ गये, ‘‘संक्रांति के कई माह पूर्व घर में फ्युज बल्ब एवं ट्यूब लाईट को डोर सूतने के लिये सम्हाल कर रख दिया जाता था।’’ जैसे-जैसे संक्रांति के दिन नजदीक आते, नये हुचके एवं पतंग की चाहत मन में उभर जाती। आस-पड़ौस के उन घरों में जहां पतंगे नहीं उड़ाई जाती थी, वहां पहले ही निवेदन कर आते। ‘‘अंकलजी इस बार आपके यहां के फ्युज्ड बल्ब और ट्यूब लाईट हमें ही मिलना चाहिये, वरना हमारी डोर कमजोर रह जाएगी। उन दिनों बस एक ही फंडा याद रहता था, जितना कांच डालो, डोर उतनी ही पक्की होगी, चाहे फिर ऊंगलियां की दुर्दशा ही क्यों न हो जाए ।
उन दिनों संक्रांति की पूर्व संख्या डोर सूतने में निकल जाती थी, उस पर यदि पतंग कट गई तो ऐसा लगता मानो नाक ही कट गई हो। डोर का सारा गणित कांच पर निर्भर रहता था। डोर को नाक के नीचे रगड़कर इस बात का अंदाजा लगाया जाता था कि यह कच्ची है या पक्की। उन दिनों मोहल्ले के मैदान में पतंग के खलीफाओं के बीच मुकाबला होता तब कुछ ढील को बल देते, कुछ खेच को। पेंच होने के बाद किसी एक की पतंग कटना तय थी, मगर जिसकी कट जाती वह हाथ को ऐसे झटका देता मानों टेक्निकल मिस्टेक यहीं से हुई है, वरना क्या मजाल की अगला बरैली की डोर काट जाय।
उस दिन भी संक्रांति पर दो पेंच कुछ ज्यादा ही लंबे खिंच गये, उस चक्कर में सब अपनी-अपनी पतंग उतारकर उन्हें देखने में तल्लीन हो गये। आधे ठाकुर साहब की ओर व आधे रहीम भाई की ओर। जब मामला लंबा खिंचने लगा, तब पेंच देख रहे कपूर साहब भी उत्तेजित हो गये, सुनों यदि डोर कुछ कम पड़ जाये तो , मुझसे ले लेना मगर कहीं से कमजोर मत पड़ना। जो लोग ठाकुर साहब की ओर थे उनमें से एक आगे बढ़कर उनकी मूंछ पर ताव देने लगा, तुम आज बिजी हो, इसलिये मैं ही मूंछ पर ताव दे देता हूँ। सबकी नजरे दोनों पतंग पर टीकी हुई थी और देखते ही देखते पतंग स्पर्धा क्लाईमेक्स पर पहुंच गई। मुझसे देखा न गया तो बाहर आ गया। सड़क पर मुसद्दीलालजी मिल गये। क्यों? आज पतंग नहीं उड़ा रहे हो भैय्या। अब अपन क्या उड़ाये भैय्या मुसद्दी, पतंग तो वहां पार्क में उड़ रही है। लोगों की सांस ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे हो रही है।
चलों वहीं चलते हैं। देखते ही देखते पार्क में विशाल जन-समुदाय एकत्रित हो गया। कोई चाँदभात की तारीफ में लगा था, तो कोई सिर कटे की। इतने में पतंग को गोता लगाते देख एक बीच में बोल उठा ‘‘उस्ताद यह तो खिरनी मांग रही है।’’ अच्छा तो क्या अब इसे उतारकर खिरनी बांधे।
इतने में किसी ने थाने में फोन कर दिया। जरा इधर की स्थिति भी संभालिये थानेदार साहब, भीड़ बढ़ती जा रही है, कहीं भगदड़ हो गई तो लेने के देने पड़ जाऐंगे। वे तुरंत पुलिस के चार जवान लेकर जंग-ए-मैदान में आ गये। थानेदार साहब हवा में डण्डा लहराते हुए बोले ‘‘क्यों बे ये हो क्या रहा है यहाँ? क्या तुम लोगों ने कभी पैच नहीं देखें, और यदि नहीं देखे हो तो हमारे थाने में आ जाओ। ऐसा पंजा लड़वायेंगे कि सारी पतंगबाजी भूल जाओगे। पिछली बार एक पहलवान ने हमें चेलेंज किया था, साले को १५१ में अंदर कर दिया, दो पिछवाड़े पर टिकाए सो अलग। साला प्रशासन को चेलेंज करने चला था। मगर थानेदार साहब हम तो सिर्फ पेंच देख रहे है। देखिए, कितनी टाईट पॉजीशन चल रही है, एकदम सायलेंट मुव्हमेंट है। अच्छा! अब ये पुलिस के सामने भी सायलेंट नहीं रहेंगे तो किसके सामने रहेंगे।
और हाँ, सुनो। यहां से सब सीधे थाने चलोगे। “जेबकटी के सारे मामले वहीं निपटायेंगे “। तभी मुसद्दीलाल हड़बड़ाकर बीच में बोले ‘‘हुजूर आज तो त्यौहार का दिन है। आज तो सबको पेंच देखने की छूट मिलनी ही चाहिए। “शटअप, देखते नहीं, अभी हम ऑन ड्यूटी है “। इस पतंगबाजी के चक्कर में यदि अन्दर हो गये, तो कोई जमानत देने वाला भी नहीं मिलेगा, समझे। और तुम क्या समझते हो, यहां पेच लड़ाये जा रहे है।
अरे! थानेदार साहब फिर इतने सारे लोग यहां खड़े-खड़े क्या कर रहे है ? हम यही पता करने आये है बच्चू। जानते हो जो यहाँ खड़े है उनमें से कई तो ऐसे हैं, जिन्हें हम सालों से ढूंढ रहे है। अब नजर आये है। यदि पहले मिल जाते, तो कभी का इंक्रीमेंट हो गया होता। और यदि तुम्हें पेच ही देखना है तो, यहां क्या कर रहे हो। दिल्ली के कॉफी हाऊस में जाकर देखों, कई पेंच पांच-पांच साल से फंसे पड़े है, कितने ही पेंच स्टेट गर्वनमेंट ने हायकमान को ट्रांसफर कर दिये हैं। और तुम जबरन यहां खड़े-खड़े समय खराब कर रहे हो। फिर तुम्हें इससे मिलेगा भी क्या।” यदि कल को कोई लंबी ऊंच-नीच हो गई तो सही-सलामत घर तक भी नहीं पहुंच पाओंगे “।
उधर दोनों ही पतंग हवा के अभाव में गोते लगाने लगी। पेंच लड़ाने वाले दोनों सुरमाा समझ चुके थे कि अब किसी भी समय किस्मत का फेसला हो सकता है। लोग दिल थाम कर आकाश की ओर टकटकी लगाए देख रहे थे, एकाएक जोरदार आवाजें आसमान छूने लगी काटा है…। दोनों पतंग अपनी अपनी डोर से आजाद होकर आसमान की सैर कर रही थी। खुशगवार माहौल में ठाकुर साहब और रहीम चाचा एक-दुसरे के गले लग गये। मैदान में ‘‘अल्लाह हो अकबर, जयश्री राम’’ के नारे गूँजने लगे। चारों ओर खुशी की लहर छा गई। मारे खुशी के मुसद्दीलाल ने भी थानेददार साहब की पीठ पर जमकर धोल जमा दी, और फिर समझ आने पर वे खिसिया कर कोने में दुबक गए ।
अनिल गुप्ता
Last Updated on January 7, 2021 by guptamedicose14
- अनिल गुप्ता
- प्रधान संपादक
- महाकाल भ्रमण
- [email protected]
- 8,कोतवाली रोड़ उज्जैन