103 साल के युवा : हमारे गोखले बुवा
महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी एवं ऐतिहासिक शहर पुणे के भी हर पुराने शहर की तरह दो चेहरे हैं, एक पुराना और दूसरा नया । पुराना पुणे विभिन्न मोहल्लों में विभाजित हैं, जिन्हें मराठी में पेठ कहा जाता है, जैसे हम मोहल्ले को हिंदी में गंज, पारा, पाड़ा, पुरा, टोला, नगर या बाद कहते हैं। पुराने पुणे के इन विभिन्न मोहल्लों में इतनी महान हस्तियां रहा करती थी कि आज यदि उनके बारे में बताया जाए तो यह सब कुछ किसी दंतकथा की तरह लगेगा। ऐसी ही एक हस्ती पुणे की पेरूगेट पुलिस चौकी के पास 60 वर्ष के लंबे समय तक समाचार पत्र बेचती रही हैं। परंपरागत सफेद कमीज, हाफ पैंट, कसा हुआ शरीर, जो कृशकाय दिखाई देता था और मुखारबिंद पर हमेशा कुछ इस प्रकार के भाव रहा करते थे कि आपने कुछ कहा और उन्होंने आप पर व्यंग्यबाण चलाकर आपको अपमानित किया । वैसे भी कटाक्ष एवं ताने प्रत्येक पुणेकर की जुबान पर रहते ही हैं। पुणे के बाशिंदों को पुणेकर कहा जाता है, जैसे भोपाल के भोपाली एवं लखनऊ के लखनवी।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस हस्ती की खासियत जानकर हम दांतों तले तले उंगली दबाने पर विवश हो जाते हैं। इस महान हस्ती का नाम हैं महादेव काशीनाथ गोखले । उनका जन्म 1907 में हुआ था। गोखले बुवा पुणे के सदाशिव पेठ इलाके में रहा करते थे। मराठी में बाबा को बुवा कहा जाता है। वे अधिक पढ़े लिखे तो नहीं थे केवल चौथी पास थे। उदर निर्वाह हेतु बुक बाइंडिंग एवं समाचार पत्र बेचने का काम करते थे। पुणे के भरत नाट्य मंदिर के पास अपनी छोटी सी दुकान पर सन 2010 तक नियमित तौर पर बैठा करते थे। तिलक से लेकर मनमोहन सिंह तक के युग को नज़दीक से देखने वाली यह शख्सियत बाबूराव के नाम से लोकप्रिय थी । लीक से हटकर कुछ अलग कर दिखाने का उनका शौक जुनून की हद तक पहुंच चुका था। बाबूराव के दिन की शुरुआत सुबह 3:30 बजे हुआ करती थी। पेरूगेट के पास स्थित अपने निवास से वे दौड़ लगाना शुरु करते थे तो कात्रज होते हुए सीधे खेड़ शिवापुर पहुंच जाते थे , वहां से सीधे सिंहगड़, सिंहगड़ से खड़कवासला होते हुए पुणे के पेरूगेट में अपनी दुकान पर लगभग 75 किलोमीटर की दौड़ लगाने के बाद सुबह ठीक 9:00 बजे हाजिर हो जाया करते थे । उनकी यह दिनचर्या 21 साल की उम्र से प्रारंभ होकर 90 वर्ष तक अबाधित रूप से चलती रही। दिन में कभी घूमने निकलते थे तो पैदल ही 70 किलोमीटर दूर स्थित लोनावला हो आते थे। शीर्षासन की मुद्रा में दोनों हाथों के बल पर पर्वती (पुणे की एक प्रसिद्ध पहाड़ी) की 103 सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाते थे । अपनी पत्नी को पीठ पर लादकर पर्वती पर चढ़ने का कीर्तिमान उन्होंने 43 बार बनाया था ।
मन में यह ख्याल आना स्वाभाविक है कि इतनी कठोर मेहनत करने वाले व्यक्ति की खुराक क्या होगी ? शर्त लग जाए तो 90 साल की उम्र में एक ही बार में 90 जलेबियां बड़े आराम से उदरस्थ कर जाते थे । सातारा में उनके एक मित्र थे- तुलसीराम मोदी, जो उन्हें प्रतिदिन सुबह नाश्ते के लिए सातारा के सुप्रसिद्ध कंदी पेड़े भिजवाया करते थे , तो पुणे के सुप्रसिद्ध काका हलवाई की दुकान से रोज 1 किलो पेड़े उनके घर पहुंच जाया करते थे।
उनकी विलक्षण प्रतिभा, शक्ति एवं ख्याति का लाभ समय-समय पर अनेक लोगों ने उठाया है । स्वतंत्रता पूर्व क्रॉसकंट्री मैराथन प्रतियोगिताओं में उन्होंने 257 मेडल जीते थे। उनकी ख्याति पूरी दुनिया में फैल चुकी थी, जिसके कारण चार अंग्रेज अधिकारी ओलंपिक में भाग लेने के लिए उनके पास दौड़ का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आते थे। बाबूराव फुर्सत के क्षणों में अंग्रेज अधिकारियों को मराठी एवं हिंदी भी सिखाया करते थे। कालांतर में उन्हें साठे बिस्कुट कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी का मुख्यालय तत्कालीन भारत के कराची में था। बाबूराव वर्षा ऋतु के 4 महीनों में पुणे में रहते थे तो शेष 8 महीने कराची में। कराची में भी उन पर लीक से हटकर कुछ अलग करने की धुन सवार थी। वे पुणे से कराची एवं कराची से पुणे साइकिल से जाते थे। एक बार तो साइकिल से मानसरोवर की यात्रा भी कर आए।
जब वे पुणे में थे तो उन्हें बाल गंधर्व के गीत संगीत का चस्का लग गया था। बाबूराव एक उत्कृष्ट तबला वादक थे। बालगंधर्व के गीत संगीत का आनंद उठाने के लिए वे बाल गंधर्व के कार्यक्रमों में डोरकीपर की नौकरी किया करते थे, जिसके कारण बाल गंधर्व के समस्त गीत शब्दों एवं धुनों सहित उन्हें याद हो चुके थे। जब वे कराची में थे तो उस समय की ख्याति प्राप्त दिग्गज गायिकाएं नरगिस की मां जद्दनबाई और बेगम आरा उनसे गंधर्व शैली की खयाल गायकी सीखने आया करती थी ।
जब बाबूराव की कीर्ति बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ तक पहुंची तो उन्होंने बाबूराव को मुद्रण कार्य का प्रशिक्षण देने के लिए अपनी रियासत के मुद्रणालय में नौकरी पर रख लिया। बाबूराव प्रिंटिंग की दुनिया में एक जाना पहचाना नाम था। अंग्रेजों से उन्होंने प्रिंटिंग की सारी तकनीकी बारीकियां सीख ली थी। हालांकि बड़ौदा नरेश ने उन्हें प्रिंटिंग अनुदेशक का काम सौंपा था लेकिन इसके पीछे मूल उद्देश्य बाबूराव को विश्व स्तर का अजेय धावक बनाना था । सन 1936 में जब जर्मनी के बर्लिन शहर में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ तो बड़ौदा नरेश को हिटलर ने विशेष निमंत्रण भेजा था। बड़ौदा नरेश बाबूराव को भी अपने साथ जर्मनी ले गए। मैराथन प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जब बाबूराव मैदान पर उतरे तो बड़ौदा नरेश ने उनका परिचय हिटलर से करा दिया। प्रतिदिन 70 किलोमीटर नंगे पांव दौड़ने वाले बाबूराव से मिलकर हिटलर इतना अधिक प्रभावित हुआ उसने बाबूराव को अपना खास मेहमान बनाकर कुछ दिनों के लिए जर्मनी में ही रख लिया। जर्मनी प्रवास के दौरान बाबूराव की हिटलर से अच्छी दोस्ती हो चुकी थी । बड़ौदा नरेश के साथ जब वे पर्यटन हेतु लंदन गए तो उनके स्वागत के लिए बंदरगाह पर लंदन के गवर्नर स्वयं उपस्थित हुए थे। यह देखकर बड़ौदा नरेश आश्चर्यचकित हो गए । इस पर बाबूराव ने उन्हें बताया कि इन गवर्नर महोदय को वह पुणे में मैराथन दौड़ में सफलता के मंत्र दिया करते थे तथा मराठी एवं हिंदी पढ़ाया करते थे और वे अंग्रेज अफसर बाबूराव को मुद्रण का कार्य सिखाते थे। बाबूराव एवं इस अंग्रेज अफसर में गुरु शिष्य का संबंध स्थापित हो चुका था, जो आजीवन चलता रहा।
बाबूराव का एक शौक बड़ा विचित्र था। अपनी युवावस्था में वे घर में अजगर, शेर, भालू आदि हिंसक जानवर पाला करते थे।मुझे लगता है कि शायद बाबूराव से प्रेरणा पाकर बाबा आमटे के सुपुत्र डॉक्टर प्रकाश आमटे ने महाराष्ट्र के गडचिरोली जिले में स्थित अपने हेमलकसा आश्रम में जंगली एवं हिंसक पशुओं को पालतू बनाया है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पुत्र पूर्व विधानसभा अध्यक्ष जयवंतराव तिलक बाबूराव के खास मित्र थे । दोनों मित्र शिकार के लिए घने जंगलों की खाक छानते फिरते थे। स्वतंत्रता के पश्चात बाबूराम ने समाचार पत्र बेचने एवं बुक बाइंडिंग करने हेतु अपनी छोटी सी दुकान खोल ली थी, लेकिन कभी भी अपने उच्च संपर्कों का इस्तेमाल नहीं किया। वे आजीवन समाचार पत्र बेचते तथा बुक बाइंडिंग करते रहे। उन्होंने 103 साल की लंबी आयु पाई। वे प्रतिदिन 15 भाकरी (ज्वार की बड़ी मोटी रोटी) खाते थे लेकिन उनकी तरफ देखकर यह विश्वास नहीं होता था कि इतना दुबला पतला व्यक्ति इतना सारा भोजन करता होगा। उनके बारे में खास बात यह थी कि वे कभी भी किसी डॉक्टर के पास या अस्पताल में नहीं गए इसलिए उनकी मृत्यु होने पर उनकी बेटी एवं दामाद को मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े । अजब गोखले बुवा की गजब कहानी पढ़कर यह खयाल मन में आ सकता है कि इस व्यक्तिचित्र को चटपटा, सनसनीखेज, रोचक एवं मसालेदार बनाने के लिए अतिशयोक्ति का सहारा लिया गया है लेकिन यदि आप आज भी पुणे के सदाशिव पेठ में जाएंगे तो बाबूराव के पराक्रमों के साक्षी अनेक वृद्धजन आपको मिल जाएंगे, जो बड़े उत्साह एवं अपनत्व के साथ आपको बाबूराव के जीवन की अनेक रोचक घटनाएं सुनाएंगे। सन 1998 से 2014 तक अपने पुणे प्रवास के दौरान मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिल चुका हूं, जो बाबूराव के कीर्तिमानों के साक्षी रहे हैं ।
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Last Updated on January 21, 2021 by vipkum3
- विपिन पवार
- उप महाप्रबंधक ( राजभाषा )
- भारतीय रेल
- [email protected]
- 1, बेरिल हाउस, रेलवे अधिकारी आवास, नाथालाल पारेख मार्ग , कुलाबा, मुंबई 400001