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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

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डॉ. शैलेश शुक्ला

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मुद्दा तो ये राष्ट्रीय पहले से ही है, डर है कहीं जन आंदोलन न बन जाए..

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सुशील कुमार ‘नवीन’

दिल्ली बॉर्डर पर हिमपात सी शीतलहर में लगातार डेरा जमाए बैठे किसानों से बड़ा वर्तमान में कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है। आंदोलन की शुरुआत से अब तक न जाने कितने इसकी भेंट चढ़ चुके हैं और न जाने समाप्ति तक कितने और जान पर खेलेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऊपर से सन्त बाबा राम सिंह जैसे व्यक्तित्व का इस मामले में जीवन समर्पण इसकी गम्भीरता को और बढ़ा गया। सैकड़ों कोस सुदूर घर छोड़ यहां जमे बैठे लोगों को न कोरोना का डर है न किसी तरह की दमनात्मक कार्रवाई का। मौसम को तो खुला चैलेंज उन्होंने शुरू से ही दिया हुआ है। हर तरह के भय से दूर ये 20 दिन से भी ज्यादा समय से मुखरित हैं। किस तरह ये इतनी भारी संख्या को बरकरार रखे हुए हैं। उनके लिए सभी तरह की व्यवस्थाओं का प्रबंध किस प्रकार हो पा रहा है, यह शोध तक का विषय बन चुका है। जिस तरह से इसकी शुरुआत हुई थी राष्ट्रीय मुद्दे का रूप तो इस विषय ने उसी समय ले लिया था। जैसे-जैसे समय निकल रहा है, उससे इसके जन आंदोलन का रूप लेने की सम्भावनाएं और ज्यादा बनती प्रतीत हो रही हैं। 

    आप सोच रहे होंगे कि आज ये विषय मैंने क्यों चुना। तो सुनिए सुबह-सुबह आज सैर के दौरान खेत की तरफ जाना हुआ। रास्ते में ही गांव के नाते से चाचा लगने वाले ज्ञानीराम जी मिल गए। कंधे पर गीली मिट्टी से सनी कस्सी और भीगे कपड़े उनकी कर्मपरायणता के साक्षात दर्शन करा रहे थे। सुबह-सुबह चल रही शीत लहर को मानो खुला चैलेंज, कि दम है तो मुझसे टकराकर दिखा। औपचारिक राम-राम हुई। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बातचीत किसान आंदोलन पर जा पहुंचीं। चाचा एक दिन पहले ही दिल्ली बॉर्डर से लौटे थे। पानी का वार था सो एक दिन के लिए बीच में लौट आए। कल सुबह-सुबह फिर कूच का कार्यक्रम पहले से ही तय था।

ठंड ज्यादा थी और उनके कपड़े गीले थे, सो मैंने कहा-चाचा, ठंड लग जाएगी। दोपहर बाद मिलते हैं। जवाब दिल को छू गया। बोले-बेटा, जब हम्मनै ठंड लागणी शुरू होग्गी नै तो यो सारा देश पाले ज्यूं जम ज्यागा। अर, इसा जमैगा कि कस्सी तैं भी ना पाटैगा। मैंने कहा- चाचा, बात आपकी सौ फीसदी सही है। जिस दिन देश का किसान सो गया, सब कुछ सो जाएगा। आप तो दिल्ली गए थे, क्या लग रहा है। कुछ बताओ। चाचा ने कस्सी कंधे से नीचे उतार साइड पर रख दी। खेत की मेड पर खुद भी बैठ गए और मुझे भी बैठा लिया। आदतन बीड़ी सुलगा ली और हो गए शुरू।

बोले- कंपकपाती ठंड में किसान दिल्ली बॉर्डर पर डेरा जमाए बैठे हैं। जिद है जब तक कानून रद्द नहीं होंगे, तब तक कदम पीछे नहीं खींचेंगे। सरकार अपने पूरे प्रयास कर चुकी है। वार्ताओं का लंबा दौर तक चल चुका है। किसान अपने तर्क दे इन्हें किसान विरोधी घोषित बता रहे हैं तो सत्ता पक्ष अपने तर्कों से इन्हें किसान हितैषी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा। 

मैंने कहा- चाचा, मामला तो अब ‘माईलोर्ड’ तक भी जा पहुंचा है। बुधवार को सुनवाई के दौरान ‘माईलोर्ड’ भी इस मामले में पूर्ण चिंतित दिखें हैं। ये तक कहना कि किसानों के मसले जल्द हल न हुए तो राष्ट्रीय मुद्दा बनेगा, कोई छोटी बात नहीं है। देखना, अब जरूर कोई न कोई समाधान निकलेगा। मेरी बात बीच में ही काटकर चाचा बोले- भई मुद्दा तो यो शुरू से ही है। किसान पूरे देश से जुड़ा है। वो खुशहाल तो देश खुशहाल। सुन बावले, बिना दर्द कोई भी न करहावै। इतना बड़ा रामरोला न्यूं ना कट्ठा हो रहया। आंख बंद करण तै सूरज थोड़े ही न छिप ज्यागा। कबूतर के पलकें झपकाने से कभी बिल्ली को भागते देखा है क्या।

मैंने पूछा तो क्या होना चाहिए। बोले-जो चीज जिसके लिए बनी हो,वही उसे नुकसान करे तो उसका क्या फायदा। मरीज की बिना मंजूरी डॉक्टर ऑपरेशन थोड़े ही करता है। बात अब छोटी नहीं रही है। गांव-गांव से लोग अब वहां पहुंच रहे हैं। तन-मन-धन से सहयोग कर रहें हैं। मूक समर्थन भी मुखरित होने लगा है। यूं रहा तो यह जन आंदोलन का रूप भी ले सकता है। यह कहकर चाचा ने विदा ली। मैं कुछ समय वही बैठ सोचता रहा कि बात में तो दम है। विरोध के सुर तो दो-चार दिन के होते हैं, जो धीरे-धीरे मंद पड़ जाते हैं। पर यहां तो ग्राफ लगातार ऊपर की ओर ही जा रहा है। कोर्ट तक इस मामले में गम्भीर है। बड़ी बात नहीं है कि यह राष्ट्रीय मुद्दा कहीं जन आंदोलन बन इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो जाए।

(नोट: लेख मात्र पढ़ने के लिए है। इसे व्यक्तिगत रूप में न लें।)

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

photo; google

Last Updated on December 20, 2020 by dmrekharani

  • सुशील कुमार 'नवीन'
  • Deputy Editor
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