न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

भूमन्डलीकरण में दलित स्त्री के जीवन में बदलाव

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डॉ० बबलू कुमार भट्ट
असिस्टेंट प्रोफेसर हिंदी
श्रीमती विमला देवी इंस्टीट्यूट आफ एजुकेशन जलेसर रोड आवागढ़ एटा उत्तर प्रदेश
Email- [email protected]
Mo-9838991267

स्त्री चाहे किसी भी जात की हो उसे हमेशा प्राचीन काल से लेकर दबाया जाता था क्योंकि इस्त्री को हमेशा एक तरह से घर में कैद कर रखा जाता था और स्त्रियों पर अत्याचार किया जाता था । समाज में भारतीय महिलाओं की स्थिति में मध्ययुगीन के दौरान और अधिक गिरावट आई । जब भारत के कुछ समुदायों ने सती प्रथा बाल विवाह और विधवा पुनर्विवाह पर रोक सामाजिक जिंदगी का एक हिस्सा बन गई थी । भारत को कुछ हिस्सों में देव दासियों या मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा था । बहु विवाह की प्रथा हिंदू क्षत्रिय शासकों में व्यापक रूप से प्रचलित थी । कई मुस्लिम परिवारों में महिलाओं को जनाना क्षेत्रों तक ही सीमित रखा गया था इसी तरह दलित में दलित माने जाने वाला तब का है दलित स्त्री समाज जिसे अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता नहीं है । अगर वे निडर होकर अपनी बात जनता के समक्ष रखते हैं तो परिणाम क्या होता है उन्हें सरेआम बेइज्जत किया जाता है उनके साथ बलात्कार किया जाता है उन्हें प्रताड़ना सहनी पड़ती हैं और उन्हें धमकियां सुननी पड़ती हैं ।दलित स्त्रियों को ना तो इंसानसमझा जाता है और ना ही मानव, मानव अधिकारों का अधिकारी । वह मूर्ख प्राणी पुरुषों और परिवार समाज की गुलामी करने के लिए पैदा होती है । ऐसा माना जाता है कि उसकी छोटी सी गलती के लिए उसे मनमानी बड़ा दंड दिया जाता है उसके ऊपर किए जाने वाले अन्याय अत्याचारों पर कोई विचार नहीं करता है । उसे न्याय दिलाने के लिए कोई आगे नहीं बढ़ता है । कुछ धर्म सुधारकोऔर समाज सुधारको, राजनेताओं ने नारी उद्धार के क्षेत्र में काम किया है ।समाज को संदेश दिया है कि नारी पर जुल्म ना करो, उस पर दया करो ,अच्छे उपदेश में मात्र दया और सहानुभूति थी जिसे मानना या न मानना लोगों को अपनी मर्जी होती थी ।अतः उपदेश सुनने के बाद भी नारी पर अत्याचार होते रहे लेकिन उनकी रक्षा के लिए कानून तो बनाया गया और अपराध करने वाले को दंड देने की व्यवस्था की गई लेकिन व्यावहारिक रूप से इसके लिए सही ठोस कदम नहीं उठाए गए समाज में नारी पर तरह-तरह के शोषण और अन्याय होते रहते हैं धोखा बलात्कार हिंसा अपमान श्रम और शोषण का शिकार नारी आज भी बनती हैं ।
21वीं सदी में आज हम जी रहे हैं इस शताब्दी ने ज्ञान की तीसरी आंख खुलती है दुनिया आज वहां नहीं है जहां पहले थी ।आधुनिकता के दौर में हमें बहुत विकसित किया पर आज वह भी विकसित होकर उत्तर आधुनिकता का रूप ले चुकी है ।भारत एवं विश्व चारो ओर बदला है ।परंपराओं का विकास हो चुका है ।और वह आज हमारे जीवन के अनुकूल बन गई है मोबाइल फोन की परिकल्पना ने जीवन को बहुत सरल और दुनिया मुट्ठी में कर दी है निश्चय ही मनुष्य का निरंतर गतिमान जिजीविषा विकसित हुई है ।

निश्चय ही जब इतना सब कुछ बदल गया है तो समाज का आधा हिस्सा इस्त्री क्यों ना बदलेगी सूक्ष्म रूप से देखा जाए तो यह शताब्दी घोषणा करती है कि मैं चील उपेक्षित इस्त्री दलित शोषित ओं को शोषण से मुक्ति दिलाने के लिए आई हूं विचार को ने भी घोषणा की है कि 21वीं शताब्दी की स्त्रियों दलितों की होगी फिर इस शताब्दी में स्त्री और दलित के जीवन बदलाव को सहज ही देखा जा सकता है । इसका सीधा साधा अर्थ है कि मनुष्य का जीवन बदल गया है पुरुष और शासकों की दृष्टि बदली है । मैं यह भी कहना चाहूंगा कि यह शताब्दी इस्त्री दलित के साथ-साथ लोकतंत्र की भी शताब्दी होगी ,इसमें लोकतंत्र चलेगा खुलेगा और स्त्री दलित अपना सामाजिक, सांस्कृतिक ,आर्थिक, नैतिक व्यक्तिगत ,प्रत्येक स्तर पर विकास करेंगे । 21 वी शताब्दी के पहले ही वर्ष को स्त्री सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया जाता है । प्रश्न यह उठता है कि 21वीं शताब्दी का नारीवाद कैसा होगा ? इसकी दशा क्या होगी ? आज स्त्री की नजर आकाश जाती है । मुझे एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं ।

“आकाश चाहती है
हर लड़की –
सोचती है सूरज चाँद तारों के बारे में
सपनों में आता है चाँद पर अपना घर -घर 
उसके पैर धरती पर जमें हैं ।

दलित और आदिवासी अर्थात सीमांत स्त्रियों के बारे में एक लेख में रामशरण जोशी लिखते हैं” सीमांत समाजों की औरतों को मर्द सत्ता के साथ-साथ जातीय सत्ता और सांस्कृतिक दवाओं को भी सहना पड़ता है जात के रूप में दलित समाज की औरतें जहां सवार विवेकआत्मक व विषमता वादी संस्कृति का निरंतर शिकार रहती हैं ,वहीं वे जीवन पर्यंत पुरुष सत्ता से आक्रांत रहती हैं ,वह मर्द की शारीरिक सुख और परिवार की उदर भूख को एक साथ शांत करने का माध्यम बनती हैं ।जाति समाज के दबाव को अलग से खेलती है दलित औरतों में मनुष्य को होने का एहसास ही पैदा नहीं होने पाता अस्तित्व स्मिता बोध का प्रश्न तो उठता ही नहीं” ।

दलित औरतों को मानसिक स्तर को इतना सताया जाता है कि उनकी स्वतंत्र चेतना ही समाप्त हो जाती है । आपने लगातार अखबारों में दलित औरतों को गांव में एकदम निर्वस्त्र घुमाने की घटनाएं पढी होगी ।इसमें प्रमुख बात यह है कि इस समय डर के कारण घर का कोई भी सदस्य यहां तक कि उसका पति भी उसका साथ नहीं होता है । ऐसा करते वक्त बलात्कार की घटनाएं भी होती हैं ।इन घटनाओं की पुलिस रिपोर्ट भी नहीं दर्ज करती और यदि करती भी है तो सवर्ण जो आर्थिक रूप से मजबूत होता है पैसे देकर मामला रफा-दफा कर देता है । दलित औरत के जीवन का संकट गहरा है । उसे चारों ओर से निराशा ही हाथ लगती है उसे पारंपरिक रूप से कैद है और अंत में बसती है । उसकी जातिगत रूप से कैद है और पुरुष की कैद में है और अंत में बसती है उसकी चेतना जो इन सब दबाव के कारण उठाने नहीं पाती है ।

दलित स्त्री के श्रम और पैसे पर जब उसका खुद का अधिकार ना होगा , तब तक यह दशा चलेगी क्योंकि स्त्री मुक्ति की पहली शर्त है आर्थिक स्वालंबन और दूसरी शर्त है शिक्षा और तीसरी शर्त है पूर्व संस्कारों एवं नैतिकता ओं से मुक्ति जो महिला ने लगभग प्राप्त कर लिया है और औरत को प्राप्त करना अभी बाकी है जिस दिन गांव की स्त्री इसको प्राप्त कर लेगी । मैं शैली अपनानी पड़ेगी अर्थात व्यक्तिक होना पड़ेगा क्योंकि पिछली सर्दियों में स्त्री ने अपना व्यक्तिगत स्वरूप समाज के विकास के लिए भुला दिया था ।लेकिन उसकी यह सबसे बड़ी भूल थी क्योंकि इसी कारण वह गुलाम हुई मुक्ति के लिए उसे आज व्यक्तिगत चेतना की आवश्यकता है । जिससे वह अपना अस्तित्व बचा कर समाज में अपना स्वतंत्र जीवन जी सके और अपना अस्तित्व कायम कर सके।

दलित महिला कथाकारों ने एक नई भूमिका तैयार की है डाo सुशीला तक घोड़े की कहानी सिलिया के मुख्य पात्र सिलिया को जो बड़ी कठिनाई से मैट्रिक पास करती है । कोई भी लालच रास्ते से भटका नहीं पाता है । शुद्र और पक्के इस दो वाली सिलिया ने जिस प्रकार के सामाजिक उत्पीड़न सहे हैं, वह सब उसकी स्मृति में ताजा है तमाम सुविधाओं के बीच भी वह सम्मान से जीना चाहती है यही संकल्प उसे लड़ने का हौसला देता है, यह एक अंतर्मुखी कहानी है जो सुधारवादी दृष्टिकोण से लिखी गई है, इसके ठीक विपरीत रजत रानी मीनू ने सुनीता कहानी में गंभीर सरोकारों और बदलाव उत्कट की चाह को दलित नारी की आंतरिक शक्ति बनाया है । सुनीता में यह क्षमता है कि वह अपनी बात पर ऐड कर उसे मानो मनवा सकती है । परिवर्तन की संघर्षशील प्रवृत्ति से संस्कारित सुनीता एक अद्भुत चरित्र है I

डॉ पुष्पा पाल सिंह कहतीहैं ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी एक अभूतपूर्व पात्र हिंदी कहानी में प्रस्तुत करती है और हिंदी में दलित साहित्य का आंदोलन सा उठा है उसमें अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराती ओमप्रकाश बाल्मीकि ने अम्मा के वर्गीय चरित्र और निजता को अत्यंत कुशलता से उकेरा है । अम्मा कहानी पर टिप्पणी करते हुए महेश कटारे लिखते हैं हिंदी में दलित चेतना को स्वर देते हुए उपेक्षित वर्ग के संघर्ष व आत्म सम्मान की रेखाएं उभारती हैं । रमणिका गुप्ता का कथन है कि  कहानियां सामाजिक बदलाव लाने का आवाहन करती हैं । इन कहानियों में आक्रोश है, आग है ,गुस्सा है ,जो साथ साथ संवेदना, मानवीयता और सब्र भी है न्याय की उत्कृष्ट लालसा है,समानता की तीव्र ललक है, भाईचारे की भावना है, आदर पाने की इच्छा भी बलवती है । दलित जीवन की नाल की विभीषिका है ,जहां दलित कहानियों को जीवन से जोड़ती है, वही कहानियां मानवीय सरोकारों को प्रतिबद्धता के साथ प्रस्तुत भी करती है ।अपनी अस्मिता की तलाश और व्यापक स्तर पर अपने अधिकारों के प्रति सजगता इन में स्पष्ट दिखाई पड़ती है ।सामाजिक जीवन के अंतर संबंधों की जटिलता ने जो खाई पैदा की है उसे पाटने का काम भी दलित कहानियों की प्राथमिकताओं में है।

ऐसी ही एक कहानी है ललित शाह की गिद्धा कॉल फूलमती एक जवान विधवा मजदूर नी है जिसके यौन शोषण के प्रति हर पुरुष उतावला है और जमींदार का बेटा रजिंदर इन सब पर भारी पड़ता है । उसको सहयोग भी देते हैं मजबूर वर्ग के लोग बार-बार बस जाने पर अत्यंत वह कुचक्र में फंस कर राजेंद्र का शिकार बन ही जाती है पर वह इसका बदला भी लेना चाहती है और राजेंद्र का क्षणिक संतुष्टि उसी क्षण उसके मृत्यु में बदल जाती है । फूलमती का यह रूप ही आधुनिक नारी चेतना है नारी का आदर्श है ।  इसी तरह की एक नारी है रामकली, जो पुण्य सिंह की कहानी इस इलाके की सबसे कीमती औरत के रूप में उभरी है जो औरतों का व्यापार करने वाले सामाजिक ठेकेदारों पुलिस और अधिकारियों से संघर्षरत है ।  उर्मिला सीरीज की चौथी पगडंडी की नायिका भी इसी को में आती है और सबसे महत्वपूर्ण स्त्री है । संजीवन की त्रिवेणी का तमन्ना त्रिवेणी अपनी पत्नी के साहस के कारण ही मृत्यु के मुख से बच निकलता है और इस्मत चुगताई की मोखा की नायिका भी अपनी मां की संत्रास से जो उससे पैदा कराना चाहता है मुक्ति के लिए गरीब स्वाभिमानी युवक से विवाह करती है । सी भास्कर राव की सावधान सुब्बा, राव मुलु कि मंत्री द्वारा बलात्कार के बाद भी संघर्ष के लिए प्रस्तुत है कुसुम अंसल कि मेरे आशिक का नाम में नारी शोषण के विरोध में खुला स्वर मुखर हुआ है । नायिका उपमा दादा की बेरहमी पति के व्यंग बाड़ी का शिकार हूं पर वह आरती नहीं अध्ययन पूरा कर प्रेक्टिस प्रारंभ करती है खुल जा सिम सिम लाला शर्मा दो दूनी चार कमल कुमार आदि ऐसी ही कहानियां हैं ।
निश्चय ही इस काल की कुछ ऐसी कहानियां हैं जिसमें नारी अपनी नग्नता शोषण अत्याचार कुरूपता ओं के विरुद्ध आक्रोश है संघर्ष का आवाहन है लंबी लड़ाई की तैयारी है I

90 का दशक शुरू होने सेठीक पहले नारीवाद सेठिया इनेलो नेभूमंडलीकरण केसमर्थकों ने पूछा था कि तुम्हारी व्यवस्था में औरत कहां हैं अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूंजी अमल बरदार ओनेइस छोटे से सवाल का लंबा जवाब दिया है तुम्हारी व्यवस्था में औरत कहां हैं उन्होंने तरह-तरह से कहा कि औरतें राजनीति में हैं और स्त्री समर्थक राजनेताओं को वोट देने की तैयारी कर रही हैं इसके अलावा कि निर्यात संवर्धन क्षेत्रों में लगी फैक्ट्रियों में बड़े पैमाने पर नौकरी कर रही हैं नई विश्व अर्थव्यवस्था ने इन्हें सबसे ज्यादा रोजगार दिया है साथ ही वे फिल्मों में मॉडलिंग में टीवी सीरियलों में पाप संगीत में विज्ञापनों में और सौंदर्य प्रतियोगिताओं में छाई हुई है वे धीरे-धीरे शासन में ऊंचे पदों पर पहुंचती जा रही हैं और बहुराष्ट्रीय नियमों के बीच उनकी प्रबंधन क्षमता का इस्तेमाल करने की दौड़ मची हुई है ।
इस जवाब का सार तत्व यह है कि भूमंडलीकरण ने औरतों को पावर वूमेन बना दिया है यह सब करने के लिए किसी नारीवादी गोलबंदी अथवा सिद्धांत शास्त्र की जरूरत भी नहीं पड़ी केवल बाजार पूंजी और संचार क्रांति की ताकत के दम पर औरत की दुनिया बदल गई है । भूमंडलीकरण ने दावा किया है कि अब पहले से कहीं ज्यादा औरतें अपने लैंगिक हित क्या ध्यान में रखकर वोट डालती हैं और राजनीति में सीधी भागीदारी करती हैं । अब पहले से कहीं ज्यादा औरतों के पास अपनी निजी आमदनी का स्रोत है और वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं, सुंदर उद्योग और पाप संस्कृति के जरिए उन्होंने अपनी योग्यता का दो तरफा इस्तेमाल किया है अर्थात ख्याति और धन कमाने के साथ-साथ उन्होंने पुरुष को चमत्कृत कर दिया है ।अब पहले से कहीं ज्यादा औरतें आर्थिक और प्रशासनिक सत्ता में निरंकारी हैसियत प्राप्त करती जा रही है । पुरुषों के हाथों का खिलौना बनने के बजाय उनके हाथ में पुरुषों को अपनी मर्जी से चलाने की ताकत आ गई है ।
भूमंडलीकरण के कारण महिलाओं की स्थिति में कुछ परिवर्तन अवश्य दृष्टिगोचर हुआ है । कोरिया में नौकरियों के आग्रह है के कारण उनकी विवाह योग्य आयु में बढ़ोतरी हुई है और पैदा किए जाने वाले बच्चों को औसत संस्था में कमी आई है भारतीय मध्यवर्ग लड़कियों की शिक्षा में पहले की अपेक्षा अधिक निवेश करने लगा है, क्योंकि उसे उनकी नौकरियों की संभावना कुछ बेहतर लग रही है बांग्लादेश में अब देहाती परिवार भी अपनी औरतों को नौकरी के अवसरों वाले इलाकों में भेजने के लिए तैयार हो जाते हैं जबकि कुछ वर्ष पहले तक केवल उच्च वर्गीय शिक्षित महिलाएं ही ऐसा कर पाती थी लेकिन तीन छोटे-छोटे लाखों का आपस में जोड़कर भी भूमंडलीकरण के तहत महिलाओं का कोई बड़ा उल्लेखनीय लाभ होता नहीं दिखाई देता है I
स्त्री विमर्श की ओर से कुमार भरी नींद तोड़ने के लिए देवरानी जेठानी की कहानी और भाग्यवती शरीर की रचनाओं को निशंक भाव से प्रभातफेरी ओं का दर्जा दिया जा सकता है समाज सुधार के सहज और समाज बड़े उद्देश्य पात्र कथानक तथा घटनाओं से भूमि इन रचनाओं में राजा राममोहन ईश्वर चंद्र विद्यासागर रनाडी महर्षी करवे महर्षि दयानंद के समाज सुधार आंदोलन की परंपरा अनुगूंज और साफ दिखाई पड़ती है बाल विवाह विरोध विधवा विरोध समर्थन स्त्री शिक्षा आदि इनके प्रमुख विषय थे।

संदर्भ सूची
1-उत्तर आधुनिकता और कथाकार निराला का स्त्री विमर्श ,अनुज्ञा बुक्स दिल्ली 2015 पृ०20,21,25,26,28
2-दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र: ओमप्रकाश बाल्मीकि, राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड ,नई दिल्ली 2009 पृ०115,116,117
3-दलित चेतना की कहानियां । बदलती परिभाषाएं, राजमणि शर्मा , वाणी प्रकाशन नई दिल्ली 2008 पृ०27,28
4-भारत का भूमंडलीकरण, अभय कुमार दुबे, वाणी प्रकाशन प्राइम लिमिटेड नई दिल्ली 2007 पृष्ठ 221 ,235
5-हिंदी साहित्य का अर्वाचीन इतिहास ,राजेश श्रीवास्तव 2016, कैलाश पुस्तक सदन भोपाल, पृष्ठ 244 ,245

Last Updated on December 18, 2020 by srijanaustralia

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2 thoughts on “भूमन्डलीकरण में दलित स्त्री के जीवन में बदलाव”

  1. आप सभी संपादक मंडल को सादर प्रणाम
    हमें अतीव हर्ष हो रहा है कि मेरे द्वारा भेजा गया लेख “भूमंडलीकरण में दलित स्त्री के जीवन में बदलाव” आप सब की महती कृपा से आपकी पत्रिका में जगह मिलने जा रही है ।यह मेरे लिए गौरव की बात है आप सभी से सादर अनुरोध है कि उक्त पत्रिका मेरे इस पते पर भेजने की आहेत की कृपा करें
    डॉ० बबलू कुमार भट्ट
    आदित्य बिरला इंटरमीडिएट कॉलेज रेणुकूट सोनभद्र उत्तर प्रदेश
    पिन कोड -231217

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