न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

भटकती आत्मा

Spread the love
image_pdfimage_print

भटकती आत्मा!

चौबीसों घण्टे,नकारात्मकता से युक्त
रोज़ाना ख़बरों में कोरोना वायरस के संक्रमण के बढ़ते मामलों और मृत्यु-दर के साथ-साथ असंख्य कहानियों को सुनते-देखते,ज़िंदगी अग्रसर है।

मार्च में लॉक-डाउन के बावजूद,
तबलीगी जमातियों द्वारा सोची-समझी रणनीति के तहत दिल्ली से देश के विभिन्न हिस्सों में आवागमन से कोरोना वायरस संक्रमण का प्रसार….फिर अनियंत्रित विस्फोट

इटली से हनीमून मना कर लौटे जोड़े में,संक्रमित पति को बेंगलुरु के अस्पताल में छोड़ कर भागी नवब्याहता पत्नी, अपने मायके आगरा।

डॉक्टरों-स्वास्थ्यकर्मियों और सुरक्षा कर्मियों के प्रति,कोरोना संक्रमितों द्वारा अनियंत्रित धृष्टता और दुष्टता।

तालाबंदी के दौरान जानबूझ कर आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक खींच-तान और विसंगतियों को उत्पन्न किया गया ।संक्रमण के अनियंत्रित प्रसार नियंत्रण के लिए यातायात व्यवस्थाजनित अवरोध केंद्र सरकार द्वारा किया गया था। विभिन्न राज्य-सरकारों की असहयोगात्मक रवैए से अराजकता और अव्यवस्था उत्पन्न हुई।महाराष्ट्र, गुजरात,

आंध्र प्रदेश,दिल्ली जैसे राज्यों से बड़ी संख्या में पैदल पलायन करने पर मजबूर मज़दूरों ने उत्तर प्रदेश,बिहार,झारखण्ड,

उड़िसा, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में वापसी की।वापसी जनित उत्पन्न विसंगतियाँ,दुर्घटना और मृत्यु की स्थान पातीं ख़बरें।

अति संवेदनशील संक्रमित शहरी क्षेत्रों से दूर,अछूते ग्रामीण क्षेत्रों को संक्रमित करने के लिए कैसे मज़दूरों और निम्न तबक़े के लोगों को उकसाया गया

मेरे सामने ही 18 मार्च को परिचित परिवार के बीस-पच्चीस लोगों का समूह किसी विवाह समारोह में शामिल होने के लिए निकला था। मध्य प्रदेश के इंदौर में उस रिश्तेदार के यहाँ,कई अन्य सदस्यों के साथ लॉक-डाउन के कारण फँसे रह जाना भी विचित्र आकस्मिक संयोग था। स्थानीय लोग तो चले गए होंगे किन्तु कुल जमा बाहरी मेहमानों में पचास से साठ लोगों के तीनों समय की भोजन व्यवस्था अन्य प्रबंधन की बड़ी ज़िम्मेदारी सोच-सोच कर मैं आश्चर्यचकित,कभी विस्मित,

पेट पकड़ रही थी, कभी सिर।………हे भगवान!

अपने दामाद के भाई की आकस्मिक दुर्घटना मृत्यु के कारण पटना से बोकारो में फँसे, पारिवारिक सदस्यों के साथ एक बुज़ुर्ग की प्रतिक्रिया स्वरूप सोशल-मीडिया पर उत्पन्न खीझ पर मेरी दृष्टि गई।परिणामस्वरूप उनके लौटने में सहायक, आवश्यक जानकारियों की चर्चा करते हुए समस्याओं का समाधान हुआ

टालने वाली स्थितियों-परिस्थितियों को टाल भी दिया जाए परन्तु जन्म-मृत्यु की आकस्मिकता को कौन टाल पाया है भला?

सुरक्षा-असुरक्षा,देखते-विचारते बच्चों के साथ अपने माता-पिता,सगे-संबंधियों,

रिश्तेदारों के अंतिम संस्कारों में ना पहुँच पाने वाले बेटे-बेटी और स्वजनों का दु:ख

लोकाचार और सामाजिकता की तिलांजलि चढ़ती इस घड़ी में,संक्रमण के बढ़ते प्रभाव और ठप्प यातायात संसाधनों के कारण ,फूफा जी की अंत्येष्टि क्रिया-कर्म में हमारे माता-पिता भी तो सम्मिलित नहीं हो पाए थे।

अधिकांशतः घरों में,पूर्व नियोजित वैवाहिक शुभ-मुहूर्तों को टालने की विवशता आई।

मई के पहले सप्ताह में ही पुरुष हिंसक वृत्ति की शिकार हुई वर्षों की गृहस्थी में घुटती-पिटती परिचिता एक स्त्री,दो बच्चों की माँ,मार डाली गई।संबंधों की भावनात्मक कोमलता विहीन ज्ञात-अज्ञात इस समाज में, ना जाने कहाँ-कहाँ मार डाली गई होंगी ‌?

लॉक डाउन में क़ैद तो मैं भी हूँ, पर ना जाने क्यों?जान-ज़िंदगी,घर-परिवार के परिप्रेक्ष्य में,आर्थिक-राजनीतिक-

सामाजिक जीवन के जोड़-घटाव-गुणा-भाग से दूर यह क़ैद,एक गृहिणी रूप में उतनी अप्रिय बिलकुल नहीं गुज़रती, जितना कि बाहरी दुनिया में हो-हल्ला मचा है।इस लॉक-डाउन के बहाने ही सही,इधर पहली बार बाहरी भाग-दौड़ की परिक्रमा से मुक्त होकर,थोड़ा रुक कर,

जीवन और अपने आप के प्रति समय मिला है जो संभवतः आजीवन नहीं मिलने वाला।

हाँ,मैं जानती हूँ अपनी सीमाएँ। बावजूद वर्तमान-भविष्य के प्रति कोई निराशा और हताशा नहीं है।जान बचे तो लाखों पाए,बस कोरोना वायरस ख़त्म हो जाए।हँसते हुए प्रयास जारी है।”दूध,चूड़ा-गुड़,सत्तू,भूजा,खिचड़ी जैसी तात्कालिक व्यवस्था के साथ किसी भी भूखे को देने के लिए तैयार हूँ मैं “-कहकर ख़ुद को प्रोत्साहित कर ही सकते हैं।

चाय का प्याला लिए अपने घर की बालकनी से बाहरी दुनिया की हलचलों को देख रही हूँ।प्रधानमंत्री की अपील के बावजूद यह राज्य सरकार और क्षेत्रीय स्तर पर बहुत बड़ी असफलता नहीं तो और क्या है?ये अनियंत्रित लोग जाने-अनजाने कितने निर्दोषों की बीमारी और मौत का कारण बनने वाले हैं।

हाँ,तो अभी मैं,जिस व्यक्तित्व की चर्चा कर रही हूँ,उसे अपने शारीरिक
-मानसिक जीवित रूप में यदि उन्हें भटकती आत्मा कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। बंगाली ब्राह्मण रेलवे कर्मचारी पिता की नौ-दस संतानों में वह एक ऐसी है, जो अपने कटे होंठ की जन्मजात विकृति के साथ,काली-कुरूप उत्पन्न हुई थी।जिसके कारण शिक्षा जैसी बुनियादी अधिकारों तक से वंचित रहने की विवशता मिली। बचपन से ही पारिवारिक-सामाजिक जीवन की सक्रिय सहभागिता से उपेक्षित रह गई।उनके अन्य सभी भाई-बहनों का जीवन तो सामान्य रहा,पर वह प्रकृति के क्रूरतम खेल के कारण कली से फूल बनने में असमर्थ रही

माता-पिता की मृत्योपरांत अभावग्रस्त जीवन जीने की विवशता भी पड़ी थी उन्हें।अन्ततः लम्बी क़ानूनी लड़ाई के बाद,जन्मजात विकलांगता के नाम पर रेलवे से पैतृक अधिकार में पेंशन योजना के तहत अन्य छोटी-मोटी सुविधाओं के साथ लगभग दस हज़ार रुपए प्राप्त करके गुज़ारा कर रही है।जिसके कारण भाई-भौजाई से कट्टर,शत्रुतापूर्ण,

असहयोगी-व्यवहार झेलती हैं।पचास-

पचपन की इस ढलती उम्र में ही क्या? युवावस्था में भी तो उनकी उग्रता-वाचालता और लम्बी जटाओं वाली भयंकरता के कारण सभी उनसे यथोचित दूरी बनाए रखते थे,जो आज भी क़ायम है।रिश्तेदारी में किसी के यहाँ जाती भी है तो सैद्धांतिक,वैचारिक-व्यावहारिक,
असहज,अपारिवारिक,असामाजिक, ख़ुद को अशान्त पाकर अकेली अपनी कुटिया में लौट आती हैदुनिया के प्रत्येक इंसान की तरह विवाह और घर-गृहस्थी के गहन स्वप्न पाले उन्हें, मैंने देखा है।जो उनकी प्राकृतिक अपूर्णता और शारीरिक कुरुपता की वज़ह से कभी पूरे नहीं हो पाए।लोग अक़्सर घण्टों मनोरंजन करते थे कि फ़लाना आदमी तुमसे विवाह करना चाहता है।उसके पास सब कुछ है बस एक लड़की चाहिए। विवाह के लिए क्या तुम तैयार हो? संभवतः गृहस्थी बस जाने की स्वाभाविक लिप्सा में व्यग्र उम्मीद से बहुत कुछ कहती-सुनती।

अब इस कोरोना वायरस के कारण एक दिन का जनता कर्फ़्यू,फिर इक्कीस दिनों की तालेबंदी के बारे में सुनकर दुनिया की भयंकर से भयंकर क़ैद से भी बुरा मान-समझ कर जहाँ-तहाँ अपना दुखड़ा सुनाती,भटकती आत्मा सी….
“ओ मोदी तूने ये क्या किया?….. कैसे जीऊँगी मैं?…. मृत्यु आने तक… इतने दिनों के लिए एक कमरे में बंद रहना मेरे वश में नहीं।…. तूने बहुत बड़ा अन्याय किया रे।…. बहुत ख़राब है रे …आज तक ऐसा दिन कभी नहीं आया था।”
जो मिलता,जहाँ भी मिलता,ऑन-
रिकॉर्ड -सा बज उठती।स्थितियों-
परिस्थितियों की गंभीरता से अनजान,

अपने मन की भड़ास निकालती।जैसा कि सर्वविदित है,सोकर उठने के साथ ही,दिन भर में वह,चाहे कोई बहाने किसी के घर, बाज़ार या चौराहे पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक चक्कर-घिन्नी की तरह घूमती रहती है।सूती साड़ी उनका पहनावा है।कंधे पर एक थैले में बिस्किट,नीबू,

ग्लूकोज़ के पैकेट से लेकर,दवा,टॉर्च, और चाबी जैसी दैनिक आवश्यकताओं की जादुई दुनिया मिलेगी।अपने जीवन में रिक्तता की पूर्ति के लिए परिचित
-अपरिचित सभी की दुनिया में अनावश्यक हस्तक्षेप करती खलबली मचाती हुई पैदल,रिक्शा,ऑटो या ट्रेन से यथासंभव जहाँ-तहाँ भटकती रहती हैं।व्यक्तित्व उनका ऐसी मिसाइल है जिसकी सीमा रेखा में बिहार-झारखण्ड और पश्चिम बंगाल तक की मारक क्षमता है।एकाकी भटकाव भेदक उनकी मानसिक शान्ति में कभी सफलता,तो कभी असफलता भी हाथ आती रहती है।

मनोनुकूल सभी बरताव-व्यवहार करें,ये सदैव सभी के लिए संभव भी नहीं।पारिवारिक और सामाजिक सुखों की भी तो विचित्र निर्दयता होती है,जो अतिव्यग्र जीव के हाथों से मुट्ठी में रेत की तरह फिसलती चली जाती है।पर,कुछ सहानुभूति,कुछ मानवीय संवेदनात्मक आत्मीयता भर कर उनसे बोली-
व्यवहार करते कुछ लोग, तपती रेत पर पानी के बूँदों के समान हैं।

कोरोना वायरस की संवेदनशीलता से अनजान वह बिलकुल नहीं जानती कि अपने इस भटकाव से जाने-अनजाने किसका,कब और कितना नुक़सान पहुंँचाने वाली हैं?

हाँ,तो मैं उनकी नियमित विशेषाधिकार प्राप्त संपर्क सूत्र में हूँ, जिसे वह बेझिझक,जब चाहे,आधी रात को भी कॉल करती है

किसी दोपहर के कॉल में बहुत ही दुःखी,

रोती हुई भर्राए गले से शिकायत कर रही थी मुझसे- “देख ना,तेरे घर गई थी।तेरी छोटी बहन मेरा अपमान की है आज।अब मेरा मन-व्यथित हुआ है तो कभी नहीं आऊँगी तेरे घर रे…हम तो भाव की भूखी है रे।तेरे धन-संपत्ति की नहीं।लालची नहीं हूँ रे।ये तू अच्छी तरह जानती है।तेरी बहन मेरा बहुत अपमान की है।”  लगभग पौन घण्टे तक के संवाद में,रह-रहकर और भी बहुत कुछ दर्द फूटा,जिसमें आंतरिक वेदना एवं एकांत की बेचैनी थी।जिस पीड़ा का दंश अनुभव करना असंभव तो नहीं,पर उपेक्षित और परित्यक्त हुए बिना,समझना आसान भी नहीं।बड़े धैर्य से सुनने-समझने के बाद बहुत समय लगा मुझे,उन्हें समझाने में।

स्थितियों-परिस्थितियों की गंभीरता को समझने के लिए बहन को कॉल की,ताकि पूरी वस्तु-स्थिति समझ सकूँ।तो पता चला कि बवंडर की तरह पूरे नगर की परिक्रमा करती हुई अन्तत: हमारे घर भी पहुँची थी।घर पर मेरे माता-पिता (63-65 वर्ष) के वरिष्ठ नागरिक हैं।पिता,जिन्हें पिछले साल ठंड के मौसम में फेफड़ों में भयंकर संक्रमण की बीमारी हुई थी।माता जी भी दमा,उच्च रक्तचाप और उच्च कॉलेस्ट्रॉल पीड़िता हैं।पारिवारिक-सामाजिक जीवन की भीड़-भाड़ से उन दोनों को बहुत मुश्किल से किसी तरह कोरोना वायरस की संक्रमण संबंधित जानकारियाँ और सावधानियाँ देकर रोका गया था।ऐसे में आगत को दरवाज़े से लौटाना भी अशिष्टता और अपमान होता,

तो पहले की तरह ही उन्हें बैठाया गया।बैठ कर इधर-उधर की बातें कर रही थी। तभी मेरी छोटी बहन वहाँ पहुँच कर
,हँसते हुए मजाक में पूछा- “अरे आप यहाँ क्या कर रही हैं?पता नहीं है क्या?इधर-उधर जाना-आना अभी मना है दीदी।अभी घर पर रहिए।” जो बात पढ़े-लिखे सभ्य-सुसंस्कृत,विदेश भ्रमण करने वालों के समझ में नहीं आई,तो इस अनपढ़,उग्र-अभिमानी,अक्खड़ मन-मस्तिष्क में क्या समझ?वह तो नकारात्मकता में लेकर भावनात्मक रूप से आहत हो गई और ज़िद में बोली- “मैं आऊँगी।”
बहन भी आदतन उनसे ठिठोली करती गई-“अभी किसी के घर आना-जाना नहीं है दीदी।”
“मैं आऊँगी।
मैं आऊँगी।”
और दृढ़ता से दुहराती गई।
अंततः व्यथित मन घर लौट गई। पर,जब आंतरिक पीड़ा बर्दाश्त नहीं हुई,तब मुझे कॉल की।

हालांँकि एक स्त्री/गृहिणी रूप में,मैं भी कम अशान्त नहीं।दोपहर में, उनींदी हो रही थी तभी दूध का ख़्याल आया कि दूध तो फ्रिज से बाहर ही रखा रह गया है।कहीं बिल्ली ना पी जाए या गर्मी से ख़राब ना हो जाए?विचार आते ही झट से उठ कर बैठ गई।बिछावन से उतरने की विवशता थी क्योंकि अभी नींद से ज्यादा दूध की सुरक्षा महत्त्वपूर्ण थी।दूध संँभालने के बाद कुछ जूठे बर्तन बेसिन में पड़े दिखे,तो निपटा लेने का ख़्याल आया।

फिर इसी तरह बर्तनों को धोने के बाद,आँगन में आम्रमंजरी के चटचटाते रस और बेतरतीब बिखरे आम के पत्तों को बुहार कर,समेटने लगी जो बुहारने के बावजूद बिखरे रहते हैं।(विशेष समय में रोज़ाना तीन-चार बड़े टोकरे भर कर,उठा कर,समेटते,फेंकते हुए गुज़रता है।) मज़ेदार बात यह है कि जब तक सफ़ाई का काम जारी रहेगा,पत्तों के गिरने का अनवरत क्रम भी जारी रहता है।जो कहीं-ना- कहीं मुँह चिढ़ाता प्रतीत होता है।कपड़े धोकर,खंगाले हुए पानी से आँगन धोकर हटते-हटते,पूरे दिन भर के लिए नींद पूरी तरह से ग़ायब। और,अब ऐसे में बिछावन पर जाने का कोई अर्थ ही नहीं बचा।

बहुत मुश्किल से बच्चों की तरह प्रबोधन दे-दे कर,बहला-समझा कर, उस व्यग्र-आत्मा को लॉक डाउन के प्रति तैयार करती जा रही थी।और… इधर एक-दो-तीन-चार… संख्यात्मक दिनों की निरंतरता बढ़ती जा रही थी।जिससे घबरा कर वह फोन पर अपनी दशा-मनोदशा,

बेचैनियों की व्यथा-कथा व्यक्त करती जाती थी।

पर,आतुर उनके पैर,पूर्णतया थमे नहीं थे।वह अपने घर में रहते-रहते, बाज़ार से कुछ-न-कुछ ख़रीदने के बहाने भाग निकलती।फिर मुझे घर से बाहर बाज़ार,

बैंक,चौराहे,गली-मुहल्ले का समाचार सुनाती कि कब वह पुलिस और प्रशासन को चकमा देकर,किस गली से होकर किस गली में गुज़री थी।अब ये मेरी विवशता या सम्मान,जो भी कहा-समझा जाए,मन-बेमन से सुनती रहती हूँ।

बढ़ते मामलों और दिनों की संख्या से ऊबकर एक दिन फ़ोन पर-“अरे बाबा!ये मोदी तो मुझे घर पर रखकर,मरा देगा।(हमेशा की तरह मेरे समझाने से पहले ही बोलने लगी। हालाँकि कभी-कभी मेरी सुन भी लेती है पर यह उनकी मनोस्थिति पर निर्भर है जिसकी कोई गारंटी-वारंटी नहीं)अरे तेरे पास बाल है,बच्चा है।… पति है।..उनसे हँसने-बोलने का समय है। …घर-परिवार में व्यस्त रहने का बहाना है।पर मेरा क्या होगा रे?अकेले आदमी के लिए राशन-पानी कितना जमा रखूँगी?ऐसे में तो भूखे मर जाऊंँगी रे।मैं क्या खाऊँगी रे बाबा?दुकान बंद है।कोई राशन नहीं।फल नहीं है।….सब्जी नहीं है।

…जो खरीदने के लिए माँगो,वो नहीं है-दुकानदार कहता है।” उनकी एक बात में आसानी से अनेकों बातें रहती हैं।
धाराप्रवाह वह बोलती रही और मैं,
मौन सुनती रही,उनके विचारों
-संवेदनाओं का दर्द,जिन्हें कोई सुनना-समझना नहीं चाहता।उनको कोई सुने,ना सुने….पर,वह बोलती रहेंगी।

यही सबसे प्रिय काम है,जिसे वह बड़ी निष्ठापूर्वक अथक,अनवरत कर सकती हैं।अधूरे जीवन में असंतुष्ट मन के परित्राण के लिए जो भी मन में आया, ‘अच्छा-बुरा,सच्चा-झूठा,सुनी-सुनाई,कुछ भी,कहीं भी,उचित-अनुचित की सीमा से परे,अनियंत्रित’ बोल जाना है।

फिर उस भ्रमजाल,झूठ,चुगली या शिकायत का चाहे जो भी निष्कर्ष/परिणाम हो।

सबसे परे,बोलने से कोई मत रोको।कोई मत टोको।वह भूख-प्यास,ग़रीबी-अभाव सब कुछ बर्दाश्त कर सकती है, पर बोली पर नियंत्रण अंशमात्र भी नहीं।मन के मौज में कभी-कभी कुछ ऐसी बातें भी बोलती है जिसपर व्यक्ति भरोसा ना कर पाए या मज़ाक में लेता है और वह बात सच हो जाती है।
उनमें दैवीय क्षमता है या नहीं इसपर मैं कोई तर्क-वितर्क नहीं करूँगी। पर एक-दो घटनाएँ याद आ रही हैं जिसकी चर्चा ज़रूरी लग रही है मुझे।मेरी सहेली और उसकी भाभी दोनों गर्भवती थीं। हमेशा की तरह बवंडर की भाँति घूमती हुई वह,
उसके यहाँ भी पहुँची थी।मेरी सहेली पहली बार और(एक बेटे की माँ)
भाभी की दूसरी बारी थी। यूँ ही ना जाने क्या सूझा कि बोलने लगी –
“एक लक्ष्मी और एक गणेश जी आएँगे तुम्हारे घर में।” फिर सहेली की माँ ने मज़ाक में पूछा, “किसको लक्ष्मी और किसको गणेश जी मिलेंगे?” सुनकर पूर्ण आत्मविश्वास से उन्होंने कहा- “बहू को गणेश और बेटी को लक्ष्मी।तू विश्वास कर या ना कर देख लेना।” दो बार इसी तरह की भविष्यवाणी की और सचमुच ऐसा ही हुआ।

लगभग अट्ठाइस-उनतीस  सालों से मैं देख रही हूँ उनको।उसी रूप में अधिकारपूर्वक बच्चों को आतंकित करते,डाँटते-फटकारते,खलबली मचाते।इस कलियुग में नारद मुनि की तरह कलियुगी समाचार प्रसारण इधर से उधर करते मुफ़्त का बी.बी.सी,ऑल इंडिया रेडियो (आकाशवाणी) रूप में।

भावनात्मक संवेदना के लिए उनके अकेलेपन की निवारणार्थ गाहे-बगाहे फोन करके हाल-चाल जानने की औपचारिकताएँ पूरी कर लेती हूँ।
वह भी बहुत मनमौजीपन में कभी दिन भर में पाँच से दस बार भी कॉल या मिस्ड-कॉल करके परेशान कर सकती है या तो कभी एक बार भी नहीं।

घरेलू ज़िम्मेदारियों की अस्त-व्यस्तता में,

संवादहीन कुछ दिन गुज़र चुके थे।
हाल-चाल जानने के लिए फोन किया तो काँपते स्वर में- “बुखार के कारण बहुत भूख लगी है रे। खाना बनाने का मन नहीं कर रहा है।” सुनकर पैंसठ से सत्तर किलोमीटर दूर बैठी मैं,असहज-अशान्त कुछ समझ नहीं पा रही थी कि तत्क्षण क्या और कैसे करूँ?लॉक-डाउन की वज़ह से सब कुछ ठप्प…. और ऐसे में जाने किस प्रेरणा के वशीभूत वह मुझसे उम्मीद की है।मेरी उद्विग्नता देखकर बड़ी बेटी सलाह देती है- “माँ समाचारों में दिखाया गया था कि कैसे स्थानीय पुलिस इस समय में बूढ़े,कमजोर और अस्वस्थ लोगों की आकस्मिक सहायता करती है।आप भी वहाँ के स्थानीय पुलिस की आकस्मिक-सेवा में कॉल करके बोल दो ना।वह ज़रूर उनकी मदद करेंगे।”
सुनकर एक उम्मीद जगी।अनेकों बार प्रयास करने के बावजूद असफलता हाथ आ रही थी। खाना और दवा पहुँचाने के लिए क्या किया जाए? मैं सोचने में परेशान थी और वह अपनी स्वाभाविक अधीरता में निरंतर कॉल-पर-कॉल करके जादुई उपाय जानना चाहती थी।
“हो पाएगा रे तुझसे…कि नहीं हो पाएगा?” पूछे जा रही थी।
“आप रुकिए तो सही” कहकर मैं पुनः सोचने लगी।
अंततः अपनी छोटी बहन को उनके घर भेजने का विचार आया… पर इस कोरोना काल में उसे भेजना भी तो ख़तरनाक हो सकता है।चारों तरफ धारा 144 का प्रभाव था। पर, कुछ तो करना है?इसके लिए माँ को सब कुछ बताना ज़रूरी है।

बस फिर क्या था?माँ सब सुनकर, मुझे समझा रही थी।जिसमें उनकी सारी चिन्ता और उद्विग्नता के साथ उच्च रक्तचाप का प्रभाव साफ़  सुनाई दे रहा था- “हद है, जो सबसे क़रीबी हैं पड़ोस में,उसके भाई- भौजाई,सगे-संबंधियों से भरी हुई है। इतना बड़ा ख़ानदान है,पर वह फ़ालतू में तुम्हें तंग की। ख़ुद ही कह रही थी तुम,बड़े-बुजुर्गों को घर से बाहर नहीं निकलना है और बच्चों को असुरक्षित जाने देना उचित नहीं। ऐसे में कौन जाएगा?किसको भेजूँ?जाने किस-किस से मिलकर आती-जाती है,तुमको क्या पता?”

“पहले आप शान्त रहिए माँ! आप बिलकुल सही हैं।बावजूद सोचिए,कहीं उन्हें कुछ हो गया,भूख और दवा न मिलने के कारण… तो क्या हम ख़ुद को माफ़ कर पाएँगे?.. हनुमान जी जाने किस प्रेरणा के वशीभूत यह अवसर मिला है?मानवता के नाते अभी तत्कालीन यथासंभव व्यवस्था ज़रूरी है।चाहे कोई भी करे!कैसे भी करे!”

कह कर फोन रख दिया था मैंने।इधर मेरी चिन्ता,अब मेरी माँ तक स्थानांतरित हो चुकी थी।मौसम भी पूरी तरह अस्त-व्यस्त था। बंगाल की खाड़ी में उठा चक्रवात अपना पूर्ण असर दिखा रहा था।घर पर उपलब्ध संसाधनों में से से दवा और भोजन के पर्याप्त साधन जुटाने में लगी थी माँ,तभी पिता की दृष्टि उनकी व्यस्त बेचैनियों पर पड़ी।
“किसका कॉल था? जो तुम इतनी परेशान लग रही हो” – उन्होंने पूछा।

उद्विग्न माँ की सारी बातें सुनकर,उन्हें देने के लिए तत्क्षण वह बूँदा-बाँदी के बीच में ही थैला लेकर भागे। ‘हड़बड़ाहट में ना छाता,ना गमछा,ना मोबाइल कुछ भी नहीं लिए हैं।’ सुनकर मन और भी विचलित हो उठा।पिता के स्वास्थ्य और शारीरिक सुरक्षा के प्रति चिंतित होकर -“कहीं,किसी और के चक्कर में हमारे माता-पिता ही संक्रमित ना हो जाएँ?”

यहाँ पर मूसलाधार वर्षा हो रही थी और मैं विचलित,उद्विग्न अपने दोनों हाथ जोड़े

– “सब कुशल-मंगल रहें ” की निरंतर प्रार्थना किए जा रही थी।
पिता घर से निकल चुके हैं।पूर्ण आश्वासन देने के लिए उनको कॉल करके बताने लगी तो “चला नहीं जा रहा है रे!”…वह बोली
“केवल आप बाहर चबूतरे पर जाकर बैठिए।ताकि,मेरे पिता जी को बार-
बार ढूँढ़ने में परेशानी ना हो,और वह आपका घर पहचान कर दवा और खाना दे सकें।” कहकर यहाँ से ही संचालित कर रही थी।
अंततः जब पता चला कि मेरे पिता ढूँढ़ते-ढूँढ़ते उनके घर जाकर थैला दे आए हैं।और,बाहर से लौटने पर मेरी माँ सारे कपड़े बदलवा चुकी हैं। यह सुनकर मन शान्त हुआ।

उधर से धन्यवाद ज्ञापन के लिए दीदी का कॉल आया- “अरे इतना सारा क्यों भेज दी तेरी माँ? बहुत ज्यादा है। …. इतना कौन खाएगा?”
(मैं जानती हूँ।वह मन की मौज में खाएँगी या फिर फेंक देंगी।घर आने पर,जब भी उन्हें कुछ खाने को दो तो यही प्रतिक्रिया स्वरूप कहती है। अक़्सर इच्छा रहने के बावजूद,बहुत नखरे दिखाने के बाद ही मन की मौज में खाएँगी या टाल कर चली जाएँगी।)
“हनुमानजी का प्रसाद समझ कर रखिए और आवश्यकतानुसार खाइए।”  कहकर फोन रखकर आश्वस्त हुए हम सभी।

अब वह बिलकुल ठीक-ठाक है। अपनी बेचैनियों का रोना कम रोती,इस देश-दुनिया से कोरोना माई के प्रभाव ख़त्म होने का इंतज़ार कर रही है।परन्तु पाँव उनके अभी भी थमे नहीं हैं, जो आजीवन नहीं थमने वाले।
      पाण्डेय सरिता

Last Updated on June 7, 2021 by pandeysaritagomoh

  • Pandey
  • Sarita
  • Writer & Poetess
  • [email protected]
  • G.R.P मंदिर गोमोह, धनबाद, झारखण्ड
Facebook
Twitter
LinkedIn

More to explorer

2025.06.22  -  प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता  प्रवृत्तियाँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ  --.pdf - lighttt

‘प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता : प्रवृत्तियाँ, चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ विषय पर आयोजित अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रतिभागिता प्रमाणपत्र

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱प्रयागराज की हिंदी पत्रकारिता पर  दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन संपन्न प्रयागराज, 24

2025.06.27  - कृत्रिम मेधा के दौर में हिंदी पत्रकारिता प्रशिक्षण - --.pdf-- light---

कृत्रिम मेधा के दौर में हिंदी पत्रकारिता प्रशिक्षण विषयक विशेषज्ञ वार्ता का आयोजन 27 जून को

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱फ़ील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की 18वीं पुण्यतिथि के अवसर  परकृत्रिम मेधा के दौर में

light

मध्य प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का भव्य आयोजन

Spread the love

Spread the love Print 🖨 PDF 📄 eBook 📱अंतरराष्ट्रीय हिंदी पत्रकारिता वर्ष 2025-26 के अंतर्गत मध्य प्रदेश में हिंदी पत्रकारिता विषय पर

Leave a Comment

error: Content is protected !!