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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
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श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
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संघर्ष : राम नाम सत्य है… ( भाग ३ )

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राम नाम सत्य है…!!!

दोपहर के करीब तीन बजे थे। मौसम का मिज़ाज बड़ा ही अजीब था। सूर्य की लालिमा ऊर्जा का संचार नहीं कर रही थी बल्कि किसी अशुभ समाचार का संकेत दे रही थी। कुत्तों के भूकने की आवाज़ अचानक ही तेज होती जा रही थी। घर में भी अफरा तफरी का माहौल था।

वैसे तो रोहन की उम्र काफी छोटी थी। लेकिन उसे इतना आभास अवश्य था कि कुछ तो गंभीर बात है। घर के कुछ सदस्यों के रोने की आवाज़ अब कुछ स्पष्ट सुनाई दे रही थी। राधेश्याम की वृद्घ माता जी का देहांत हो गया था आज। बरामदे में उनका मृत शरीर एक चादर से ढका हुआ पड़ा था। सिर्फ चेहरा दिखाई दे रहा था।

“बोलती क्यूं नहीं हैं…ये??? कैसी चुपचाप से सो रही है…बस..??? उठती क्यूं नहीं…?? शाम को तो सोती नहीं…???” रोहन का बाल मन शायद अभी मृत्यु की स्थिति से अवगत नहीं था।

सभी का रो रो के बुरा हाल था। कुसुम की आंखें आंसुओं से लबालब थी। लेकिन वो ना जाने किस काम में व्यस्त थी। बस एक ही व्यक्ति था वहां…जिसकी आंखों में आसूं नहीं थे। और वो था…राधेश्याम।

लेकिन क्यूं…???

जिम्मेदारियों के बोझ ने मानों उसके आंखों से पानी छीन लिया था। या वो जनता था… कि मृत्यु ही तो अटल सत्य है। मनुष्य जन्म लेता है…तो मृत्यु भी होना तो सुनिश्चित है। शरीर मरता है…आत्मा नहीं। आत्मा अज़र और अमर है। लेकिन राधेश्याम की आत्मा दुखी थी। हृदय के आंसू दिखाई कहां देते हैं..??? संघर्ष के पथ पर चलने वाली वो मां…आज इस दुनियां में नहीं थी। राधेश्याम कभी उसे कोई सुख नहीं दे पाया। यही सोच सोच कर राधेश्याम का मन दुख से बैठा जा रहा था।

“राम नाम सत्य है…!! राम नाम सत्य है…!!!” का स्वर हवा में गूंजने लगा था। बांस की एक सीढ़ीनुमा वस्तु पर उस मृत शरीर को चार लोग लिए जा रहे थे।

सिर्फ राम का नाम ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है। लेकिन ये शब्द आखिर है किसके लिए…?? उस मृतक आत्मा के लिए…या फिर उन पंद्रह बीस लोगों के लिए, जो उस मृतक शरीर के साथ जा रहे थे…?? लेकिन राम नाम की महिमा का अर्थ अब उस मृतक शरीर के लिए किस महत्व की थी..??

निःसंदेह ये उन्हीं के लिए था…जो इस सांसारिक मोह और भौतिकता में लिप्त हैं। अपने धन संपत्ति के प्रेम और घमंड में चूर हैं। किसी के गरीबी की परीक्षा लेने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

राधेश्याम अपने कंधे पर अपनी मां को लिए, कुसुम की बातों को सोचता चला जा रहा था। अपनी गरीबी को धिक्कारता चला जा रहा था। एक सेर आंटे के लिए कैसे कुसुम आज रो पड़ी थी। आज उसके पास इतना भी अन्न नहीं था कि वो मृतक शरीर के साथ दान स्वरूप भेज सके।
कैसे राधेश्याम के पड़ोसी ने ज़रा सा अन्न देने से भी मना कर दिया था आज।
“अभी इस महीने का राशन नहीं आया है कुसुम…!! नहीं किलो दो किलो आंटा चावल कोई बड़ी चीज नहीं थी।” पहली बार किसी के सामने हांथ फैलाई कुसुम को ये जवाब मिला था। राधेश्याम की आत्मा उसके मन को कचोट रही थी।

क्रिया कर्म की सामाजिक रीतियों को निभाने के चक्कर में राधेश्याम कर्ज के बोझ में धंसता ही चला गया।

“क्यूं मैं इस कर्ज़ के बोझ में पहले ही नहीं दब गया…?? क्यूं ये ब्राह्मण भोज मैंने माता जी के जीते जी ही नहीं कर दिया..?? अब जब वो ही जीवित नहीं…तो ऐसे भोज का क्या अभिप्राय शेष बचता है…??” सामाजिक रीतियों और विधानों से अन्तर्द्वन्द करता हुआ, राधेश्याम…छत पर ही लेटे लेटे सो गया…और किसी स्वप्न में खो गया।

Last Updated on January 22, 2021 by rtiwari02

  • ऋषि देव तिवारी
  • सहायक प्रबंधक
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