न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

पंडित वेंकटरामय्या

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हिंदीतर राज्य- कर्नाटक में हिंदी प्रचार प्रसार के अग्रणी

दिवंगत पंडित के.एस. वेंकटरामय्या(वेकटेश)- (13.03.1918 – 22.06.2008)

 

विभिन्न क्षेत्रों में अपार साधना करनेवाले कई लोग हम लोगों के बीच में रह चुके हैं। हमारे समग्र जीवन को समृद्ध बनाने वाले वे सब आदरणीय तो है ही। ऐसे लोगों के परिश्रम का ब्योरा भी हमें बहुत कम मिलता है। ऐसे प्रतिभावान लोगों में से ज्यादातर लोग उपेक्षित ही रह गए हैं। उनके जीवन व साधना का ब्योरा अगली पीढ़ी तक पहुँचाना अत्यावश्यक है। यह महत्वपूर्ण उद्देश्य ही इस लेख को लिखने के लिए मुझे प्रेरणा दी है।

भारत एक बहु-भाषी राष्ट्र है। यहां प्रत्येक राज्य में विभिन्न भाषा एवं उपभाषाएँ बोली जाती हैं। मातृभाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा को दिल से अपनाकर उसी भाषा के प्रचार- प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पण करनेवाले विरले ही मिलते हैं। ऐसे विरले और अनोखे व्यक्तित्ववालों में से पंडित के.एस. वेंकटरामय्या जी भी एक हैं। कर्नाटक राज्य के मैसूरु में 13 मार्च, 1918 में आपका जन्म हुआ था। पिता सुब्बराया व माता सुब्बलक्षम्मा थीं। तीन भाई व तीन बहनों के साथ जन्मे आप माता-पिता की पहली संतान रहें। हासन जिले के दोड्डकोंडगुळा नामक एक बहुत ही छोटे-से गाँव में उनका बाल्य जीवन बीता।

बहुत गरीब परिवार में जन्म लिए आपने मैट्रिक तक की पढ़ाई बड़ी कठिनाइयों के साथ हासन शहर में की। तदुपरान्त 1935 के जुलाई में भवितव्य के कई सुनहरे सपनों के साथ मैसूरु आगए। मैट्रिक तक की पढ़ाई करनेवालों को भी उस ज़माने में जीवन-भरण करने योग्य नौकरी मिलती थी, पर लिपिक के काम करने में दिलचस्पी न होने के कारण एक वकील के कार्यालय में जो काम मिला था उसे वे न कर पाए। बचपन से ही पंडित जी को अध्यापन बहुत अच्छा लगता था। इसलिए उनके नाना जी ने उन्हें एक घर में ट्यूशन पढ़ाने के लिए लगा दिया। वहाँ अक्षराभ्यास से लेकर 5 वीं क्लास तकके 10 बच्चों को पढ़ाना था, जिसके लिए उन्हें प्रतिमाह 8 रुपए का वेतन मिलता था। बाद में दो और घरों में ट्यूशन पढ़ाने से प्रतिमाह 20 रुपए कमाने लगें।

एक दिन मित्र के दबाव में आकर दुर्गेश नंदिनी नामक एक हिन्दी सिनेमा देखने गये। सिनेमा बहुत अच्छा होने पर भी भाषा न जानने के कारण समझ नहीं पाए। उसी दिन से उन्होंने हिन्दी सीखने का निर्णय लिया। दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा, मैसूरु केंद्र में हिन्दी सीखना आरंभ किया। तब से प्रत्येक परीक्षा में उत्कृष्ट अंकों के साथ उत्तीर्ण होते रहे। अपने चचेरे भाई श्री के.वी. श्रीनिवास मूर्ती जी (जो स्वयं हिन्दी प्राध्यापक और पंडित जी के मार्गदर्शक थे) द्वारा राष्ट्र भाषा विशारद परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाओगे तो हाइस्कूल में हिन्दी अध्यापक की नौकरी मिलेगी कहने पर, लगन से पढ़ाई किए और राष्ट्रभाषा विशारद परीक्षा में उत्कृष्ट श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। सुना है कि जब वे दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा द्वारा संपन्न होनेवाली राष्ट्रभाषा परीक्षा के लिए तैयारियाँ कर रहे थे, तब से ही प्रथमा व मध्यमा परीक्षा के अभ्यर्थियों को अध्यापन करना शुरू किये थे। छोटी उम्र में ही अध्यापकों से प्रेरणा पाकर कई उत्कृष्ट हिन्दी पुस्तकों का अध्ययन किये। अपने सीखने की तृष्णा से इतने में संतुष्ट न होने के कारण संस्कृत ऐच्छिक विषय के साथ इलाहाबाद से साहित्य रत्न उपाधि प्राप्त करनेवाले आपने देवधर विद्यापीठ द्वारा साहित्यालंकार उपाधि भी प्राप्त कर ली। इस के साथ ही थोडा बंगाली व उर्दू भाषा भी सीखें।

राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी को अत्यंत निकट से देखने वाले आप उनके अनेक रचनात्मक कार्यक्रमों से प्रभावित हुए थे। उन्होंने आरंभिक दिनों में हिंदी प्रचार व खादी प्रचार दोनों कार्यों में स्वयं को समर्पित किया था। 1946 के जनवरी माह में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की रजत महोत्सव कार्यक्रम संस्था के अध्यक्ष राष्ट्र पिता महात्मा गाँधी जी की अध्यक्षता में संपन्न हुई थी। उस वक्त वे पहली बार उन से मिल पाए थे। इसी अवधि के दौरान वे महात्मा गाँधी जी के पोता कांतिलाल गाँधी से भी परिचित रहें। बहुत शर्मीले और संकोच स्वभाव के कारण उन्होंने कभी किसी से अपने लिए कुछ भी नहीं माँगा। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, इसे सब जानलेंगे तो देश में एकता रहेगी। हम सब भारतीय है वाली भावना जागृत होगी। खादी वस्त्र धारण करने से अपने देश के भाई-बहनों को (जो इसे बनाते हैं) सहायता मिलेगी | यह भी एक तरह की देश-सेवा ही है सोचनेवाले आपने, जीवन- भर खादी को ही पहना और हिंदी प्रचार- प्रसार में अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करदिया। गाँधी जी की आत्मकथा से प्रेरित होकर उन के आदर्शों का पालन करनेवाले  वेंकटरामय्या जी को उनके विद्यार्थी गण प्यार से गाँधी मास्टर कहकर बुलाते थे। उनके गुरु हिन्दी के महान विद्वान श्री नागप्पा जी उनको अजात शत्रु कहते थे। यह तथ्य सराहनीय है कि 50 वर्षों से अधिक समय तक पंडित जी ने मैसूरु नगर में हिंदी भाषा का प्रचार- प्रसार किया। उन्होंने कन्नड़ भाषा में लिखित अपनी जीवनगाथा नामक (आत्म-कथा) पुस्तक में लिखा है कि मैंने अपनी मातृ समान दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा में 50 वर्षों से अधिक समय तक सेवा की है। मैसूरु में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा का भवन निर्माण में भी आप का अनमोल योगदान रहा है।

उन्होंने ये भी कहा है कि मेरे मन में धन्यता भाव तब मिला जब, मैसूरु महाराज श्री जयचामराजेन्द्र ओडेयर के जीजा जी के सचिव- कैप्टन मोहन सिंह जी आपकी कौनसी बस्ती है पूछने पर मैंने मैसूरु जवाब दिया। आश्चर्य चकित होकर उन्होंने कहा था कि आप इतनी प्यारी हिन्दी बोलते हैं। मैं समझता था कि आप उत्तर प्रदेश के हैं।

 अपने परिवार के भरण- पोषण केलिए उन्होंने गुड शेपर्ड कान्वेंट हाईस्कूल, मैसूरु में अपना अध्यापक वृत्तिजीवन आरंभ किया | इस स्कूल की विशेषता ये थी कि यह एक आवासीय (रेसिडेंशियल) संस्था थी। आंग्लो इंडियन, यूरोपियन से लेकर दूसरे महायुद्ध के काल में बर्मा, सिलोन तथा भारत के अनेक प्रांतों के हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगाली, पंजाबी, तेलुगु, तमिल, मलयालम- इन सभी भाषाओं को बोलनेवाले बच्चे वहाँ पढ़ने के लिए आते थे। उन सब को एक साथ पढ़ाना बहुत ही कष्ट साध्य था। ऐसे माहोल में भी सारे बच्चों के प्रिय अध्यापक रहे वेंकटरामय्या जी। 31 मार्च, 1977 तक वहां सेवा करने के उपरान्त सेवानिवृत्त हुए। उनके अध्यापन से प्रभावित मरिमल्लप्पा जूनियर कॉलेज के प्रबंधकों ने अपने कॉलेज में कार्य करने केलिए उन्हें आह्वान किया। वर्ष 1979-80 से 1993 तक वे वहाँ उपन्यासक रहें।

मैसूरु नगर में करीब 40-45 वर्षों तक बिना प्रतिफलापेक्षा हिंदी के प्रचार प्रसार करनेवाले श्री के.वी. श्रीनिवास मूर्ती जी के नाम पर उन के मरणोपरान्त मैसूरु विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के स्नातकोत्तर परीक्षा-एम.ए में प्रथम स्थान प्राप्त करनेवाले विद्य़ार्थी को दीक्षांत समारोह में स्वर्ण पदक प्रदान करने के लिए  दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के पुरानी विद्यार्थी गण, हिंदी प्रेमी व दोस्तों की सहायता से निधि संग्रहण कर के वेंकटरामय्या जी विश्वविद्यालय को जमा किए थे। किसी विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए, एम.ए जैसी कोई उपाधि प्राप्त न करने पर भी मैसूरु विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के स्नातकोत्तर परीक्षा में पहला स्वर्ण पदक प्राप्त  करनेवाली डॉ.कुसुम गीता जी अपनी एम.ए की पढ़ाई श्री. वेंकटरामय्या जी के मार्गदर्शन में ही की थी।

बचपन से ही गद्य से ज्यादा कविता लिखना वे ज्यादा पसंद करते थे। अपने  जीवन काल में कवि हृदयी आपने करीब 125 से भी अधिक कविताएँ लिखी हैं। जो दक्षिण गंगाकविता कुसुम मंजरी नामक 2 पुस्तकों में  संग्रहित है। इनमें से कई कविताएँ कर्नाटक की विभिन्न पाठ्य पुस्तकों में अपना स्थान प्राप्त कर चुकी है। वेंकटेश इनका काव्य-नाम रहा है। आकाशवाणी के लिए 12 एकांकियों की रचना करनेवाले आप कृष्णदेवराय नामक एक लघु ऐतिहासिक उपन्यास के भी कर्तृ है। 50 वर्ष पहले कोलकाता की माधुरी नामक मास पत्रिका,चाँद पत्रिका, दख्खनी हिंद पत्रिकाओं में प्रायश्चित, राशनमुक्तिमार्ग नामक कहानियाँ प्रकाशित हुई। पत्र-पत्रिकाओं की संख्या बहुत कम रहते समय में ही आपकी 10 से ज्यादा कहानियाँ विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं।

सुदीर्घ काल केलिए हिन्दी प्रचार- प्रसार तथा शिक्षण क्षेत्र  में आपकी सेवाओं के  उपलक्ष्य में आपको शिक्षा विभाग, कर्नाटक सरकार, मैसूरु हिंदी प्रचार परिषद, बेंगलुरु, रियासत हिंदी प्रचार समिति, रीज़नल कॉलेज, मैसूरु, कर्नाटक हिंदी प्रचार समिति के वज्र महोत्सव, मैसूरु के ज्ञान गंगा पीठ आदि द्वारा सम्मान तथा ताम्रपत्र प्रदान किया गया है। वर्ष 2007 में उनके द्वारा कन्नड़ भाषा में लिखित ಜೀವನ ಗಾಥ (जीवन-गाथा) नामक आत्मकथा उनके देहांत के बाद लोकार्पण हुआ है।

आँखों में आँसू ओठों पर हास, यही जीवन का इतिहास ये पंक्ति आपकी एक कविता की है। सच कहें तो यहीं आपका जीवन का इतिहास रहा है। जीवन-भर कष्ट सहते हुए संसार के बीच में रहकर भी संत की भांति रहनेवाले पंडित के.एस. वेंकटरामय्या जी ने कभी किसी की हानि के बारे में नहीं सोचा | भले मानस होने के कारण कई बार ठगे भी गए। 1950-51 में हाई स्कूल में हिन्दी भाषा को अनिवार्य रूप से पढ़ाना आरंभ हुआ, पर पाठ्य पुस्तक ही उपलब्ध नहीं थी। पंडित जी के एक मित्र ने आठवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तक की रचना उनसे करवाकर ले गए और अपने नाम से प्रकाशन का कार्य किया। उनके महीनों के अथक परिश्रम केलिए मानदेय तक प्राप्त नहीं हो पाया। मुंबई में रहनेवाले आपके और एक मित्र सिनेमा क्षेत्र में मेरे खूब सारे मित्र है, मेरे एक मित्र श्री कृष्णदेवराय पर एक सीरियल बनाना चाहते हैं, आप हिंदी में उनकी कथा लिख कर दीजिए। मैं आपको खूब मानदेय दिलवादूंगा बोले। पंडित जी ने दिल से लिखा। उनके मित्र उसे लेकर भी गए। पर बाद में उन्होंने इनसे संपर्क ही नहीं किया। एक जेरॉक्स प्रति उनके पास रहने के कारण कई साल बाद उनके दोस्त वेंकटरामू ने इस पुस्तक का मुद्रण करवाया।

कुछ भी हो दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के मैसूरु शाखा में संचालक, व्यवस्थापक, प्रचारक तथा अध्यापक के रूप में श्री वेंकटरामय्या जी का योगदान अतुलनीय एवं अविस्मरणीय रहा है। उस अवधि के दौरान हिंदी सीखने वाला हर एक छात्र इस महान हस्ती से चिर परिचित रहे हैं |

आपकी धर्म पत्नी श्रीमती कलावती जी वृद्धावस्था में अपने एकमात्र पुत्र नागराज और उनके परिवार के साथ आज भी मैसूरु में निवास करती हैं। आपकी तीनों पुत्रियाँ मालती, स्वर्णा और हरिणी बेंगलूरु में रहती हैं। इस लेख को लिखते समय पंडित जी के परिवारजनों से प्राप्त सहयोग के लिए मैं आभार व्यक्त करना चाहती हूँ।

 

 

-अनुराधा के,

वरिष्ठ हिन्दी अनुवादक,

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, क्षेत्रीय कार्यालय,मंगलूरु

 

 

 

 

 

 

 

Last Updated on January 8, 2021 by anuradha.keshavamurthy

  • अनुराधा .के
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  • कर्मचारी भविष्य निधि संगठन
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