न्यू मीडिया में हिन्दी भाषा, साहित्य एवं शोध को समर्पित अव्यावसायिक अकादमिक अभिक्रम

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

सृजन ऑस्ट्रेलिया | SRIJAN AUSTRALIA

विक्टोरिया, ऑस्ट्रेलिया से प्रकाशित, विशेषज्ञों द्वारा समीक्षित, बहुविषयक अंतर्राष्ट्रीय ई-पत्रिका

A Multidisciplinary Peer Reviewed International E-Journal Published from, Victoria, Australia

डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं
प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

श्रीमती पूनम चतुर्वेदी शुक्ला

सुप्रसिद्ध चित्रकार, समाजसेवी एवं
मुख्य संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

शिक्षक और समाज

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*शिक्षक और समाज*
माधव पटेल
वर्तमान समय मे शिक्षक की भूमिका अत्याधिक महत्वपूर्ण है आज शिक्षक केवल पुस्तकीय ज्ञान का प्रदाता न होकर पथ प्रदर्शक भी है जीवन का मार्गदर्शन करने वाला है परंतु अब शिक्षक के पद का दायरा सीमित हो रहा है इसे केवल विद्यालयी शिक्षण तक समेट दिया गया है प्रशासकीय व्यवस्था में वह अकेले शासकीय कर्मचारी जैसा बन कर रह गया है जबकि आवश्यकता है इसे व्यापक बनाने की माना जाता है कि यदि शिक्षक नही होता तो शिक्षण की कल्पना भी नही की जा सकती थी शिक्षण की आधारशिला शिक्षक के द्वारा ही रखी जाती है प्राचीन काल से ही शिक्षक का दर्जा बहुत ही उच्च और अहम रहा है वह समाज का आदर्श होता था शिक्षक के स्वरूप में ईश्वर की तक कल्पना की गई”गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः
गुरु साक्षात पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः” श्लोक में गुरु की तुलना ब्रह्मा से की गई है जिस प्रकार ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता माना जाता है उसी प्रकार शिष्य के सम्पूर्ण जीवन के निर्माण की बागडोर शिक्षक के हाथों में होती है गुरु का कार्य शिष्य का जीवन निर्माण होता है,शिक्षक ज्ञान रूपी आहार देकर शिष्य को जीवन संघर्ष के योग्य बनाता है उसका चरित्र निर्माण करता है इसलिये उसकी तुलना विष्णुजी के रूप मे भी की गई ,शिष्य के दुर्गुण दूर करने के कारण उसकी बुराइयों के संहार करने के कारण शिक्षक को महेश भी कहा गया है|शिक्षक समाज के आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्तित्व होता है किसी भी देश समाज के निर्माण में शिक्षक की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण यदि दूसरे शब्दों में कहे तो शिक्षक समाज का आईना होता है छात्र और शिक्षक का संबंध केवल विद्यालयी शिक्षा देने तक सीमित नही रहता वल्कि शिक्षक हर मोड़ पर एक मार्गदर्शक की भूमिका का निर्वाहन करता है विद्यार्थी में सकारात्मक सोच विकसित करता है उसे सदा आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देता है और स्वयं को भी उदाहरण के तौर पर प्रस्तुत करता है एक सफल जीवन यापन हेतु शिक्षा अनिवार्य प्रक्रम है संसार मे भारत ही एकमात्र ऐसा राष्ट्र है जहाँ शिष्यो को विद्यालयी ज्ञान के साथ उच्च मूल्यों को स्थापित करने वाली नैतिक व चारित्रिक शिक्षा भी प्रदान की जाती है जो छात्र के सर्वांगीण विकास में सहयोगी होती है गुरु का शाब्दिक अर्थ होता ही है अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने वाला गु अर्थात अंधकार और रु का मतबल नष्ट करने वाला है परंतु बदलाव का प्रभाव सम्पूर्ण व्यवस्था पर पड़ता है शिक्षक और शिक्षा इससे अछूते नही है शिक्षक पथ प्रदर्शक है ज्ञान प्रदाता है उसका आचरण और व्यवहार समाज के लिए अनुकरणीय रहा है तो निश्चित रूप से ये प्रश्न उठना लाजिमी है कि शिक्षकीय गरिमा को लोग शनैः शनैः विस्मृत क्यो करते जा रहे है शिक्षक की उपेक्षा आज हमारे लिए कमजोरी बन रही है तथा समाज को घातक सिद्ध हो रही है फिर चाहे हम लौकिक शिक्षक की बात करे या फिर किन्ही अन्य गुरूओ की राष्ट्र निर्माण में एक शिक्षक का योगदान जितना होता है उतना शायद ही किसी का होता हो क्योंकि राष्ट्र की उन्नति में प्रत्येक क्षेत्र मे उसके छात्रों का योगदान रहता है कोई राजनेता,अभिनेता,खिलाड़ी, लेखक, डॉक्टर या फिर इंजीनियर की भूमिका में अपने अपने क्षेत्र में राष्ट्र उन्नति को दिशा दे रहा होता है आधुनिक दौर में शिक्षक की भूमिका और भी चुनौतीपूर्ण हो गई क्योंकि अब छात्र सजग,कुशल और अधतन रहता है जिसके सामने खुद को कुशलता और तत्परतापूर्वक प्रस्तुत करना किसी कला से कम नही है उनके सामने शिक्षक का दायित्व बढ़ जाता है क्योंकि उसे न केवल बौद्धिक,भौतिक, मनोवैज्ञानिक, शरीरिक विकास करना है अपितु सामाजिक, चारित्रिक एवं संवेगात्मक विकास भी तय करना है |स्वयं के आचरण द्वारा छात्रों के मानस पटल पर अमिट अविस्मरणीय छाप भी छोड़नी होती है उसे अपने प्रेम,अनुभव,शिक्षा, समर्पण ,सृजन, त्याग व धैर्य से छात्रों की मूलभावना जानकर उसे सही दिशा देने का कार्य करना होता है क्योंकि यही भविष्य के नागरिक होते है शिक्षक का कार्य बहुत महत्वपूर्ण है। जिस प्रकार शिक्षा सम्पूर्ण जीवन प्राप्त होती रहती है वैसे ही शिक्षण भी सतत चलने वाली अंतहीन प्रक्रिया है व्यक्ति पूरे जीवन कुछ न कुछ सीखता रहता है और उसे कोई न कोई सिखाने वाला मिलता ही है चाहे औपचारिक शिक्षण हो या फिर अनोपचारिक शिक्षण। शिक्षक के संबंध में कहा गया कथन अपनी सार्थकता स्वमेव सिद्ध करता है “गुरु कुम्हार शिष्य कुंभ सम गड गड काढ़े खोय,
अंदर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट”
बेशक किसी देश की शिक्षानीति संतोषप्रद न भी हो तो ये शिक्षक का चातुर्य होता है कि कम उपयोगी शिक्षा नीति को भी अच्छी शिक्षा में तब्दील कर देता है शिक्षा और शिक्षण किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होते है ,उन्नति की नींव होते है वस्तुतः शिक्षक एक प्रकाशपुंज की तरह होता है जो अपनी आत्मा की ज्योति को समाज के मानस में ब्याप्त कर अपने व्यक्तित्व की विराट छवि से सम्पूर्ण राष्ट्र को प्रदीप्त करता है शिक्षक समाज के अंधकार को हरण करने वाला प्रकाशस्तंभ होता है शिक्षक वह सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्तित्व है जो राष्ट्र हित हेतु अपने छात्रों के उत्कर्ष व कल्याण के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देता है उसके इस त्याग समर्पण में ही राष्ट्र कल्याण निहित होता है।शिक्षक नैतिक,आध्यात्मिक व भौतिक शक्तियों का अथाह भंडार होता है शिक्षक में राष्ट्र निर्माण की अदम्य शक्ति संचित होती है उसमें मानवता का विकास करने की अदभुद क्षमता समाहित होती है शिक्षक के विचार और व्यवहार समाज को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करते है शिक्षक का चरित्र छात्र और समाज के लिए पाठशाला ही होता है यदि शिक्षक के हृदय में सच्चे अर्थो में समाज निर्माण की आकांक्षा है तो निश्चित ही अपना चरित्र उन आदर्शो में व्यवस्थि करने के लिए प्रयत्नशील होगा जिससे वह समाज मे परिवर्तन लाना चाहता है उसके हाथ मे विद्यार्थियों के रूप में वह शक्ति होती है जिससे वह पुनः समाज की रचना कर सकता है ऐसे शिक्षको के लिए कहा गया है”गुरु गोविंद दोउ खड़े काके लागू पांव
बलिहारी गुरु आपने गोविंद दियो मिलाय”
हुमायूं कबीर के अनुसार”शिक्षक राष्ट्र के भाग्य निर्णायक है यह कथन प्रत्यक्ष रूप से सत्य प्रतीत होता है परन्तु अब बात पर अधिक बल देने की आवश्यकता है कि शिक्षक ही शिक्षा के पुनर्निर्माण की महत्वपूर्ण कुंजी है यह शिक्षक वर्ग की योग्यता ही है जो कि निर्णायक है” शिक्षक ही वह शक्ति है जो प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से,आने वाली संततियों पर अपना प्रभाव डालती है भारतीय संस्कृति का एक वाक्य प्रचलित है “तमसो मां ज्योतिर्गमय” जिसका आशय होता है अंधेरे से उजाले की ओर जाना इस प्रक्रिया को वास्तविक अर्थों में पूरा करने के लिए शिक्षा, शिक्षक और समाज तीनो की महत्वपूर्ण भूमिका होती है भारतीय समाज शिक्षा और संस्कृति के मामले में प्राचीनकाल से ही बहुत संमृद्ध रहा है शिक्षक को समाज के समग्र व्यक्तित्व के विकास का उत्तरदायित्व सौपा गया है महर्षि अरविंद ने एक बार शिक्षको के संबंध में कहा था कि “शिक्षक राष्ट्र की संस्कृति के चतुर माली होते है वे संस्कारो की जड़ो में खाद देते है और अपने श्रम से सींचकर उन्हें शक्ति में परिवर्तित करते है”किसी भी राष्ट्र का निर्माता कहे जाने वाले शिक्षक का महत्व यही समाप्त नही होता क्योंकि वे न सिर्फ समाज को आदर्श मार्ग पर चलने को प्रेरित करते है बल्कि प्रत्येक छात्र के सफल जीवन की नींव भी इन्ही हाथो से रखी जाती है।
आज जैसे जैसे हमारे समाज ने उत्तरोत्तर प्रगति की समाज का हर ताना बाना भी प्रभावित हुआ है ।सामाजिक संस्थानों में समय समय पर जो परिवर्तन हो रहे है वो किसी से छिपे नही है कुछ सकारात्मक स्वरूप लेकर समाज निर्माण कर रहे है तो कुछ समाज के लिये विध्वंसक बन रहे है शिक्षा समाज के लिए आवश्यक व अनिवार्य तत्व है ये कहना अतिशयोक्ति नही होगी कि भोजन पानी जितनी आवश्यक शिक्षा भी है क्योंकि इसी के द्वारा हम जीवन कौशल सीखते हैं परंतु वर्तमान में शिक्षा का स्वरुप दिन प्रतिदिन बदरूप होकर बदलता जा रहा है शिक्षा नैतिक जीवन की आधारशिला न होकर केवल जीविकोपार्जन का साधन मात्र बनती जा रही है यह एक कटु सत्य है कि प्रत्येक व्यक्ति की शिक्षा का एकमात्र लक्ष्य अच्छी नौकरी प्राप्त करना रह गया है जिस तरह शिक्षा बदल रही है शिक्षक भी उससे अप्रभावित नही है अब वह पथप्रदर्शक के स्थान पर निर्देशकर्ता बनकर रह गया है चूंकि शिक्षक भी समाज का एक अभिन्न अंग है समाज के बदलाव उसे भी प्रभावित करते है उसकी सोच भी व्यावसायिक होती जा रही है वह भी एक हाथ दो एक हाथ लो कि पद्धति का अनुसरण करने लगा है उसी व्यावसायिकता के चलते शिक्षा का स्तर दिनोदिन गिरता जा रहा है अधिक धन कमाने की लालसा ने शिक्षा जैसे दान के कार्य को व्यापार का रूप दे दिया है ऐसी शिक्षा से धन तो प्राप्त हो जाएगा परंतु नैतिक पतन तो अवश्यम्भावी है आज सब भौतिक सुख सुविधाओं में इतने तल्लीन हो गए है कि उन्हें खुद के दायित्व नजर नही आते न ही समाज के प्रति कर्तव्य आर्थिक उन्नति ही विकास का पर्याय होती जा रही है इस प्रकार का बदलाव समाज के लिए सकारात्मक न होकर नुकसानदेह ही होता है क्योंकि शिक्षा और शिक्षक किसी भी समाज की धुरी होती है अगर वही टूट गई तो हम सभ्य समाज की कल्पना भी नही कर सकते इसकी परिणति आये दिन शैक्षिक संस्थानों में देखने को मिलती रहती है कभी प्रोफेसर सभरबाल के रूप में तो कभी अन्य के रूप में प्रश्न यही है कि हमारे शिक्षक के प्रति सम्मान की इतनी मजबूत नीव हिलने कैसे लगी समाज के दिशा निर्धारक इस व्यक्तित्व को शनैःशनैःविस्मृत क्यो किया जा रहा है।आज शिक्षा के गिर रहे स्तर के लिए निश्चित रूप से शिक्षक को जबाबदेह ठहराया जाता है परंतु हमे यह देखना होगा कि क्या यह पूर्णतः सत्य है तो हम पाएंगे कि समाज की शिक्षा के प्रति व्यवसायीकरण की सोच तथा शिक्षक के शैक्षिक कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्यो में समायोजित करना भी इसका एक प्रमुख पहलू है यदि शिक्षक प्रारंभिक समय से ही शिक्षण पर पूर्ण ध्यान केंद्रित नही कर पायेगा तो उसके आगामी प्रतिफल प्राप्त नही किये जा सकते है।छात्रों द्वारा जीवन मे कुछ अच्छा करने पर आज भी शिक्षकों का हृदय गर्व से भर जाता है परंतु समय मे वदलाव स्वरूप छात्र व शिक्षक के बीच जो विश्वास का पल बना था वह कमजोर हुआ है वे एक दूसरे को शंका व संदेह की दृष्टि से देखने लगे है यदि हम कहे तो इस गुरु शिष्य परंपरा को कमजोर करने में शिक्षक और छात्र दोनों का योगदान है ।कुछ शिक्षको की कार्य के प्रति उदासीनता और बच्चों की भौतिकवादी सोच व दिशाहीनता ये सभी शिक्षा स्तर की गिरावट के लिए उत्तरदायी है जरूरी के है कि दोनों अपनी अपनी जिम्मेदारियों को समझे और ईमानदारी से उसका निर्वाहन करे शिक्षक और छात्र के बीच की दूरी बढ़ने से धीरे धीरे उनके बीच की आत्मीयता और सम्मान कम होते जा रहे हैं जो भविष्य के बड़े संकट के संकेत है समय रहते इस बात पर ध्यान केंद्रित नही किया तो एक बड़ा संकट हमारे सामने होगा इसका एक पक्ष ये भी है कि वर्तमान समाज शिक्षको की असुविधाओं को देखकर भी उनके निराकरण में उदासीनता दिखाता है शिक्षको के कंधों पर बच्चों के भविष्य निर्माण का भार तो सौप देता है लेकिन शिक्षको के प्रति अपने दायित्वों को भूल जाता है इन्ही कारणों से शिक्षक के सामाजिक स्थान एवं दर्जे में भारी गिरावट आ गई है समाज और शिक्षक के बीच की दूरी सम्पूर्ण व्यवस्था में अव्यवस्था पैदा कर रही है।यह स्थिति न तो छात्र न शिक्षक और न ही राष्ट्र के हित मे है आज के वैश्विक दौर में हर इंसान आर्थिक हितों की सोच की ओर अग्रसर हो रहा है शिक्षक भी इससे अप्रभावित नही है ऐसे में कई बार ऐसे रास्ते चयन हो जाते है जो नैतिक रूप से सही नही कहे जा सकते यही एक कारण भी है कि तमाम सरकारी प्रयासो के बावजूद शिक्षा का व्यवसायीकरण होता ही जा रहा है संस्थान केवल प्रमाणपत्र वितरण केंद्र बनते जा रहे है ।समाज का नैतिक स्तर लगातार गिर रहा है शिक्षा व्यवसाय बनती जा रही है परंतु शिक्षकों को विचार करना होगा कि वे केवल शासकीय कर्मचारी नही है अपितु उनके ऊपर समाज के नैतिक उत्थान की महत्वपूर्ण जबाबदेही भी है शिक्षक अपनी गरिमा समझें यदि वह खुद को अकेले कर्मचारी मानने लगेंगे तो इससे बड़ा दुर्भाग्य हो ही नही सकता ।शिक्षकों को अपने अतीत के गौरव को समझना चाहिए साथ ही उसे खो देने के कारणों पर विचार करके स्वयं में बदलाव लाना चाहिए नही तो यह केवल शिक्षक का पतन नही होगा बल्कि सारे राष्ट्र को इसकी कीमत चुकानी होगी ।आज शिक्षा व्यवस्था की स्थिति के लिए राजनीतिक, सामाजिक और शैक्षिक सभी स्तरों पर चिंतन और निकालकर आये तथ्यों का निराकरण जरूरी है अन्यथा हमारी गौरवशाली शैक्षिक परंपरा हमारे लिए उदाहरण मात्र रह जायेगी
माधव पटेल
(राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षक)

Last Updated on November 5, 2020 by 1982madhavpatel

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