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डॉ. शैलेश शुक्ला

सुप्रसिद्ध कवि, न्यू मीडिया विशेषज्ञ एवं प्रधान संपादक, सृजन ऑस्ट्रेलिया

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डॉ. शैलेश शुक्ला

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नाम ही नहीं, विचारों में भी करना होगा बदलाव

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सुशील कुमार ‘नवीन’

मॉर्निंग वॉक में मेरे साथ अजीब किस्से घटते ही रहते हैं। कोशिश करता हूं कि बचा रहूं पर हालात ही ऐसे बन जाते हैं कि बोले और कहे बिना रहा ही नहीं जाता। सुबह-सुबह हमारे एक दुखियारे पड़ोसी श्रीचन्द जी मिल गए। दुखियारे इसलिए कि ये ‘तारक महता का उल्टा चश्मा’ के पत्रकार पोपट लाल की तरह है। लाख जतन कर लिए पर विवाह का संजोग नहीं बन रहा। मुझसे बोले-आप हमारे बड़े भाई हैं। एक सलाह लेनी है। मैंने कहा-जरूर, मुझसे आपका कोई काम बने तो यह मेरा सौभाग्य होगा। एक बाबा के विज्ञापन की कटिंग दिखाकर बोले-कल इस बाबा जी के पास गया था। मैंने उनसे सारी कहानी विस्तारपूर्वक सुनाने को कहा तो उन्होंने बताया कि दोपहर 12 बजे मैं विज्ञापन में दिए गए पते पर पहुंचा। बाबा जी एक रंगीन लाइटों से जगमगाते कक्ष में सुंदर आसन पर भस्म रमाये बैठे थे। चारों ओर धूप और दीप की सुगंध बरबस उन्हीं की ओर खींच रही थी।

 कमरे में मेरे प्रवेश करते ही बाबा ने अपने दिव्य चक्षु खोले। मेरी तरफ देखा और हंसकर बोले-श्रीचन्द, सब गड़बड़ी तुम्हारे नाम में है। नाम बदलना पड़ेगा। मैंने भी उत्सुकतावश इस बारे में और जानना चाहा तो बोले-बड़े भोले बनते हो। नाम श्री(लक्ष्मी) चन्द(चन्द्र, सरताज,स्वामी) रखकर ‘श्री’ का वरण करना चाहते हो। नहीं हो सकता। अनन्ता,अवयुक्ता,अनिरुद्धा,अदित्या, दयानिधि,दानवेन्द्र,देवेश, देवकीनन्दन तुम्हें कभी भी ऐसा नहीं करने देंगे। नाराज है वो तुमसे। मूर्ख बालक। अपने घर की ‘श्री’ तुम्हें कौन देगा। 

 बाबा लगातार बोलते जा रहे थे और मैं सुनता जा रहा था। उनके रुकने पर उपाय पूछा तो वो बोले-कृपा चाहते हो तो अपने नाम के आगे से ‘श्री’ हटा दो। मैंने कहा-नाम से ‘श्री’ हटाने से तो मजाक बन जायेगा। ‘श्री’ के बिना तो चन्द की कोई वैल्यू ही नहीं रहेगी। बाबा गुस्सा होकर बोले- तुम तो निरे अज्ञानी हो।’श्री’ हटाने से भी तुम्हारे नाम में कोई कमी नहीं आएगी। रूपवान हो तो चन्द के साथ ‘रूप’ जोड़ रूपचन्द हो जाओ। परमात्मा की मेहर चाहिए तो ‘मेहर’ जोड़ मेहरचन्द हो जाओ। धार्मिकता रग रग में भरी हो तो  ‘धर्म’ जोड़ धर्मचन्द हो जाओ। दयावान हो तो ‘दया के चन्द’  दयाचन्द हो जाओ। पूर्णता प्राप्त करनी हो तो पूर्णचन्द बन जाओ। अमरता प्राप्त करनी हो तो अमरचन्द हो जाओ। रोमान्टिक हो तो प्रेमचन्द बन जाओ। सोमप्रिय हो तो सोमचन्द हो जाओ। ज्ञानवान हो तो ज्ञानचन्द बन जाओ। 

बाबाजी का प्रवचन रुकने का ही नाम नहीं ले रहा था। लास्ट में बोले- एक बार आजमा के देखो। देखना, हफ्ते भर में तुम्हारी बात बन जाएगी। बाबा को प्रणाम कर मैं वहां से लौट आया। श्रीचन्द जी की बात सुन मैंने कहा-देखो,भाई, गुड़ की डली से बाबा राजी होता हो तो क्या बुराई है। नाम बदलने से तुम्हारा भाग्य बदलेगा या नहीं यह मैं नहीं कह सकता। पर नाम क्या, नाम में एक भी वर्ड की बढ़ोतरी और घटोत्तरी सब कुछ बदल सकती है। राम रमा तो मोहन मोहिनी, श्याम श्यामा का रूप धर लेता है तो कृष्ण कृष्णा बन जाता है। ज्ञान अज्ञान बन जाता है तो धर्म अधर्म में बदल जाता है। सत्य असत्य तो नाम अनाम बन जाता है। श्री चन्द बोले- आप भी लग गए बाबा जी जैसे ज्ञान बांटने। सीधे-सीधे समझाओ तो कोई बात बने।

 मैंने कहा- मेरे भाई। सब आजमा लिया। ये भी आजमा लो। मन तो सन्तुष्ट होगा ही। कुछ मिलेगा तो ठीक अन्यथा जैसे हो वैसे तो रहोगे ही। वो बोले-मतलब। मैंने कहा- नाम के साथ विचारों में भी बदलाव जरूरी है। दुष्ट प्रवृति और नाम सुशील, ख्याल पुराने नाम नवीन, काम राक्षसों के और नाम प्रभुदयाल रखने से थोड़े भलाई पाओगे। मुखौटा छलावे के लिए ही होता है। मुखौटा पहनने का शौक है तो ये भी आजमाकर देख लो। पोपट के साथ चाहे लाल लगाओ चाहे चन्द। रहेगा तो वो पोपट ही। बॉम्ब को बम कहने से वो विनाश कम थोड़े ही न करेगा। श्रीचन्द ने दोनों हाथ जोड़े और कहा-भाई, गलती हो गई, जो आपसे सलाह मांग ली। आपने तो बात को सुलझाने की जगह इसे और उलझा कर छोड़ दिया। मुझे खुद ही इस बारे में कोई निर्णय लेना पड़ेगा। यह कहकर वो वहां से निकल गए। मुझे उनसे इस प्रत्युत्तर की उम्मीद कतई नहीं थी। 

आप ही बताओ मैंने क्या गलत कहा। जब ‘बिल्लू बारबर’ फ़िल्म पर विवाद हुआ तो बारबर हटा ‘बिल्लू’ कर दिया। पद्मावती ‘पद्मावत’ बन गई। रैम्बो राजकुमार ‘आर राजकुमार’ बन गया। मेंटल है क्या ने ”जजमेंटल है क्या’ का रूप धर लिया। लवरात्रि को ‘लवयात्री’ तो रामलीला को ‘गोलियों की रासलीला-रामलीला’ बना दिया। इससे कुछ फर्क पड़ा। कहानी वही, पात्र वही रहे। फेरबदल सिर्फ नाम का और कुछ नहीं। ताजा उदाहरण ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ का है। विवाद हुआ तो बॉम्ब हटा ‘लक्ष्मी’ नाम कर दिया गया है वो भी स्पेलिंग बदलकर। अब इससे क्या फर्क पड़ेगा। जब नाम बदलने से कहानी में, थीम में फर्क ही नहीं पड़ रहा तो नाम बदलना क्या जरूरी है। बदलना है तो विचार बदलें। नाम तो लोग अपने आप धर लेंगे।

नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी प्रसंग से जोड़कर अपने दिमाग का दही करने का प्रयास न करें।

 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

 
 

Last Updated on November 3, 2020 by dmrekharani

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