ये जो माटी ढेर है, ‘मैं’ माया का दास।
माया गई तो मैं भी, खाक बचा अब पास।।
मैं श्रेष्ठ हूं तो सिद्घ कर, मैं अच्छी नहीं बात।
सबका मालिक एक है, इंसां की इक जात।।
मिट्टी में मिल जाता मैं, कुछ ना जाता संग।
एक परमात्मा सच है, सब उसके ही अंग।।
सभी से मेल राखिए, मिटा दिजै सब अहं।
बातों से बात बनती, मिट जाते सब बहम।।
गैर की पीर उठाएं, आता सबका काल।
पीर न देखे कभी ‘मैं’,फिर कौन देखे हाल।।
एक अदृश्य सा बिन्दु तू,बहुत अनंत ब्रह्माण्ड।
सबका हिसाब हि ऊपर, नजर में सभी कांड।।
करोना से पंगु बना, धन ना आया काम।
अहं हुआ चकनाचूर, सभी हैं यहां आम।।
भू सूर्य जल पवन आग,करते अपना काम।
अथक निरंतर हि चलते,मांगे न कोय दाम।।
‘सिंधवाल’ मन शांत है, तो होता उपकार।
मैं जब भी ‘हम’ बनें तो,सबका होय उद्धार।।
-संदीप सिंधवाल
Last Updated on October 22, 2020 by srijanaustralia