प्रेम-काव्य लेखन प्रतियोगिता/ माटी-तन चंदन कर दूँगा
माटी-तन चंदन कर दूँगा
माटी-तन चंदन कर दूँगा
लग जाने दो बस सीने से
हृदय वृन्दावन कर दूँगा,
छूकर पतित तुम्हारी काया
माटी-तन चंदन कर दूँगा।
दिल से दिल का तार जोड़कर
शोणित में मिल जाऊँगा,
साँसों में घुलकर साँसों से
रूह तलक महकाऊँगा।
खोकर तेरे रोम-रोम में
अंग-अंग पावन कर दूँगा।
लग जाने दो बस सीने से
हृदय वृन्दावन कर दूँगा।।
जीवन के मरुथल में आखिर
प्रेम-जलद बरसाना होगा,
बाँह पकड़कर साथ-साथ में
प्रणय गान सुनाना होगा।
पा करके सानिध्य तुम्हारा
ऊसर को मधुवन कर दूँगा।
लग जाने दो बस सीने से
हृदय वृन्दावन कर दूँगा।।
बिठा घटाओं की डोली में
अम्बर तक ले जाऊँगा,
नंदन वन की निर्झरिणी में
फूलों से नहलाऊँगा।
तेरे रुख से ही पल भर में
पतझड़ को सावन कर दूँगा।
लग जाने दो बस सीने से
हृदय वृन्दावन कर दूँगा।।
प्रेम-पंथ पर चलते-चलते
पर्वत यदि टकराएँगे,
दो प्रेमी के बीच में आकर
सागर गर लहराएँगे।
पर्वत, सागर को कर लेकर
शम्भू सा नर्तन कर दूँगा।
लग जाने दो बस सीने से
हृदय वृन्दावन कर दूँगा।।
(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)
✍ रोहिणी नन्दन मिश्र
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