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महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता- सिर्फ औरत ही नहीं मरती/ औरतें ही नहीं निकलती

(1)

 

सिर्फ औरत ही नहीं मरती

मरती हैं औरतें ही न कई बार!

होता है कइयों और का बलात्कार।

सिल-

पथरकट्टों के छेनियों के

कुंद धार का ठक-ठक

तीव्र प्रहार,

जो उसके जन्म के साल भर बाद हुए थे,

पहली बार वाला है

सिल का बलात्कार,

वैसे आगे..

उसकी आँखों के सामने ही

कई बार नोचेंगे पथरकट्ट उसकी देह।

घर के नए 

दो-तीन अँगनाओं के वास्ते,

जो पिता के रहते ही

उग आए हैं,

कर देते हैं जब

सिल के टुकड़े,

मरती है तब शिला दूसरी दफा।

जन्म पर उबटन पीसने के बाद

जब पीसा जाता 

आखिरी शरीर का अंगराग,

तब फिर होता 

सिल का अंतिम संस्कार। 

खिड़की

अँगुली फँस जाए

कदाचित्

तो सौ टेढ़ व लात सहती,

मरती,

कब्जे पर टिकी, 

दादा के समय की लकड़ी की मूक खिड़की।

एक बंद करता, दूसरा खोलता

गुस्से में

जब बोलचाल पति-पत्नी में

बंद रहता, 

मरती खिड़की तब भी।

बरसात में बंद न हो पाती

तब बसुले के कइयों चोट से,

चीर हरण सहती,

गर्मियों में कड़ी धूप से कुम्हलाकर

जब बचना चाहती 

तो पर्दे सिकोड़ लिए जाते

और सर्दियों में कुनकुनी धूप की 

जब तलब जगती 

तो परदे मढ़ जाते।

कदम-कदम पर

खिड़िकियाँ भी झेलतीं हैं अत्याचार।

चूल्हा-

हाँड़ तोड़ मेहनत के बाद भी 

जब तड़के 

डोल-मैदान से लौटते समय

मुखिया के बाग से 

बहू लाती गीली लकड़ियाँ

तो टूटे छप्पर से

धुँआ बन सुलग उठता है,

दो दिन के ठंडे चूल्हे का हृदय, 

चूल्हा मरता है तब पहली बार।

भूखों/गरीब को न बाँटकर

देगचा उड़ेल दिया जाता घूर पर

लकड़ियों के तीव्र दहन की आड़ में

चटक-चटक कर,

तब

फिर रोता है चूल्हा, फिर मरता है वह।

जरा सी नमक की अधिकता में

ताबड़तोड़ वाक्/ लात प्रहार 

किन्तु 

अत्यंत स्वादिष्ट होने पर भी

प्रशंसा के दो शब्द तक

न निकलता मुँह से, तो

चूल्हे का पुनः होता है शीलहरण,

चूल्हा फिर मरता है तब।

 

(2)

औरतें ही नहीं निकलती

 

निकालते हैं कभी जब

केवल औरतें ही नहीं निकलती घर से!

निकलती है

दरवाजे पर पहली

और आखिरी बार

उसके लिए सजी

आरती के थाल की लाख-लाख दुआएँ,

उसके कथित भाग्यशाली पैरों के साथ 

लाई गई सिन्दूरी खुशियों की छाप,

हर्षोत्सुक उसे निहारती दीवारें

छत, आँगन और ड्योढ़ियों की रौनकें,

सुहाग सेज पर सजी मखमली चादरों की सिलवटें,

रंग-बिरंगी फूलों की भीनी सुवास,

मुँह दिखाई के कर्णफूल की डिबिया,

और सिन्दूर की पुड़िया।

निकल जाती हैं

सास के बक्से से,

एक माँ की

एक माँ को दी गई,

बेटी के खुशियों की गारंटी, बिछिया,

एक माँ का कलेजा-रूप,

बेटी की गलतियाँ ढकने की साड़ियाँ।

ननद-भौजाई की मीठी नोक-झोंक

भाभी-देवर का वात्सल्य, दुलार।

पति-पत्नी का मनुहार।

निकलती हैं

चूड़ियों की खनक,

पायलों की झनक

और खनकती हँसी,

बटुलोई से होकर थालियों का प्यार

ससुर के सुबह की चाय के साथ का अखबार।

और..

निकल जाता है 

घर से घर,

होली, दीवाली का त्योहार।

तब केवल एक औरत का ही तिरस्कार नहीं होता,

होता है तिरस्कार

वर्तमान और भविष्य की

आने वाली बहुओं की आशाओं का,

उजड़ते हैं सपने

खूबसूरत प्यार भरे संसार के,

होता है

अपनी लाडली को दूसरे घर बहू बना

गंगा नहाने की

बेझिझक सनातन संस्कृति

और बाप के भरोसे का बलात्कार,

घर आई लक्ष्मी की उपेक्षा,

ईंट की दीवारों से घिरे स्थान पर

घर नामक विश्वास की हत्या,

आँगन की उम्मीदों का अपहरण।

सुख और शान्ति का होता है 

तब…

मरण,

जब कभी किसी औरत को निकालते हैं घर से।

(स्वरचित/मौलिक/अप्रकाशित)

  ✍ रोहिणी नन्दन मिश्र

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