1

सबकुछ नम्बर वन तो जीरो नम्बर क्यों लें जनाब !

सामयिक व्यंग्य: पावर ऑफ टाइम

सुशील कुमार ‘नवीन’

राजा नम्बर वन, मंत्री-सभासद नम्बर वन। प्रजा नम्बर वन,प्रजातन्त्र नम्बर वन। प्रचार नम्बर वन, प्रचारक नम्बर वन। प्रोजेक्ट नम्बर वन, प्रोजेक्टर नम्बर वन। मोटिव नम्बर वन, मोटिवेटर नम्बर वन। ज्ञान नम्बर वन, ज्ञानी नम्बर वन। राग नम्बर वन, रागी नम्बर वन। व्यापार नम्बर वन, व्यापारी नम्बर वन। किसान नम्बर वन ,किसानी नम्बर वन। जब सब कुछ नम्बर वन हैं तो आंकलन और आंकलनकर्ता भी नम्बर वन ही होना चाहिए। सामयिक मुद्दा कृषि विधेयकों का है। ये किसान विरोधी हैं या नहीं इसकी सटीक विवेचना करने वाले दूर-दूर तक नहीं दिख रहे हैं। जो विशेषज्ञ सामने आ रहे हैं उनके अपने-अपने स्वार्थ हैं। सत्ता पक्ष के विशेषज्ञों को हर हाल में इसी बात पर अडिग रहना है कि ये किसानों के लिए सरकार का तोहफा है तो विपक्ष से जुड़ें विशेषज्ञों को तो इसमें मीनमेख निकालनी ही निकालनी है। ऐसे में किसान किसे सही मानें। पर जिस तरह बवाल हो रहा है उससे तो उन्हें पुराना सिस्टम ही उचित सा लगने लगा है। खैर छोड़िए इसे। ये लड़ाई अभी लम्बी चलनी है। आप तो बस एक कहानी सुनें और आनन्द लें।

 विदेश यात्रा गए राजा साहब को वहां दो घोड़े पसन्द आ गए। राजा ने घोड़ों के मालिक से मोलभाव किया पर वह उन्हें बेचने को तैयार नहीं था। राजा साहब मुंहमांगे दाम पर भी लेने पर अड़े थे। घोड़ा मालिक का तर्क था कि ये आपके लायक नहीं हैं।ये सुंदर हैं, मनभावन हैं पर आरामपरस्त हैं। कल को इन्हें युद्ध आदि में भी प्रयोग करना चाहोगे तब काम नहीं आएंगे। दूसरे आपके यहां गर्मी बहुत है, ये ठंडे मौसम के आदी हैं। बीमार हो जाएंगे। जान का भी जोखिम अलग से रहेगा। इन्हें छोड़ आप आपके देश के अनुरूप घोड़े ले जाएं। हठ पर घोड़ा मालिक ने इस शर्त पर राजा को घोड़े दे दिए कि इन्हें धूप तक नहीं लगनी चाहिए । राजा विशेष व्यवस्था कर घोड़ों को अपने राज्य में ले आया। उनके लिए विशेष अस्तबल तैयार करवाया गया। देखभाल के लिए कर्मचारी नियुक्त कर दिए गए। विदेश से विशेष घोड़ों को लाने की खबर प्रजा तक भी जा पहुंची। हर कोई इन्हें देखना चाहता था पर राजा के अलावा अस्तबल में जाने की किसी को इजाजत तक नहीं थी।

एक दिन राजसभा में मंत्री ने राजा से उन घोड़ों की खूबियों के बारे में पूछा तो राजा ने कहा-एक नम्बर के घोड़े हैं। उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। सुंदरता में, कदकाठी में, चाल में सब एक नम्बर है। मंत्री ने कहा-जी ऐसे है तो प्रजा को भी इन्हें एक बार देखने का मौका मिलना चाहिए। मौसम ठीक जान एक दिन राजा ने आमजन के लिए घोड़ों के दर्शन कराने का निर्णय लिया। मुनादी के बाद तय समय पर मंत्री, सभासद व आमजन राजमहल के बाहर खुले मैदान में जमा हो गए। दुदम्भी की ध्वनि के साथ घोषणा की गई कि सभी दिल थाम कर बैठें। सुंदरता में नम्बर एक, कदकाठी में नम्बर एक, चाल में नम्बर एक राजसी घोड़े जो कभी न देखे होंगे,न उनके बारे में सुना होगा। जल्द सामने आ रहे हैं।

फूलों से सजे वाहन में दोनों घोड़ों को बाहर लाया गया। देखते ही घोड़े सबके मन को भा गए। बाहर की हवा लगते ही घोड़े जोर-जोर से हिनहिनाये। प्रजा ने मधुर आवाज पर तालियां बजाई। वो फिर हिनहिनाये। तालियां फिर बजने लगी। पर ये क्या, घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज रुकने का ही नाम नहीं ले रही थी। हिनहिनाने के साथ घोड़ों ने वाहन में ही उछलकूद शुरू कर दी। लात मार कर्मचारी भगा दिए। रस्सी से अपने आपको आजाद करवाकर अस्तबल की ओर दौड़ लगा दी। थोड़ी सी दूरी के बाद ही दोनों गिर पड़े और अचेत हो गए। पशुवैद्य ने जांच उन्हें शीघ्र अस्तबल में ले जाने की कही। वहां जाते ही घोड़ों ने आराम महसूस किया। घण्टे भर में वो सामान्य हो गए। राजा को आकर पशुवैद्य ने आकर जानकारी दी की अब वो सामान्य हैं। इसके बाद राजा ने उन घोड़ों को बाहर नहीं निकाला।

उधर, वो एक नम्बरी घोड़े प्रजा के लिए फिर चर्चा का विषय बन गए। एक बोला-भाई, राजा के घोड़े हैं तो एक नम्बर के। दूसरे ने भी हामी भरी।बोला-बिल्कुल, देखते ही मन भा गए। तीसरे का जवाब भी कुछ ऐसा ही था।

चौथा चुपचाप उनकी बात सुन रहा था। सबने घोड़ों पर उसकी भी राय जानी। बोला- घोड़े एक नम्बर के हैं, इसमें कोई दो राय नहीं है। पर राजा के तो जीरो नम्बर हो गए। सब बोले- घोड़े एक नम्बर के तो राजा के जीरो नम्बर क्यों। राजा ही तो अपनी बुद्धिमानी से इन्हें छांटकर खरीदकर लाया है, ऐसे में राजा ने भी तो एक नम्बर का ही काम किया है। उसने कहा-जरूर, राजा एक नम्बर, सभा-सभासद सब एक नम्बर,काम भी एक नम्बर। राजा का सलेक्शन भी एक नम्बर का है। पर ऐसे घोड़ों का क्या फायदा। जिन्हें न राजा किसी को दिखा सकता है,न सवारी कर सकता है। न सेना में शामिल कर सकता है, न किसी को उपहार में दे सकता है। बोलो, हैं ना। ये जीरो नम्बर का काम। 

    उसकी बात सबको उचित सी लगी। बोले-तुम ही बताओ, राजा को क्या करना चाहिए। बोला-जब यहां के वातावरण के अनुसार ये हैं ही नहीं तो राजा क्यों इन्हें मारने पर तुला है। जहां से इन्हें लाया गया, वहीं इन्हें भिजवा दें। जो उपयोगी नहीं, उसे लौटाना ही ठीक। बात राजा तक भी पहुंच गई। उसने सोचा जब मेरे पास पहले से सबकुछ एक नम्बर है तो इन घोड़ों के चक्कर में अपने नम्बर क्यूं कम करवाऊं। राजा ने घोड़े ठंडे प्रदेश में वापस लौटा दिए। विदेशी नम्बर वन घोड़ों के चक्कर में राजा ने अपने नम्बर जीरो करवा लिए थे। अब राजा का टारगेट प्रजा में अपने जीरो नम्बर को फिर से एक नम्बर में बदलने का हो गया। आगे क्या हुआ, ये फिर कभी बताऊंगा। आज के लिए इतना ही काफी….।

(नोट-कहानी मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे अपने दिमाग से किसी के साथ जोड़ ज्यादा स्वाद लेने का काम कदापि न करें। ये स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237




बचे रहेंगे किसान, तभी तो होगा नफा-नुकसान…..

सामयिक लेख: कृषि विधेयक    सुशील कुमार ‘नवीन’

पिछले एक पखवाड़े से देशभर में किसान और सरकार आमने-सामने हैं। मामला नये कृषि विधेयकों का है। सरकार और सरकारी तंत्र लगातार इन विधेयकों को किसान हितैषी करार देने में जुटा है वहीं किसान इसे ‘अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना ‘ जैसा बता लगातार मुखर हैं। किसानों पर लाठीचार्ज हो चुका है, राज्यसभा में हंगामा हो चुका है। 8 सांसद निलंबित किये जा चुके हैं। यहां तक विपक्ष दोनों सदनों का बहिष्कार भी कर चुका है। पर सरकार आगे बढ़े कदम किसी भी हालत में पीछे लौटाने को तैयार नहीं दिख रही। कुल मिलाकर स्थिति विकट है। मैं भी इस मामले पर कुछ लिखने की तीन-चार दिन से सोच रहा था, पर लिखूं क्या यही ऊहापोह की स्थिति में था। किसानों के समर्थन पर लिखूं या सरकार के समर्थन पर। समझ मे ही नहीं आ रहा था। सुबह-सुबह आज घर के आगे कुर्सी डाल चाय की चुस्की ले रहा था। इसी दौरान गांव में नाते में चाचा लगने वाले प्रताप सिंह का आना हो गया। गांव के बड़े सम्मानित व्यक्ति हैं वो। किसान और किसानी पर उनसे कितना ही लम्बा वार्तालाप कर लो। पीछे नहीं हटते। किसान सम्बंधित हर आंदोलन में अग्रणी रहते है। इतनी सुबह गांव से उनका आना मुझे थोड़ा असहज सा लगा

जलपान के बाद औपचारिकवश मैंने आने का प्रयोजन पूछा तो बोले-सब सरकार की माया है। कहीं धूप-कहीं छाया है। मैंने कहा-चाचा, बड़ी कविताई कर रहे हो। माजरा क्या है? बोले- दो दिन से तेरे भायले(मित्र) के साथ मंडी में बाजरा बेचने आया हुआ हूं। सब फ्री का माल समझते हैं। हमारी तो मेहनत का कोई मोल नहीं। ज्यादा नहीं तो कम से कम सरकारी रेट तो मिल जाए, पर सब के सब मुनाफाखोर लूटन नै लार टपकाई खड़े हैं। उम्मीद थी कि इस बार 3000 रुपये क्विंटल का भाव मिल जाएगा, पर यहां तो आधे ही मुश्किल से मिल रहे हैं।

मैंने कहा- यह तो गलत बात है। आप बेचो ही मत, कम दाम पर। सरकार ने अब तो किसानों के लिए कई बिल पास कर दिए हैं। अगली बार से तो आपको फायदा ही फायदा है। बोले-बेटा, किसानों को कभी फायदा नहीं होना। किसान तो सिर्फ सपने देखने के लिए होते हैं। इस बार बढ़िया दाम मिलेंगे यह सोचकर  छह महीने जी-तोड़ मेहनत करते हैं।और जब फसल निकालकर मंडी की राह पकड़ते हैं उसी समय ये सपने एक-एककर टूटते चले जाते हैं। किसान तो सदा यूं ही मरने हैं। मैंने कहा- चाचा, आगे से ऐसा नहीं होगा। सरकार ने किसानों को पूरी आजादी दे दी है। फसल का स्टोर कर समय पर बेहतर दाम ले सकेंगे। बढ़िया दाम मिलते हो तो विदेश में भी फसल बेच सकेंगे।आढ़ती-बिचोलिये सब लाइन पर लगा दिए हैं।

मेरी बात सुन चाचा खूब जोर से हंसे और फिर गम्भीर होकर बोले- एक बात बता बेटा! तुम्हारे कितनी जमीन है। मैने कहा-2 एकड़ है। बोले-इस बार इसमें गेहूं बो दे। आगली बार बढ़िया भाव मिलेंगे। मैंने कहा-चाचा, ये किसानी हमारे बस की नहीं है, एक बार की थी। खर्चा हुआ 50 हजार और आमदनी 30 हजार। 20 हजार का सीधा नुकसान। बोले-बस, एक बार में ही हार गया। हमारे साथ तो सदा से ही ऐसा होता आया है। कभी ओले पड़ जाते हैं कभी तूफान आ जाता है। रही सही कसर हर साल फसलों की नई बीमारी पूरी कर देती है। दिखता कुछ और मिलता कुछ है। आगे अच्छा होगा, सोचकर फिर हल उठा लेते हैं।

बोले- रही बात, विदेश में फसल बेचने की। फसल तो तब बिकेगी जब उसे विदेश तक ले जाने की हमारी हिम्मत हो। गाड़ी का भाड़ा तो शहर की मंडी तक लाने का नहीं जाता है। विदेश जाने में तो खुड(खेत) बिक जाएंगे। फसल निकले नहीं, उससे पहले खेत में ही बीज, खाद,राशन का हिसाब करने व्यापारी पहुंच जाते है। आधी से ज्यादा तो वहीं बिन मोल बिक जाती है। शेष आधी लेकर मंडी की राह करते हैं तो कभी नमी, कभी कचरा ज्यादा कहकर उसमें से और काटा मार लिया जाता है। आखिर में जब हिसाब लगाते है तो नफा कम नुकसान ज्यादा दिखता है। अब सुन ले इन बिलों के फायदे की। फायदा सदा जमाखोरों को हुआ है और आगे भी होगा। खेती में खर्चे इतने बढ़ लिए कि स्टोर हम कर सकते नहीं। बाहर फसल बेचने की हिम्मत नहीं है। खेती की जमीन सिकुड़ती जा रही है। गांवों में भी कालोनी कटने लगी हैं। किसान और किसानी तो खत्म होने की राह पर है। मान लिया बिल सारे किसानों की भलाई के है। पर किसान बचे रहेंगे तभी तो इनका लाभ मिलेगा। यह कहकर चाचा उठ लिए। बोले-बेटा, ये इंद्रजाल है। इसे समझदार लोग समझ सकते है, हमारे जैसे नहीं। चाचा मुझे भी इस मामले में ‘सही कौन’ की प्रश्नावस्था में छोड़ ‘आच्छया बेटा, राम-राम’ कह निकल लिए।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी अन्य विषय-वस्तु न जोड़ कर न देखें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है। संपर्क : 96717 26237

 
 
 
 



“शोर न करें, चुपके से दबा दें डिसलाइक का बटन”

 – सुशील कुमार ‘नवीन’ 

फिलहाल एक प्रसिद्ध आभूषण निर्माता कंपनी का विज्ञापन इन दिनों खूब चर्चा में है। हो भी न क्यों हो। सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ थोड़े ही न सहन की जाएगी । तलवारें खींच जाएंगी, तलवारें…। सब कुछ सहन कर लेंगे पर ये सहन नहीं करेंगे। ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जिन्होंने तथाकथित धर्म ठेकेदारों से भयभीत होकर विज्ञापन वापस लेने के साथ-साथ माफी भी मांग ली। अन्यथा न जाने क्या से क्या हो जाता।आप भी सोच रहे होंगे कि आज व्यंग्य में आक्रमकता कहां से आ गई। नदी उलटी दिशा में क्यों बहने लगी। सुप्तप्राय रहने वाली भावनाओं का समुन्द्र क्यों उफान लेने लगा। ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। फिर उबाल क्यों। तो सुनें मनोस्थिति के विकराल रूप धरने की वजह।

     सुबह-सुबह हमारे एक धर्मप्रेमी मित्र रामखिलावन जी का फोन आ गया। हर धार्मिक पर्व पर उनके सन्देश स्वभाविक रूप से हमारे पास आते रहते हैं। एक बड़ी धार्मिक संस्था में पदाधिकारी भी हैं। सम्बोधन भी सदा जय सियाराम से ही करते हैं। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बोले- जी,एक बात आपसे कहनी थी। मेरे बोले बिना ही फिर शुरू हो गए। बोले-इस बार धनतेरस पर…..ज्वेलर्स से कोई खरीदी मत करना।

मैंने कहा-इस बार तो पत्नी को कंगन की हामी भरी हुई है। ये तो मुश्किल हो जाएगा। खैर आपका मान रख भी लेंगे पर वजह तो बताओ। बड़ा ब्रांड है, विश्वसनीयता है। अचानक ये विरोध क्यों। बोले-बड़ा ब्रांड है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो हमारी भावनाओं से खेलें। राम जी की कसम, उसका ये कदम कईयों को सीख दे जाएगा। देखना इस बार उनके वर्कर मक्खियां उड़ाते नजर आएंगे।

पूरा मामला जान आदतन मुझसे भी रहा न गया। मैं बोला-बुरा न मानें तो मैं भी कुछ कहूं। धर्म के प्रति हम खुद कितने ही समर्पित हैं। बोले-हम तो पूरा समर्पित हैं। मैंने कहा-खाक समर्पित है। धर्म के नाम का बस खाली चोला लिए फिरते हैं। न जाने कितनी बार देवताओं की प्रतिमाओं पर प्रहार किया गया है। पेंटिंग के बहाने अंग वस्त्रों के साथ हमारे दैवीय स्वरूप दिखा कलाकारी की वाहवाही लूटी गई है। फिल्मों में हमारी आस्था को ढोंग रूप में दिखा हमसे ही ताली बजवाई गई।

   मुझे आक्रमक होते देख बोले- बात तो आपकी सही है पर विरोध न करें तो कल कोई और ऐसा करेगा। मैं फिर शुरू हो गया। हमारे साथ ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। न जाने कितनी बार हमारे देवी-देवताओं की तस्वीरें शराब की बोतलों पर चिपकी दिखाई दी हैं। गणेश जी को मांस की टेबल पर बैठे दिखाया गया। सारे देवी-देवता एक सैलून का प्रचार करते तक दिखाए जा चुके हैं। महादेव को (शिव) बीड़ी का ब्रांड बना रखा हैं। गजानन को (गणेश) जर्दा खैनी की जिम्मेदारी दी रखी है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर देवताओं के चित्र वाले सोफ़ा कवर, टॉयलेट शीट तक बेची जा चुकी हैं। रामजी, चाट भंडार,पशु आहार खोले बैठे हैं।

दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी पर गाजे-बाजे के साथ देव प्रतिमा घर लाते हैं। पूजन के बाद बाकायदा उनका विसर्जन भी करते हैं। बाद में वे ही प्रतिमाएं खंडित रूप में समुन्द्र, नदी, नहर किनारे पड़ीं मिलती हैं। घर पर कोई पूजन सामग्री, धार्मिक कलेंडर,खंडित मूर्ति हो तो उसे बहते पानी में बहा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बाद में सफाई के दौरान वही सब चीजें नहर-नदी किनारे बिखरी नजर आती है। खुशियों के पर्व दिवाली पर पटाखे छोड़ें तो प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। होली पर औरों के साथ साथ हम भी पानी बचाने की अपील करने लग जाते हैं। तब कहां होता है हमारा धर्म। 

वो बोले- तो क्या करें? मैने कहा- सिस्टम को सुधारना है तो पहले खुद सुधरें फिर दूसरों से उम्मीद करें। किसी को मौका ही न दें ऐसे माहौल को क्रिएट करने का। उन्हें तो प्रचार चाहिए होता है और वो हम फ्री में कर देते है। लाइक के साथ डिसलाइक का बटन भी होता है जनाब। खामोशी के साथ उसका प्रयोग करें और देखें। अपने आप मुहंतोड़ जवाब मिल जाएगा।

अब रामखिलावन जी सहमत से दिखे। बोले- जी धन्य हैं प्रभु आप। पूरा गीता ज्ञान दे दिया। जरूर विचार करेंगे। कहकर फोन काट दिया। मेरी भावनाओं का वेग अभी भी चरम पर था। अचानक आंख खुल गई। पत्नी चाय लिए खड़ी थी। बोलीं- उठ जाओ, धर्म के ठेकेदार। नींद में भी दो-दो करेक्टर निभाना कोई आपसे सीखे। दिन के साथ अब रात को भी जनता की अदालत लगने लगी हैं। अब तो चाय पीकर चुप रहने को सर्वोपरि धर्म मानने में ही मेरी भलाई थी।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

9671726237




ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा ‘फ्री’ का हरी मिर्च और धनिया

सामयिक व्यंग्य : नफा-नुकसान – सुशील कुमार ‘नवीन’

सुबह-सुबह घर के आगे बैठ अखबार की सुर्खियां पढ़ रहा था। इसी दौरान हमारे एक पड़ोसी धनीराम जी का आना हो गया। मिलनसार प्रवृत्ति के धनीराम जी शासकीय कर्मचारी हैं। हर किसी को अपना बनाते वे देर नहीं लगाते हैं। रेहड़ी-खोमचे वाले से लेकर जिसे भी इनके घर के आगे से गुजरना हो, इनकी राम-राम और बदले में राम-राम देना बेहद टोल टैक्स अदा करने जैसा जरूरी होता है। यही वजह है कि मोहल्ले में वो धनीराम के नाम से कम और राम-राम के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनकी राम-राम से जुड़ा एक मजेदार किस्सा फिर किसी लेख के संदर्भ में सुनाऊंगा। आज तो आप वतर्मान का ही मजा लें।

पास आने पर आज उनके कहने से पहले ही हमने राम-राम बोल दिया। मुस्कराकर उन्होंने भी राम-राम से जवाब दिया। घर-परिवार की कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने यों ही पूछ लिया कि आज सुबह-सुबह थैले में क्या भर लाए। बोले-थैले में नीरी राम-राम हैं। कहो, तो कुछ तुम्हें भी दे दूं। मैंने भी हंसकर कहा -क्या बात, आज तो मजाकिया मूड में हो।

बोले-कई बार आदमी का स्वभाव ही उसके मजे ले लेता है। मेरे मन में भी उत्सुकता जाग गई कि मिलनसार स्वभाव वाले धनीराम जी के साथ ऐसा क्या हो गया कि वो अपने इसी स्वभाव को ही मजाक का कारण मान रहे हैं। पूछने पर बोले-आज का अखबार पढ़ा है। नहीं पढा हो तो पढ़ लो। बिल्कुल आज मेरे साथ वैसा ही हुआ है। मैंने कहा-घुमाफिरा कर कहने की जगह आज तो आप सीधा समझाओ।

बोले-सुबह आज तुम्हारी भाभी ने सब्जी लाने को मंडी भेज दिया। वहां एक जानकार सब्जी वाला मिल गया। राम-राम होने के बाद अब दूसरी जगह तो जाना बनना ही नहीं था। जानकार निकला तो मोलभाव भी नहीं होना था। उसी से सौ रुपये की सब्जी ले ली। धनिया-मिर्च उसके पास नहीं था। दूसरे दुकानदार के पास गया तो बोला-सब्जी खरीदो, तभी मिलेगा। अब धनिया-मिर्ची के चक्कर में उससे भी वो सब्जी खरीदनी पड़ गई, जिसकी जरूरत ही नही थी। फ्री के धनिया-मिर्च के चक्कर में सुबह-सुबह पचास रुपये की फटाक बेवजह लग गई। मैंने कहा-कोई बात नहीं सब्जी ही है,काम आ जाएगी। बोले-बात तुम्हारी सही है, आलू,प्याज उसके पास होते तो कोई दिक्कत नहीं थी। पर उसके पास भी पालक, सरसों ही थे। जो पहले ही ले रखे थे। अब एक टाइम की सब्जी तो खराब होनी ही होनी। पहले वाले से राम-राम नहीं की होती तो दूसरे से ही सब्जी खरीद लेता। नुकसान तो नहीं होता। मैंने कहा-चलो, राम-राम वाली पालक-सरसों मेरे पास छोड़ जाओ।हंसकर बोले-आप भी राम-राम के ऑफर की चपेट में आ ही गए। मैंने कहा-मुझे तो वैसे भी आज ये लानी ही थी। आप तो ये बताओ कि अखबार की कौन सी खबर का ये उदाहरण था।

बोले-खजाना मंत्री ने कर्मचारियों को आज दो तोहफे दिए। दोनों फ्री के धनिया-मिर्च जैसे हैं। पर इन्हें लेने के लिए महंगे भाव के गोभी-कद्दू लेने पड़ेंगे। बिना इन्हें खरीदे ये नहीं मिलेंगे। मैंने कहा-आपकी बात समझ में नहीं आई। बोले-कर्मचारियों को चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है। अब तक एक माह के वेतन के बराबर एलटीसी मिलती थी। अब कह रहे हैं तीन गुना खर्च करोगे तो पूरी राशि मिलेगी। खर्च भी जीएसटी लगे उत्पादों पर करना होगा।  अब ये बताओ ऐसा कौन होगा जो 10 हजार के फ्री ओवन के चक्कर में 40 हजार की वाशिंग मशीन खरीदेगा। या डीटीएच फ्री सर्विस के लिए 30हजार की एलईडी खरीद अपना बजट बिगाड़ेगा। जब काम 10 हजार की वाशिंग मशीन और 10 हजार की एलईडी से चल रहा है तो ऐसा ऑफर लेना तो मूर्खता ही है।

मैंने कहा-ये ऑफर का गणित मेरे समझ में नहीं आया। बोले- दो दिन रूक जाओ, सारे कर्मचारी बिलबिलाते देखोगे। महानुभाव, फेस्टिवल ऑफर का नुकसान का आकलन हमेशा खरीद के समय नहीं, बाद में होता है। पालक-सरसों के रुपये जब देने लगा तो बोले-ये भाईचारे का ऑफर है, फेस्टिवल का नहीं। यह कह हंसकर निकल लिए। मुझे भी उनकी बात में गम्भीरता लगी। ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा, ये फ्री का मिर्च और धनिया। भला 100 रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में पांच सौ का नोट फाड़कर थोड़े ही दिखाएंगे।

(नोट : लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे अपने किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है)  

संपर्क : 9671726237