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“शोर न करें, चुपके से दबा दें डिसलाइक का बटन”

 – सुशील कुमार ‘नवीन’ 

फिलहाल एक प्रसिद्ध आभूषण निर्माता कंपनी का विज्ञापन इन दिनों खूब चर्चा में है। हो भी न क्यों हो। सौ करोड़ से भी ज्यादा आबादी वाले हिन्दू धर्म के लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ थोड़े ही न सहन की जाएगी । तलवारें खींच जाएंगी, तलवारें…। सब कुछ सहन कर लेंगे पर ये सहन नहीं करेंगे। ये तो भला हो उन कम्पनी वालों का जिन्होंने तथाकथित धर्म ठेकेदारों से भयभीत होकर विज्ञापन वापस लेने के साथ-साथ माफी भी मांग ली। अन्यथा न जाने क्या से क्या हो जाता।आप भी सोच रहे होंगे कि आज व्यंग्य में आक्रमकता कहां से आ गई। नदी उलटी दिशा में क्यों बहने लगी। सुप्तप्राय रहने वाली भावनाओं का समुन्द्र क्यों उफान लेने लगा। ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। फिर उबाल क्यों। तो सुनें मनोस्थिति के विकराल रूप धरने की वजह।

     सुबह-सुबह हमारे एक धर्मप्रेमी मित्र रामखिलावन जी का फोन आ गया। हर धार्मिक पर्व पर उनके सन्देश स्वभाविक रूप से हमारे पास आते रहते हैं। एक बड़ी धार्मिक संस्था में पदाधिकारी भी हैं। सम्बोधन भी सदा जय सियाराम से ही करते हैं। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बोले- जी,एक बात आपसे कहनी थी। मेरे बोले बिना ही फिर शुरू हो गए। बोले-इस बार धनतेरस पर…..ज्वेलर्स से कोई खरीदी मत करना।

मैंने कहा-इस बार तो पत्नी को कंगन की हामी भरी हुई है। ये तो मुश्किल हो जाएगा। खैर आपका मान रख भी लेंगे पर वजह तो बताओ। बड़ा ब्रांड है, विश्वसनीयता है। अचानक ये विरोध क्यों। बोले-बड़ा ब्रांड है इसका मतलब ये थोड़े ही है कि वो हमारी भावनाओं से खेलें। राम जी की कसम, उसका ये कदम कईयों को सीख दे जाएगा। देखना इस बार उनके वर्कर मक्खियां उड़ाते नजर आएंगे।

पूरा मामला जान आदतन मुझसे भी रहा न गया। मैं बोला-बुरा न मानें तो मैं भी कुछ कहूं। धर्म के प्रति हम खुद कितने ही समर्पित हैं। बोले-हम तो पूरा समर्पित हैं। मैंने कहा-खाक समर्पित है। धर्म के नाम का बस खाली चोला लिए फिरते हैं। न जाने कितनी बार देवताओं की प्रतिमाओं पर प्रहार किया गया है। पेंटिंग के बहाने अंग वस्त्रों के साथ हमारे दैवीय स्वरूप दिखा कलाकारी की वाहवाही लूटी गई है। फिल्मों में हमारी आस्था को ढोंग रूप में दिखा हमसे ही ताली बजवाई गई।

   मुझे आक्रमक होते देख बोले- बात तो आपकी सही है पर विरोध न करें तो कल कोई और ऐसा करेगा। मैं फिर शुरू हो गया। हमारे साथ ऐसा कोई पहली बार थोड़े ही न हुआ है। न जाने कितनी बार हमारे देवी-देवताओं की तस्वीरें शराब की बोतलों पर चिपकी दिखाई दी हैं। गणेश जी को मांस की टेबल पर बैठे दिखाया गया। सारे देवी-देवता एक सैलून का प्रचार करते तक दिखाए जा चुके हैं। महादेव को (शिव) बीड़ी का ब्रांड बना रखा हैं। गजानन को (गणेश) जर्दा खैनी की जिम्मेदारी दी रखी है। ऑनलाइन वेबसाइटों पर देवताओं के चित्र वाले सोफ़ा कवर, टॉयलेट शीट तक बेची जा चुकी हैं। रामजी, चाट भंडार,पशु आहार खोले बैठे हैं।

दुर्गा पूजा, गणेश चतुर्थी पर गाजे-बाजे के साथ देव प्रतिमा घर लाते हैं। पूजन के बाद बाकायदा उनका विसर्जन भी करते हैं। बाद में वे ही प्रतिमाएं खंडित रूप में समुन्द्र, नदी, नहर किनारे पड़ीं मिलती हैं। घर पर कोई पूजन सामग्री, धार्मिक कलेंडर,खंडित मूर्ति हो तो उसे बहते पानी में बहा अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। बाद में सफाई के दौरान वही सब चीजें नहर-नदी किनारे बिखरी नजर आती है। खुशियों के पर्व दिवाली पर पटाखे छोड़ें तो प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। होली पर औरों के साथ साथ हम भी पानी बचाने की अपील करने लग जाते हैं। तब कहां होता है हमारा धर्म। 

वो बोले- तो क्या करें? मैने कहा- सिस्टम को सुधारना है तो पहले खुद सुधरें फिर दूसरों से उम्मीद करें। किसी को मौका ही न दें ऐसे माहौल को क्रिएट करने का। उन्हें तो प्रचार चाहिए होता है और वो हम फ्री में कर देते है। लाइक के साथ डिसलाइक का बटन भी होता है जनाब। खामोशी के साथ उसका प्रयोग करें और देखें। अपने आप मुहंतोड़ जवाब मिल जाएगा।

अब रामखिलावन जी सहमत से दिखे। बोले- जी धन्य हैं प्रभु आप। पूरा गीता ज्ञान दे दिया। जरूर विचार करेंगे। कहकर फोन काट दिया। मेरी भावनाओं का वेग अभी भी चरम पर था। अचानक आंख खुल गई। पत्नी चाय लिए खड़ी थी। बोलीं- उठ जाओ, धर्म के ठेकेदार। नींद में भी दो-दो करेक्टर निभाना कोई आपसे सीखे। दिन के साथ अब रात को भी जनता की अदालत लगने लगी हैं। अब तो चाय पीकर चुप रहने को सर्वोपरि धर्म मानने में ही मेरी भलाई थी।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

9671726237




ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा ‘फ्री’ का हरी मिर्च और धनिया

सामयिक व्यंग्य : नफा-नुकसान – सुशील कुमार ‘नवीन’

सुबह-सुबह घर के आगे बैठ अखबार की सुर्खियां पढ़ रहा था। इसी दौरान हमारे एक पड़ोसी धनीराम जी का आना हो गया। मिलनसार प्रवृत्ति के धनीराम जी शासकीय कर्मचारी हैं। हर किसी को अपना बनाते वे देर नहीं लगाते हैं। रेहड़ी-खोमचे वाले से लेकर जिसे भी इनके घर के आगे से गुजरना हो, इनकी राम-राम और बदले में राम-राम देना बेहद टोल टैक्स अदा करने जैसा जरूरी होता है। यही वजह है कि मोहल्ले में वो धनीराम के नाम से कम और राम-राम के नाम से ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनकी राम-राम से जुड़ा एक मजेदार किस्सा फिर किसी लेख के संदर्भ में सुनाऊंगा। आज तो आप वतर्मान का ही मजा लें।

पास आने पर आज उनके कहने से पहले ही हमने राम-राम बोल दिया। मुस्कराकर उन्होंने भी राम-राम से जवाब दिया। घर-परिवार की कुशलक्षेम पूछने के बाद मैंने यों ही पूछ लिया कि आज सुबह-सुबह थैले में क्या भर लाए। बोले-थैले में नीरी राम-राम हैं। कहो, तो कुछ तुम्हें भी दे दूं। मैंने भी हंसकर कहा -क्या बात, आज तो मजाकिया मूड में हो।

बोले-कई बार आदमी का स्वभाव ही उसके मजे ले लेता है। मेरे मन में भी उत्सुकता जाग गई कि मिलनसार स्वभाव वाले धनीराम जी के साथ ऐसा क्या हो गया कि वो अपने इसी स्वभाव को ही मजाक का कारण मान रहे हैं। पूछने पर बोले-आज का अखबार पढ़ा है। नहीं पढा हो तो पढ़ लो। बिल्कुल आज मेरे साथ वैसा ही हुआ है। मैंने कहा-घुमाफिरा कर कहने की जगह आज तो आप सीधा समझाओ।

बोले-सुबह आज तुम्हारी भाभी ने सब्जी लाने को मंडी भेज दिया। वहां एक जानकार सब्जी वाला मिल गया। राम-राम होने के बाद अब दूसरी जगह तो जाना बनना ही नहीं था। जानकार निकला तो मोलभाव भी नहीं होना था। उसी से सौ रुपये की सब्जी ले ली। धनिया-मिर्च उसके पास नहीं था। दूसरे दुकानदार के पास गया तो बोला-सब्जी खरीदो, तभी मिलेगा। अब धनिया-मिर्ची के चक्कर में उससे भी वो सब्जी खरीदनी पड़ गई, जिसकी जरूरत ही नही थी। फ्री के धनिया-मिर्च के चक्कर में सुबह-सुबह पचास रुपये की फटाक बेवजह लग गई। मैंने कहा-कोई बात नहीं सब्जी ही है,काम आ जाएगी। बोले-बात तुम्हारी सही है, आलू,प्याज उसके पास होते तो कोई दिक्कत नहीं थी। पर उसके पास भी पालक, सरसों ही थे। जो पहले ही ले रखे थे। अब एक टाइम की सब्जी तो खराब होनी ही होनी। पहले वाले से राम-राम नहीं की होती तो दूसरे से ही सब्जी खरीद लेता। नुकसान तो नहीं होता। मैंने कहा-चलो, राम-राम वाली पालक-सरसों मेरे पास छोड़ जाओ।हंसकर बोले-आप भी राम-राम के ऑफर की चपेट में आ ही गए। मैंने कहा-मुझे तो वैसे भी आज ये लानी ही थी। आप तो ये बताओ कि अखबार की कौन सी खबर का ये उदाहरण था।

बोले-खजाना मंत्री ने कर्मचारियों को आज दो तोहफे दिए। दोनों फ्री के धनिया-मिर्च जैसे हैं। पर इन्हें लेने के लिए महंगे भाव के गोभी-कद्दू लेने पड़ेंगे। बिना इन्हें खरीदे ये नहीं मिलेंगे। मैंने कहा-आपकी बात समझ में नहीं आई। बोले-कर्मचारियों को चार साल में एक बार एलटीसी मिलती है। अब तक एक माह के वेतन के बराबर एलटीसी मिलती थी। अब कह रहे हैं तीन गुना खर्च करोगे तो पूरी राशि मिलेगी। खर्च भी जीएसटी लगे उत्पादों पर करना होगा।  अब ये बताओ ऐसा कौन होगा जो 10 हजार के फ्री ओवन के चक्कर में 40 हजार की वाशिंग मशीन खरीदेगा। या डीटीएच फ्री सर्विस के लिए 30हजार की एलईडी खरीद अपना बजट बिगाड़ेगा। जब काम 10 हजार की वाशिंग मशीन और 10 हजार की एलईडी से चल रहा है तो ऐसा ऑफर लेना तो मूर्खता ही है।

मैंने कहा-ये ऑफर का गणित मेरे समझ में नहीं आया। बोले- दो दिन रूक जाओ, सारे कर्मचारी बिलबिलाते देखोगे। महानुभाव, फेस्टिवल ऑफर का नुकसान का आकलन हमेशा खरीद के समय नहीं, बाद में होता है। पालक-सरसों के रुपये जब देने लगा तो बोले-ये भाईचारे का ऑफर है, फेस्टिवल का नहीं। यह कह हंसकर निकल लिए। मुझे भी उनकी बात में गम्भीरता लगी। ऐसे तो महंगा पड़ जाएगा, ये फ्री का मिर्च और धनिया। भला 100 रुपये की शर्त जीतने के चक्कर में पांच सौ का नोट फाड़कर थोड़े ही दिखाएंगे।

(नोट : लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे अपने किसी सन्दर्भ में न जोड़ें)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है)  

संपर्क : 9671726237




ड्रामेबाजी छोड़ें, मन से स्वीकारें हिंदी – सुशील कुमार ‘नवीन’

         

रात से सोच रहा था कि आज क्या लिखूं। कंगना-रिया प्रकरण ‘ पानी के बुलबुले’ ज्यों अब शून्यता की ओर हैं। चीन विवाद ‘ जो होगा सो देखा जाएगा’ की सीमा रेखा के पार होने को है। कोरोना ‘तेरा मुझसे पहले का नाता है कोई’ की तरह माहौल में ऐसा रम सा गया है, जैसे कोई अपना ही हमें ढूंढता फिर रहा हो। वैक्सीन बनेगी या नहीं यह यक्ष प्रश्न ‘जीना यहां मरना यहां’ का गाना जबरदस्ती गुनगुनवा रहा है। घरों को लौटे मजदूरों ने अब ‘ आ अब लौट चलें’ की राहें फिर से पकड़ ली हैं। राजनीति ‘ न कोई था, न कोई है जिंदगी में तुम्हारे सिवा’ की तरह कुछ भी नया मुद्दा खड़ा करने की विरामावस्था में है। आईपीएल ‘साजन मेरा उस पार है’ जैसे विरह वेदना को और बढ़ा कुछ भी सोचने का मौका ही नहीं दे रहा। रही सही कसर धोनी के सन्यास ने ‘तुम बिन जाऊं कहां’ की तरह छोड़कर रख दी है। 

ध्यान आया सोमवार को देवत्व रूप धारी हमारी मातृभाषा हिंदी का जन्मदिन है। विचार आया कि उन्हीं के जन्मदिवस पर आज लिखा जाए। तो दोस्तों, यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा बिगाड़ने में हम सब का कितना योगदान है।कहने को हम हिंदुस्तानी है और हिंदी हमारी मातृभाषा। इस कथन को हम अपने जीवन में कितना धारण किए बहुए हैं, यह आप और हम भलीभांति जानते हैं। सितम्बर में हिंदी पखवाड़ा का आयोजन कर हम अपने हिंदी प्रेम की इतिश्री कर लेते हैं। सभी ‘हिंदी अपनाएं’ हिंदी का प्रयोग करें ‘ की तख्तियां अपने गले में तब तक ही लटकाए रखते हैं, जब तक कोई पत्रकार भाई हमारी फ़ोटो न खींच लें। या फिर सोशल मीडिया पर जब तक एक फोटो न डाल दी जाए। फ़ोटो डालते ही पत्नी से ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ, मूड फ्रेश हो जाए’ सम्बोधन हिंदी प्रेम को उसी समय विलुप्त कर देता है। आफिस में हुए तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन रही सही कसर पूरी कर देता है। 

हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ का नाम ले चुकी है। शौचादिनिवृत ‘फ्रेश हो लो’ के सम्बोधन में रम चुके हैं। कलेवा(नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन चुका है। दही ‘कर्ड’ तो अंकुरित मूंग-मोठ ‘सपराउड्स’ का रूप धर चुके हैं। पौष्टिक दलिये का स्थान ‘ ओट्स’ ने ले लिया है। सुबह की राम राम ‘ गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई है। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो अच्छा चलते हैं का ‘ बाय’ में रूपांतरण हो चुका है। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ में बदल चुके हैं। मामा-फूफी के सम्बंध ‘कजन’ बन चुके हैं। गुरुजी ‘ सर’ गुरुमाता ‘मैडम’ हैं। भाई ‘ब्रदर’ बहन ‘सिस्टर’,दोस्त -सखा ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’ ,पत्र ‘लेटर’ बन चुके है। चालक’ ड्राइवर’ परिचालक ‘ कंडक्टर’, वैद्य” डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’ बन चुकी हैं। कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’ बन चुकी हैं। क्रेडिट ‘उधार’ तो पेमेंट ‘भुगतान का रूप ले चुकी हैं। कहने की सीधी सी बात है कि ‘हिंदी है वतन हैं.. हिन्दोस्तां हमारा’ गाना गुनगुनाना आसान है पर इसे पूर्ण रूप से जीवन में अपनाना सहज नहीं है तो फिर बन्द करो हिंदी प्रेम का ये ड्रामा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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