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बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है जनाब…

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप भी सोच रहे होंगे कि भला ये भी कोई बात है कि बेशर्मी के लिए नशा बहुत जरूरी है। क्या इसके बिना बेशर्म नहीं हुआ जा सकता। इसके बिना भी तो पता नहीं हम कितनी बार बेशर्म हुए हैं। हमारे सामने न जाने कितनी बार अबला से छेड़छाड़ हुई है और हम उसे न रोककर तमाशबीन बन देखते रहे। न जाने कितने राहगीर घायल अवस्था में बीच सड़क पर तड़पते मिले और हम ग्राउंड जीरो से रिपोर्टर बन उसकी एक-एक तड़प का फिल्मांकन करते रहे। क्या ये बेशर्मी का उदाहरण नहीं है। और छोड़िए, किसी मजबूर लाचार की मदद न कर उसका उपहास उड़ाकर हमने कौनसा साहसिक कार्य किया।

 जनाब हम जन्मजात बेशर्म है। कुछ कम तो कुछ जरूरत से ज्यादा। हमारी हर वो हरकत बेशर्मी है। जो हमें सुख की अनुभूति कराती रही और दूसरे को पीड़ा। ये नशा ही तो है जो हमें बेशर्म बनाता है। नशा पद, प्रतिष्ठा, सत्ता का ही सकता है। नशा समृद्धि-कारोबार का हो सकता है। नशा हमारी मूर्खता भरी  विद्वता का भी हो सकता है। नशा हमारे भले और दूसरे के बुरे वक्त का भी हो सकता है। सिर्फ खाने-पीने का ही नशा नहीं होता। नशा हर वो चीज है जो हमे राह से भटकाता है।

   अब इसका दूसरा पहलू लीजिए। हम बेशर्म हीं क्यों बनें। क्या इसके बिना काम नहीं चल सकता। इसका जवाब होगा कतई नहीं। जब तक आप होश में होंगे कोई भी ऐसी हरकत नहीं करेंगे जिस पर आपका मजाक बन सकता है। शर्म-झिझक के चलते जिससे आप आंख नहीं मिला सकते। मन की बात कह नहीं सकते। एक पैग अंदर जाते ही वही डरावनी आंखें ‘ समुंद्र’ बन जाती है और आप तैरना न जान भी उसमें डूबने को तैयार हो जाते हैं। इस दौरान आप न जाने, क्या चांद, क्या सितारे सबकुछ जमीं पर लाने का दावा कर जाते हैं। ये तो भलीमानसी होती है सामने वाली की, की वो आपसे सूरज की डिमांड नहीं करती। अन्यथा आप तो उसका भी वादा कर आते। 

   अब आप हमारे सितारों को ही लीजिए। पुरुष होकर नारी वेश धारण कर आपका भरपूर मनोरंजन करते हैं। कभी दादी कभी,नानी बन मेहमानों से फ्लर्ट करते हैं तो कभी गुत्थी बन ‘हमार तो जिंदगी खराब हो गई’ डायलॉग मार विरह वेदना का प्रस्तुतिकरण करते हैं। कभी सपना बन मसाज के मेन्यू कार्ड की चर्चा करते हैं तो कभी पलक बन अपने संवादों से हमें लुभाते हैं। आपके सामने वो सब हरकतें करतें हैं जिसे सपरिवार देखने की हमारी हिम्मत नहीं होती। फिर भी हम उनकी सारी बेशर्मी को दरकिनार कर उन्हें ललचाई नजरों से न केवल देखते हैं अपितु ठहाके भी लगाते हैं । क्योंकि हम भी तो बेशर्म हैं। स्वाद का नशा हम पर हावी रहता है। 

  अब वो थोड़ा नशा गांजा, कोकीन,सुल्फा आदि का कर भी लें तो कोई गुनाह थोड़े ही है। अपनी बेइज्जती करवाकर आपको हंसाना कोई सहज काम थोड़े ही है। ये तो वही काम है कि भरे बाजार मे पेटीकोट-ब्लाऊज पहना कोई आपको दौड़ने को कह दे। विवाह शादी में पत्नी की चुन्नी ओढ़ कर ठुमके तभी लगा पाते हो जब दो पैग गटके हुए हो। नागिन डांस में जमीन पर भी ऐसे लोटमलोट नहीं हो सकते। अब बेचारा कपिल हवाई उड़ान में किसी से लड़ पड़े या भारती के पास गांजा मिल जाये तो हवा में न उड़िये। नशे में हम सब हैं। क्योंकि बिना नशे के हम बेशर्म हो ही नहीं सकते। नशा न होता तो हम सबको अच्छे-बुरे सब कर्मों की फिक्र होती जो वर्तमान में हमें नहीं है। तो सबसे पहले अपने नशे की खुमारी उतारिये फिर दूसरों के नशे पर चर्चा करें।

नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका किसी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध नहीं है। 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’, हिसार(हरियाणा)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

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पूरे रोहतकी स्वाद लिए है ‘कांटेलाल एंड संस ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

न्यूं कै दीदे पाड़कै देखण लाग रहया सै, इसा मारूंगी दोनूं आंख बोतल के ढक्कन ज्यूं लिकड़कै पड़ ज्यांगी। आया म्हारा गाम्म का …ला। किसे मामलै ने उलझाकै राखण की मेरी बाण ना सै, हाथ की हाथ सलटा दिया करूं। या हरियाणा रोडवेज की बस ना सै कै अंगोछा धरते सीट तेरी हो ज्यागी, या मेरी सीट सै। बैठना तो दूर इस कानी लखाय भी ना, तो मार-मार कै मोर बना दयूंगी। मीची आंख्या आलै, आडै कै तेरी बुआ कै ब्याह म्ह आया था। घणा डीसी ना पाकै,इसा मारूंगी सारी मरोड़ कान्ध कै चिप ज्यागी। तेरे जिसे म्हारी भैंस चराया करैं, आया बिना नाड़ का चौधरी। चाल्या जा, आज तेरा भला बख्त सै, जै मेरा संतोषी माता का बरत ना होता ना, तै तेरी सारी रड़क काढ़ देती….।

चकराइये मत। दिक्कत वाली कोई बात नहीं है। दिल और दिमाग दोनों दुरस्त हैं। सोचा आज आपको स्वाद का नया कलेवर भेंट कर दूं। रोज-रोज आम का अचार खाकर बोरियत हो ही जाती है। बीच-बीच में तीखी मिर्च के आस्वादन की बात ही कुछ और होती है। ठेठ हरियाणवी बोली और वो भी रोहतकी। तीखी मिर्च से कम थोड़े ही न है। सुनने वाले के सिर में यदि झनझनाहट ही ना हो तो फिर इसका क्या फायदा। 

  ठीक इसी तरह का स्वाद लिए सब टीवी पर एक नया सीरियल सोमवार से शुरू हुआ है ‘कांटेलाल एन्ड संस’। पूरी तरह से रोहतकी कलेवर के रंग में रंगे इस सीरियल की शुरुआत प्रभावी दिखी है। हरियाणवी को किसी सीरियल या फ़िल्म में सही रूप में बनाए रखना सरल कार्य नहीं है। और यदि इसमें रोहतक को प्रमुख केंद्र बना दिया तो गले में रस्सी बांधकर कुएं में लटकने जैसा है। ‘एक रोहतकी सौ कौतकी’ ऐसे ही थोड़े ना कहा जाता है। इनके मुख से निकला हर शब्द ‘ब्रह्मास्त्र’ होता है, वार खाली जाता ही नहीं। एक रोहतकी के शब्दों के बाणों का मुकाबला दूसरा रोहतकी ही कर सकता है और कोई नहीं। दिल्ली से रोहतक होकर गुजरने वाली बसों और ट्रेनों में बैठे यात्री रोहतक जाने के बाद ऐसा महसूस करते हैं जैसे कई महीनों की जेल से पीछा छूटा हो।

   आग्गै नै मर ले, आडै तेरी बुआ का लोग (फूफा) बैठेगा। 50 रपिये दर्जन केले तेरी मां का लोग (पिता) खरीदेगा, परे न तेरी बेबे का लोग(जीजा) 40 रपिये दर्जन देण लाग रहया सै। ओए दस रपिया की दाल म्हारे कानी भी करिए, नींबू निचोड़ दे इसमै, इननै कै घर के बाहर टांगण खातर ल्या रहया सै। ओ रे कंडेक्टर, एक टिकट सांपले तांईं की दे दे,कै कहया बाइपास जाग्गी, भीतरनै कै थारे बुड़कै भर लेंगे। तड़के आइए फेर बतावांगे। और कंडक्टर भी रोहतक का मिला तो पूरी बस का मनोरंजन फ्री हो जाता है। खिड़की कानी होले, ना तै रोहतक जाकै गेरूँगा, फेर या मरोड़ झोले म्ह लिए हांडे जाइये। बस ड्राइवर भी रोहतक का मिल जाये तो फिर क्या कहने। दो-चार डायलॉग लगे हाथ वो भी मार जाएगा। आ ज्यां सै, तड़के तड़क सुल्फा पीकै। या बस थारे  बटेऊ की ना सै,कै जड़े चाहो ब्रेक लगवा ल्यो। इब तो या रोहतक भी बाइपास जाग्गी। जो किम्मे करणा हो वा करलियो। सतबीरे, मारदे लाम्बी सीटी।

कहने की बात ये है कि हास्य का अलग ही अंदाज लिए होते हैं रोहतकी बोल। गाली भी इस तरह दे जाते हैं कि सामने वाला महसूस करके भी चुप्पी साधना भलाई समझता है। तो ‘कांटेलाल एंड संस’ हरियाणवीं रंग को कितना बरकरार रख पाएगा, ये तो समय ही बताएगा। पर सुशीला, गरिमा के साथ छोटे भाई घनश्याम की तिकड़ी की हरकतों पर ठहाके लगना पक्का है।शब्दों का सही फ्लो और डायलॉग डिलीवरी यूँ ही बनी रही तो टीआरपी शिखर छूते देर नहीं लगेगी। 

(नोट-लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे व्यक्तिगत न लेकर जनसाधारण के रूप में रसास्वादन करें)

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सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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ठाडे कै सब यार, बोदे सदा ए खावैं मार

सुशील कुमार ‘नवीन’

प्रकृति का नियम है हर बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। जंगल में वही शेर राजा कहलाएगा,जिसके आने भर की आहट से दूसरे शेर रास्ता बदल लेते हों। गली में वही कुत्ते सरदार होते हैं जो दूसरे कुत्तों के मुंह से रोटी छीनने का मादा रखते हों । और तो और गांव में भी वही सांड रह पाता है जिसके सींगों में दूसरे सांड को उठा फैंकने का साहस होता है। पूंछ दबा पीछे हटते कुत्तों, लड़ना छोड़ भागने वाले सांड सदा मार ही खाते हैं। रणक्षेत्र में वही वीर टिकते हैं जिनमें लड़ने के साहस के साथ मौत से दो हाथ करने का जज्बा हो। कायरता किसी के खून में नहीं होती, कायरता मन में उमड़े कमजोरी के भावों से होती है। कहते हैं ना, जो डर गया समझो मर गया।

आप भी सोच रहे होंगे कि आज ये भगवत ज्ञान कैसे मुखरित हो रहा है। तो सुनिए, ज्ञान भी तभी मुखरित होता है जब उस ज्ञान को आत्मसात किया हुआ हो। हमारे एक मित्र वैचारिक रूप से बड़े ज्ञानी है। नाम है अनोखे लाल। नाम की तरह वे अपने विचारों से भी अनोखे हैं। बोलते समय सामने वाले को ऐसा सम्मोहित कर देते हैं कि उनके कहे को अस्वीकारना असंभव हो जाता है। लास्ट में आप ही सही,कहकर उठना पड़ता है। तो अनोखे लाल जी आज सुबह पार्क में गुनगुनी धूप का आनन्द ले रहे थे। इसी दौरान हमारा भी वहां जाना हो गया। राम रमी के बाद चर्चा चलते-चलते अमेरिका के नए राजनीतिक घटनाक्रम पर चल पड़ी। मैंने भी जिज्ञासावश उनके आगे एक प्रश्न छोड़ दिया कि भारत-अमेरिका सम्बन्धों पर क्या इससे फर्क पड़ेगा।

आदतन पहले गांभीर्यता को अपने अंदर धारण किया फिर बोले-शर्मा जी! आपने कभी सांड लड़ते देखे हैं। मैंने कहा-ये संयोग तो होता ही रहता है। बोले-सांडों की लड़ाई का परिणाम क्या होता है, ये भी आप जानते ही है। सांडों का कुछ बिगड़ता नहीं, उसका खामियाजा दूसरे भुगतते हैं। बाजार में लड़े तो रेहड़ीवाले, सड़क पर लड़े तो बाइक सवार, गली में लड़े तो लोहे के दरवाजे, खुले में लड़े तो झाड़-बोझड़े इसके शिकार बनते हैं। मैंने कहा-ये उदाहरण तो समझ से परे है। बोले-अमेरिका में कोई राष्ट्रपति बने, भारत पर इसका कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। हमारे लिए ट्रम्प जितना सहयोगी रहा है उतना ही बाइडेन को रहना होगा। हमारा साथ उन्हें भी जरूरी है। मैंने कहा-राजा बदलने से सम्बन्धों पर क्या कोई असर नहीं पड़ता है।

बोले-चेहरा बदलने से सारा स्वरूप थोड़े ही बदल जाता है। गीदड़ शेर का मुखौटा धारण कर शेर नहीं बन सकता। वो चेहरा तो बदल सकता है पर शेर जैसी हिम्मत और ताकत मुखौटा धारण करने से नहीं आ सकती। मैंने फिर टोका कि बात अभी भी समझ नहीं आई। वो फिर बोले-भाई, दुनिया की फितरत है। साथ हमेशा मजबूत लोगों का दिया और लिया जाता है।

कमजोर का न कोई साथ लेता है और न उसका साथ देता है। कोई साथ देता भी तो उसकी अपनी गर्ज होती है। चीन का साथ पाकर नेपाल की बदली जुबान हम देख ही चुके हैं। हम मजबूत हैं तभी हमसे दोस्ती करने वाले देशों की संख्या बढ़ रही है। हम मजबूत रहेंगे तो ट्रम्प-बाइडेन ज्यों साथ मिलता रहेगा। हम कमजोर पड़ते दिखे तो ओली जैसे नेता मुखर होते साफ दिख जाएंगे। बोले-बावले भाई, दो टूक की यही बात है। ठाडे कै सब यार, बोदे(कमजोर) सदा ए खावैं मार।उनके बेबाक सम्बोधन को विराम देना सहज नहीं है। औरों की तरह लास्ट में मुझे भी यही कहकर चर्चा खत्म करनी पड़ी कि आपकी बात बिल्कुल सही है। सोचा जाए तो अनोखेलाल जी की बात गलत भी नहीं है। आप भी जरा इस पर विचार करें।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है)

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सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर है ‘अर्नब ‘

सुशील कुमार ‘नवीन’

आप सोच रहे होंगे कि आज सूरज कौन सी दिशा में जा रहा है। गलत दिशा तो नहीं पकड़ ली है। घबराइए मत। सूरज भी अपनी सही दिशा में है और हम भी। आप भी न रामलाल जी की तरह है छोटी-छोटी बातों पर गम्भीर हो जाते हो । रामलाल जी कौन है? अरे भाई। वो भी हमारे एक मित्र हैं आप लोगों की तरह। देश-दुनिया के प्रति सुबह से लेकर शाम तक फिक्रमंद रहते हैं।

खैर इस बारे में फिर बात करेंगे। आप तो आज की सुनो। बाजार की तरफ से आते हुए उनसे मुलाकात हो गई। दो दिन से अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का मुद्दा लगातार चर्चा में है। वो कुछ बोलते इससे पहले आज हमने ही शब्दों के बाण छोड़ दिए। बोले-भाई साहब, ये अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का क्या मामला है। कानूनी कार्रवाई कम ड्रामा ज्यादा दिख रही है। दो दिन से मामले को सही या गलत प्रमाणित करने में बुद्धि चकरा रही है। आप ही इस बारे में कुछ बताएं। हमारे कथन को उन्होंने भी बड़ी गम्भीरता से लिया।

बोले- ड्रामे देखने में तो आपकी भी पूरी रुचि है। यूं समझिए ये भी एक ड्रामा ही है। हम बोले-एक पत्रकार की गिरफ्तारी का ड्रामे से क्या मेल? समझ नहीं आया। थोड़ा विस्तार से समझाओ।बोले-अपने यहां यथार्थ की जगह अवसरवादी नाटक की प्रमुख श्रेणी हैं। इन दिनों वही नाटक खेला जा रहा है। जब से मुम्बई आया है मंगलाचरण में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी। मंगलाचरण में ही ये इतना समय ले लेता है कि नाटक के अन्य अंगों को उभरना तो दूर कुछ कहने तक का मौका ही नहीं मिलता। प्रधान नट के रूप में लगातार अपनी स्वयंप्रभा की प्रशंसा तब तक जारी रखता जब तक अगले के सिर में दर्द न हो। नाटक के बीच में नट, नटी सूत्रधार इत्यादि के परस्पर वार्तालाप का अवसर नाममात्र का ही छोड़ता है। कई बार तो नाटक का प्रस्ताव, वंश-वर्णन आदि विषय शून्य में विलीन होकर रह जाते हैं।

   उनका बोलना लगातार जारी था। एक जिम्मेदार श्रोता के रूप में हम भी रसास्वादन में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। बोले-महोदय प्रासंगिक ‘इतिवृत्त’  के माहिर हैं। सो इतिवृत्त के प्रधान नायक की जिम्मेदारी भी इन्हीं के कंधे पर रहती है। अवस्थानुरुप अनुकरण या स्वांग ‘अभिनय’ है। इसमें वे आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक रूप का ये भरपूर इस्तेमाल करते है। नाटक में बीज, बिंदु, पताका, प्रकरी और कार्य इन पांचों के द्वारा प्रयोजन सिद्धि इनके नाटक से पूरी हो ही जाती है।

मैंने कहा-ये तो ठीक है पर अब आगे क्या होगा। बड़े-बड़े नेता, मंत्री भी उसके समर्थन में बोल रहे हैं। बोले-लिखवा लो, छोरा पक्का राज्यसभा में जाएगा। मैंने कहा-राजनेता वाला कोई गुण तो उसमें है ही नहीं। बोले-गुणों से तो भरा पड़ा है। पक्का मुंहफट है। इसके सामने कोई दूसरा बोलकर तो देखे। इसकी तो आवाज ही सदन में गूंजने के लिए बनी है। मैंने कहा-कोई पार्टी इसे अपने साथ कैसे लेगी। ये तो नेताओं की बहुत बेइज्जती करता है। बोले-नेता बन जाएगा, तब सब छोड़ देगा। देखा नहीं, राजनीति का चोला धारण करते ही सब रंग बदल जाते हैं। ये भी बदल लेगा। मैंने कहा-तो फिर ये समर्थन और विरोध का क्या चक्कर है। बोले-समर्थन करने वाले इसे अपनी टोली में शामिल करना चाहते हैं। विरोध वालों की मंशा है कि ये चुप्पी साध ले। 

  मैंने कहा-जरूरी तो नहीं कि वो राजनीति में आए। वो बोले- चोट खाया शेर है। ये क्या करेगा, सिर्फ यही जानता है। हालातों को देखते हुए इसकी सम्भावना ज्यादा ही है। कुछ भी हो सकता है। पर ये पक्का तय है कि द ग्रेट पॉलीटिकल ड्रामे का सुपर परफॉर्मर यही बनेगा। यह कहकर वो तो निकल गए। मेरे साथ आप भी सोचिए कि आगे क्या होगा। ये तो अभी भविष्य के गर्भ में है पर रामलाल जी की बात भी दरकिनार करने वाली नहीं है।

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसका वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं है)

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सुशील कुमार ‘नवीन’

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‘स्वादु’ जैसा स्वाद लिए है ये ‘साडनफ्रोइडा’

सामयिक लेख: शब्द अनमोल

सुशील कुमार ‘नवीन’

दुनिया जानती है हम हरियाणावाले हर क्षण हर व्यक्ति वस्तु और स्थान में ‘संज्ञा’ कम ‘स्वाद’ ज्यादा ढूंढते हैं। ‘सर्वनाम’ शब्दों का प्रयोग करना भी कोई हमसे सीखे। और उनकी विशेषता बताने वाले ‘विशेषण’ शब्दों के प्रयोग के क्या कहने। वैसे हमें ‘प्रविशेषण’ शब्दों में भी महारत हासिल है पर हम उनकी जगह लठमार कहावत (देसी बोल) का प्रयोग करना ज्यादा सहज महसूस करते हैं। ‘सन्धि,संधि-विच्छेद, समास विग्रह’ सब हमें आता है। आता नही तो बस घुमा-फिराकर बोलना। मुंहफट है जो बोलना हो सीधा बोल देते हैं।इस पर चाहे कोई नाराज हो, तो हो। हमारा तो यही स्टाइल है और यही टशन। आप भी सोच रहे होंगे कि आज न तो हरियाणा दिवस है और न ही ही हरियाणा से जुड़ा कोई प्रसंग। फिर आज हम ‘हरियाणा पुराण’ क्यों सुनाने बैठ गए। थोड़ा इंतजार कीजिए, सब समझ मे आ जायेगा। उससे पहले आप आज हरियाणवीं चुटकुले सुनें।

     हरियाणा में कोई एक व्यक्ति किसी काम के सिलसिले में आया हुआ था। सूटेड-बूटेड वह सज्जन पुरुष चौराहे के पास की एक दुकान पर कुछ देर धूम्रपान करने को रूक गया। इसी दौरान उस रास्ते से एक शवयात्रा का आना हो गया। दुकानदार ने फौरन दुकान का शटर नीचे किया और दोनों हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। शवयात्रा निकलने के बाद उस सज्जन पुरुष ने दुकानदार से कहा-कोई मर गया दिखता है। दुकानदार ने सहज भाव से उतर दिया-ना जी भाई साहब। ये आदमी तो जिंदा है। इसे मरने में बड़ा ‘स्वाद’ आता है। इसलिये हफ्ते-दस दिन में ये लोग एक बार इसे ऐसे ही श्मशान घाट तक ले जाते हैं और वहां के दर्शन कराकर घर वापिस ले आते हैं। सज्जन पुरुष बोला-ये क्या बात है। मरने का भी कोई ‘स्वाद’ होता है। आप भी अच्छा मजाक कर रहे हो। दुकानदार बोला-शुरुआत किसने की थी। तुम्हारी आंखें फूटी हुई है क्या। जो सब कुछ देखकर जानकर ऐसी बात कर रहे हो। शवयात्रा तो मरने के बाद ही निकलती है, जिंदा की थोड़े ही। सज्जन पुरुष बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से निकल गए।

       इसी तरह आधी रात को एक शहरी युवक ने अपने हरियाणवीं मित्र को फोन करने की गलती कर दी । हरियाणवीं मित्र गहरी नींद में सोया हुआ था। आधी रात को फोन की घण्टी बजने से उसे बड़ा गुस्सा आया। नींद में फोन उठाते ही बोला- किसका ‘बाछडु’ खूंटे पाडकै भाजग्या, किसकै घर म्ह ‘आग लाग गी ‘। जो आधी रात नै ‘नींद का मटियामेट’  कर दिया। इस तरह के सम्बोधन से शहरी सकपका सा गया। बात को बदलते हुए बोला-क्या बात सोए पड़े थे क्या। हरियाणवीं बोला-ना, भाई ‘सोण का ड्रामा’ कर रहया था।मैं तो तेरे ए फोन की ‘उकस-उकस’ की बाट देखण लाग रहया था। बोल, इब किसका घर फूंकना सै। किसकी हुक्के की चिलम फोड़नी सै। मित्र से कुछ बोलते नहीं बन रहा था। हिम्मत कर के बोला-यार, आज तुम्हारी याद आ गई। इसलिए फोन मिला लिया। हरियाणवीं बोला-मैं कै हेमामालिनी सूं, जो बसन्ती बन गब्बरसिंह के आगे डांस करया करूं। या विद्या बालन सूं। जो ‘तुम्हारी सुलु’ बन सबका अपनी मीठी बाता तै मन बहलाया करै। शहरी बोला-यार एक पत्रिका के लिए लेख लिख रहा था। आजकल एक शब्द ‘ साडनफ्रोइडा ‘ बड़ा ट्रेंड में चल रहा है। तुम लोगों के शब्द सबके सीधे समझ आ जाते हैं। इसलिये उसका हरियाणवीं रुपांतरण चाहिए था।

हरियाणा और हरियाणवीं के सम्मान की बात पर अब जनाब का मूड बदल गया। बोला- यो तो वो ए शब्द है ना, जो आपरले याड़ी ट्रम्प के साथ ट्रेंड में चल रहया सै। सुना है 50 हजार से भी ज्यादा लोग शब्द को सर्च कर चुके हैं। बोल, सीधा अर्थ बताऊं कि समझाऊं। शहरी भी कम नहीं था। बोला-समझा ही दो। हरियाणवीं बोला- हिंदी में तो इसका अर्थ ‘दूसरों की परेशानी में खुशी ढूंढना’ है। हरियाणवीं में इसे ‘ स्वादु’ कह सकते हैं। यो ट्रम्प म्हारे जैसा ही है। सारी अमरीका कोरोना के चक्कर में मरण की राह चाल रहयी सै। अर यो बैरी खुले सांड ज्यूं घूमदा फिरै था। इसने इसे म्ह ‘स्वाद’ आ रहया था। यो तो वोये आदमी सै। जो दूसरा के घरा म्ह आग लागी देख कै उस नै बुझाने की जगहा खड़े-खड़े स्वाद लिए जाया करे। वा ए आग थोड़ी देर में इसका भी घर फूंकगी। लापरवाही में पति-पत्नी,स्टाफ सब कोरोना के फेर में आ लिए।

इतने शानदार तरीके से ‘ साडनफ्रोइडा’ शब्द की विवेचना पर युवक मित्र अपनी हंसी नहीं रोक पाया। बोला-मान गए गुरू । ‘स्वाद’ लेने का आप लोग कोई मौका नहीं छोड़ते। वाकयी आप लोग पूरे ‘ साडनफ्रोइडा ‘ मेरा मतलब ‘स्वादु’ हो। अच्छा भाई ‘स्वाद भरी’ राम-राम। यह कहकर उसने फोन काट दिया। अब हमारे पास भी दोबारा सोने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। सो चादर से मुंह ढंक फिर गहरी नींद में सो गए।

(नोट- लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी संदर्भ से जोड़ अपने दिमाग का दही न करें।

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद हैं।

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ड्रामेबाजी छोड़ें, मन से स्वीकारें हिंदी – सुशील कुमार ‘नवीन’

         

रात से सोच रहा था कि आज क्या लिखूं। कंगना-रिया प्रकरण ‘ पानी के बुलबुले’ ज्यों अब शून्यता की ओर हैं। चीन विवाद ‘ जो होगा सो देखा जाएगा’ की सीमा रेखा के पार होने को है। कोरोना ‘तेरा मुझसे पहले का नाता है कोई’ की तरह माहौल में ऐसा रम सा गया है, जैसे कोई अपना ही हमें ढूंढता फिर रहा हो। वैक्सीन बनेगी या नहीं यह यक्ष प्रश्न ‘जीना यहां मरना यहां’ का गाना जबरदस्ती गुनगुनवा रहा है। घरों को लौटे मजदूरों ने अब ‘ आ अब लौट चलें’ की राहें फिर से पकड़ ली हैं। राजनीति ‘ न कोई था, न कोई है जिंदगी में तुम्हारे सिवा’ की तरह कुछ भी नया मुद्दा खड़ा करने की विरामावस्था में है। आईपीएल ‘साजन मेरा उस पार है’ जैसे विरह वेदना को और बढ़ा कुछ भी सोचने का मौका ही नहीं दे रहा। रही सही कसर धोनी के सन्यास ने ‘तुम बिन जाऊं कहां’ की तरह छोड़कर रख दी है। 

ध्यान आया सोमवार को देवत्व रूप धारी हमारी मातृभाषा हिंदी का जन्मदिन है। विचार आया कि उन्हीं के जन्मदिवस पर आज लिखा जाए। तो दोस्तों, यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि हिंदी की वर्तमान दशा और दिशा बिगाड़ने में हम सब का कितना योगदान है।कहने को हम हिंदुस्तानी है और हिंदी हमारी मातृभाषा। इस कथन को हम अपने जीवन में कितना धारण किए बहुए हैं, यह आप और हम भलीभांति जानते हैं। सितम्बर में हिंदी पखवाड़ा का आयोजन कर हम अपने हिंदी प्रेम की इतिश्री कर लेते हैं। सभी ‘हिंदी अपनाएं’ हिंदी का प्रयोग करें ‘ की तख्तियां अपने गले में तब तक ही लटकाए रखते हैं, जब तक कोई पत्रकार भाई हमारी फ़ोटो न खींच लें। या फिर सोशल मीडिया पर जब तक एक फोटो न डाल दी जाए। फ़ोटो डालते ही पत्नी से ‘आज तो कोई ऐसा डेलिशियस फ़ूड बनाओ, मूड फ्रेश हो जाए’ सम्बोधन हिंदी प्रेम को उसी समय विलुप्त कर देता है। आफिस में हुए तो बॉस का ‘स्टुपिड’ टाइप सम्बोधन रही सही कसर पूरी कर देता है। 

हमारी सुबह की चाय ‘बेड-टी’ का नाम ले चुकी है। शौचादिनिवृत ‘फ्रेश हो लो’ के सम्बोधन में रम चुके हैं। कलेवा(नाश्ता) ब्रेकफास्ट बन चुका है। दही ‘कर्ड’ तो अंकुरित मूंग-मोठ ‘सपराउड्स’ का रूप धर चुके हैं। पौष्टिक दलिये का स्थान ‘ ओट्स’ ने ले लिया है। सुबह की राम राम ‘ गुड मॉर्निंग’ तो शुभरात्रि ‘गुड नाईट’ में बदल गई है। नमस्कार ‘हेलो हाय’ में तो अच्छा चलते हैं का ‘ बाय’ में रूपांतरण हो चुका है। माता ‘मॉम’ तो पिता ‘पॉप’ में बदल चुके हैं। मामा-फूफी के सम्बंध ‘कजन’ बन चुके हैं। गुरुजी ‘ सर’ गुरुमाता ‘मैडम’ हैं। भाई ‘ब्रदर’ बहन ‘सिस्टर’,दोस्त -सखा ‘फ्रेंड’ हैं। लेख ‘आर्टिकल’ तो कविता ‘पोएम’ निबन्ध ‘ऐसए’ ,पत्र ‘लेटर’ बन चुके है। चालक’ ड्राइवर’ परिचालक ‘ कंडक्टर’, वैद्य” डॉक्टर’ हंसी ‘लाफ्टर’ बन चुकी हैं। कलम ‘पेन’ पत्रिका ‘मैग्जीन’ बन चुकी हैं। क्रेडिट ‘उधार’ तो पेमेंट ‘भुगतान का रूप ले चुकी हैं। कहने की सीधी सी बात है कि ‘हिंदी है वतन हैं.. हिन्दोस्तां हमारा’ गाना गुनगुनाना आसान है पर इसे पूर्ण रूप से जीवन में अपनाना सहज नहीं है तो फिर बन्द करो हिंदी प्रेम का ये ड्रामा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

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