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हास्य और गाम्भीर्यता की अनूठी रार, गजब… ‘पोली’ और ‘पोली का यार’

सुशील कुमार ‘नवीन ‘

किसी रिपोर्टर ने हरियाणा के रामल से पूछा कि आप लोग बार-बार कहते सुनाई देते हो कि भई, स्वाद आग्या। ये स्वाद क्या बला है और ये आता कहां से है। रामल ने कहा-चल मेरे साथ।आगे-आगे रामल और पीछे-पीछे रिपोर्टर। दोनों चल पड़े। रास्ते में एक व्यक्ति खाट पर लेटा हुआ था। दोनों पैरों पर प्लास्टर बंधे उस व्यक्ति से रामल ने पूछा-चोट का क्या हाल है भाई। होया कुछ आराम। वो बोला-दर्द तो है पर स्वाद सा आ रहया सै। काम-धाम कुछ नहीं, दोनों टेम घरकै चूरमा बनाकै देण लाग रै सै। हल्दी मिला गरमागर्म दूध जमा तोड़ सा बिठा रहया सै।

आगे चले तो दो लुगाई (औरत) गली के बीच में बात करने में जुटी हुई थी। एक सिर पर गोबर भरा बड़ा सा तसला लिए हुए थी तो दूसरी पानी से भरा घड़ा। बातों में इतनी मग्न थी कि तसले और घड़े का वजन भी उन्हें तिनके ज्यूं लग रहा था। एक घण्टे से भी ज्यादा समय उनकी मुलाकात शुरू हुए हो चुका था। अभी भी उन्हें ग्लूकॉन-डी की कमी महसूस नहीं हुई थी। होती भी कैसे दोनूं बैरण सबेरे-सबेरे लास्सी के दो ठाडे (बड़े) गिलास बाजरे के रोट गेल्या चढ़ा कै आ रहयी थी। उनसे भी वही सवाल पूछा तो जवाब मिला। औरे भाई, तू पाछे नै बतलाइए, आज या घणा दिनां म्ह मिली सै, बातां म्ह जमा स्वाद सा आ रहया सै। रिपोर्टर आगे बढ़ना छोड़ पीछे मुड़ लिया।

बोला-गजब हो भई। आपके तो स्वाद का भी अलग ही जायका है। दर्द में भी और बोझ में भी स्वाद लेना कोई आपसे सीखे। रामल बोला-ये तो दो सैम्पल दिए हैं स्वाद के। हम तो जीण- मरण, खावण-पीवण, लेवण-देवण, हासण-रोवण, कूटण-पीटण सब जगह स्वाद ले लेते हैं। 

रामल ने कहा-चौपाल तक और चलो। फिर लौट चलेंगे। रिपोर्टर ने फिर से हिम्मत जुटाई और पीछे-पीछे चल पड़ा। चौपाल में चार बुजुर्ग ताश खेल रहे थे। अचानक एक बुजुर्ग जोर से चिल्लाया-इब लिए मेरे स्वाद। दूसरा बोला-कै होया, क्यूं बांदर ज्यूं उछलण लाग रहया सै। हथेलियों में फंसे मच्छर को दिखाकर वो बोला- यो तेरा फूफा इबकै काबू म्ह आया सै। एक घण्टे तै काट-काट सारी पींडी सुजा दी। तीसरा बोला-इब इसनै फैंक दे, कै(क्या) इसका अचार घालेगा। जवाब मिला-न्यू ना फेंकू। घरा ले ज्याकै तेरी भाभी नै गिफ्ट म्ह दयूंगा। रोज कहे जा सै, एक माच्छर ताईं मारा नहीं जांदा तेरे तै। चौथा कहां पीछे रहने वाला था। बोला-देखिये कदै वीर चक्र कै चक्कर में महावीर चक्र मिल ज्या। इतने में हरियाणा वाला बोल पद्य महावीर चक्र का नाम सुनते ही सब बोले-ले भाई, स्वाद आग्या। रिपोर्टर बोला-ये महावीर चक्र का क्या मामला है। और इस पर हंस क्यों रहे है। एक बुजुर्ग बोला-बेटा-एक बार सफाई के दौरान म्हारे इस साथी की घरवाली ने इसे गेहूं की बोरी साइड में रखवाने की कही। साथ में ये कह दिया कि बाहर से किसी को बुला लाओ, अकेले से नहीं उठेगी। यही बात इसके आत्मसम्मान को चुभ गई। बोला-ये बोरी क्या, मैं तो दो बोरी एक-साथ उठा दूं। कह तो दिया इसने पर दो क्या इससे आधी बोरी उठनी सम्भव नहीं थी। किसी तरह घरवाली के सहयोग से इसने एक बोरी पीठ पर लाद ली और बजरंगबली का नाम लेकर चलने का प्रयास किया। एक कदम में ही बजरंगबली से इसका कनेक्शन टूट लिया। ये नीचे और बोरी ऊपर। घरवाली बाहर से दो आदमी बुलाकर लाई और भाई को बोरी के नीचे से निकाला। उस दिन बाद ये बोरी तो छोड़ो सीमेंट के कट्टे उठाने की न सोचे।

     रिपोर्टर ने रामल से अब लौटने को कहा। स्वाद की पूरी बायोग्राफी उसके समझ आ चुकी थी। अब आप सोच रहे होंगे कि ये स्वादपुराण मैंने आपको क्यों पढ़ाया। तो सुनें। किसान आंदोलन के दौरान हरियाणा के एक युवक का मजाकिया वीडियो लगातार चर्चा में है। शुरू-शुरू में सबको सिर्फ ये हंसने-और हंसाने मात्रभर लग रहा था। माना जा रहा था कि किसी भोले युवक के रिपोर्टर स्वाद ले रहे हैं। पर उसके दूसरे वीडियो ने तो पहले वाले वीडियो को और वेल्युबल कर दिया। पहले वीडियो में हरियाणवीं युवक भजन किसान आंदोलन में अपने एक मित्र ‘पोली’ के न आने से नाराजगी दिखा रहा था। कह रहा था कि वो अपनी बहू के डर के कारण यहां नहीं आया। सोशल मीडिया पर ‘पोली’ को उसके द्वारा आंदोलन में शामिल होने के आमंत्रण का तरीका सबको भा गया। जब से ये वीडियो चर्चा में आया, तब से कमेंट में ‘आज्या पोली’ लगातार सुर्खियों में था। अब उसका एक और वीडियो आया है। उसमें भजन के साथ उसका मित्र पोली आ गया है। ये वीडियो भी पहले वाले से कमतर नहीं है। कृषि कानून बदलवाने जैसे गम्भीर विषय को लेकर जारी किसान आंदोलन के दौरान दोनों वीडियो लोगों को भरपूर स्वाद दे रहे हैं। हास्य के साथ एकजुटता की गाम्भीर्यता भरा संदेश हरियाणवीं से बेहतर कोई नहीं दे सकता। तभी तो कहा गया है कि हरियाणा वालों को कहीं भी भेज दो, स्वाद तो ये अपने आप ही ढूंढ लेंगे। 

(नोट:लेख मात्र मनोरंजन के लिए है। इसे किसी के साथ व्यक्तिगत रूप से न जोड़कर पढ़ा जाए।)

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237




मुद्दा तो ये राष्ट्रीय पहले से ही है, डर है कहीं जन आंदोलन न बन जाए..

सुशील कुमार ‘नवीन’

दिल्ली बॉर्डर पर हिमपात सी शीतलहर में लगातार डेरा जमाए बैठे किसानों से बड़ा वर्तमान में कोई राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है। आंदोलन की शुरुआत से अब तक न जाने कितने इसकी भेंट चढ़ चुके हैं और न जाने समाप्ति तक कितने और जान पर खेलेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऊपर से सन्त बाबा राम सिंह जैसे व्यक्तित्व का इस मामले में जीवन समर्पण इसकी गम्भीरता को और बढ़ा गया। सैकड़ों कोस सुदूर घर छोड़ यहां जमे बैठे लोगों को न कोरोना का डर है न किसी तरह की दमनात्मक कार्रवाई का। मौसम को तो खुला चैलेंज उन्होंने शुरू से ही दिया हुआ है। हर तरह के भय से दूर ये 20 दिन से भी ज्यादा समय से मुखरित हैं। किस तरह ये इतनी भारी संख्या को बरकरार रखे हुए हैं। उनके लिए सभी तरह की व्यवस्थाओं का प्रबंध किस प्रकार हो पा रहा है, यह शोध तक का विषय बन चुका है। जिस तरह से इसकी शुरुआत हुई थी राष्ट्रीय मुद्दे का रूप तो इस विषय ने उसी समय ले लिया था। जैसे-जैसे समय निकल रहा है, उससे इसके जन आंदोलन का रूप लेने की सम्भावनाएं और ज्यादा बनती प्रतीत हो रही हैं। 

    आप सोच रहे होंगे कि आज ये विषय मैंने क्यों चुना। तो सुनिए सुबह-सुबह आज सैर के दौरान खेत की तरफ जाना हुआ। रास्ते में ही गांव के नाते से चाचा लगने वाले ज्ञानीराम जी मिल गए। कंधे पर गीली मिट्टी से सनी कस्सी और भीगे कपड़े उनकी कर्मपरायणता के साक्षात दर्शन करा रहे थे। सुबह-सुबह चल रही शीत लहर को मानो खुला चैलेंज, कि दम है तो मुझसे टकराकर दिखा। औपचारिक राम-राम हुई। घर-परिवार की कुशलक्षेम के बाद बातचीत किसान आंदोलन पर जा पहुंचीं। चाचा एक दिन पहले ही दिल्ली बॉर्डर से लौटे थे। पानी का वार था सो एक दिन के लिए बीच में लौट आए। कल सुबह-सुबह फिर कूच का कार्यक्रम पहले से ही तय था।

ठंड ज्यादा थी और उनके कपड़े गीले थे, सो मैंने कहा-चाचा, ठंड लग जाएगी। दोपहर बाद मिलते हैं। जवाब दिल को छू गया। बोले-बेटा, जब हम्मनै ठंड लागणी शुरू होग्गी नै तो यो सारा देश पाले ज्यूं जम ज्यागा। अर, इसा जमैगा कि कस्सी तैं भी ना पाटैगा। मैंने कहा- चाचा, बात आपकी सौ फीसदी सही है। जिस दिन देश का किसान सो गया, सब कुछ सो जाएगा। आप तो दिल्ली गए थे, क्या लग रहा है। कुछ बताओ। चाचा ने कस्सी कंधे से नीचे उतार साइड पर रख दी। खेत की मेड पर खुद भी बैठ गए और मुझे भी बैठा लिया। आदतन बीड़ी सुलगा ली और हो गए शुरू।

बोले- कंपकपाती ठंड में किसान दिल्ली बॉर्डर पर डेरा जमाए बैठे हैं। जिद है जब तक कानून रद्द नहीं होंगे, तब तक कदम पीछे नहीं खींचेंगे। सरकार अपने पूरे प्रयास कर चुकी है। वार्ताओं का लंबा दौर तक चल चुका है। किसान अपने तर्क दे इन्हें किसान विरोधी घोषित बता रहे हैं तो सत्ता पक्ष अपने तर्कों से इन्हें किसान हितैषी घोषित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहा। 

मैंने कहा- चाचा, मामला तो अब ‘माईलोर्ड’ तक भी जा पहुंचा है। बुधवार को सुनवाई के दौरान ‘माईलोर्ड’ भी इस मामले में पूर्ण चिंतित दिखें हैं। ये तक कहना कि किसानों के मसले जल्द हल न हुए तो राष्ट्रीय मुद्दा बनेगा, कोई छोटी बात नहीं है। देखना, अब जरूर कोई न कोई समाधान निकलेगा। मेरी बात बीच में ही काटकर चाचा बोले- भई मुद्दा तो यो शुरू से ही है। किसान पूरे देश से जुड़ा है। वो खुशहाल तो देश खुशहाल। सुन बावले, बिना दर्द कोई भी न करहावै। इतना बड़ा रामरोला न्यूं ना कट्ठा हो रहया। आंख बंद करण तै सूरज थोड़े ही न छिप ज्यागा। कबूतर के पलकें झपकाने से कभी बिल्ली को भागते देखा है क्या।

मैंने पूछा तो क्या होना चाहिए। बोले-जो चीज जिसके लिए बनी हो,वही उसे नुकसान करे तो उसका क्या फायदा। मरीज की बिना मंजूरी डॉक्टर ऑपरेशन थोड़े ही करता है। बात अब छोटी नहीं रही है। गांव-गांव से लोग अब वहां पहुंच रहे हैं। तन-मन-धन से सहयोग कर रहें हैं। मूक समर्थन भी मुखरित होने लगा है। यूं रहा तो यह जन आंदोलन का रूप भी ले सकता है। यह कहकर चाचा ने विदा ली। मैं कुछ समय वही बैठ सोचता रहा कि बात में तो दम है। विरोध के सुर तो दो-चार दिन के होते हैं, जो धीरे-धीरे मंद पड़ जाते हैं। पर यहां तो ग्राफ लगातार ऊपर की ओर ही जा रहा है। कोर्ट तक इस मामले में गम्भीर है। बड़ी बात नहीं है कि यह राष्ट्रीय मुद्दा कहीं जन आंदोलन बन इतिहास के पन्नों में दर्ज न हो जाए।

(नोट: लेख मात्र पढ़ने के लिए है। इसे व्यक्तिगत रूप में न लें।)

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

photo; google




आंदोलन में ‘उत्सव’ जैसा रसास्वादन, पिज्जा-बर्गर, चाय-कॉफी सब हाजिर

सुशील कुमार’नवीन’

खाने को पिज्जा, लच्छा परांठा, तंदूरी नान,तवा नान, चिल्ला, डोसा वो सब हैं। जो मसालेदार खाने वालों को चाहिए। देसी चटखारे के लिए मक्के की रोटी, सरसों का साग, दाल तड़का, कढ़ी,चावल, राजमा जितना चाहो उतना छक लो। मीठे में देसी घी का हलवा, गर्म जलेबी, लड्डू, बूंदी तो हैं ही। हरियाणवीं तड़का लिए बाजरे की रोटी, अलुणी घी, लाल मिर्च की चटनी लंगर के प्रसादे को और चार चांद लगा रही हैं।

     लस्सी-दूध भरे बड़े-बड़े ड्रम नजदीकी गांवों से बिना कहे पहुंच रहे हैं। सुबह उठते ही गर्म चाय तैयार मिल रही है। पीने को पानी की पैक्ड बोतल हर वक्त उपलब्ध है। इम्युनिटी बढ़ोतरी के लिए बादाम का काढ़ा बनाया जा रहा है। बिछाने के लिए गद्दे, ओढ़ने के लिए रजाई, गर्म मोटे कम्बल। मिनी थियेटर तक साथ लिए हैं। मनोरंजन के लिए रोज पंजाबी-हरियाणवीं कलाकार बिन बुलाए पहुंच रहे है। यूँ लग ही नहीं रहा कि किसान दिल्ली बार्डर पर आंदोलन पर हैं। इन्हें देखकर तो यही लगता है मानो किसी बड़े उत्सव का आयोजन यहां हो रहा है। 

   आंदोलन जारी हुए दो हफ्ते होने को है। आमतौर पर ज्यों-ज्यों आंदोलन लंबा खींचता जाता है। उसके बिखराव की संभावनाएं और अधिक होती चली जाती हैं। आंदोलनकारियों के हौंसले तक जवाब देने लग जाते हैं। भीड़ लाखों से हजारों, हजारों से सैंकड़ों में पहुंच जाती है। पर यहां मामला इतिहास के सामने नया उदाहरण प्रस्तुत करने जा रहा है।

  सेवा भाव में सिखों का कोई सानी नहीं है। लंगर क्या होता है, इसकी सही परिभाषा यही बता सकते हैं। सेवा में वैरायटी की इनके पास भरमार है। हम प्रायः देखते है जब भी कोई इनकी धार्मिक यात्रा का जिस भी शहर या बड़े गांव में आगमन होता है तो वहां के स्थानीय धर्मप्रेमियों की सेवाभाव अतुलनीय होती है। मीठे पानी की छबील, हलवा, छोले-पुरी तक ही ये सीमित नहीं होते। हर छोटी से बड़ी चीज सेवाभावियों द्वारा उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाता है। खास बात सेवा करने वाले भी कोई साधारण नहीं होते हैं। बड़े-बड़े अफसरों,खिलाड़ियों, सिने कलाकारों, राजनेताओं को देखा जा सकता है। यही भाव किसान आंदोलन की जड़ें जमाये हुए है।

इसे और अधिक मजबूती हरियाणा वालों का ‘सहयोग का लंगर’ प्रदान कर रहा है। हरियाणा की तरफ से आने वाले हर वाहन में आटे की बोरियां, सब्जी, दाल, दूध, लस्सी इतना अधिक मात्रा में पहुंच रहा है। दिल्ली आंदोलन में भागीदारी निभा रही अंतरराष्ट्रीय योगा एथलीट कविता आर्य के अनुसार वहां किसी चीज की कमी नहीं है। लस्सी-दूध के टैंकर अपने आप पहुंच रहे है। किसी ने जलेबी का लंगर चला रखा है तो किसी ने लड्डू-बर्फी का। कोई गन्ने का जूस पिला रहा है तो कोई किन्नू, गाजर का मिक्स जूस। साबुन, तेल जो चाहिए, सेवा भाव में हाजिर है। मच्छर आदि न काटे, इसके लिए कछुआ छाप, गुड नाइट आदि क्वाइल यहां तक ओडोमास क्रीम तक मिल जाएगी। 

सोशल एक्टिविस्ट सुशील वर्मा बताते हैं कि यहां लगता ही नही कि कोई आंदोलन चल रहा है। मैनेजमेंट गजब का है। देशी के साथ विदेशी फीलिंग यहां महसूस की जा सकती है। पैक्ड बोतल में पानी चाहिए तो वो भी मिल जाएगा। पिज्जा, बर्गर सब तैयार मिलते हैं। काय-कॉफी की कोई कमी नहीं। स्नेक्स भी अलग-अलग प्रकार के। बिस्किटस की दुनियाभर की वैरायटी। आंदोलन भले ही रोड पर चल रहा हो, पर बंदों ने अपने जीवन शैली को अपने ही स्टाइल में बरकरार रखा हुआ है। ट्रेक्टर ट्रालियां रेन बसेरों का रूप लिए हैं। कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन हैं। रजाई-गद्दों की कोई कमी नहीं। सेवा करने वाले कुछ पूछते नहीं, अपने आप काम लग जाते हैं। कोई किसी को काम की नहीं बोल रहा। सब के सब भोर होते ही ड्यूटी सम्भाल लेते हैं। आंदोलन कब खत्म होगा इसका किसी को पता नहीं। बस जम गए तो जम गए। एक ही आवाज खाली हाथ नहीं लौटेंगे।

फ़ोटो:गूगल

(नोट:लेख ग्राउंड रिपोर्ट के आधार पर है।इसे कोई व्यक्तिगत रूप में न लें।)

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237




पंगा मत लो नॉटी गर्ल,इन्हें अच्छे की भी समझ है और बुरे की भी, सरकार नहीं ‘सर्वकार’ हैं यें….

सुशील कुमार ‘नवीन’

तेज प्रवाह से बहते नदी के पानी से टकराव मूर्खता ही तो होगी। कड़ाहे में खौलते तेल में हाथ डाल ऊष्मता को जांचना समझदारी थोड़े ही न कहलाएगी। बिजली है या नहीं इसके लिए नंगे तारों को छू कर थोड़े ही ना देखा जाएगा। बहती हवा और सूरज की रोशनी को जैसे किसी चारदीवारी में कैद नहीं किया जा सकता। उसी तरह कर्मवीरों को कोई भी बाधा या अवरोध आगे बढ़ने से नहीं रोक सकती। जब सब कुछ सार्वभौमिक सत्य है तो फिर बीच समुंद्र बांध बनाने की कोशिश क्यों। सड़क के बीचों-बीच गड्ढे खोदने से क्या उनकी चाल की गति धीमी पड़ी। खुले आसमान तले टयूबवैल के पानी में रोज नहाने वाले इन धरतीपुत्रों को वाटर कैनन की धार क्या खाक रोक पाई।

आप भी सोच रहे होंगे कि आज मैंने कौन सी राह पकड़ ली है। तो सुने मैं भी आज दिल्ली की राह पर हूं। देश का सबसे बड़ा परिवार तो आज वही बैठा है। वहां न सिख है ना हिंदू। न जाट है ना ब्राह्मण, ना कुम्हार है ना सुनार। न कोई छोटा, न बड़ा। सब के सब एक परिवार ज्यों, कंधे से कंधा मिला हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। उधर कुछ लोग अब भी बाज नहीं आ रहे। साथ न दे सको कोई बात नहीं, चुप तो रह ही सकते हो। जब खुद का अंगना टूटा था तो वो नॉटी गर्ल खूब चिल्लाई भी थी और बिलबिलाई भी। अब बिन बुलाये मेहमान की तरह किसान आंदोलन के बीच में टपक पड़ीं हैं और ज्ञान बघारने लग गई हैं। हां, जवाब इन्हें भरपूर मिल रहा है।

     दिल्ली की कम्पकम्पाती रातों में डटे पड़े ये लोग कौन हैं। इनकी ताकत क्या है। क्यों समाज का हर वर्ग इनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई मान समर्थन दे रहा है। तो सुनो। ये वो लोग हैं जो जुड़ना भी जानते हैं और जोड़ना भी। ये मुड़ना भी जानते है और मोड़ना भी। ये रोना भी जानते हैं और रुलाना भी। ये हंसना भी जानते हैं और हंसाना भी। ये गढ्ढा खोदना भी जानते हैं और भरना भी। ये मिलना भी जानते हैं और मिलाना भी। ये उखड़ना भी जानते हैं और उखाड़ना भी। ये दौड़ना भी जानते हैं और दौड़ाना भी। ये खाना भी जानते हैं और खिलाना भी। ये बहना भी जानते हैं और बहाना भी। ये चाल भी जानते हैं और चलाना भी। ये देना भी जानते हैं तो लेना भी। ये खोना भी जानते हैं तो पाना भी। 

     ये नफा भी जानते हैं और नुकसान भी। मौन इनकी सबसे बड़ी ताकत है पर जब मुखर होते हैं तो सबकुछ हिला देते हैं। वे आस भी रखते हैं और विश्वास भी। ये खुद ही अपने ब्रांड है और एम्बेसडर भी। कर्म के दीवाने हैं और मस्ताने भी। ये तो वो तूफान है जो अपनी दिशा खुद तय करते हैं। ये जितने सुलझे हैं, उससे कई गुना उलझना जानते हैं। और क्या कहूं ये मिटना भी जानते हैं और मिटाना भी। इसलिए इनसे पंगा मत लो नॉटी गर्ल। इन्हें अच्छे की भी समझ है और बुरे की भी, सरकार नहीं सर्वकार हैं यें..।

(नोट: लेख मात्र मनोरंजन के लिए है, इसे कोई व्यक्तिगत रूप से  जोड़ने का प्रयास न करें।

लेखक:

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237