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अंतरराष्ट्रीय अटल काव्य प्रतियोगिता – 2021

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री एवं सुप्रसिद्ध कवि भारत रत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी की जयंती 25 दिसंबर 2021 के अवसर पर विश्व हिंदी सचिवालय, मॉरीशस,  न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन एवं सृजन ऑस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई-पत्रिका के संयुक्त तत्वावधान में “अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रतियोगिता – 2021” का आयोजन किया जा रहा है ।

इस प्रतियोगिता में विश्व के सभी देशों के रचनाकारों से उपरोक्त प्रतियोगिता हेतु स्वरचित हिन्दी काव्य रचनाएँ आमंत्रित हैं । 

अंतरराष्ट्रीय काव्य प्रतियोगिता – 2021 हेतु स्वरचित कविता भेजने की अंतिम तिथि : 20 सितंबर 2021  

  • प्राप्त हुई रचनाओं पर निर्णयक मण्डल के निर्णय अनुसार घोषित श्रेष्ठ रचनाकारों को अटल जयंती (25 दिसंबर 2021) पर आयोजित किए जाने वाले “अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन” में चयनित रचना का पाठ करने का अवसर प्रदान किया जाएगा ।
  • निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित उत्कृष्ट रचनाओं की संख्या अधिक होने पर शेष रचनाकारों को हमारे किसी अन्य आगामी “अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन” में चयनित रचना का पाठ करने का अवसर प्रदान किया जाएगा ।
  • प्राप्त रचनाओं की संख्या के आधार पर चयनित श्रेष्ठ रचनाकारों की संख्या 21/51/101/151/251 निर्धारित की जाएगी।
  • पर्याप्त संख्या में गुणवत्तापूर्ण रचनाएँ प्राप्त होने पर उन्हें संकलित करके आईएसबीएन युक्त काव्य संग्रह के रूप में प्रकाशित किया जाएगा जिसकी पीडीएफ़ प्रति सभी चयनित रचनाकारों को निशुल्क उपलब्ध करवाई जाएगी ।
  • काव्य पाठ में सम्मिलित होने वाले सभी कवियों को प्रतिभागिता प्रमाणपत्र दिया जाएगा ।

प्रतियोगिता में भाग लेने हेतु नियम एवं  शर्तें :

  1. कविता किसी भी विषय पर, मौलिक एवं स्वरचित एवं किसी भी तरह के कॉपीराइट मामले से स्वतंत्र हो ।
  2. कविता में किसी भी व्यक्ति/समूह/संस्था/धर्म/जाति/स्थान के लिए अपमानजनक या आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग न हो ।   
  3.   प्रतिभागी अपनी एक से अधिक कविताएँ प्रतियोगिता हेतु भी भेज सकते है ।
  4. हमारे निर्णायक मण्डल का निर्णय अंतिम एवं सर्वमान्य होगा ।

प्रतियोगिता हेतु काव्य रचनाएँ कैसे भेजें ?

उपरोक्त प्रतियोगिता हेतु काव्य रचनाएँ इस लिंक पर उपलब्ध गूगल फॉर्म के माध्यम से ही स्वीकार की जाएंगी : https://forms.gle/FEjQkogFWBmgGvqu9

अंतिम तिथि : 20 सितंबर 2021 

 




रमेश कुमार सिंह रुद्र की नई कविता ‘मां सरस्वती’

वीणावादिनी ज्ञानदायिनी ज्ञानवान कर दे….

माँ रूपसौभाग्यदायिनी नव रुप भर दे….

हंसवाहिनी श्वेतांबरी जग उज्ज्वल कर दे…..

वीणापाणिनि शब्ददायिनी शब्दों से भर दे….

ज्योतिर्मय जीवन

तरंगमय जीवन

सभी जन प्रकाशयुक्त

सभी जन ज्ञानयुक्त

अज्ञान निशा को

जीवों से दूर कर दे…..

सत्य पथ सत्यमय

वीणा के तारों से

विद्या-विनयमय

स्वरों की झंकारों से

सभी जीव-प्राणि को

सुखद पल भर दे…..

कमलासिनी कमलनयन से सभी को दृष्टि दे.

वाग्देवी माँ वागेश्वरी वाणी से सभी को वृष्टि दे.

कमंडलधारिणी करकमलों से सभी को वृद्धि दे.

बुद्धिदात्री ब्रम्भचारिणी सभी को सृष्टि दे.

©️रमेश कुमार सिंह रुद्र




नवनीत शुक्ल की कविता – ‘पुस्तक बोली’

बच्चों से इक पुस्तक बोली
जितना मुझे पढ़ जाओगे
उतने ही गूढ़ रहस्य मेरे
बच्चों तुम समझ पाओगे।

मुझमें छिपे रहस्य हजारों
सारे भेद समझ जाओगे
दुनियाँ के तौर-तरीकों से
तुम परिचित हो जाओगे।

मुझे ही पढ़कर कलाम ने
पाया है जग में सम्मान
नित अध्ययन कर मेरा
विवेकानंद बने महान।

मुझमें ही है संतो की वाणी
हैं कबीर के दोहे समाहित
पढ़कर मुझको बच्चे होते हैं
कुछ नया करने को लालायित।

नित करो अध्ययन तुम मेरा
जग में रोशन हो जाओगे
सपना पूरा होगा तुम्हारा
गीता सा सम्मान पाओगे।

शिक्षक एवं पूर्व कृषि शोध छात्र, इ० वि० इ०
संपर्क : प्राथमिक विद्यालय भैरवां द्वितीय, हसवा, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश, मूल निवास- रायबरेली, मो : 9451231908




विवेक की चार कविताएं

हमने हर मोड़ पर जिसके लिये, ख़ुद को जलाया है।

उसी ने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।।

किया है जिसके एहसासों ने,  मेरी रात को रोशन।

सुबह उसकी अदावत ने, मेरी रूह को जलाया है।।

मुहब्बत के थे दिन ऐसे, दुआ बस ये निकलती है।

ख़ुशी से चहके वो हरपल, मुझे जिसने रुलाया है।।

चुराया जिसने आसमाँ से, मेरे आफताब को।

वही रक़ीब उन हाथों की, लकीरों में आया है।।

सताती हैं वो तेरे प्यार की बातें,  ख्यालों में।

तेरी इस बेरुख़ी ने मुझको, पत्थरदिल बनाया है।।

किया फिर याद तुझको आज, मैंने अपने अश्क़ों से।

तेरे एहसास की जुंबिश ने, फिर इनको बहाया है।।

कि तूने छोड़कर हमको, किसी का घर बसाया है।

हमने हर मोड़ पर तेरे लिये, ख़ुद को जलाया है।।

2 – ज़िंदगी का फलसफा

सोन चिरैया धूप मेरे आँगन में आती,

और बसंत से पूर्व कोकिला सी है गाती।

फुदक-फुदक कर गौरैया सी इधर-उधर जाती है,

फिर चंचल गिलहरी सी, दीवार पे चढ़ जाती है।

दोपहरी में पसर गयी वह, अनचाहे मेहमान सी,

और शाम तक सिमट गयी वह, एक कपड़े के थान सी।।

 

3 – ख़्वाहिश

सिलसिला यूँ चलने दो, जो हो रहा है होने दो,

कुंज गली की पत्तियों सा, समय को बिखरने दो।

मन के टेढ़े रास्तों पर, मोड़ तो कई आयेंगे,

खोज में आनन्द की पर, बहुतेरे मुड़ जायेंगे।

नयन जो धुंधलायें ग़र, तुम आंसुओ से धो लेना,

सीपियों के मोतियों से, गलहार तुम पिरो लेना।

ये भी बिखर जायेंगे और मिट्टी में मिल जायेंगे,

इक अधूरी याद‌ से फिर, जी को ये तड़पायेंगे।

छूना मत‌ झुककर इन्हें, नये बीज फिर से पड़ने दो,

नये पुष्प फिर से खिलने दो, नयी आस फिर से पलने दो।

कुंज गली की पत्तियों सा, समय को बिखरने दो।।

सिलसिला यूँ चलने दो, जो हो रहा है होने दो।।

 4  स्वदेशी

राष्ट्रवाद की अलख जगाओ,

आओ स्वदेशी को अपनाओ।

छोड़ विदेशी आकर्षण को,

राष्ट्र के हित में सब लग जाओ।

माना कठिन डगर है लेकिन

हमको जुगत लगानी होगी

कोरोनामय अर्थव्यवस्था

हमको ऊपर लानी होगी।

चाइनीज़ के राग को छोड़ो

देसी मोह से नाता जोड़ो

हमसे नृप संकल्प माँगता

उसके इस भ्रम को न तोड़ो।

मिला नसीबों से ये राजा

देश के हित की बात जो करता

हम सबका उज्ज्वल भविष्य हो

आठों प्रहर हमीं पे मरता।

आज राष्ट्र के हित में ग़र हम

राजा से कदम मिलायेंगे

वह दिन भी फिर दूर न होगा

जब विश्व गुरु बन जायेंगे।

 




आशा दिलीप की कविता – ‘मेहंदी और जीवन’

जीवन भी कुछ मेहंदी सा हो
कष्ट सहे टूटन का पेड़ से
सिल पर पिसे दर्द को सह के
समेटी जाए पात्र मे पानी संग
जो भी छुए उस पर छाप छोड़ कर
यौवना के हाथों पर लिखी जाए
पति के स्नेह का प्रतीक बन कर
सौभाग्य कहलाऊँ प्रेम बन हथेली पर
सोलह श्रंगार में जब समाहित होने पर
संम्पूर्ण सौभाग्य का चिन्ह बन कर
मेहंदी सी क्यों न बन जाऊं  मैं
लहलहाती रहूँ टहनी से जुड़ी हुई
चमकती रहूँ ओस जब मुझे छू जाए
ओर जब तोड़ी भी जाऊं अपने झाड़ से
पिसन का कष्ट सह हथेलियों पर
अपना रंग छोड़ कर सुख को पाने
स्वयं का कष्ट कैसे सुख बन जाये
काश जीवन भी मेहंदी सा हो जाये




मीनाक्षी डबास ‘मन’ की कविता – ‘स्त्रियों के बाल’

स्त्रियों के बाल
कविता है स्वयं
जब सुलझाती उनको
मानो चुने जा रहे शब्द
एक-एक लट की तरह।

लहराते हैं जब
खुले बाल हवा के संग
मानो बहे जाते शब्द
छंद के नियम पर
कुछ कहे जाने को।

एक तारतम्यता में
बंधना बालों का
चोटी के अंग
मानो शब्द बहते हों
रस के आंगन।

वो जब बाँधती
जुड़ा उन्हें सहेजने को
न बिखरने देने को
मानो यति-गति से
बने शब्दों में संतुलन।

बालों को संवारती
सजाती बहुरंग
लिए बहु साधन
मानो शब्दार्थ सजे हों
अलंकार का ले आभूषण।

मीनाक्षी डबास “मन”
प्रवक्ता (हिन्दी), राजकीय सह शिक्षा विद्यालय पश्चिम विहार शिक्षा निदेशालय दिल्ली भारत

प्रकाशित रचनाएं – घना कोहरा,बादल, बारिश की बूंदे, मेरी सहेलियां, मन का दरिया, खो रही पगडण्डियाँ l
ईमेल पता : [email protected]




संदीप सिंधवाल की कविता – ‘मेरा मैं’

ये जो माटी ढेर है, ‘मैं’ माया का दास।
माया गई तो मैं भी, खाक बचा अब पास।।

मैं श्रेष्ठ हूं तो सिद्घ कर, मैं अच्छी नहीं बात।
सबका मालिक एक है, इंसां की इक जात।।

मिट्टी में मिल जाता मैं, कुछ ना जाता संग।
एक परमात्मा सच है, सब उसके ही अंग।।

सभी से मेल राखिए, मिटा दिजै सब अहं।
बातों से बात बनती, मिट जाते सब बहम।।

गैर की पीर उठाएं, आता सबका काल।
पीर न देखे कभी ‘मैं’,फिर कौन देखे हाल।।

एक अदृश्य सा बिन्दु तू,बहुत अनंत ब्रह्माण्ड।
सबका हिसाब हि ऊपर, नजर में सभी कांड।।

करोना से पंगु बना, धन ना आया काम।
अहं हुआ चकनाचूर, सभी हैं यहां आम।।

भू सूर्य जल पवन आग,करते अपना काम।
अथक निरंतर हि चलते,मांगे न कोय दाम।।

‘सिंधवाल’ मन शांत है, तो होता उपकार।
मैं जब भी ‘हम’ बनें तो,सबका होय उद्धार।।

-संदीप सिंधवाल




सपना की कविता – ‘बेरोजगार’

बेरोजगार

कितना मुश्किल यह स्वीकार
हूँ, मैं भी बेरोजगार।

सत्य को झुठलाया भी नहीं जा सकता
न ही इससे मुँह मोड़ सकती हूँ मैं
परम् सत्य तो यही है
लाखों लोगों की तरह
मैं भी हूँ बेरोजगार।

कभी-कभी मन भारी हो जाता
इतनी डिग्री पाकर, क्या हासिल कर लिया मैंने

अच्छा, होता कम पढ़ी-लिखी होती
मन को तसल्ली तो दे पाती
तब इतना दर्द भी नहीं होता शायद
बेरोजगार होने का।

पड़ोसी भी मज़ाक उड़ाने लगे है
क्या सारी उम्र पढ़ाई ही करनी है?
नौकरी करने का इरादा भी है या नहीं?
अपनी रोजगार बेटियों के दम पर
मेरे इस बेबसी का

पर सच तो यही है, हूँ मैं बेरोजगार।

पापा ने भी वैकेंसी के बारे में
बात करना छोड़ दिया
माँ का भरोसा भी उठने लगा, मुझसे
सभी साथी आगे निकल गए
जीवन के इस संघर्ष में
मैं ही नालायक निकल गयी उन सब में
तभी तो आज भी हूँ, बेरोजगार।

किसे कोसूँ अब मैं, अपनी किस्मत को

या उस सरकार को जिसके शासन में

भर्ती निकले तो इम्तहान नहीं होते
परीक्षा हो तो, परिणाम राम भरोसे
परिणाम निकल भी गया
बिना पॉवर की वजह से बाहर कर दिया जाता
इंटरव्यू में।

कहने को तो युवा है देश का आधार
फिर क्यों युवाओं का मान नहीं।

सरकारें आती हैं जाती हैं
युवाओं को रोजगार देने के नाम पर
फिर भी हर साल बढ़ती जाती, बेरोजगारी

युवाओं को मिलती
हर बार बस निराशा
मेरी ही तरह।

फिर भी न कोई करता बेरोजगारी पर बात
कब तक यह युवाओं की जान लेती रहेगी
रोजगार देने के नाम पर
अपनी ही जेब गर्म करते जाएँगे।

बहुत सहन कर लिया
अब और नहीं
समय आ गया है
जवाब माँगने का
युवा शक्ति क्या है, बतलाने का
बहुत चुप्पी साध ली, अब वक्त है
आवाज़ को बुलंद करने का

न रुकना है, न झुकना है, न हार मानना
कदम से कदम मिलाकर चलना है
हकों को पाकर ही दम लेना है।

  • – सपना

संपर्क : हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़-160014, मोबाइल नंबर 9354258143, ईमेल पता : [email protected]




आदित्य तिवारी की कविता – ‘समर्पण’

ये जीवन जितनी बार मिले
माता तुझको अर्पण है
इस जीवन का हर क्षण ,हर पल
माता तुझको अर्पण है।

यही जन्म नहीं, सौ जन्म भी
माता तुझ वारूँ मैं
इस धरती का मोल चुकाने
मेरा सब कुछ अर्पण है।

तन अर्पण, यह मन अर्पण है
रक्त मेरा समर्पण है
निज राष्ट्र धर्म की रक्षा में
मेरा जीवन अर्पण है।

मेरा तरुण प्रसून अर्पण
घर का कण-कण अर्पण है
तोड़ कर सारे सम्बन्धों को
मेरा हीय समर्पण है।

संपर्क : ग्राम- पटनी, डाक- हाटा, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश, भारत, मोबाईल : 7380975319




सपना नेगी की कविता – ‘धन्यवाद कोरोना!’

कोरोना ! तुमने हमें बहुत कुछ स्मरण करवा दिया
पश्चिमीकरण की चकाचौंध में फंसकर
अपनी पुरातन संस्कृति भूल गए थे हम

तुमने ही हमारा परिचय पुन: संस्कृति से करवाया।

देशी भोजन को छोड़ बर्गर, पिज्जा,
लेग पीस के पीछे भागने वालों को

पुन: शुद्ध देशी भोजन से अवगत कराया।

होटल, रेस्टोरेंट से नयी-नयी डिश मंगवाने की

आदी हो चुकी महिलाओं को

तुमने ही नए-नए डिश बनाना सीखा दिया।

जिव्हा के स्वाद में डूबे नये-नये मसालों का इस्तेमान करने वालों को
जिन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया,
नए के चक्कर में फंसकर पुरानों को भुला दिया
उनको तुमने उन्हीं पुराने मसालों के करीब ला दिया।

नमस्ते वाली पुरातन रीति छोड़
हाथ मिलाना, गले लगना हमारा फैशन बन गया था

तुमने ही नमस्ते वाली संस्कृति को पुन: अपनाना सिखा दिया।

हमारी संस्कृति ने ही तो सिखलाया था
जब भी बाहर से आओ
हाथ, पैरों को साफ़ कर अच्छी तरह अंदर आओ
फिर कैसे हम अपनी संस्कृति की बातें भूलते चले गए
कोरोना ने आकर हमें एहसास कराया
संस्कृति को भूलो मत
जो पहले करते थे, वही दुबारा करो ना।

तुमने आकर सबको एकता का पाठ पढ़ा दिया

दिखला दिया बिमारी जात-पात

रंग-रूप, ऊँच-नीच, धर्म को देखकर नहीं आती।
तुमने शहरों में रहने वालों को उनकी औकात दिखा दी
जो ख़ुद को माडर्न और गाँव के लोंगों को गंवार समझते थे
तुमने ही आज उनको गाँवों का रास्ता दिखा दिया
उनकी आँखों पर पड़ी अहंकार की पट्टी को हटा दिया।

कल तक जो स्वार्थी बनकर केवल पैसों के पीछे भागते थे
तुमने ही उनको रिश्तों का असली मोल सिखा दिया
अपनों के साथ बैठ चंद लम्हे बिताने का
सुनहरा मौका दिया।

जिम के पीछे भागने वालों को

तुमने ही पुन: योग का महत्त्व समझाया।

दिल्ली तक को प्रदूषण रहित कर
न केवल हमें साँसों का मोल बताया
पर्यावरण के संदर्भ में कई उदाहरण
हमारे लिए छोड़ गए।

जिन डॉक्टर, पुलिस वालों के फर्ज़ को कभी समझा ही नहीं हमने
कोरोना संकट में उन्हीं ने अपने परिवार को भुला

हम सबका ध्यान रखा
परिवार से पहले अपना फर्ज़ निभाया

तुमने आकर ही, लोगों को उनका मान, सम्मान सिखा दिया।

जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं

ऐसे नए-नए शब्द देखो तुमने आकर जोड़ दिए
कोरोनटाइन, आइसोलेशन, जनता कर्फ्यू, लॉक डाउन
तुम्हारे ही कारण इन शब्दों का मोल हम समझ पाएँ।

हमें हमारी संस्कृति से पुन: जोड़ दिया।

तुम्हारा धन्यवाद, कोरोना!

(शोधार्थी), हिंदी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़-160014

मोबाइल नं: 9354258143, ईमेल पता : [email protected]