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जैसे हबूब गया

 
नवगीत-जैसे हबूब गया

 
सूरज निकला सुबह-सुबह
शाम को डूब गया।
 
किरणों ने 
दुनिया में
धूप की चादर फैलाई।
संगीत फूटा 
निर्झर से
कल-कल की ध्वनि आई।।
 
ये कैसी चहल-पहल थी कि
मन ही ऊब गया।
 
हवाएँ बर्फीली
तन में
सुईयाँ चुभाएँगी।
चिड़ियाँ गुम्बद पर
सुबह-सुबह
प्रभाती गाएँगी।।
 
धुला-धुला सा मौसम है
जैसे हबूब गया।
 
अंबर से बहारें
अप्सरा सी
बाग में उतरीं।
आज वसुंधरा
लग रही है
बिल्कुल साफ-सुथरी।।
 
और प्रेयसी के जीवन से
है महबूब गया।
 
अविनाश ब्यौहार
जबलपुर मप्र
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 



यातायात

 
यातायात-नवगीत

 
यातायात मन में
दु:ख-विषाद का
चल रहा है।
 
जगह-जगह हो रही
दुर्घटना है।
हो चाहे भोपाल
या पटना है।।
 
हैं कैसा समय
चाँदनी का
रूप जल रहा है।
 
धूल-धुंध में डूबी
हैं हवाएँ।
यहाँ पर पखेरू
मर्सिया गाएँ।।
 
घटाएँ घिरी हुई
और मौसम
बदल रहा है।
 
अविनाश ब्यौहार
जबलपुर मप्र



मीना कुमारी नाज़ की शायरी

मीना कुमारी नाज़ की शायरी
डॉ. वसीम अनवर

सहायक प्राध्यापक

उर्दू  एवं फारसी विभाग

डॉ. हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,  सागर, मध्य प्रदेश

[email protected]; 9301316075

            मीना कुमारी को एक अव़्वल दर्जा की फ़िल्मी अदाकारा के तौर पर सारी दुनिया जानती है। इन्होंने अपनी अदाकारी से मुख़्तलिफ़ इन्सानी कैफ़ियात, जज़्बात, एहसासात और तजुर्बात की तर्जुमानी की है। ट्रेजेडी क़ुईन के ख़िताब से नवाज़ी जाने वाली अदाकारा मीना कुमारी का असल नाम माहजबीं बानो था। वो बेहतरीन अलमीया (ट्रेजेडी) अदाकारा होने के साथ साथ एक काबिल-ए-तारीफ़ रक़ासा, अच्छी गुलूकारा और बाक़ायदा शायरा भी थीं। माहजबीं बानो, नाज़ तख़ल्लुस करतीं थीं। कहा जाता है कि तरक़्क़ी-पसंद शायर कैफ़ी आज़मी और राईटर शायर गुलज़ार से अपने अशआर पर इस्लाह लिया करती थीं। लेकिन मीना कुमारी का शायरी का आहंग कैफ़ी आज़मी के बजाय गुलज़ार से क़रीबतर है। गुलज़ार और मीना कुमारी के दरमयान एक जज़्बाती रिश्ता था। मौत से क़ब्ल मीना कुमारी ने तक़रीबन ढाई सौ निजी डायरीयां गुलज़ार को सौंप दी थीं। गुलज़ार ने इन डायरियों से मुंतख़ब कलाम को ‘’तन्हा चांद’’ के नाम से तर्तीब देकर छपवा दिया। मीना कुमारी नाज़ का मजमुआ ए कलाम ‘’तन्हा चांद’’ में उनकी नज़्में और ग़ज़लें शामिल हैं। मीना कुमारी को अदाकारी से ज़्यादा शायरी पसंद थी, इन्होंने एक मर्तबा इंटरव्यू देते हुए कहा था कि अदाकारी मेरा पेशा है और शायरी करना मेरा शौक़। फ़ुर्सत के लमहात वो अपने शौक़ के मुताबिक़ उर्दू के मयारी रसाइल-ओ-जराइद पढ़ कर और शेअर कह कर गुज़ारा करती थीं। मीना कुमारी को पढ़ने का बहुत शौक़ था, उनकी अपनी ज़ाती लाइब्रेरी भी थी। ग़ालिब और फ़ैज़ अहमद फैज़ उन के पसंदीदा शायर थे।
            मीना कुमारी नाज़ के शेअरी मजमुआ ए कलाम ‘’तन्हा चांद’’ का मुताला करने के बाद ये बात आसानी से कही जा सकती है कि उनके अशआर सतही फ़िल्मी गीतों से मुख़्तलिफ़ हैं। ये भी एक हक़ीक़त है कि उनकी कुछ नज़्में और ग़ज़लें सहल-ए-मुम्तना के ज़ुमरे में आती हैं। लेकिन मुताद्दिद नज़्में और ग़ज़लें हद दर्जा जानदार और पुर-असर हैं जो उन्हें उर्दू अदब के ऐवान में मुक़ाम दिला सकती हैं। अपने मुताल्लिक़ लिखती हैं:
राह देखा करेगा सदीयों तक
छोड़ जाऐंगे ये जहां तन्हा
       मीना कुमारी नाज़ ख़ुदादाद शायरा थीं, लेकिन ज़िंदगी उनके महबूब की तरह बेवफ़ाई कर गई। उनकी सलाहीयतों में थोड़ी सी पुख़्तगी की ज़रूरत थी। फिर भी उनकी बेहतरीन नज़्मों में ये कमी तक़रीबन नज़र नहीं आती है। मीना कुमारी नाज़ की तख़लीक़ात रूमानी, शख़्सी या दाख़िली किस्म की हैं। उनकी रूमानियत सेहतमंद, ज़िंदगी बख़श, तसन्ना ओ बनावट से आज़ाद है। उनका अंदाज़ बयान सादा और पुर कशिश है। जो बात दिल से निकलती है दिलों पर-असर करती है। तन्हाई की शिद्दत, ख़ुलूस-ओ-मुहब्बत की तलाश और हसरत-ओ-यास की अफ़्सुर्दगी मौजूद है। मीना कुमारी को फिल्मों से बेहद मक़बूलियत और इज़्ज़त हासिल हुई। लेकिन ज़िंदगी के गहरे मुशाहिदे ने उन्हें अफ़्सुर्दा बना दिया उनका महबूब उनके दल के क़रीब नहीं आ सका और वो तन्हा ही रहीं। इस तन्हाई को इन्होंने दिल की गहिराईयों से महसूस किया:
चांद तन्हा है आसमां तन्हा
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हा
बुझ गई आस छिप गया तारा
थर थराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िंदगी क्या इसी को कहते हैं
जिस्म तन्हा है और जां तन्हा
इस तन्हाई को मिटाने के लिए वो हमेशा अपनों में अपने को तलाश करती रहीं, लेकिन उन्हें कोई हक़ीक़ी हमसफ़र नहीं मिल सका। वो इस वसीअ ख़ार-ज़ार दश्त-ए-हयात में उदास और तन्हा चलती रहीं:
उदासियों ने मेरी आत्मा को घेरा है
रुपहली चांदनी है और घुप अंधेरा है
कहीं कहीं कोई तारा कहीं कहीं जुगनू
जो मेरी रात थी वो आपका सवेरा है
ख़ुदा के वास्ते ग़म को भी तुम ना बहलाओ
उसे तो रहने दो मेरा, यही तो मेरा है
नज़्म टूटे रिश्ते झूठे नाते में इसी तन्हाई, बेगानगी और झूठे रिश्ते का इज़हार मिलता है। होशमंद दिमाग़ अकेले दिल के रोने की मुख़ालिफ़त कर रहा है:
टूट गए सब रिश्ते आख़िर
दिल अब अकेला रोय
नाहक़ जान ये खोए
इस दुनिया में कौन किसी का
झूठे सारे नाते
       मीना कुमारी नाज़ के बेशतर अशआर हैजानअंगेज़ी और जज़्बातीयत से पाक हैं। शायरा का दिल दोस्ती और इन्सानी रिश्तों के वहम से आज़ाद हो कर ज़िंदगी की तल्ख़ हक़ीक़तों से हमकिनार है। इन्होंने अपनी मुंतशिर ज़िंदगी के एहसास को कभी कभी बड़े ही जदीद और फ़नकाराना अंदाज़ में पेश किया है:
टुकड़े टुकड़े दिन बीता, धज्जी धज्जी रात मिली
जिसका जितना आँचल था, उतनी ही सौग़ात मिली
रिमझिम रिमझिम बूँदों में, ज़हर भी है अमृत भी है
आँखें हंस दें दिल रोया, ये अच्छी बरसात मिली
……………………
ना इंतिज़ार, ना आहट, ना तमन्ना, ना उम्मीद
ज़िंदगी है कि यूं बे-हिस हुई जाती है
इक इंतिज़ार मुजस्सिम का नाम ख़ामोशी
और एहसास ए बेकरां पे ये सरहद कैसी
ज़िंदगी किया है? कभी सोचने लगता है ज़हन
और फिर रूह पर छा जाते हैं
दर्द के साय, उदासी का धुआँ, दुख की घटा
दिल में रह-रह कर ख़्याल आता है
ज़िंदगी ये है? तो फिर मौत किसे कहते हैं?
       सच्ची मुहब्बत से मुताल्लिक़ नज़्में और ग़ज़लें बेहद जानदार और अच्छी हैं। इन अशआर में शायरा अपनी रूह की गहिराईयों से अपने एहसासात और तजुर्बात को क़लम-बंद करती है। मुहब्बत के हसीन लमहात को वो अपने दामन-ए-दिल से लिपटा कर बे-ख़ुद और सरशार नज़र आती है। मुहब्बत के मौज़ू पर उनकी कई अच्छी नज़्में हैं, जिनमें तजुर्बे की सच्चाई, बेपनाह जज़्बा ए मुहब्बत, नाक़ाबिल ए तशरीह कैफ़-ओ-सर-मस्ती, फ़ित्री तसलसुल, रवानी और पुरसोज़ आहंग मौजूद है:
मसर्रतों पे रिवाजों का सख़्त पहरा है
ना जाने कौनसी उम्मीद पे दिल ठहरा है
तेरी आँखों में झलकते हुए ग़म की क़सम
ए दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत ही गहरा है
…………………………
मेरे दर्द तमाम
तेरी कराह का रिश्ता है मेरी आहों से
तो इक मस्जिद-ए-वीराँ है मैं तेरी अज़ां
अज़ां जो
अपनी ही वीरानगी से टकराकर
ढकी छिपी हुई बेवा ज़मीं के दामन पर
पढ़े नमाज़, ख़ुदा जाने किस को सजदा करे
       मुहब्बत की सरमस्ती शायरा के दिल-ओ-दिमाग़ पर जारी-ओ-सारी है। उसने अपनी बेपनाह मुहब्बत का अमृत इन अशआर में उंडेल दिया है। ये शायरी मौसीक़ी और बातिनी आहंग से पुर है।
       मीना कुमारी नाज़ुकी कुछ नज़मों और ग़ज़लों में ख़्वाहिश-ए-नफ़सानी का ज़िक्र है, लेकिन हिजाब के साथ। इन अशआर में जिस्मानी लग़ज़िशों का एतराफ़ और शख़्सी ज़िंदगी का इन्किशाफ़ मिलता है:
हया से टूट के आह, कॉपती बरसात आई
आज इक़रार-ए-जुर्म कर ही लें वो रात आई
घटा से होटों ने झुक कर ज़मीं को चूम लिया
हाय उस मल्गुजे आँचल में कायनात आई
ठंडा छींटा पड़े जैसे दहकते लोहे पर
नूर की बूँद लबों से जो मेरे हाथ आई
इन अशआर में जिन्सी तजुर्बे का इज़हार निहायत ही उम्दा और फ़नकाराना है। मुहब्बत और ख़ाहिश नफ़सानी की तसकीन दोनों एक दूसरे की तकमील करती हैं। दहकते लोहे से शहवानी जिस्म की मुशाबहत बिलकुल साफ़ और मानी-ख़ेज़ है। इसी तरह की कुछ और मिसालें मुलाहिज़ा हों:
ओस से गीली गीली कासनी छाओं में
धानी धानी हथेली रात की चूम कर
चैन सा पा गए
चैन सा पा गए
रात घुटने लगी
दर्द बढ़ने लगे, ग़म सुलगने लगे, तन झुलसने लगे
ये कैसा पड़ाव है इस रात का?
दिल के चारों तरफ़ चैन ही चैन है
ना उधर नींद है ना उधर नींद है
……………………
मेरी रूह भी जिला ए वतन हो गई
मेरा जिस्म इक सेहन हो गया
कितना हल्का सा हल्का सा तन हो गया
जैसे शीशे का सारा बदन हो गया
मेरा दिल बेवतन बेवतन हो गया
नज़्म चाहत में भी इसी तरह की कैफ़ीयत का इज़हार मिलता है:
फिर से चाहत ने सर उठाया है
गर्म मिट्टी की तप्ती भाप जैसे
सर उठाए और प्यासी आँखों से
अपनी क़िस्मत का आसमां से सौदा करले
अपने झुलसे हुए बदन के लिए
इस की कुछ देर की साअत के लिए
नज़्म महंगी रात मैं इस तजुर्बा को पशेमानी के साथ पेश किया गया है:
जलती बुझती सी रोशनी के परे
हम ने एक रात ऐसी पाई थी
रूह को दाँत से जिसने काटा
जिसकी हर अदा मुस्कुराई थी
जिसकी भींची हुई हथेली से
सारे आतिश-फ़िशाँ उबल उठे
जिसके होंटों की सुर्ख़ी छूते ही
……………………
आग सी तमाम जंगलों में लगी
राख माथे पे चुटकी भर के रखी
ख़ून की ज्यूँ बिंदिया लगाई हो
किस क़दर जवान थी
मिसमिसी थी
महंगी थी वो रात
हमने जो रात यूंही पाई थी
       मीना कुमारी नाज़ की कुछ नज़्मों में फ़लसफ़ियाना रंग भी है। खिड़की, लम्हे, ख़मोशी, बादल और चट्टान, सुहानी ख़ामोशी, ग़म की तलाश, एक पत्थर और ख़ाली दुकान इसी तरह की नज़्में हैं। नज़्म लम्हे में वो कहती हैं कि लम्हे नाक़ाबिल गिरिफ़त हैं। बरसात की बूँदों की तरह हाथ से फिसल कर टूट जाते हैं। इसी तरह नज़्म खिड़की में शायरा ने ला-महदूद वक़्त के ला मुतनाही, ग़ैर वाज़िह पैकर को महसूस करते हुए यूं पेश किया है:
ज़माना है माज़ी
ज़माना है मुस्तक़बिल
और हाल एक वाहिमा है
किसी लम्हे को मैंने जब
छूना चाहा
फिसल कर वो ख़ुद बन गया एक माज़ी
       नज़्म ख़मोशी में भी वक़्त ही को समझने की कोशिश की गई है। उफ़ुक़ की कड़ी कहाँ से शुरू हो कर कहाँ ख़त्म होती है किसी को मालूम नहीं:
कहाँ शुरू हुए ये सिलसिले कहाँ टूटे
ना उस सिरे का पता है ना उस सिरे का पता
       ”ख़ाली दुकान में मौजूद माद्दी दुनिया को ख़ाली दुकान से तशबीह दी है। यहां शायरा को वो चीज़ नहीं मिलती जिसकी वो ख़रीदार हैं, वो प्यार का लम्स चाहती है जो बेचैन रूह को तसकीन दे सके। वक़्त की दुकान इस से ख़ाली है। यहां तो सिर्फ शौहरत के काग़ज़ी फूल, मसनुई मसर्रतों के खिलौने हैं।
नज़्म एक पत्थर और बच्चा में मुंजमिद झील के संजीदा पानी पर शरीर बचा के पत्थर फेंकने से फ़नकारा को बड़ी तकलीफ़ होती है। दर्द-आश्ना और हद दर्जा हस्सास दिल महसूस करता है कि बच्चा की इस हरकत ने झील को ज़ख्मी कर दिया है। फैली हुई लहरें झील का काँपता हुआ दिल है अगर दुनिया का हर फ़र्द इतना ही दर्द-आश्ना हो जाये तो ये दुनिया जन्नत बन जाये।
       नज़्म सुहानी ख़ामोशी में शायरा अपनी सुहानी मौत का तसव्वुर करती है। मौत शायरा के लिए भयानक नहीं, वो मानती है कि मौत के बाद अगरचे महिज़ खला है, सिर्फ तारीकी है, लेकिन वो तारीकी इस करब अंगेज़ उजाले से यक़ीनन बेहतर होगी।
       मीना कुमारी नाज़ की शायरी के बड़े हिस्से का शेअरी आहंग, गुलज़ार के शेअरी आहंग से क़रीब नज़र आता है। लेकिन कैफ़ी आज़मी की शायरी के असरात भी इन्होंने क़बूल किए हैं। मिसाल के तौर पर कुछ अशआर मुलाहिज़ा हों:
हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जान के खाया होगा
(कैफ़ी आज़मी)
आबला-पा कोई इस दश्त में आया होगा
वर्ना आंधी में दिया किस ने जलाया होगा
ज़र्रे ज़र्रे पे जड़े होंगे कँवारे सज्दे
इक-इक बुत को ख़ुदा उसने बनाया होगा
प्यास जलते हुए होंटों की बुझाई होगी
रिस्ते पानी को हथेली पे सजाया होगा
मिल गया होगा अगर कोई सुनहरा पत्थर
अपना टूटा हुआ दिल याद तो आया होगा
(मीना कुमारी नाज़)
       बहैसीयत मजमूई मीना कुमारी नाज़ एक ख़ुदादाद शायरा थीं। अगर ज़िंदगी वफ़ा करती और उन्हें तख़लीक़ी सफ़र के लिए कुछ वक़्त और मिला होता तो वो उर्दू की और भी अच्छी शायरा हो सकती थीं। उनकी शायरी एक सच्चे दिल की आवाज़ है, जिसमें सादगी, कशिश, हज़न-ओ-मलाल, करब-ओ-अंदोह के अनासिर, अफ़्सुर्दगी और सेहत मंद रूमानियत मौजूद है। अगर वो अदाकारा ना होतीं और सिर्फ अपनी शायरी छोड़कर इस दुनिया से रुख़स्त हो जातीं तो भी ये शायरी उनका नाम रोशन करने के लिए काफ़ी थी।
٭

 

 

 

 

٭٭

Dr. Waseem Anwar

Assistant Professor

Department of Urdu

Dr. Harisingh Gour Vishwavidyalaya Sagar MP

[email protected], 9301316075




हाइकु

माँ हो कर ही

जाना जा सकता है

माँ का होना भी

 

काँधे पे पेट

सिर पर गठरी

कोरोना यात्रा

 

धूप से लड़े

हमको छाया देने

पिता सा पेड़

 

जीवन छोड़

लाशों को ही चाहती

ये गिद्ध वृति

 

उलूक यारी

उजाले की क़ीमत

अंधेरा तारी

 

अयानों हेतु

सयानों का छलावा

मौत भी मोक्ष

 

बैल ? तो कोल्हू

जो खाने हों बादाम ?

बन जा मिट्ठु ।

 

फिर पुकारे

मन अँगुलीमाल

आओ ना बुद्ध !

 

पेड़ पिता

सौंपते अंतस भी

फले औलाद

 

पेड़ से पन्ना

पन्ने पे माँडा पेड़

बचाने पेड़

 

धेले बिकते

इंसान यहाँ पर

महँगाई है ?

 

नहीं कहता

वो जो नहीं सहता

कथा बिवाई

 

लगे इधर

और मिले उधर

राज की नीति

 

यक़ीं का खेल

माटी की गुल्लक में

सोने के सिक्के

 

बिन लश्कर

प्यार से जग जीते

वो कलंदर

 

मेघ गठरी

बाँटे पनियाँ मोती

कहाए वर्षा

 

बढ़ती हुई

जनसंख्या दिखाती

आदमी कमी

 

मर्जी हमारी

जब चाहे कह  दें

गधे को बाप |

 

टँगोगे उल्टा

जब कभी करोगे

वल्गल यारी |

छुपती रहे

दम्भ चढ़ी, पाँ जली

फूँकूँ रावण




कस्तूरी

कस्तूरी

मेरीकस्तूरी

मुझे देती रही भटकन

……… उम्रभर

जो मरा

तो जाना

कि

मारा भी गया

इसी के लिए




अभिषेक करें जनवाणी का

अभिषेक करें जन वाणी का

================

  अभिषेक करें जन वाणी का

  नागरी का, दीव्यागीर्वाणी का

  ओंकार जन्मा, संस्कृत सृष्टा

  जग वन्दिनी, देवनन्दिनी

  खलिहानखनक, मात वाणी का

  अभिषेक करें जन वाणी का |

  हिमाला ताज़, सागर लाज़

  थार की थाती, वाङ्ग ज्योति

  सिन्ध स्वरा, देहात वाणी का।

  अभिषेक करें जन वाणी का |

  सलोनीसरल, मृदुलतरल

  जन भारती, राष्ट्र आरती

  तम तिरोहिता, जन कल्याणी का।

  अभिषेक करें जन वाणी का |

  संस्कृति दर्पण, इतिहास दर्शन

  सृजन गंगा,   भक्ति उमंगा

  सर्वस्व अर्पणा, वीणापाणी का।

  अभिषेक करें जन वाणी का |

  संधान करें, व्यवहार करें

  सम्मान करें, जय गान करें

  निज भाषा, राष्ट्र वाणी का |

  अभिषेक करें जन वाणी का |

  चरणाभिषेक करें, वीणापाणी का।




श्रेष्ठ इक्यावन कविताएँ : हिन्दी कविता का वैश्विक प्रतिबिम्ब – डॉ सम्राट् सुधा

भारत -रत्न , पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिवस पर गत वर्ष आयोजित अंतरराष्ट्रीय अटल काव्य- लेखन प्रतियोगिता में चयनित 51 कविताओं का संग्रह ‘श्रेष्ठ इक्यावन कविताएं’ इसी माह प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की सभी कविताएं अटल जी पर नहीं हैं, परन्तु भारतीयता और भारतीय मूल्यों के उनके विचारों का ही ये सभी कविताएं उत्कृष्ट प्रतिबिंब हैं।

समीक्षा से पूर्व यह बता देना समीचीन होगा कि ऊपर्युक्त प्रतियोगिता का आयोजन सृजन आस्ट्रेलिया अंतरराष्ट्रीय ई-पत्रिका द्वारा किया गया था। उसमें प्राप्त लगभग 1500 कविताओं में से चयनित ये 51 कविताएं हैं, जिनका प्रकाशन सिक्किम विश्वविद्यालय की उद्यानिकी विभाग की असिस्टेन्ट प्रोफेसर डॉ. सुजाता उपाध्याय और प्रकाशन संस्थान न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन के वित्तीय सहयोग से सम्भव हुआ और इसमें प्रतियोगियों से प्रतिभाग से लेकर पुस्तक दिये जाने तक कोई धनराशि नहीं ली गयी।

इस काव्य -संग्रह की कविता ‘ पानी’ में कवयित्री डॉ. स्मृति आंनद समाज में व्याप्त बाज़ारवाद एवं क्रूरता पर करारी चोट करती हैं-
“काले घेरों में कैद
उन आँखों में
तुम्हारी वेदना के लिए
तब न होगा पानी
क्योंकि वह मर चुकी होगी
सदियों पहले
उसकी हो चुकी होगी हत्या।”

प्रभु श्रीराम जैसा नहीं बन पाने की दशा में उन-सा तनिक ही बन जाने का सन्देश देती है ऋषि देव तिवारी की रचना ‘ तुम राम नहीं बन सकते तो’-
“निंदित कर्मों के बीच फंसे
सत्कर्मों के अभिराम बनो
तुम राम नहीं बन सकते तो
कण के एक भाग-सा राम बनो !”

देश की अस्मिता एवं प्रकृति को उभारती है अजय कुमार पाण्डेय की रचना ‘ देश।’ एक अंश द्रष्टव्य है –
“देश नहीं होता केवल
राजमार्ग से गांवों तक
देश नहीं बनता है केवल
अट्टालिकाओं की छांवों तक।”

देश की पुरातम महिमा को प्रतिष्ठित करने के स्वर मनीषी मित्तल की कविता ‘ भाषा के भगवान्’ में दृष्टिगोचर होते हैं –
“कर प्रयास भारत को फिर से
सोने की चिड़िया बनाना है
अखंड भारत का कर निर्माण
राम राज्य फिर से लाना है ।”

कोरोनकाल में अपने घर लौटते व्यक्ति की मनोदशा को स्वर देती है इन पंक्तियों के लेखक की कविता ‘ कालचक्र के माथे पर।’ ये अंश द्रष्टव्य हैं-
“मैंने उससे दुखड़ा पूछा
आंखें उसकी उबल गयीं
भीतर की जिज्ञासा मेरी
मरु बनी और सिमट गयी
मैंने कामकाज का पूछा
गला उसका रुँध गया
बिना कहे वो सारा कहकर
कहना था जो चला गया !”

संग्रह में सम्मति के रूप में विश्व हिन्दी सचिवालय, मॉरीशस के महासचिव प्रोफेसर विनोद कुमार मिश्र के कविता एवं कवि के संदर्भ में विचार पठनीय हैं।
संग्रह की सभी कविताएं काव्यात्मक मानक पर कितनी उपयुक्त हैं ,इससे अधिक महत्त्व इस बात का है कि संग्रह का प्रकाशन बेल्लारी ( कर्नाटक ) के एक फाउंडेशन ने किया है। इस संग्रह में हिन्दी भाषी क्षेत्रों के अतिरिक्त अहिन्दी भाषी ही नहीं , विदेशों में भी हिन्दी में रचना कर रहे रचनाकारों की रचनाएं हैं।इस दृष्टि से हिन्दी के देशीय एवं वैश्विक रचनाकर्म को समझने का यह संग्रह एक माध्यम है। इसी रूप में काव्य – संग्रह ‘श्रेष्ठ इक्यावन कविताएं’ पढ़ा व समझा जाएगा , ऐसी आशा है !

■ समीक्षित कृति : श्रेष्ठ इक्यावन कविताएँ
■ सम्पादक : डॉ. शैलेश शुक्ला
■ प्रकाशक : न्यू मीडिया सृजन संसार ग्लोबल फाउंडेशन, बेल्लारी ( कर्नाटक )।
■ मूल्य : ₹ 251
■ समीक्षक : डॉ. सम्राट् सुधा




रज्जो /RAJJO

                        रज्जो

 रात के दस बज रहे होंगे। कॉलनी के गेट से होकर आ रही मिलिट्री हॉस्पिटल की वैन देखकर हैरान रह गयी | इस समय कौन सी इमरजेंसी है ? अजीत को बुलाने जैसे ही मुडी , तब तक वैन हमारे क्वार्टर के सामने आ चुकी थी।

‘मास्टरनी, मास्टर जी को बुलाइए ज़रा ‘ तिवारी की आवाज।

वैन का सायरन सुनकर तब तक अजीत भी  दरवाजे तक पहुंच चुका था। तिवारी से बात करते वक्त अजित के चेहरे पर दिखी घबराहट ने दिल की धड़कन और बढ़ा दी ।

‘दुर्गा प्रसाद की बीवी अस्पताल में है,तुम जल्दी तैयार हो जाओ |’ अजित ने कहा |

क्या उसकी डेलिवेरी हो गयी ?’ मैंने खुशी-खुशी पूछा |

‘ नहीं उसका एक्सीडेंट हो गया है | केरोसीन से शरीर पूरा जल गया है  | बचने की कोई उम्मीद नहीं | वह तुम से मिलना चाहती है |’ अजी उसी रौ में बताता  जा रहा था ,मैं कुछ बता  नहीं पायी , वहीँ कि वहीँ जड़ होकर खडी रही | कब वान पर चढी ,कब हम अस्पताल पहुंचे ,होश ही नहीं रहा |      

रज्जो… रजवंती… कुलवंदसिंह कॉलोनी के नए क्वार्टर में मेरी मदद के लिए आयी थी वह । लान्स नायिक दुर्गा प्रसाद की पत्नी। शादी के बाद जब मैं पटियाला पहुंची तो ऐसा लग रहा था  जैसे मेरी जड़ें ही उखड़ गई हों। कुलवंद सिंह कॉलोनी के 25 क्वार्टरों में एक में भी कोई मलयाली परिवार नहीं था । एकमात्र सांत्वना थी अजी का साथ  और प्यार | रजवंती, जिसे सब रज्जो बुलाती थी, मास्टरजी की पत्नी को गृहकार्य में मदद करने के लिए आयी थी ।  गेहूँवा रंग, रूखे – सूखे बाल ,गोल-गोल सुडौल गाल और पान के दाग भरे दांत …और सबसे आकर्षक थी उसकी वे बड़ी-बड़ी आँखें हर चीज़ को उत्सुकता से देखती थी | जब वह अपने गंदे दांतों को दिखाकर  हंसती थी , तो लगता था कि उसकी  आंखें भी हंसने लगती हैं ।

नयी जगह और नए परिवेश से परिचित होने में  रज्जो ने ही मेरी मदद की थी । हिंदी में एम .ए किया है तो क्या हुआ , स्थानीय भाषा के बिना बाजार जाना बहुत मुश्किल था । अपने व्यस्त काम  के दौरान अजी हमेशा मेरे  साथ आ भी नहीं पाते थे। वहीं पर रज्जो का साथ काम आया | उसके साथ मैंने यात्रा करना सीखा, बाज़ार जाकर चीज़ें खरीदना सीखा  और वहां के निवासियों के साथ हिल-मिलकर रहना भी सीखा । इसके साथ मुझे एक नाम भी मिला ‘मास्टरनी’ ।     

इसी बीच अनपढ़ रज्जो को हिंदी पढ़ाने का जिम्मा उठाया था मैंने  । सिर्फ एक टाइम पास के लिए शुरू किया था  ,पर  इसने मेरी जिंदगी ही बदल दी। रज्जो के बाद श्रीरामनगर के  सिपाहियों की पत्नियां एक-एक कर पढ़ने आने लगीं । कुछ   तो अपने बच्चों को भी साथ ले आयी  तो  कुछ   बूढ़ी माताओं को |  बुजुर्गों के लिए  साक्षरता क्लास  और बच्चों के लिए ट्यूशन … मेरे  अध्यापन  करियर की शुरुआत वहीँ पर हुई | पाँच साल से लेकर पचपन साल  की उम्र तक के शिष्य बने | रज्जो सबकी मुखिया थी । अपने गाँव  से इतनी दूर आकर जो अजनबीपन और अलगाव का बोध दिल में उग आया था वह धीरे-धीरे बदलने लगा । मैं वहां पूरी तरह रम गयी  । मेरे  इस बदलाव से सबसे बड़ी  राहत अजी को ही मिली थी , अब तो रोज़ उन्हें मेरी शिकायत सुननी नहीं पड़ती  थी | मज़ाक –मज़ाक में उनके दोस्त भी कहा करते थे , ‘ मास्टरजी ,अब तो आप से भी पोपुलर हो गयी है  मास्टरनी |  आर्मी वूमेन वेलफेयर एसोसिएशन के सहयोग से महिलाओं के लिए कई काम करने में मुझे सक्षम बनाया था रज्जो के लिए शुरू की गयी साक्षरता क्लास  |      

इस बीच, इस एहसास ने कि हमारे जीवन में एक नया मेहमान आ रहा है, जीवन को और भी खुशहाल बना दिया | खुशखबरी रज्जो को सुनायी ,फिर तो एक परछाई की तरह वह मेरे पीछे ही रही | सचमुच एक माँ की तरह |  ‘मास्टरनी , आपको लड़का होगा लड़का ।’  हर दिन जब वह यह कहती रही तो उसे चिढाने के लिए मैंने कहा, ‘लड़की पैदा हुई  तो क्या होगा ? हमें तो लडकी चाहिए | ‘ उसके चेहरे की मुस्कान तुरंत फीकी पड़ गई थी | बाद में हमारा वह नन्हा सपना जब पेट में ही ख़तम हो गया  तो मुझे दिलासा  देने के लिए वह दिन रात मेरे साथ रही | उन्हीं दिनों उसने मुझे अपनी कहानी सुनायी थी |       

        चौदह साल की थी वह जब  उसकी शादी दुर्गाप्रसाद के साथ हुई थी | महाराष्ट्र के गाँवों में छोटी उम्र में ही लडकी-लड़के का ब्याह होता है | शादी के बाद वह गर्भवती हुई , गाँव के डाक्टर ने स्कैन करके बताया कि लडकी होनेवाली है | इसीलिये पति ने उसका गर्भपात करवाया | एक बार नहीं तीन-तीन  बार। सास  उसे यह कहकर कोसती थी कि लड़कों को जन्म न देनेवाली  परिवार के लिए अभिशाप है। उसके हर काम में वह मीन-मेख निकालती थी ,खरी खोटी सुनाती थी | अब तो सास उसे  ससुराल आने ही नहीं देती | छुट्टियों में जब दुर्गा प्रसाद गाँव जाता है  तो रज्जो यहीं क्वार्टर्स में ही रहती है । अब वह फिर से मां बननेवाली है | पर अपने पति से उसने यह बात छुपायी है |

‘मैं माँ बनना चाहती हूँ मास्टरनी, कितनी बार अपने बच्चों को यूं मारती रहूँ ? अब चाहे लड़का हो या लडकी ,मुझे इसे जनाना है |’  इसलिए  उसने अभी तक अपने पति को यह जानकारी नहीं दी है।

‘ पर कब तक रज्जो ?’ मैंने पूछा | ‘कुछ महीने बाद उसे अपने आप ही पता चलेगा |’  मैंने उसे सलाह दी कि एक और गर्भपात उसके जीवन को खतरे में डाल देगा और इसलिए ऐसा नहीं होने देना चाहिए चाहे कुछ भी हो जाए।      

रात को मैंने रज्जो के बारे में अजीत को बताया | अजीत ने दुर्गा प्रसाद को बुलाकर बात की | मास्टरजी के सामने तो सिरर हिलाकर वह सब कुछ सुनता रहा | मास्टरजी के साथ वह बहस नहीं कर सकता था |

रज्जो उसके बाद भी घर आती रही |  कल जब मैंने उसे देखा तो उसकी आँखों में बड़ी थकान थी। आठवां महीना था और इसलिए मैंने उसे यह कहकर वापस भेज दिया कि अब काम पर न आना। उसे आराम की ज़रुरत थी | वह फिर वहीं खड़ी रही मानो कुछ कहना बाकी हो । मैं बच्चों की  ट्यूशन में इतनी व्यस्त थी  कि उनकी ओर  ध्यान देने का समय नहीं था और यह भी पता नहीं चला कि वह कब लौट गयी ।     

‘सुमा , चलो,उतरो ..अस्पताल आ गया ।‘ अजीत की आवाज़ एकदम चौंकानेवाली थी …मेरा ह्रदय जोर-जोर से धड़कने लगा | मारे भय के मैं कांप रही थी | रज्जो का सामना कैसे करूँ ?

‘मैं क्या कर सकती हूँ अजी , रज्जो ने मुझसे मिलने को क्यों कहा है …आखिर उसको यह एक्सीडेंट हुआ कैसे ?’’ मैं रो रही थी |

” ये सब उस  साले दुर्गाप्रसाद की करामत है ‘..अजी की आवाज़ में रोष था | उसने बेचारी रज्जो के शरीर पर केरिसिन डालकर जलाया था | गाँव में किसी डाक्टर को दिखाया तो उसने बताया पेट में लडकी है … गर्भपात अब संभव नहीं  है, क्योंकि यह आठवां महीना है… बस ‘’ कहते –कहते अजी की साँसें फूल रही  थी |

‘ सुमा ,केवल तुम्हें  अंदर जाने की अनुमति है । पड़ोसियों से थोड़ी सी जानकारी ही मिली  है | उसी के तहत  आर्मी  पुलिस ने दुर्गा को  हिरासत में ले लिया है , पर  रजवंती ने अब तक कोई बयान नहीं दिया है। उसका बयान ही दुर्गा को सज़ा दे सकता है | इसीलिये तुम्हें लाया गया | तुमसे तो रज्जो सब कुछ बतायेगी न |’  अजीत की बातों से उसे हादसे की पूरी जानकारी मिली |  

तो क्या यही आपत्ति जताने के लिए कल वह घर में आयी थी ? मैंने टाल दिया था उसे … क्या मैं उसे बचा सकती थी ? दिमाग में कई प्रश्न एक साथ आने  लगे | क्या मैं बचा सकती थी उसे ?

सहसा अजीत ने पीछे से पुकारा,       “उस साले को  ऐसे मत छोड़ो सुमा , रज्जो से बयान दिलवाना ज़रूर  |’

आई सी यू वार्ड की तीखी गंध नाक में भर रही थी | भय के मारे मैं  थर-थर कांप रही थी | पुलिस ने सीधे मुझे रज्जो को पास  पहुंचाया |

ओह..कितना भयानक था वह दृश्य …सिर्फ ..सिर्फ एक बार ही उस अध जले  चेहरे देख पाया  | रज्जो के चेहरे का एक हिस्सा पूरी तरह विकृत हो गया था | शरीर पूरा ढका हुआ था ताकि और कुछ दिखाई न दे | वेदना से वह कराहती जा रही थी | मुझसे रहा नहीं गया | सर चकरा रहा था कि पुलिस ने पकड़ लिया और पास की कुर्सी पर बिठा दिया।     

‘मैडम, ज्यादा वक्त  नहीं है उसके पास  और गला पूरा जल गया है कि वह ठीक से बोल भी नहीं सकती …जल्दी  पूछ लीजिये  कि क्या हुआ।’

रज्जो की अध खुली आँखों में देखकर मैंने  पुकारा, “रज्जो!”

असहनीय पीड़ा के बावजूद उस के चेहरे पर हल्की मुस्कान सा हल्की सी लहर  छलकने लगी |

“रज्जो , ये सब हुआ कैसे ?  …दुर्गा ने ऐसा क्यों किया?”उसकी होंठ धीरे-धीरे हिलने लगी।

‘ मास्टरनी , तुम आयी  मुझसे मिलने…’ आँखों से आंसू बराबर बहने लगे …|.    ‘ अब तो सबकुछ  खत्म हो गया, मास्टरनी ! अच्छा ही हुआ मेरी बच्ची पैदा नहीं हुई | नहीं तो उसे भी ..’ उसकी पतली आवाज गले में अटक गयी |

मैंने सवाल दोहराया.. ‘रज्जो,  क्या दुर्गा ने यह जघन्य अपराध किया था?  क्या उसे तुम्हारे गर्भ में पल रहे बच्चे की याद ही नहीं आयी?’

यही मेरी नियति है मास्टरनी , हमारे यहाँ स्त्रियों  की यही किस्मत है। किसे दोष दे?’  उसकी आवाज़ इतनी पतली थी , ठीक समझ नहीं पा रहा था | लेकिन उसकी वे बड़ी-बड़ी आंखें मुझसे बराबर बोलती जा रही थी । उसे यह खबर सुकून दे रही थी कि उसकी बच्ची ऐसे समाज में पैदा ही नहीं हुई, नहीं तो वह उसीकी कहानी दोहराती | पति के खिलाफ बयान देकर वह उसे दंड दिलाना भी नहीं चाहती ? किसलिए ? किसके लिए ? इस क्रूर समाज से शायद उसका यही प्रतिकार था | शायद उसे क्षमा करने का महारत हासिल था |  उसकी आँखों से आंसू की ऐसी लड़ी निकल रही थी जिसमें मेरे सारे सवालों का जवाब थे। न जाने कब वे आँखें निश्चल हो गईं । पहली बार किसी की मौत अपनी आँखों से देख रही थी | रज्जो मर चुकी है , …यह विचार मेरी रूह को कंपा रही थी | कल तक मेरा साया बनकर चलनेवाली,मेरी सहेली .. वह  हम सब को छोड़कर जा चुकी है   … अब तो सास उसे कोई श्राप नहीं देगी ,पति ताने नहीं मारेंगे , …कोई नहीं कोसेंगे उसको ….अपने सारे दुःख –दर्द से उसे छुटकारा मिल चुकी है । रोम-रोम में असहनीय पीड़ा सहकर भी वह अपने पति के खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोली  जिसने  कभी भी उससे प्यार नहीं किया,कभी उसे अपना नहीं माना |     

कई साल बीत चुके हैं पर आज भी रज्जो की आंसू भरी निगाहें मेरे दिल और दिमाग में ताज़ी हैं |   क्या स्त्री होना इतना बड़ा जुर्म है ?लडकी पैदा करवाना क्या श्राप है |

 




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नदी के साथ

मैं इस नदी के साथ,
जीना चाहता हूँ..
डूबना चाहता हूँ..
इसके भीतर!!
तैर कर सभी..
पार कर लेते हैं नदियाँ।
नाव पर घूमते हुए..
देखते हैं सभी।
मैं डूब कर भीतर तक
देखना चाहता हूँ भीतर से इसे।
बातें करना चाहता हूँ।
इसकी पीड़ा..
आजतक किसी ने नहीं सुनी
इसके भीतर की व्यथा,
जो अनंतकाल से..
धाराप्रवाह बहती चली आ रही
बिना रुके!!

मैं चाहता हूँ,
इसी क्षण रोक देना इसे
और बातें करना।
इसकी कल-कल की आवाज़
सुनते हैं सभी,
मैं सुनना चाहता हूँ, मौन!!
इसका हो जाना चाहता हूँ मैं,
सदा सदा के लिए!!