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शक्तिहीन

वह मीठे पानी की नदी थी। अपने रास्ते पर प्रवाहित होकर दूसरी नदियों की तरह ही वह भी समुद्र से जा मिलती थी। एक बार उस नदी की एक मछली भी पानी के साथ-साथ बहते हुए समुद्र में पहुँच गई। वहां जाकर वह परेशान हो गई, समुद्र की एक दूसरी मछली ने उसे देखा तो वह उसके पास गई और पूछा, “क्या बात है, परेशान सी क्यों लग रही हो?”

नदी की मछली ने उत्तर दिया, “हाँ! मैं परेशान हूँ क्योंकि यह पानी कितना खारा है, मैं इसमें कैसे जियूंगी?”

समुद्र की मछली ने हँसते हुए कहा, “पानी का स्वाद तो ऐसा ही होता है।”

“नहीं-नहीं!” नदी की मछली ने बात काटते हुए उत्तर दिया, “पानी तो मीठा भी होता है।“

“पानी और मीठा! कहाँ पर?” समुद्र की मछली आश्चर्यचकित थी।

“वहाँ, उस तरफ। वहीं से मैं आई हूँ।“ कहते हुए नदी की मछली ने नदी की दिशा की ओर इशारा किया।

“अच्छा! चलो चल कर देखते हैं।“ समुद्र की मछली ने उत्सुकता से कहा।

“हाँ-हाँ चलो, मैं वहीं ज़िंदा रह पाऊंगी, लेकिन क्या तुम मुझे वहां तक ले चलोगी?“

“हाँ ज़रूर, लेकिन तुम क्यों नहीं तैर पा रही?”

नदी की मछली ने समुद्र की मछली को थामते हुए उत्तर दिया,

“क्योंकि नदी की धारा के साथ बहते-बहते मुझमें अब विपरीत धारा में तैरने की शक्ति नहीं बची।“




मंदिर मस्जिद का बनना

मंदिर मस्जिद का बनना।
दुनियां में सरेआम हुआ।।

आदमी बन न सका बंदा।
रब्ब यूं ही बदनाम हुआ।।

जात पांत का चक्कर बड़ा।
भक्ति का मार्ग ताम हुआ।।

जंगल जंगल भटकता क्यूं?
मन अपना न धाम हुआ।।

खुदा का घर बना ही नहीं।
ईंट गारा जोड़ना काम हुआ।।

रब्ब को कहां ढूंढे रे बंदे।
संग तेरे सुबह शाम हुआ।

दुआ कर मानसिकता बदल।
वही अल्लाह वही राम हुआ।

दुआ कर कही वैद्य भी मिले।
दवा ला जिससे आराम हुआ।।

वो घर भी तो इक मंदिर ही है।
जहां ज्ञान लिया और नाम हुआ।।

भोला पंछी कहीं भला है।
मंदिर मस्जिद में न जाम हुआ।।

गुरदीप सिंह सोहल
Retd AAO PWD
हनुमानगढ़ जंक्शन
(राजस्थान)




तोटक छंद “विरह”

तोटक छंद “विरह”

सब ओर छटा मनभावन है।
अति मौसम आज सुहावन है।।
चहुँ ओर नये सब रंग सजे।
दृग देख उन्हें सकुचाय लजे।।

सखि आज पिया मन माँहि बसे।
सब आतुर होयहु अंग लसे।।
कछु सोच उपाय करो सखिया।
पिय से किस भी विध हो बतिया।।

मन मोर बड़ा अकुलाय रहा।
विरहा अब और न जाय सहा।।
तन निश्चल सा बस श्वांस चले।
हर आहट को सुन ये दहले ।।

जलती यह शीत बयार लगे।
मचले मचले कुछ भाव जगे।।
बदली नभ की न जरा बदली।
पर मैं बदली अब हो पगली।।
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तोटक छंद विधान –

जब द्वादश वर्ण “ससासस” हो।
तब ‘तोटक’ पावन छंदस हो।।

“ससासस” = चार सगण
112 112 112 112 = 12 वर्ण
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया




तिलका छंद “युद्ध”

तिलका छंद “युद्ध”

गज अश्व सजे।
रण-भेरि बजे।।
रथ गर्ज हिले।
सब वीर खिले।।

ध्वज को फहरा।
रथ रौंद धरा।।
बढ़ते जब ही।
सिमटे सब ही।।

बरछे गरजे।
सब ही लरजे।।
जब बाण चले।
धरणी दहले।।

नभ नाद छुवा।
रण घोर हुवा।
रज खूब उड़े।
घन ज्यों उमड़े।।

तलवार चली।
धरती बदली।।
लहु धार बही।
भइ लाल मही।।

कट मुंड गए।
सब त्रस्त भए।।
धड़ नाच रहे।
अब हाथ गहे।।

शिव तांडव सा।
खलु दानव सा।।
यह युद्ध चला।
सब ही बदला।।

जब शाम ढ़ली।
चँडिका हँस ली।।
यह युद्ध रुका।
सब जाय चुका।।
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तिलका छंद विधान –

“सस” वर्ण धरे।
‘तिलका’ उभरे।।

“सस” = सगण सगण
(112 112),
दो-दो चरण तुकांत (6वर्ण प्रति चरण )
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बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’ ©
तिनसुकिया