निजाम फतेहपुरी की गज़लें
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शोध सार :
स्वातंत्र्योत्तर हिंदी नाट्य साहित्य में मोहन राकेश का नाम उल्लेखनीय है। राकेश के नाटकों ने केवल नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही नहीं बदल दिया बल्कि हिंदी रंगमंच को एक नई दिशा प्रदान की है। हिंदी नाटक को कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर समृद्ध किया है। तत्कालीन समय के जगदीश चन्द्र माथुर, धर्मवीर भारती, मोहन राकेश आदि के कारण नाट्य लेखन में और मंचन के स्तर पर नई चेतना, दिशा, दर्शक के रूप में योगदान रहा हैं। इन नाटककारों के कारण नाट्य साहित्य को एक नया मोड़ दिया। मोहन राकेश ने नाटकों में ‘रंगमंच संप्रेषण’ का पूरा ध्यान रखा है। नाट्य लेखन में राकेश ने नए-नए प्रयोग किए है। जैसे- दृश्यबंध, अभिनेयता, ध्वनियोजना, प्रकाश योजना, गीत योजना, रंग-निर्देश के साथ-साथ भाषा के स्तर पर परिवर्तन के कारण नाटक को सजीव रूप मिला है। इसी कारण नाटकों में अभिनेयता अधिक रूप में फली फुली है। राकेश ने उपन्यास, कहानी संग्रह, नाटक, निबंध, एकांकी आदि विधाओं में कलम चलाई है। लेकिन नाट्य साहित्य में जो प्रसिद्धि मिली शायद किसी नाटककारों को मिली होगी। इसमें ‘आषाढ़ का एक दिन’ (1958), ‘लहरों के राजहंस’ (1963) और ‘आधे अधूरे’ (1969) में अभिनेयता को स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
बीज शब्द : नाटक, मंच परिकल्पना, प्रकाश व्यवस्था, आंगिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक, मूक अभिनय, पारिवारिक कडुवाहट, वेशभूषा, अश्रु, अंक आदि।
मोहन राकेश बहुमुखी प्रतिभा संपन्नवाले नाटककार रहे है। मोहन राकेश ने हिंदी नाट्य संसार में उल्लेखनीय काम किया है। राकेश ने अभिनय, निर्देशन, मंच-परिकल्पना, प्रकाश व्यवस्था, कथ्य एवं शिल्प के स्तर पर प्रयोगशील काम किया है। उनके नाट्य विषय में नवीनता रही है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में कालिदास और मल्लिका का प्रेम संबंध कालिदास की प्रतिभा से प्रभावित होकर उज्जयिनी के नरेश द्वारा बुलावा भेजना, कालिदास को उज्जयिनी जाने के लिए मल्लिका का प्रेरित करना, कालिदास का उज्जयिनी गमन, प्रियंगुमंजरी से परिणय, मल्लिका के ग्राम-प्रांतर में कालिदास का आना, कश्मीर का उपद्रव, घायल कालिदास की प्रत्यावर्तन, मल्लिका के जीवन से कालिदास की वितृष्णा आदि घटनाओं के सहारे नाटक की कथावस्तु विकसित हुई है। ‘लहरों के राजहंस’ नाटक में नन्द के माध्यम से आधुनिक मनुष्य की दुर्बलता और मानसिक संघर्ष का चित्रण किया है। मूलतः नन्द प्रवृत्ति और निवृत्ति, भोग और योग के बीच पीसता रहता है। नन्द और सुन्दरी परस्पर आलिंगन बद्ध होकर एक संशय से इतने दूर जा गिरते हैं कि उनका मिलना असंभव होता है। वर्तमान समय में टूटते बिखरते परिवारों के मूल में इसी विचार-वैषम्य की भूमिका लक्षित की जा सकती है। प्रस्तुत नाटक में नन्द और सुन्दरी के भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों का द्वन्द्व प्रस्तुत करने में नाटककार सक्षम रहे हैं। ‘आधे अधूरे’ नाटक में स्त्री-पुरुष के बीच तनाव, पारिवारिक विघटन की गाथा, मध्यवर्गीय परिवार की समस्या, मनुष्य का अधूरापन, सावित्री का संपूर्ण पूर्ण मनुष्य खोजने का प्रयास, असंतोष आदि पहलू को रंगमंच पर उजागर करने में नाटक सक्षम रहा है। राकेश के नाटक प्रयोगशील रहे है। पात्रों का स्वाभाविक चित्रण, संवादों में मार्मिकता, बोलचाल की भाषा, अभिनेयता, देशकाल वातावरण और रंगमंचीयता की दृष्टि से सफल है।
नाटक में अभिनय वह प्रक्रिया है जिसके माध्यम से अभिनेता या पात्र अभ्यास और अभिनय के बल पर एक विशिष्ट चरित्र दर्शकों के सम्मुख प्रस्तुत करता है। नाट्य प्रयोग में अभिनय ही प्राणतत्व होता है। नाटक के सभी भाव, विचारों, आनन्द, घृणा और संवादों को रूपायित करने का साधन अभिनय है। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में अभिनय का विचार-विमर्श बड़े विस्तृत मात्रा में किया है। ‘अभिनय’ शब्द के उत्पत्ति के बारे में लिखते हैं- ‘‘णी´ धातु से ‘अभि’ उपसर्ग लगाने से ‘अभिनय’ शब्द बनता है जिसका अर्थ है- नाटक के प्रयोग द्वारा मुख्यार्थ (कथानक) को श्रोता या सहृदय सामाजिक के हृदय तक पहुँचाना और विभावन या रसास्वादन कराना है।’’1 अतः अभिनय से तात्पर्य है- उस व्यापार से है जो हमें अपने चारों ओर के संसार से निकालकर, रंगमंच पर निर्मित हो रहे कलात्मक संसार में पहुँचा देता है। अभिनेता अपने अभिनय से सहृदय के हृद्य में सौंदर्य का उद्बोधन करता है। भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में लिखा है- ‘‘आड़िको वाचिकश्चैव हृहार्य: सात्विकस्तिथा। ज्ञेयस्त्वभिनयो विप्राश्चतुर्धा परिकीर्तिता।’’2 अर्थात भरतमुनि ने नाट्य अभिनय चार प्रकार के माने हैं। जैसे- आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक भेदों का उल्लेख किया है। आंगिक अभिनय से हाथों, ऊँगलियों, नेत्रों, पाँवों और नासिका के चेष्टाओं से अभिव्यक्त होता है। वाचिक अभिनय से कथोपकथन, गीत, धुनों, स्वरों, शब्द उच्चारण के आरोह-आवरोह द्वारा भिन्न-भिन्न भावों का स्पष्टीकरण होता है। आहार्य अभिनय से ही स्पष्ट है कि इसमें अभिनेता में वेशभूषा और श्रृंगार प्रसाधन महत्वपूर्ण होता है। सात्विक अभिनय में अभिनेता की समस्त मानसिक और आत्मिक शक्तियों का प्रयोग किया जाता है। पश्चिम में अभिनय के लिए ‘ऐक्टिंग’ संज्ञा का प्रयोग किया जाता है। यह मूल शब्द ‘ऐक्ट’ है। हम जीवन में संसार में जो कुछ करते रहते हैं वह अभिनय ही है। एक मनुष्य लगभग इन्हीं अभिनयों से गुजरना होता है। जैसे- कभी पुत्र, कभी शिष्य, कभी पति, कभी पिता तो कभी दादा या नाना, तो कभी अध्यापक, कभी अधिकारी के भूमिका में उसे जाना पड़ता है। वर्तमान समय के नाटकों में अभिनय कौशल बदल रहे है। मोहन राकेश के ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे अधूरे’ नाटकों में आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक अभिनय के साथ-साथ मूक अभिनय का भी प्रयोग मिलता है।
आंगिक अभिनय :
आंगिक अभिनय से तात्पर्य है- शरीर के अंगों, उपांगों और प्रत्यंगों की विभिन्न चेष्टाओं के भंगिमाओं से हैं। सरल वाक्य में कहें तो अंगों द्वारा निष्पन्न होने वाला अभिनय को आंगिक अभिनय कहा जाता है। भरतमुनि ने आंगिक अभिनय के तीन प्रकार स्पष्ट किए है- शरीर, मुखज और चेष्टागत। इसके अंग और उपागों के प्रकार आ. विश्वनाथ मिश्र ने किताब में लिखते हैं- ‘‘मानव शरीर के छह अंग स्वीकार किए गए है। जैसे- सिर, आँख, वक्ष, पार्श्व, कटि एवं पाद। इसी प्रकार उपांग भी छह माने गये हैं, यथा- नेत्र, ध्रुव, नासा, अधर, कपोल और चिबुक। आँखों के फिर तीन प्रत्यंग माने गये हैं- तारा अर्थात पुतलियाँ, पुट अर्थात् पलकें और भ्रकुटि। ये सभी अंग-प्रत्यंग अपनी विभिन्न भंगिमाओं, मुद्राओं एवं चेष्टओं द्वारा विभिन्न प्रकार के अुनभवों को अभिव्यक्त करते हैं।’’3 इस कथन से स्पष्ट है कि आधुनिक नाटकों में छह अंगों का प्रयोग मिलता है। आंगिक अभिनय में प्रथम शिरो भाग की चेष्टाओं पर विचार विमर्श किया गया है। इस संसार में जीवन-प्रवाह में बदलती परिस्थितियों को हमारी आँखें, कपोल, नासिका आदि विशेष रंग, दृष्टि ग्रहण करते हैं। भरतमुनि ने इसे ‘मुखराग’ कहा गया है। मुखराग के चार प्रकार है- स्वाभाविक, प्रसन्न, रक्त और श्याम। इसमें सामान्य अवस्था में हमारा मुख स्वाभाविक रहता है। किसी से बहुत अनुराग की भावना है, मन की प्रसन्नता व्यक्त होती है तो उसे प्रसन्न अवस्था होती है। रक्त अर्थात इसमें वीर, रौद्र और भय की अभिव्यंजना में मुख बहुत लाल हो जाता है तो उसे रक्त नाम से अभिहित किया गया है। करुणा, बीभत्सता और भय की अनुभूतियों को लेकर श्यामता का जन्म होता है। आंगिक अभिनय में हाथों के बाद वक्षस्थल, आभुग्न, निर्भुग्न, प्रकंपित, उद्वाहित और सम अवस्थाएँ ग्रहण करता है।
मोहन राकेश के नाटकों में आंगिक अभिनय प्रखर रूप में दिखाई देता है। राकेश के ‘लहरों के राजहसं’ नाटक का आधार ऐतिहासिक है। कपिलवस्तु की राजकुमार नन्द की पत्नी सुन्दरी वर्षों के बाद कामोत्सव का उत्सव मनाना चाहती है। प्रधान कर्मचारी श्वेतांग, कर्मचारियों में नागदास, शेफालिका, नीहारिक, मंदारक, बीजगुप्त आदि सभी कार्यों के प्रति जुड़े है। प्रथम अंक में जब सुन्दरी ने कामोत्सव का आयोजन किया था उसमें सिर्फ आर्य मैत्रेय ही अतिथि आए है। रविदत्त, अग्निवर्मा, नीलवर्मा, ईशाण, शैवाल, पद्मकांत, रूद्रदेव, लोहिताक्ष, शालिमित्र आदि ने कामोत्सव में आने के लिए असमर्थता दर्शायी है। जब सुन्दरी ने श्यामांग को साधारण गलती की सजा़ सुनाती है। वह बात नन्द को पसंद नहीं होती। क्योंकि जिस प्रकार कालिदास की प्रेरणा स्रोत मल्लिका है तो नन्द के अन्तर्मन की प्रतिछवि श्यामांग है। डॉ. राजेश्वरप्रसाद सिंह के ‘मोहन राकेश का नाट्य-शिल्प: प्रेरणा एवं स्रोत’ पुस्तक से उद्धृत हैं- ‘‘श्यामांग को सुन्दरी हमेशा अनुदार दृष्टि से देखती है। आत्मकेन्द्रित सुन्दरी से हटकर नन्द जब भी किसी से जुटता है, सुन्दरी को उसके प्रति चिढ़ हो जाती है। जिस तरह उसकी चिढ़ यशोधरा और बु़द्ध के प्रति है, उसी तरह श्यामांग के प्रति भी है। वह स्पष्टत: कहती हैः ‘वह एक व्यक्ति नहीं, दो आँखों का एक अनचाहा भाव है, जो हर समय इस घर की हवा में घुला-मिला है।’ ‘आषाढ़ का एक दिन’ में मल्लिका भी विलोम को ‘अनचाहे’ ‘अतिथि’ के रूप में देखती है। भीतरी चिढ़ का ही परिणाम है कि एक साधारण-सी गलती पर सुन्दरी श्यामांग को ‘अन्धकूप’ में डाल देने की सजा दे देती है।’’4 इससे तात्पर्य इतना ही है कि सुन्दरी जानती है कि श्यामांग को सजा सुनाई तो अधिक चोट नन्द के हृद्य को होनेवाली है। क्योंकि नन्द का श्यामांग के प्रति विशेष अनुराग है। लेकिन नन्द सफाई देता है कि जहाँ तक मैं जानता हूँ कि श्यामांग… और बात काट लेता है। इसी समय नाटककार ने मुखज, और आधार देने के लिए उसके कंधे पर हाथ रखता है। इससे तात्पर्य है कि सुन्दरी को अब गुस्सा आया है यह नन्द जानता है और उसे चुप-चाप देखता है और उसके कंधे पर हाथ रखता है। उसका चेहरा स्वयं के हाथ में लेता है। लेकिन सुन्दरी का चेहारा लाल हो गया है। अब वह नन्द को हाथ भी हटा देती है। सुन्दरी को ऐसा लगता है कि कामोत्सव में नन्द की साथ चाहिए लेकिन उसे वह नहीं मिलती। यहाँ पर नाटक में उक्त अभिनय आंगिक के मुखज अभिनय के अंतर्गत आता है।
राकेश के ‘आधे अधूरे’ नाटक में आधुनिक जीवन की पारिवारिक कडुवाहट और अधूरेपन को चित्रित किया है। डॉ. बच्चन सिंह ने ‘हिंदी नाटक’ किताब में ‘लहरों के राजहंस’ नाटक के अंतिम प्रसंगों से ‘आधे अधूरे’ नाटक को समझते हैं- ‘‘नन्द अनेक बिन्दुओं को खोजने पर भी अपने ही बिन्दु पर रहता है। क्या वही स्थिति इस काले सूटवाले आदमी की नहीं है ? इसकी स्थिति तो और भी बदतर है। नन्द तो बिन्दुओं की खोज भी करता है, किंतु काले सूटवाला आदमी तो यह भी छोड चुका है। यह ट्रेजिडी, अकेलापन इसकी आधुनिकता है।’’5 इस कथन से स्पष्ट है कि परिवार का विघटन, आर्थिक दबाव से व्यक्ति की तड़प-झड़प का नाटक में देखने को मिलती है। इस नाटक में आंगिक अभिनय में छह प्रकार में से आँखों से अभिनय का एक प्रमुख अंग है। इस नाटक में अशोक और छोटी लडकी (किन्नी) हमेशा लड़ते झगडे हैं। मूलतः मनोविज्ञान कहता है कि बच्चों के व्यक्तित्व पर परिवार या माता-पिता के संस्कार का प्रभाव पड़ता है। वह अपनी छोटी बहन को पड़ोसी की लड़की से सेक्स संबंधित बातें करते हुए सुनता और आग बबूला हो जाता है। जब अशोक अश्लील पुस्तकें पढ़ता है और भेद खुलने पर छोटी बहन को मारता है तब मंच पर आंगिक अभिनय अधिक मात्रा में सक्रिय हो जाता है। यथा-
‘‘पुरुष एक : (लड़की के पास पहुँचकर) कौन-सी किताब ?
लड़का : यह किताब।
छोटी लड़की : झूठ, बिलकुल झूठ। मैंने देखी भी नहीं यह किताब।
लड़का : (आँखे फाड़कर उसे देखता) नहीं देखी ?
छोटी लड़की : (कमज़ोर पड़कर ढीठपन के साथ) तू तकिए के नीचे रखकर सोए,
तो भी कुछ नहीं। मैंने ज़रा निकालकर देख-भर ली, तो…
पुरुष एक : (हाथ बढ़ाकर) मैं देख सकता हूँ ?
लड़का : (किताब वापस बुश्शर्ट में रखता) नहीं… आपके देखने की नहीं है।
(स्त्री से) अब फिर पूछो मुझसे कि इसकी उम्र कितने साल है ?
बड़ी लड़की : क्यों अशोक… यह वही किताब है न कैसानोवा… ?
पुरुष एक : (ऊँचे स्वर में) ठहरो पहले मैं यह जान सकता हूँ यहाँ किसी से
कि मेरी उम्र कितने साल की है ?’’6
इस उदाहरण से स्पष्ट है कि अशोक भले ही उम्र से छोटा है लेकिन वह अश्लील पुस्तकें पढ़ता है और भेद खुलने पर छोटी बहन को मारता है। इसमें जब उसक भेद खुलने वाला है तो वह किन्नी की तरफ बडे़-बडे़ आँखे कर देखता है। उस नज़र में यही बात होती है कि फिर मैं देखूगा। नाटक में आंगिक अभिनय में अधिक मात्रा में आँख, हाथ, सिर आदि अभिनय का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है।
वाचिक अभिनय :
किसी भी नाटक में शब्द, उच्चारण, वार्तालाप का ढ़ंग या शैली, स्वर और ताल से ही नाटक का संवाद दर्शकों के स्मृति में रहता है। श्रृंगार और हास्य रस के माध्यम से षड्ज के स्वरों को निर्मिती होती है। तो वीर रस पंचम स्वरों से अभिप्रेत होता है। प्राचीन नाटकों में और आधुनिक नाटकों में मंचीयता को और सजीवता लाने के लिए वाद्य-संगीत अभिन्न अंग होता है। किसी नाटक में अगर संगीत या वाद्य का प्रयोग नहीं होता है तो दर्शक गण उब जाएंगे। रंगमंच पर जो भाव धारा को व्यक्त करना है उसकी शब्दावली का ध्वन्यात्मक विन्यास उस अभिनय के अनुरूप होनी चाहिए। भरतमुनि ने दस काव्य गुण माने हैं- श्लेष, समाधि, माधुर्य, ओज, प्रसाद, सौकुमार्य, समता, अर्थव्यक्ति, उदारता और कान्ति। इसी गुणों के अवतारणा से वाणी के वर्चस्व का और भी अभिवर्धन हो जाता है। वाचिक अभिनय में पात्रों के बोलने के ढंग पर विचार-विमर्श किया है। बोलने के सात उपकरण माने जाते हैं- ‘’सात स्वर, तीन स्थान, चार वर्ण, छह अलंकार, दो काकु और छह अंग।’’7 अतः इन उपकरण से नाटक में संवाद अधिक मर्मस्पर्शी हो जाते है।
नाटककार ने नाटकों में वाचिक अभिनय का प्रयोग किया है। जिससे उनकी अभिनेयता झलकती है। मोहन राकेश के नाटकों में हर एक पात्र की शिक्षा, प्रसंग के अनुरूप भाषा का प्रयोग करते हैं। राकेष का ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक ऐतिहासिकता के संबंधित होने के कारण उसकी शब्दावली कुम्भ, धारासार, तल्प, अंशुक, र्भत्सना, सामुद्रिक, पार्वत्य भूमि, विलोम, उपादन आदि शब्द संस्कृतनिष्ठ है। तो नाटक के पात्र के अनुरूप उनकी वार्तालाप का ढ़ंग परिवर्तन होता है। इस नाटक के तीसरे अंक में जब कालिदास कश्मीर की राजपद छोड़कर मल्लिका को मिलने के लिए आता है। तो उसके मुख से कोई बहुत बड़ा पराक्रम करने वाली वाणी नहीं थी। उसके विलोम के शुरुआत के दिनों के जिस प्रकार से बात करता था वह स्वर भी नहीं था। जब कालिदास ने मल्लिका के सामने उपस्थित होता है तब उसके स्वर में पश्चाताप भरे शब्द थे। कालिदास को कवि के रूप में जीवन-यापन करना है न की एक शासक के रूप में। इन दोनों रूप में उसका जीवन रहा है तब भी अभिनय में अंतर है। कालिदास ने मल्लिका के सामने आता है उसे हर्ष होता है लेकिन मल्लिका से बातें पहले जैसी नहीं होती। क्योंकि समय किसी का गुलाम नहीं होता। समय के साथ मनुष्य बदल जाते हैं। यथा-
‘‘कालिदास : बहुत दिन इधर-उधर भटकने के बाद यहाँ आया हूँ। कश्मीर जाते हुए जिस कारण से
नहीं आया था, आज उसी कारण से आया हूँ।
मल्लिका : आर्य मातुल से आज ही पता चला था कि तुमने कश्मीर छोड़ दिया है।
कालिदास : हाँ, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूँ जो वर्षों से मुझे कसता रहा है। कश्मीर में लोग समझते हैं कि मैंने संन्यास ले लिया है। परन्तु मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ जिससे पुनः कालिदास के कलेवर में जी सकूँ। एक आकर्षण सदा मुझे उस सूत्र की ओर खींचता था जिसे तोड़कर मैं यहाँ से गया था। यहाँ की एक-एक वस्तु में जो आत्मीयता थी, वह यहाँ से जाकर मुझे कहीं नहीं मिली। मुझे यहाँ की एक-एक वस्तु के रूप और आकार का स्मरण है। (फिर प्रकोष्ठ में आसपास देखता है।) कुम्भ, बाघ-छाल, कुशा, दीपक, गेरू की आकृतियाँ… और तुम्हारी आँखें। जाने के दिन तुम्हारी आँखों का जो रूप देखा था, वह आज तक मेरी स्मृति में अंकित है। मैं आपने को विश्वास दिलाता रहा हूँ कि कभी भी लौटकर आऊँ, यहाँ सक कुछ वैसा ही होगा।’’8
उक्त कथन से स्पष्ट होता है कि कश्मीर के कार्यकलाप से उब गए है। अब उन्हें शासक नहीं रहना। वह आम जीवन बिताने चाहते हैं वह पुनः मल्लिका के साथ समय गुजरना चाहते है। लेकिन समय के साथ सभी चीजें बदल गई है। इसलिए प्रकोष्ठ में तीक्ष्ण नज़र से देखता है। यहाँ पर उसके संवाद में प्रसाद (मानसिक शांति, हर्ष) गुण भरा है।
राकेश के ‘लहरों के राजहंस’ नाटक में वाचिक अभिनय में ओज, प्रसाद, माधुर्य कुट-कुट के भरा है। सुन्दरी कपिलवस्तु की राजवधु है। उसमें राजसी दर्प अधिक ही भरा है। नाटक के तृतीय अंक में नन्द के केश काट दिए है। सुन्दरी के माथे पर नन्द के विशेषक गीला करने का प्रयास करता है लेकिन सुन्दरी हड़बड़कर उठ जाती है। यहां पर का संवाद वाचिक अभिनय का उत्तम उदाहरण है।
आहार्य अभिनय :
संस्कृत काल से वर्तमान काल तक वेश-भूषा को ध्यान में रखकर नाटक लिखा जाता है। नाटक के पात्रों की वेश-भूषा कैसे हो वह पात्र के स्थिति या उसका किस प्रकार अभिनय है इस पर संबंधित होता है। किसी अभिनेता की नाटक में क्या भूमिका है उस पर उसकी वेश-भूषा निर्भर होती है। वेश-भूषा के संबंध में बलवंत गार्गी लिखते हैं- ‘‘वेश-भूषा और श्रृंगार प्रसाधन में रंगों, मुकुटों, आभूषणों, अलंकारों का बहुत सूक्ष्मता से ध्यान रखा जाता है। देवताओं या अप्सराओं के मुख चंदन के रंग के होते हैं। वेश-भूषा के विशेषज्ञ को किसी विश्वकोश रचयिता की भाँति पात्रों की श्रेणियों, जातियों, स्वभाव, पदवी और काल तथा स्थान का पूरा-पूरा ज्ञान अपेक्षित होना चाहिए। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के मुख और वर्ण और शूद्रों के श्यामवर्ण होते हैं। भिक्षुओं का चेहरा सफाचट, राजाओं और सभासदों की दाढ़ी-मूँछ तराशी हुई और तपस्वी और अघोरी जटा जूट धारी होते हैं।’’9 आहार्य से तात्पर्य है कि कृत्रिम, नैमिन्निक, साभिप्राय और श्रृंगार या आभूषण से संप्रेषित होता है। अभिनय में अभिनेता जो मूल ‘स्वभाव’ को छोड़कर ‘परभाव’ को ग्रहण करता है वह आहार्य में ही संपन्न होती है। आहार्य अभिनय में स्वयं को दूसरे रूप में ढालना बड़ा जोखिम का कार्य है। इस आहार्य से तात्पर्य है कि अभिनेता या अन्य पात्रों को जिस प्रकार का अभिनय है तो उसे उस वेश-भूषा को ढालना होता है। तभी दर्शकों पर उसका अधिक मात्रा में प्रभाव होता है।
नाटककार ने नाटकों में आहार्य अभिनेयता के कारण नाटक के चरित्र बरसों बाद भी याद में रहते हैं। आहार्य अभिनेयता के अंतर्गत पात्रों की वेश-भूषा, अभूषणों, वस्त्रों आदि रूपसज्जा का उल्लेख मिलता है। शरीर के विविध रंगों से सजाने की पद्धतियाँ इसी में रहती है। नाटक में पात्रों की योग्य वेश-भूषा से दर्शकों के हृदय में घर कर जाते हैं। उसका अतिरेक या ठीक से वेश-भूषा नहीं बनी तो हँसी मजाक का कारण भी बन जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में मल्लिका, कालिदास, विलोम, दन्तुल, प्रियंगुमंजरी आदि की वेश-भूषा अलग-अलग है। नाटक में वेश-भूषा का अधिक महत्व रहता है। नाटक के प्रथम अंक में जब दन्तुल ने हारिण शावक को बाण से घायल किया है और कालिदास, मल्लिका उसे उठकार लाते हैं। तभी का संवाद आहार्य अभिनय को स्पष्ट करने में सक्षम है। यथा-
‘‘कालिदास : देख रहा हूँ कि तुम इस प्रदेश के निवासी नहीं हो।
दन्तुल : मैं तुम्हारी दृष्टि की प्रशंसा करता हूँ। मेरी वेश-भूषा ही इस बात का परिचय
देती है कि मैं यहाँ का निवासी नहीं हूँ।
कालिदास : मैं तुम्हारी वेश-भूषा को देखकर नहीं कह रहा।
दन्तुल : तो क्या मेरे ललाट की रेखाओं को देखकर ? जान पड़ता है चोरी के अतिरिक्त
सामुद्रिक का भी अभ्यास करते हो।
मल्लिका : तुम्हें ऐसा लाँछन लगाते लज्जा नहीं आती ?
दन्तुल : क्षमा चाहता हूँ देवी ? परन्तु यह हरिणशावक, जिसे बाँहों में लिए हैं, मेरे बाण
से आहत हुआ है। इसलिए यह मेरी सम्पत्ति है। मेरी सम्पत्ति मुझे लौटा तो
देंगी ?’’10
इस संवाद से स्पष्ट होता है कि दन्तुल की वेश-भूषा से स्पष्ट होता है कि वह एक राजपुरुष की वेश-भूषा है। कालिदास और मल्लिका की तुलना में अधिक सुंदर है। दन्तुल के वाणी में अधिकार की भाषा और क्षमा का स्वर भी है तो कालिदास और मल्लिका के भाषा में प्रेम की भाषा समझा रहे है। इन तीनों के आहार्य अभिनय से स्पष्ट होता है कि कौन किस भूमि से जुड़ा है।
सात्विक अभिनय :
‘सात्विक’ शब्द ‘सत्व’ से बना है। ‘सत्व’ गुण से पूर्ण होने का भाव होता है। इस शब्द के अन्य अर्थ है- प्रकृति, सहज स्वभाव, जीवन शक्ति, चेतना आदि। सात्विक भाव से तात्पर्य उन भावों से है जो प्रेरणा से सहज, सरल रूप से उत्पन्न होते हैं। अनुभव से तात्पर्य आश्रयगत आलंबन की उन चेष्टाओं से है, जिनसे उसके मन में जागृत भाव की सामाजिक अनुभूति होती है। सात्विक भावों की संख्या आठ मानी गई है। यथा- स्वेद (क्रोध, भय, हर्ष, लज्जा, दुख, श्रम, ताप, चोट, व्यायाम आदि से रोप कूपों में जल बिन्दुओं का प्रकट होना ही स्वेद है।), कंप (शीत, भय, हर्ष, क्रोध आदि के कारण शरीर काँपना ही कंप है।), रोमांच (भय, शीत, हर्ष, क्रोध, रोग आदि से शरीर के रोमों का उठ जाना ही ‘रोमांच’ है।), स्तभ (हर्ष, विषाद, भय, लज्जा, विस्मय आदि के कारण अंगों के संचालन में जो अवरोध उत्पन्न हो जाता है उसे ‘स्तंभ’ कहा गया है।), स्वरभंग (भय, हर्ष, क्रोध, वार्धक्य, रोग, कण्ठ से सूखने वाणी का खण्डित हो जाना ही स्वर भंग है।), अश्रु (क्रोध, आँखों में धुआँ लगने से, भय से, शोक से और आनन्द के आवेग से आँखों में जल बिंदुओं का आ जाना ही अश्रु है।), प्रलय (अधिक मेहनत, मूर्छा, भय, निद्रा, गंभीर चोट आदि से शरीर चेष्टाहीन हो जाना ही ‘प्रलय’ है।), वैवर्ण्य (शीत, क्रोध, भय, श्रम, रोग, क्लेश, ताप आदि से मुख का रंग बदल जाना ही वैवर्ण्य है।)। इस योग से उत्पन्न वे चेष्टाएं जिस पर हमारा वश नहीं होता उसे सात्विक अनुभव कहा जाता है। सात्विक अभिनय के लिए आठ प्रकारों से ही गुजरकर जाना पड़ता है। मेरा अनुमान है कि ‘सात्विक अभिनय’ में सबसे कठिन ‘आँसू’ अभिनय है। क्योंकि हँसाना तो ठीक है लेकिन सामने वाले को रूलाना बहुत ही कठिन कार्य है।
नाटककार ने सात्विक अभिनेय प्रयोग नाटकों में बडे ही कुशलता से किया है। मोहन राकेश के नाटकों में सात्विक अभिनेय प्रयोग हुआ है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक में जब कालिदास उज्जयिनी चला जाता है तो उसकी यादों में मल्लिका ने न जाने कितने अश्रु बहाएं है। मल्लिका कालिदास पर प्रेम करती थी। वह कालिदास का कवि के रूप में नाम देखना चाहती थी। इसलिए वह उज्जयिनी भेजना उचित समझती है। इस नाटक में सात्विक अभिनेय का प्रयोग मल्लिका के चरित्र के माध्यम से अधिक हुआ है। प्रस्तुत नाटक के द्वितीय अंक में जब मल्लिका को मिलने के लिए प्रियंगु आती है और मल्लिका से बातों-बातों में विवाह के लिए अनुनासिक और अनुस्वार का नाम लेती है। यह नाम मल्लिका सुनकर आँखों में आँसू आ जाते हैं। यथा-
‘‘प्रियंगु : सम्भवतः तुम दोनों में से किसी को भी अपने योग्य नहीं समझती। परन्तु राज्य में ये दो ही
नहीं, और भी अनेक अधिकारी हैं। मेरे साथ चलो। तुम जिससे भी चाहोगी… मल्लिका आसन
पर बैठ जाती है और रुँधे आवेश से अपना होंठ काट लेती है।
मल्लिका: इस विषय की चर्चा छोड़ दीजिए। (गला रुँध जाने से शब्द स्पष्ट ध्वनित नहीं होते। अन्दर
का द्वार खुलता है और अम्बिका रोग और आवेश के कारण शिथिल और काँपती-सी बाहर
आकर जैसे अपने को सहेजने के लिए रुकती है।)
प्रियंगु : क्यों ? तुम्हारे मन में कल्पना नहीं है कि तुम्हारा अपना घर-परिवार हो ?’’11
उक्त संवाद से स्पष्ट होता है कि जान बुझकर प्रियंगु ने मल्लिका के विवाह के बारे में विषय छेड़ती है। ताकि मल्लिका कालिदास को भूल जाएगी। जब प्रियंगु ने विवाह की बात की तो मल्लिका की स्पष्ट ध्वनि नहीं आ रही थी, वह अंदर ही अंदर रो रही थी। इसी प्रसंग से सात्विक अभिनय उभरकर आया है।
मूक अभिनय का प्रयोग :
मोहन राकेश के सभी नाटकों का अंत मुख्य पात्र के अभिनय से होता है, जहाँ मुद्रा और बिंब संवाद से भी अधिक कुछ कह जाते हैं। उदाहरण के लिए मल्लिका कालिदास को झरोखे से जाते हुए देखती है। उसके पैर बाहर बढ़ने लगते हैं, परंतु बच्ची को बाहों में देखकर वह वहीं जकड़ जाती है। नन्द मूक और स्तब्ध दिखाई देता है और फिर आहत भाव से चला जाता है। सुन्दरी भी कुछ नहीं कहती, केवल सिसकते हुए हथेलियों पर औंधी हो जाती है। ‘आधे अधूरे’ में लड़के की बाहें थामें महेंद्रनाथ की धुँधली आकृति घर के अंदर प्रवेश करती दिखाई देती है। ये दृश्य बिंब अनकहे शब्दों से बहुत कुछ कहते हैं। शब्दों के बीच के मूकाभिनय को लेकर राकेश प्रयोगशील थे। रंगमंच को जहाँ वे शब्द को माध्यम मानते थे, वहाँ शब्दों के अतिरिक्त मोह, उनकी बाढ़ को रंगानुभव के लिए बाधक भी मानते थे। इसलिए उन्होंने अपने नाटकों में ‘शब्द और मूक’ अभिनय का सुंदर समन्वय किया है। उन्हीं के शब्दों में ‘‘नाटकीय रंगमंच के अंतर्गत मूक अभिनय भी लंबी निःशब्दता की तरह शब्दों के बीच एक कड़ी है। शब्दों से उद्भूत बिंब में से एक बिंब यह भी हो सकता है, होता है। हमारा भाषा संस्कार इस बात का प्रमाण है कि शब्दों की यात्रा में बहुत बार बहुत कुछ अनकहे शब्दों द्वारा कहा जाता है।’’12 शब्दों के लेकर विविध प्रयोग राकेश के प्रयोगधर्मी का स्तर प्रदान करता है। राकेश के ‘आधे अधूरे’ नाटक में भी कई अनकहे शब्द हैं जो मूक अभिनय व्यक्त करने में सक्षम है।
मोहन राकेश के ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे अधूरे’ नाटक में मूक अभिनय का प्रयोग प्रचूर मात्रा में हुआ है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक के तीसरे अंक में अंत में कालिदास का अभिनय मूक अभिनय अंतर्गत आत है। कालिदास सब कुछ छोड़कर मल्लिका के साथ जीवन अथ से आरंभ करना चाहते हैं। लेकिन समय बहुत ही बलवान होता है। कालिदास और मल्लिका के अंतिम संवाद से जब समाप्त हो जाता है अभिनय कालिदास का अभिनय मूक अभिनय है-
‘‘मल्लिका : तुम कह रहे थे कि तुम फिर अथ से आरम्भ करना चाहते हो। (कालिदास निःश्वास
छोड़ता है।)
कालिदास : मैंने कहा था कि मैं अथ से आरंभ करना चाहता हूँ। यह संभवतः इच्छा का समय के
साथ द्वन्द्व था। परंतु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है क्योंकि…।
मल्लिका : क्योंकि ?
(फिर अन्दर से बच्ची के रोने का शब्द सुनायी देता है। मल्लिका झट से अन्दर चली
जाती है। कालिदास ग्रंथ आसन पर रखता हुआ जैसे अपने को उत्तर देता है।)
कालिदास : क्योंकि वह प्रतीक्षा नहीं करता।
(बिजली चमकती है और मेघ-गर्जन सुनायी देता है। कालिदास एक बार चारों ओर
देखता है, फिर झरोखे के पास चला जाता है। वर्षा पड़ने लगती है। वह झरोखे के पास
आकर ग्रंथ को एक बार फिर उठाकर देखता है और रख देता है। फिर एक दृष्टि
अन्दर की ओर डालकर ड्योढ़ी में चला जाता है। क्षण-भर सोचता-सा वहाँ रुका रहता
है। फिर बाहर से दोनों किवाड़ मिला देता है। वर्षा और मेघ-गर्जन का शब्द बढ़ जाता
है। कुछ क्षणों के बाद मल्लिका बच्ची को वक्ष से सटाए अन्दर आती है और
कालिदास को न देखकर दौड़ती-सी झरोके के पास चली आती है।)
मल्लिका : कालिदास ! (उसी तरह झरोखे के पास से आकर ड्योढ़ी से किवाड़ खोल देती है।)
कालिदास !
(पैर बाहर की ओर बढ़ने लगते हैं परन्तु बच्ची को बाँहों में देखकर जैसे वहीं जकड़
जाती है। फिर टूटी-सी आकर आसन पर बैठ जाती है और बच्ची को और साथ
सटाकर रोती हुई उसे चूमने लगती है। बिजली बार-बार चमकती है और मेघ-गर्जन
सुनाई देता रहता है।)’’13
उक्त संवाद से स्पष्ट होता है कि कालिदास सब कुछ त्यागकर मल्लिका के साथ फिर से जीवन शुरू करना चाहता है लेकिन बच्ची के रोने के आवाज से कालिदास समझ जाता है। मेघ गर्जना होती है कालिदास के पैर बाहर बढ़ने लगते हैं। अंत में कालिदास का संवाद न होकर मंच से चला जाता है। यहाँ पर मूक अभिनय का प्रयोग नाटककार ने बड़ी कुशलता से किया है।
अतः कह सकते हैं कि राकेश ने ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ नाटक को ऐतिहासिक झरोके से आधुनिक जीवन की विसंगतियों को दर्शकों या पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। तो ‘आधे अधूरे’ नाटक में मध्यवर्गीय परिवार की गाथा है। इन नाटकों में कायिक, वाचिक, आहार्य, सात्विक और मूक अभिनय प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत नाटकों में राकेश ने हिंदी रंगमंच को एक दिशा दी है। मंच के दृष्टि से अनुपम योजना की है। जैसे- मंचीय उपकरण, बाक्स सेट, अंक विभाजन, ध्वनि योजना, प्रकाश योजना, संवादों की रचना, सुक्तियों का प्रयोग… अधूरे संवाद, बिंब योजना आदि के कारण अभिनेयता में सजीवता आयी है।
संदर्भ ग्रंथ सूची :
सुशील कुमार ‘नवीन’
कोरोना ने फिलहाल देश के हालात खराब करके रख दिए हैं। समाज का हर वर्ग पटरी पर है। व्यापार-कारोबार सब प्रभावित। अस्पतालों में न वेंटीलेटर मिल पा रहे हैं न ऑक्सीजन। इलाज के लिए बेड मिलना तो दुरास्वप्न सा है। गण और तंत्र भले ही अपना पूरा जोर लगाए हुए हो, पर ‘सिचुएशन अंडर कंट्रोल’ सुनने को अभी कान तरस ही रहे हैं। खतरे को भांपने के बावजूद भयावह बनी इस स्थिति के लिए आखिरकार जिम्मेदार कौन है?
सबका यही रटा रटाया जवाब मिलेगा। सरकारें नाकाम हैं। प्रशासन की लापरवाही है। प्रबन्धों की कमी है। इतिहास गवाह है। अमूमन हर विकट परिस्थिति के पैदा होने पर यही जवाब सुनने को मिलता आया है। पर क्या इन्हें ही दोषी ठहराते हुए अपने आप से पल्ला झाड़ लेना उचित रहेगा ?
कोरोना की दूसरी लहर लगातार चरमोंत्कर्ष पर है। रोजाना किसी न किसी परिचित के कोरोना संक्रमण के चलते मृत्युलोक गमन के समाचार मन ही मन महामारी की भयावहता को और बढ़ा रहे हैं। रही सही कसर ये युट्यूबिया चैनल लाइव परफोरमेंस से नहीं छोड़ रहे हैं। जितना कोरोना नहीं डरा रहा उससे ज्यादा ये डराने पर तुले हैं। कोरोना मरीजों के लिए बुरी खबर, शहर के सभी अस्पतालों में नहों है कोई बेड खाली। ऑक्सीजन की कमी पर अस्पतालों ने किए हाथ खड़े। आदि टैगलाइन दिल की धड़कनें और बढ़ा जाती हैं।
खैर छोड़िए, ये रोना। अब बात इन हालातों की जिम्मेदारी की। समझदार लोगों का मानना है कि इसके लिए चुनाव और रैलियां सबसे बड़ी जिम्मेदार हैं। भलेमानसों, जब पता है कि सामने शेर मुहं बाए खड़ा है तो पास जाने का खतरा मोल ही क्यों लो। नेताओं की ती रोजीरोटी ही अंधभक्त जनता है। ‘ बुलाने का है, पर जाने का नहीं’ बार-बार सुना और पढ़ा होगा। फिर इन पर दोष क्यों मढ रहे हो। बुलाने का उनका कर्म था, जो उन्होंने किया। खतरा भांप नहीं जाने का, तुम्हारा कर्म था, जिससे तुम पीछे हट गए। जलते अंगारों पर पहलवानी का शौक तुम्हें ही था। झुलसोगे ही।
और सुनो। एक साल से लगातार ‘कोरोना महामारी है, ध्यान रहे, मास्क हटे नहीं, दो गज की रखे दूरी’ के लिखे सन्देश पढ़े नही तो सुने तो होंगे। चालान काट-काटकर तुम्हे आगाह भी किया, पर क्या तुम माने। वीर तुम बढ़े चलो, धीर तुम बढ़े चलो..की लय में लगातार लापरवाही की सीढ़ियां तुमने ही चढ़ीं हैं। अब बात ज्यादा बढ़ गई तो जिम्मेदार और हो गए।
चलो मान लेते हैं कि हम जिम्मेदार नहीं। पर क्या हमनें जिम्मेदारी निभाई। वैक्सीन तक को चुरा रहे हैं। कालाबाजारी करने वाले क्या कोई दूसरे थोड़े ही है, हमारे ही भाई-बन्धु हैं। शर्म की बात है श्मशान तक में रेट लिस्ट चस्पा हो गई है। एम्बुलेंस के लिए मनमाने चार्ज वसूले जा रहे हैं। ऑक्सीजन सिलेंडर हजारों देने के बाद भी बमुश्किल प्राप्त हो पा रहा है। लोकडाउन की संभावना के चलते जरूरत की चीजों की जमाखोरी तक हम शुरू कर चुके हैं। ठेकों के आगे भी लंबी लाइन लगाने वाले कोई और थोड़े ही है। इसके लिए किसे दोषी ठहराओगे।
सीधी सी बात है कि इस महमारी के फैलाव में गण और तंत्र का बराबर योगदान है। तूफान से पहले की खामोशी को समझ नहीं पाए। मन ही मन इसे विदाई पार्टी दे चुके थे। पर ये फिर लौट आया। फिलहाल समय बहसबाजी छोड़ एकजुटता के साथ इससे लड़ने का है। संयम रखें। हौसला रखें। एक-दूसरे के सहयोगी बनें। हड़बड़ाहट मत करें। नियमों का पालन करें। पहले भी इससे निपटे थे, अब भी निपट लेंगे।
लेखक:
सुशील कुमार ‘नवीन’, हिसार (हरियाणा)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।
96717-26237
आत्मबल
(जब जीवन में और निराशा घेर लेती है तब हमारे अपने भी हम से विमुख हो जाते हैं परंतु किसी भी स्थिति में मनुष्य को अपना आत्मबल नहीं खोना चाहिए यदि आत्मबल है तो वह अनेक झंझावातों से जीत सकता है और अपने सुनहरे भविष्य का निर्माण कर सकता है। सामाजिक विडंबना ओ में गिरे मनुष्य को निराशा से आशा की किरण दिखाती हुई, समर्पित है यह कविता)
आत्मबल
एक दिनअचानक
मुझसे कहा गया
सब खत्म हो गया
फूल अब धूल था
जीवन अब शांत था
मौसम भी वीरान था
ठहर गया तूफान था
थम गया हो उस पल
जैसे जीवन का मूलप्राण था
लेकिन क्या ये सच था ?
क्या उसे कभी ये हक था ?
फिर टटोला उस पल को
खोली आंखें , देखा खुद को
मैं थी , जीवन था , वही समय था
सीने में भरा वही आत्मबल था
नहीं किसी को हक़ भी इतना
छिने मुझसे जो मेरा मूल था
वो मुझे तोड़ेंगे क्या ?
नहीं जिनका कोई दीन धर्म था
फिर जाना मैंने, पहचाना
स्वयं के आत्मबल को
देखा ऊपर दिनकर
जो कह रहा
नहीं मिटती है रश्मियां
तूफान से फिर जाने से
कलुषित कहां होती, सिंहनी
शियारों से घिर जाने से
इसी विश्वास के साथ
मेरी कलम है संग
सजाने लगी हूं
जीवन के सुनहरे रंग
कवयित्री परिचय –
मीनाक्षी डबास “मन”
प्रवक्ता (हिन्दी)
राजकीय सह शिक्षा विद्यालय पश्चिम विहार शिक्षा निदेशालय दिल्ली भारत
Mail Id
[email protected]
माता -पिता – श्रीमती राजबाला श्री कृष्ण कुमार
प्रकाशित रचनाएं – घना कोहरा,बादल, बारिश की बूंदे, मेरी सहेलियां, मन का दरिया, खो रही पगडण्डियाँ l
उद्देश्य – हिन्दी भाषा का प्रशासनिक कार्यालयों की प्राथमिक कार्यकारी भाषा बनाने हेतु प्रचार – प्रसार l
कोरोना संकट में भारतीय संस्कृति का पुनरोदय
कोरोना संकट में कार्यरत योद्ध़ाओं का संघर्ष
हरिराम भार्गव “हिन्दी जुड़वाँ”
कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के कारण आज हम अपने- अपने घरों में बंद हैं और इस प्रकोप से बचने के लिए हम घर से बाहर भी नहीं निकलते हैं। हम अपने घरों के अंदर जिस प्रकार रह रहे हैं, उसी से ही इस कोरोना महामारी का निवारण होगा और हम सुरक्षित रह पाएंगे। परंतु इसी बीच यह बहुत ही विचारणीय विषय है कि इस वैश्विक महामारी का सामना करने के लिए हमारे देश के अनेक विभागों के सेवाकर्मी हमारे लिए देवदूत बनकर खड़े हैं और डटकर मुकाबला कर रहे हैं, जो कोरोना से पीड़ित हैं, उनकी रक्षा कर रहे हैं। और जो इस से अनजान हैं, बेघर हैं या अपने घरों से बाहर हैं, उनको घर जाने की सलाह पुलिस दे रही है। घरों से निकलने वाला कूडा़- कचरा इत्यादि सफाई कर्मी उठा रहे हैं वहीं घरों में रोजाना बिजली- पानी की व्यवस्था व सब्जी विक्रेता की व्यवस्था और जो गरीब है जिनके पास खाना नहीं है, उनकी खाने पीने की व्यवस्था प्रशासन कर रहा है। उन सभी प्रशासनिक सरकारी गैर-सरकारी या निजी मानव कल्याण करने वाले मानवता के धनी हैं, जो हमारे लिए घरों से बाहर अपनी जान की परवाह किये बिना सेवा पर हैं। उनका वर्तमान में इन विकट परिस्थितियों में अमूल्य योगदान है। जिसका कोई नहीं है, उनकी रक्षा- सुरक्षा हमारे देश के कर्मचारी कर रहे हैं। जिनमें प्रमुख हैं- चिकित्सक, पुलिस, सफाई कर्मी, जल बोर्ड सेवाकर्मी, शिक्षक, पटवारी, अन्य सब्जी विक्रेता इन विकट परिस्थितियों में अमूल्य योगदान दे रहे हैं।
देवदूत चिकित्सक – लोग देवता के रूप में आज चिकित्सक देवदूत बनकर कोरोना पीड़ित पीड़ितों का इलाज कर रहे हैं। चिकित्सकों ने अपनी जान की परवाह करनी छोड़ दी है। उदाहरण में दिल्ली के एम्स/ सफदरजंग जैसे चिकित्सालय की बात करें तो यहाँ के कर्मचारी दिनभर पूरी निष्ठा से अपना काम करें हैं और जबकि वहीं छोटे से छोटे स्तर पर गाँव की एक- एक एएनएम महिला भी अपनी पूरी जिम्मेदारी व निष्ठा से निभाती हुई अपने गांव की कोरोना से बचाव की रक्षा कर रही है। इस आपातकाल की घड़ी में रोग को भगाने के लिए इनका योगदान सदैव अविस्मरणीय रहेगा।
देवरक्षक पुलिस और सेना- हमारी पुलिस और सेना का योगदान आज देवरक्षक का स्वरूप हमें देखने मिल रहा है्र। अधिकतर पुलिस का नाम आते ही हमारे मन में पुलिस का एक चेहरा भी कभी-कभी सामने आ जाता है। जिससे भयभीत होते हैं और पुलिस को यहाँ तक कि रिश्वतखोर भी कह देते हैं। जबकि हम अपने यातायात मापदंडों को पूरा नहीं कर पाते हैं और दोष पुलिस को देते हैं। सेना का सच्चा स्वरूप आज हमारे पूरे विश्व के सामने प्रस्तुत है। आज पुलिस का हर एक-एक कर्मी हर एक-एक गली मोहल्ले चौराहे पर खड़ा है और हमारे लिए हमारी सुरक्षा के लिए हमारे देश के लिए अपनी जान दाँव पर लगाते हुए जीवन को समर्पित करते हुए, की गई दूसरों की रक्षा सबसे बड़ा धर्म है यह आज सेना के साथ-साथ पुलिस ने भी साबित कर दिया पुलिस का यह योगदान वंदनीय है।
सफाई कर्मियों की अनन्य सेवा– सफाई कर्मी हमारे देश में सबसे महŸवपूर्ण एक अंग है। क्योंकि घरों से निकलने वाला कूड़ा- कचरा यदि न उठाया जाए तो गंदगी फैलती है। इस गंदगी को साफ करने के लिए सफाई कर्मी भी इस आपातकालीन परिस्थिति में अपने काम पर हैं और पूरी निष्ठा से सेवा दे रहे हैं।
जल और विद्युत विभाग कर्मियों की अनन्य सेवा- जल और विद्युत विभाग कर्मी भी अपनी जान की परवाह न करते हुए, इस आपातकाल में अपना योगदान पूरी निष्ठा से सेवा देते हुए कर रहे हैं। जल और विद्युत विभाग कर्मी शहर हो या गाँव, कस्बा हो किसी भी क्षेत्र में चाहे वह सरकारी निकाय हो चाहे वह गैर सरकारी निकाय हर जगह बिजली और पानी की सुचारू रूप से पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए इसलिए सभी प्रदेशों के जल बोर्ड के सभी सेवाकर्मी भी अपने- अपने काम पर हैं। और पूरी निष्ठा से अपना काम कर रहे हैं। हमारे भारतवर्ष में इन्हीं कर्मचारियों की वजह से सभी के घरों में पानी की किल्लत नहीं आई। क्योंकि इनकी लग्न और सेवा ही सच्ची देशभक्ति है। बिजली बोर्ड भी एक अपनी निजी निकाय है। अपने सभी अधिकारी कर्मचारी सेवा करते हुए अपने- अपने काम पर हैं। और सुचारू रूप से अपनी सेवा दे रहे हैं। क्योंकि प्रत्येक क्षेत्र, गाँव, कस्बे में बिजली की महŸा आवश्यकता है। जबकि जितने भी सरकारी निकाय गैर सरकारी निकाय या अन्य सरकारी तंत्र जो विद्युत विभाग द्वारा चलते हैं। वहाँ बिजली की आवश्यकता है, अतः पानी और बिजली कर्मियों सेवा कर्मियों का योगदान अनन्य है।
खाद्य व दवा आपूर्ति करने/ बेचने वालों का योगदान- फल विक्रेता सब्जी बेचने वाले अपनी जान दाँव पर लगाकर प्रत्येक घरों तक सब्जी पहुंचा रहे हैं। राशन, किरयाना और मेडिकल की दुकान वाले निर्धारित विभागीय आदेश का पालन कर रहे हैं। ताकि आम जनता को परेशानी न हो। सभी को जरूरी सामान सुलभ हो सके।
प्रशासनिक विभाग के विभिन्न निकायों के कर्मचारियों की अप्रत्यक्ष रूप से अपनी- अपनी सेवा-यह योगदान प्रशासन के अन्य निकाय के सेवाकर्मी /प्रशासनिक विभाग जैसे शिक्षा विभाग, राजस्व (पटवारी) विभाग, डाक विभाग सभी कर्मचारी अप्रत्यक्ष रूप से अपनी- अपनी सेवा दे रहे हैं। उदाहरण में दिल्ली सरकार द्वारा जो गरीब लोग हैं, जिनके घर अगर खाना नहीं बन पा रहा है, तो उन्हें सुविधा देने के लिए कई रिलीफ फूड कैंप बनाए गए हैं। यहाँ कैंप में सुबह और शाम दोनों समय गरीबों को भोजन करवाया जा रहा है/ वितरण किया जा रहा है। भोजन के वितरण व्यवस्था में अनेक शिक्षककर्मी अपने- अपने काम पर डटे हुए हैं। और इस आपातकालीन कोरोना की महामारी में भयंकर परिस्थिति में उनका यह अप्रत्यक्ष योगदान सारनाथ के चौथे शेर की तरह है जो दिखाई तो नहीं दे रहा, परंतु सम्माननीय है।
सरकार और सरकार के चुने हुए प्रतिनिधियों का योगदान- सरकारी निकायों के अतिरिक्त सरकार के प्रतिनिधि भी इस महामारी में अपना- अपना अमिट योगदान दे रहे हैं। वे अपने-अपने क्षेत्रों में भूखे या पीड़ित लोग या बीमार इत्यादि के प्रति पूरी व्यवस्था सुचारू रूप से करते हुए उन्हें खाना, चिकित्सा, स्वास्थ्य, दवाई सारी व्यवस्था किए हुए हैं। हम समझ सकते हैं कि इस संकट की घड़ी में पार्टी से परे बिना भेदभाव के सभी कर्मियों/मंत्रियों का अपना- अपना योगदान सराहनीय है।
गुरुद्वारों का लाखों गरीबों के लिए भोजन का योगदान- धार्मिक दृष्टि से मंदिरों में, गुरुद्वारों का योगदान धार्मिक दृष्टि से देखा जाए तो लोग अपने धर्म और मत को भुलाकर गरीबों के लिए भोजन बनाया जा रहा है। उनकी रक्षा- सुरक्षा की जा रही है। उदाहरण में दिल्ली में लगभग सभी गुरुद्वारों में 5,00,000 लोगों के लिए रोजाना भोजन बनता है। इस योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। क्योंकि इस आपातकालीन परिस्थिति में इतने अधिक लोगों का भोजन की व्यवस्था अगर सरकार करती है। चाहे वह केंद्र की सरकार और राज्य सरकार को यह बहुत बड़ी चुनौती थी। परंतु शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी, बंगला साहिब दिल्ली ने आगे आकर लगभग लाख लोगों को खाने की व्यवस्था करवाई है और नियमित रोजाना करवाई जा रही है और इस व्यवस्था में कानूनी प्रावधान का पूरा पालन किया गया है। इसके अतिरिक्त सभी गुरुद्वारों में पाँच लाख लोगांं का भोजन बन रहा है और वितरण किया जा रहा है। इसके साथ अनेक एनजीओ भी आगे आए हैं और उन्होंने अपना योगदान अनेक रिलीफ कैंप बनाकर भोजन सामग्री बना कर लोगों को खाने की व्यवस्था करवाई है।
निष्कर्ष में हम समझ सकते हैं कि यहाँ मानव कल्याण का परिचय दिया गया है। स्पष्ट है कि इस आपातकालीन स्थिति में आज पूरे विश्व में हमारे देश में कोरोना जैसी महामारी पर विजय प्राप्त कर ली है। क्योंकि विकसित कहे जाने वाले अपने आप को सुदृढ़ मानने वाले अमेरिका, रूस जैसे देशों के भी आज हाथ खड़े हो गए हैं। जबकि हमारा भारत देश की समस्त सरकारी निकाय, हमारे देश के समस्त सेवाकर्मी और गैर सरकारी सेवाकर्मी सभी का अपना- अपना और उन सभी के परिपेक्ष्य में ही हमने कोरोना पर सुनिश्चित विजय प्राप्त करेंगे।
हरिराम भार्गव “हिन्दी जुड़वाँ”
हिन्दी शिक्षक, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली
9829960782
माता-पिता- श्रीमती गौरां देवी- श्री कालूराम भार्गव
प्रकाशित रचनाएं-
जलियांवाला बाग- दीर्घ कविता (द्वय लेखन जुड़वाँ भाई हेतराम भार्गव के साथ- खंड काव्य)
मैं हिन्दी हूँ- राष्ट्रभाषा को समर्पित महाकाव्य (द्वय लेखन जुड़वाँ भाई हेतराम भार्गव के साथ- -महाकाव्य)
साहित्य सम्मान –
आकाशवाणी वार्ता – सिटी कॉटन चेनल सूरतगढ, राजस्थान भारत
काव्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य-
वीर पंजाब की धरती (द्वय लेखन जुड़वाँ भाई हेतराम भार्गव के साथ- – महाकाव्य)
तुम क्यों मौन हो (द्वय लेखन जुड़वाँ भाई हेतराम भार्गव के साथ- -खंड काव्य)
उद्देश्य- हिंदी को लोकप्रिय राष्ट्रभाषा बनाना।
माँ
(माँ, स्वयं विधाता का प्रतिरूप है और इस संसार में नारी शक्ति – माँ पर दुनियाभर में अनंत काव्य सृजन किए गए हैं, किए जा रहे हैं। उन्हीं में से मेरी कविता के रूप में सभी माताओं को यह कविता समर्पित है)
जब दुनिया में आई सहमी डरी थी घबराई
मां का स्पर्श पाकर अपार सुकून था पाया
मां ने मुझे सीने लगाकर पीड़ा को था भुलाया
दुग्धामृत पीकर और पिलाकर दोनों हुए थे कृतार्थ
मां के आंचल में विराजते स्वयं विधाता परमार्थ
मां जब भी मुझको दूध पिलाती
पल्लू से ढक कर दुनिया की बुरी नजर से बचाती
सिर पर प्यार भरा हाथ फेरती, एक टक मैं उन्हें निहारती रहती
जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई, मां की चिंता को बढ़ाया
घर परिवार की मर्यादा सत्य धैर्य का पाठ पढ़ाया
मेरा जीवन कर्ज है तेरा, जो कभी चुका ना पाऊं
जब भी पुनर्जन्म पाऊं, तेरी कोख तेरा आंचल पाऊं
जब भी तुम्हें देखती हूं मंत्रमुग्ध हो जाती हूं
तुम इतनी अच्छी और तुम इतनी सच्ची हो मां
तुम्हें लिखना संभव नहीं, मेरे शब्दों में इतनी जान नहीं मां
मेरी मां क्या है, मैं ही जानूं मेरी इच्छा है
यही मेरी मां की परछाई बनूं
मां मेरे पास रहे, ना रहे मैं कहीं भी रहूं
आपका आशीर्वाद रूप सदा मेरे साथ रहे
इतना मान सम्मान दो अपनी माता को
औरत बनाते वक्त अफसोस ना हो विधाता को
धन्य हो, हे ईश्वर धरती पर अपना एक रूप मां का बनाया
मैंने तो समूचा संसार अपनी मां में पाया
कवयित्री
पिंकी “हरि” भार्गव
माता-पिता- श्रीमती सुमित्रा देवी श्री मनीराम भार्गव
भार्गव हिंदी भवन
कराला, उत्तर पश्चिम, दिल्ली
सम्पूर्ण विश्व में पृथ्वी ही एकमात्र गृह है, जिस पर जीवन जीने के लिए सभी महत्वपूर्ण और आवश्यक परिस्थितियां उपयुक्त अवस्था में पाई जाती हैं | यही कारण है कि पृथ्वी मानवजाति, विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी और विविध प्रकार के सजीवों का भरण – पोषण करने में सक्षम है | हम भी ऐसे सजीव प्राणी हैं, जो पृथ्वी के परोपकार पर जीवित हैं |
पृथ्वी दिवस एक वार्षिक कार्यक्रम है, जो 22 अप्रैल को पर्यावरण संरक्षण के लिए समर्थन प्रदर्शित करने के लिए मनाया जाता है। यह पहली बार 22 अप्रैल 1970 को आयोजित किया गया था और इसमें अब EARTHDAY.ORG (पूर्व में अर्थ डे नेटवर्क) द्वारा विश्व स्तर पर समन्वित घटनाओं की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है।
आदिकाल से मानव ने प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करना प्रारंभ किया और विकास के पथ पर अग्रसर हुआ | अग्रगामी होती आज की आधुनिकता में मानव ने उपयोग को दोहन में शीघ्रता से परिवर्तित कर दिया है | आने वर्तमान में युवाओं और आने वाली पीढ़ियों को इन विषयों के प्रति जागरूक होना होगा, क्योंकि हम पर वर्तमान और भविष्य में अत्यधिक प्रभाव पर्यावरणीय समस्याओं से जनित ही होगा |
ऐसे कारकों को भी जानना आवश्यक है, जो प्रत्यक्ष रूप से हम पर प्रभाव तो डाल रहे हैं, किन्तु हम उनके कारणों से हम अनजान हैं | उदहारण के लिए – निरंतर बढ़ते हुए तापमान का, वायुमंडल में गर्मी का बढ़ना आदि हम रोजमर्रा के जीवन में महसूस कर रहे हैं | इसका कारण है “जलवायु परिवर्तन” जो कि अब एक वृहद् स्तर की वैश्विक समस्या का रूप धारण कर चुका है | मानवीय क्रियाकलापों से जन्मी यह समस्या कार्बन फुटप्रिंट कम करने, जलाशयों का संरक्षण कर जल की आपूर्ति करने, अपशिष्ट और प्लास्टिक को न जलाने, वृक्षारोपण करने और नवीकरणीय ऊर्जा के उपयोग में वृद्धि करने से संतुलित हो सकती है |
हमारी पृथ्वी के पास सीमित मात्रा में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता है | प्राकृतिक भंडारों से हम यदि सिर्फ दोहन और उपयोग ही करते रहे तो हमें हर्जाने के रूप में प्रकृति का प्रकोप झेलना होगा | हमारे द्वारा प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग का लेखा जोखा हमें “अर्थ ओवरशूट डे” बताता है | ‘अर्थ ओवरशूट डे’ अर्थात् साल का वह दिन जब हम धरती द्वारा पूरे साल के लिए उपलब्ध कराए गए समस्त संसाधनों का उपभोग कर चुके होते हैं। साल भर के लिए उपलब्ध कराए गए संसाधन से मतलब संसाधनों की उस मात्रा से होता है जिसका पृथ्वी एक साल में पुनर्सृजन कर सकती है | दूसरे शब्दों में कहा जाए तो साल के जिस दिन यह दिवस मनाया जाता है, उस दिन के बाद से वर्ष भर मानव जितने भी ईंधन, पेयजल, कपड़ा, अनाज, मांस-मछली-अंडा आदि का उपभोग करेगा, उन्हें अपनी सहज गति में उपजाने की क्षमता पृथ्वी में नहीं है |
कोरोना महामारी के कारण विश्व आज इसस्थिति में नहीं है, कि वृहद् स्तर पर सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रमों का संचालन कर सकें या सार्वजनिक स्थानों पर पेड़ लगा सकें | किन्तु अपने घरों में सुरक्षित रहकर सिंगल यूज प्लास्टिक के त्याग, जल संरक्षण, पर्यावरण की सुरक्षा और पक्षियों के लिए दाना-पानी उपलब्ध कराने के प्रयास से संकल्पित तो हो ही सकते हैं | इस प्रकार के प्रयासों से हम अपने भविष्य की नींव मजबूत करने की दिशा में कदम बाधा सकते हैं, ताकि भविष्य में कोरोना के बाद कोई ऐसी महामारी न आए, जिससे मानवजाति का अस्तित्व संकट से घिर जाए |
लेखक – उमेश पंसारी
विद्यार्थी, युवा नेतृत्वकर्ता व समाजसेवी, एन.एस.एस. और कॉमनवेल्थ स्वर्ण पुरस्कार विजेता
जिला सीहोर, मध्य प्रदेश
मो. 8878703926, 7999899308
Email –[email protected]
हिन्दू कालेज में हमारे समय की कविता पर व्याख्यान
दिल्ली। कविता का सच दरअसल अधूरा सच होता है। कोई भी कविता पूरी तब होती है अपने अर्थ में जब पढ़ने वाला रसिक, छात्र,अध्यापक या पाठक उसमें थोड़ा सा अपना सच और अपना अर्थ मिलाता है। सुप्रसिद्ध कवि, संपादक और विचारक अशोक वाजपेयी ने उक्त विचार हिंदी साहित्य सभा हिंदू कॉलेज के वार्षिक साहित्यिक आयोजन ‘अभिधा’ के उद्घाटन सत्र में व्यक्त किए। “हमारे समय की कविता” विषय पर वाजपेयी ने वर्तमान समय का ज़िक्र करते हुए कहां कि जब आप अपने समय का जिक्र करते हैं उसी का अर्थ वर्तमान समय होता है। लेकिन कविता के वर्तमान समय की व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा कि कविता का वर्तमान समय इतना सीमित नहीं होता है क्योंकि वर्तमान से पहले भी कई कविताएं पढ़ी जा चुकी होती हैं। वर्तमान में पहले के मुकाबले एक बुनियादी अंतर को बताते हुए उन्होंने कहा कि पहले समकालीनता और आधुनिकता का दबाव नहीं था पर समय के साथ हिंदी में यह दबाव बढ़ा था कि समकालीनता, यानी अपने समय काल को व्यक्त करना है।
समकाल के बारे में वाजपेयी ने कहा कि समकाल के दो – तीन अर्थ देखे जा सकते हैं। सर्वप्रथम आजकल जो भी पूर्व मैं पढ़ा जा चुका है वह भी समकाल का ही हिस्सा था। दूसरा अर्थ यह भी बताया कि जो इस समय लिखा जा रहा हो या रचा जा रहा हो वह भी समकाल का एक हिस्सा था। समकालीनता का तीसरा अर्थ समझाते हुए उन्होंने व्यापक राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक समकाल परिस्थितियों का दबाव भी साहित्य पर देखे जाने को बताया । उन्होंने आगे जोड़ा कि आज अपने समय के साथ-साथ आत्म तथा समाज, इनको भी लिखना और एक तरह से ऐसा लिखकर अपनी समकालीनता से मुक्त होने की भी कोशिश आज थी।
उन्होंने कविता के अलग-अलग लक्ष्यों पर विचार करते हुए बताया कि कविता का एक काम याद रखना,याद दिलाना और याद को बचा कर रखना है। दुर्भाग्य से ऐसे समय आ गया है जहां ऐसी राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक शक्तियां सशक्त होते जा रहीं हैं जो यही चाहती हैं कि हम वही याद रखें जो उनके संकीर्ण लक्ष्यों को साधे और उस व्यापक याद से वंचित हो जाए जो हमारे समाज और संस्कृति की बहुलता का प्रतीक है। इसलिए कविता का यह बेहद जरूरी काम हो जाता है।
वाजपेयी ने कहा कि दिए हुए यथार्थ के साथ एक वैकल्पिक यथार्थ की कल्पना करना भी कविता का दूसरा काम है। कविता का यथार्थ बिना कल्पना के पूरा नहीं होता और पूरी तरह से हो भी नहीं सकता। उन्होंने बताया कि कविता अपने समय की सच्चाई तो दिखाती है पर कविता सपना भी दिखाती है। उन्होंने कहा कि कविता का काम मनुष्य के कुछ बुनियादी सपनों जैसे स्वतंत्रता का सपना न्याय का सपना मुक्ति का सपना आदि को सक्रिय जिंदा व सजीव रखने का भी होता है।उन्होंने बताया कि समय से बाहर जाने की हमारी इच्छा और समय को लांघने की हमारी चाहत को कविता पूरी करती है। कविता का एक काम यह भी है कि वह हमें समय की घेराबंदी से मुक्त कर दूसरे समय में ले जाए। इसको समझाते हुए उन्होंने आदिकाल की बात उठाई और यह भी जोड़ा कि कबीर और तुलसीदास के समय को छूने की कोशिश हम कविताओं से ही कर सकते हैं। कविता के गुण को बताते हुए उन्होंने कहा कि कविता ने हमेशा से प्रश्न करने की क्षमता रखी है। प्रश्नांकन की शुरुआत कविता ने उस समय की जब प्रश्न करना एक तरह से देशद्रोह के बराबर था। उन्होंने कहा कि बदलते समय और बदलते हालात से हर कविता को जूझना होता है।
वाजपेयी ने कहा कि कविता इस संसार में घटित होते हिंसा, दुख को तो व्यक्त करती ही है पर इस संसार की सुंदरता का भी वर्णन करती है। कविता संसार का गुणगान भी करती है और कविता एक ऐसा माध्यम है जिसने स्त्रियों, दलित,आदिवासी आवाज़ों को शामिल किया और यह न सिर्फ कविता को अप्रत्याशित अनुभव, संसार, जीवन छवियों और मर्म प्रसंगों की ओर ले जाती है बल्कि उसमें ऐसा अनुभव व्यक्त करती है जो नवीन और बिल्कुल अलग था।
इससे पहले विभाग के प्रभारी डॉ पल्लव ने वाजपेयी का स्वागत करते हुए कहा कि निराशा भरे इस दौर में साहित्य के कर्तव्यों की बात करना साहित्य के विद्यार्थियों के लिए आवश्यक है। उन्होंने हिंदी साहित्य सभा की गतिविधियों के सम्बन्ध में भी बताया। प्रश्नोत्तर सत्र में वाजपेयी ने कलावाद और अन्य प्रश्नों पर विस्तार से विद्यार्थियों के सवालों के जवाब दिए। आयोजन का सञ्चालन विभाग के अध्यापक डॉ धर्मेंद्र प्रताप सिंह ने किया तथा वाजपेयी का परिचय द्वितीय वर्ष की छात्रा तुलसी झा ने दिया। आयोजन में बड़ी संख्या में विद्यार्थियों के साथ साहित्यकार और साहित्यप्रेमी भी उपस्थित हुए। आयोजन को गूगल मीट के साथ फेसबुक पर भी प्रसारित किया गया। अंत में प्रथम वर्ष के ही छात्र कमल नारायण ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
शुक्रवार को अभिधा के दूसरे दिन उच्च अध्ययन संस्थान के अध्येता और प्रसिद्ध आलोचक प्रो माधव हाड़ा ‘भक्तिकाल की पुनर्व्याख्या की जरूरत’ विषय पर व्याख्यान देंगे।
मैं स्त्री हूं
मैं स्त्री हूं, मैं संसार से नहीं
संसार मुझसे है,
जीवन का सार मुझसे है
मनुष्य का आधार मुझसे है
कुछ स्वार्थी जो करते
व्यापार नारी का `
वो नहीं बन सकते कभी
सम्मान नारी का
करते जो अधर्म कुटिलता
करते उसके चरित्र को तार-तार
संभल न पाएगा करेगी जब पलटवार
उनके लिए स्त्री, स्त्री नहीं
है रूप काली और दुर्गा का
संभल जा तुच्छ स्वार्थी प्राणी
संपूर्ण मनुष्य जाति का विनाश हो जाएगा
यदि रूठ गयी, जो नारी
इस संसार की चलायमान है नारी
नारी दिव्य है देवी है
नारी को मां कहलाने का आशीर्वाद
क्यों डरे स्वार्थी प्राणियों से जब
सिर पर उस विधाता का हाथ
जो रखोगे नारी का मान चलोगे
संग उसके मिला के कदम ताल
ऐश्वर्य धन-धान्य से कर देगी मालामाल
स्त्री जीवनदायिनी है
फिर भी सहती है पीड़ा
समाज में फलित कुत्सित
लोग, ढोंग रचते हैं
नहीं समझते स्त्री के जीवन के मायने
कभी लोगों के तानों के वार
कभी कोड़ों की मार सहती
जीवन भर अत्याचार सह, रचती है
सुनहरे भविष्य का निर्माण
कई जिंदगी को पालती करती
जीवन सुधार,
फिर क्यों मजबूर करता
उसे यह झूठा भ्रमित जहां सारा
कर लेती आत्मदाह
लेती खुद के प्राण
कवयित्री
पिंकी हरि भार्गव
माता पिता- श्रीमती सुमित्रा, श्री मनीराम भार्गव
कराला, उत्तरपश्चिम- ब,
नई दिल्ली
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