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मौक्तिका (रोती मानवता)

मौक्तिका (रोती मानवता)
2*14 (मात्रिक बहर)
(पदांत ‘मानवता’, समांत ‘ओती’)

खून बहानेवालों को पड़ जाता खून दिखाई,
जो उनके हृदयों में थोड़ी भी होती मानवता।
पोंछे होते आँसू जीवन में कभी गरीबों के,
भीतर छिपी देख पाते अपनी रोती मानवता।

मोल न जाने लाशों के व्यापारी इस जीवन का,
आतँकवादी क्या आँके मोल हमारे क्रंदन का।
लाशों की हाट लगाने से पहले सुन हत्यारे,
देख ते’रे जिंदा शव को कैसे ढोती मानवता।

निबलों दुखियों ने तेरा क्या है’ बिगाड़ा उन्मादी?
बसे घरों में उनके तूने जो ये आग लगा दी।
एक बार तो सुनलेता उनकी दारुण चित्कारें,
बच जाती शायद तेरी हस्ती खोती मानवता।

किस जनून में पागल है तू ओ सनकी मतवाले?
पीछे मुड़ के देख जरा कैसे तेरे घरवाले।
जरा तोल के देख सही क्या फर्क ते’रे मेरों में,
मूल्यांकन दोनों का करते क्यों सोती मानवता।

दिशाहीन केवल तू है, तू भी था हम सब जैसा,
गलत राह में पड़ कर के करता घोर कृत्य ऐसा।
अपने अंदर जरा झांकता तुझको भी दिख जाती,
इंसानों की खून सनी धरती धोती मानवता।

आतंकवाद के साये में तू बन बैठा दानव,
भूल गया है पूरा ही अब तू कि कभी था मानव।
‘नमन’ शांति के उपवन को करने से ही तो दिखती,
मानव की खुशियों के बीजों को बोती मानवता।

बासुदेव अग्रवाल ‘नमन’
तिनसुकिया




चाहत का इश्क

लव है पैमाना ,नज़रे है मैख़ाना तेरी चाहत दुनियां कि तकदीर दीदार बीन पिए वहक जाना।।
सावन की घटायें तेरी जुल्फे चाल है मस्ताना ।।
गज गामिनी अंदाज़ अशिकाना हुस्न की हद हैसियत नजराना ।।
क़दमों कि आहट से ज़माने में हलचल धड़कते दिलों कि है तू जाने जाना। हवाओं में उड़ती जुल्फे कभी चाँद से चेहरे का हिज़ाब ,कभी चाँद के दीदार का बहाना।।
जन्नत की जीनत ,प्यार का अरमान जहाँ में खुदा का नूर नज़राना।।
फिजाओं की मस्ती इश्क इबादत की हस्ती तू जिंदगी जान यारी है याराना।।
वज्म ,वजूद जहाँ जमाने कि मोहब्बत कि मल्लिका जिंदगी का तराना ।।दुनियां ,कारवां कि मंजिल आशिकी का अफ़साना ।।
शर्म से चिलमन में तेरा चेहरा खूबसूरत कायनात कि चांदनी का छूप जाना।।
चाहतों कि जिंदगी करिश्मा किस्मत कि तेरा मिल जाना।।
आहे भरते है सुनते तेरा ही अफसाना सिर्फ एक नज़र को तरसता है दीवाना।।
दिल ,दुनियां ,दौलत करम किस्मत है जज्बा ,जूनून हकीकत जन्नत है तेरा मुस्कुराना।।
परस्तीस तमन्ना है इबादत आशिकी इश्क में जल जाना।।

नन्द लाला मणि त्रिपाठी पीताम्बर




शराब कहते है

हलक को जलाती ,
उतरती हलक में शराब कहते है।।
लाख काँटों की खुशबू गुलाब कहते है।।
छुपा हो चाँद जिसके दामन में
हिज़ाब कहते है।।
ठंडी हवा के झोंके उड़ती जुल्फों
में छुपा चाँद सा चेहरा, बिखरी
जुल्फों में चाँद का दीदार कहते है।।
सुर्ख गालों की गुलाबी ,लवों की
लाली बहकती अदाओं को साकी
शवाब कहते है।।
लगा दे आग पानी में सर्द की
बर्फ पिघला दे जवानी की रवानी
जवानी कहते है।।
जमीं पे पाँव रखते ही जमीं के
जज्बे जर्रे में हरकत जमीं
की नाज़ मस्ती हद हस्ती
मस्तानी कहते हैं।।
सांसों की गर्मी से बहक जाए
जग सारा जहाँ का गुलशन
गुलज़ार कहते है ।।

धड़कते दिल की धड़कन से साज
नाज़ मीत का गीत संगीत कहते है।।
सांसो की गर्मी से निकलती
चिंगारी ,ज्वाला हसरत की दीवानी शाम की शमा कहते है।।
मिटा दे अपनी हस्ती को या
मिट जाए आशिकी में आशिक
आशिक नाम कायनात कहते है।।
नशे में चूर इश्क के जाम जज्बे
में हुस्न का इश्क दीदार कहते
है।।
नादाँ दिल की शरारत में
कमसिन बहक जाए कली
नाज़ुक का खिलना चमन
बहार कहते है।।
सावन के फुहारों
,वासंती बयारों में बलखाती बाला बंद
बोतल की शराब पैमाने का इंतज़ार कहते है।।

इश्क के अश्क ,अक्स एक दूजे के
दिल नज़रों में उतर जाए इश्क की इबादत इश्क इज़हार कहते है।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




अल्फ़ाज़

 

जुबां तोल, मोल , बेमोल,अनमोल, बहारों के फूलों कि बारिश अल्फ़ाज़।
तनहा इंसान का अफसोस हुजूम के कारवां कि जिंदगी का साथ अल्फाज़।।
वापस नही आते कभी जुबां से निकले अल्फ़ाज़ दोस्त, दृश्मन कि बुनियाद अल्फ़ाज़।।
जंगो का मैदान मोहब्बत के पैगाम जमीं आकाश कि गूंज आज,कल के अलफ़ाज़।।
दिल के जज्बात ,हालत, हालात का मिजाज अल्फ़ाज़।।
दिल में उतर जाते खंजर की तरह मासूम दिल कि अश्क, आशिकी ,सुरते हाल अल्फ़ाज़।।
जिंदगी रौशन ,सल्तनत बीरान तारीखों के गवाह अल्फ़ाज़।।
बेशकीमती दुआ ,बद्दुआ, फरियाद, मुस्कान अलफ़ाज़।।
अल्फ़ाज़ों में गीता, कुरान इबादत जज्बा ईमान।।
खुदा भगवान के जुबाँ से निकले इंसानियत इंसान के अल्फ़ाज़।।
अल्फाज़ो के गुलदशतों से सजती महफिलें सबाब बहार के अल्फ़ाज़।।
रौशन समाँ कि रौशन रौशनी कि खुशबु का बेहतरीन अंदाज़ अल्फ़ाज़।।
कसीदों कि काश्तकारी
रिश्तों में दस्तकारी अल्फ़ाज़।।
दिल में नश्तर कि तरह चुभते कभी, कभी दिल कि खुशियों का वाह वाह अल्फ़ाज़।।
नज़रों के इशारों, जुबाँ खामोश का अंदाज़ अल्फाज़।।
हद ,हस्ती आबरू, बेआबरू कसूर ,बेकसुरवार गुनाह,बेगुनाह के अल्फ़ाज़।।
बदज़ुबां का अल्फ़ाज़ जहाँ को करता परेशान ।।
खूबसूरत अल्फाज नेक ,नियत कि जुबां जमाने के अमन कि नाज़ का अल्फ़ाज़।।
तारीफ़, गिला ,शिकवा की
बाज़ीगरी का कमाल अल्फ़ाज़।
बेंजा उलझनों को दावत, जायज बदल देते हालात अल्फ़ाज़।।
गीत ग़ज़ल फूलों कि बारिश ,शहद कानों में मिश्री घोलता अल्फ़ाज़।।
अल्फाजों से बनता बिगड़ता रिश्ता खामोश जुबाँ ,निगाहों का जज्बे जज्बात अल्फाज़।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




पानी

 

मर जाता आँख का पानी
इंशा शर्म से पानी पानी।
आँखों से बहता नीर नज़र का
आँसू पानी ही पानी।।

ख़ुशी के जज्बे जज्बात में
छलकता आँसू जिंदगी का मीठा
पानी ही पानी जिंदगानी।।

पानी है तो है प्राणी पानी से ही
प्राणी प्राण।
बिन पानी धरा धरती रेगिस्तान
वनस्पति पेड़ पौधे लापता उड़ती
रेत हवाओं में नज़ारा कब्रिस्तान।।

कब्रिस्तान में सिर्फ दफ़न होता
मरा हुआ इन्शान
रेगिस्तान की मृगमरीचिका में
पानी को भटकता जिन्दा
दफ़न हो जाता जिन्दा इन्शान।।

पानी से सावन का बादल
सावन सुहाना।
सावन की फुहार बरसात की बहार।
पानी धरती का प्राण
अन्नदाता किसान का जीवन अनुराग ।।
बारिस का पानी खेतों में हरियाली खुशहाली की एक एक बूँद
कीमती धरती उगले
सोना उगले हिरा मोती से दुनियां पानी पानी।।
पंच तत्व के अधम सरचना
शारीर में पानी आवश्यक
आधार।
दूध में खून में अस्सी प्रतिसत पानी कही पानी ही पानी
कही बिन पानी सब सून।।

पानी प्यास ही नही बुझाती
जन्म ,जीवन का बुनियाद बनती।।
कही बाढ़ पानी ही पानी
पानी ही पी पी ही मरता इन्शान।
कही सुखा प्यासा भूखा नंगा
मरता इंसान ।।
पानी में परमात्मा पानी से आत्मा
पानी से खूबसूरत कायनात विश्वआत्मा।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




बलिदान दिवस और आज का युवा

युवा आम सभी होते
कुछ कर गुजरने की अभिलाषा
वाले विरले ही होते।।
राष्ट्र समाज की चेतना जागरण
पर मर मिटते वाले दुनियां के इतिहासों
में अमर होते।।
सिंह भगत की गर्जना अनवरत
गूंज रही है आज भी बन शौर्य शंखनाद।।

युवा उत्साह का अविनि आकाश गुरु कर्म ,धर्म के कुरुक्षेत्र का युग युवा ओज जिसे कहते।।
जीवन के सुख की परिभाषा
रचने वाला राष्ट्र को समर्पित
जीवन ,जीवन का नया आयाम
गढ़ने वाला युग युवा स्वाभिमान
रचने वाले युवा तेज जिसे कहते।।
भगत सिंह ,सुखदेव ,राज गुरु
नाम नही काल धन्य धरोहर है
त्याग ,बलिदानों की मर्म महिमा
युग युवा कर्तव्य बोध का भान
जिसे कहते।।
स्वतंत्र राष्ट्र हिंदुस्तान की पीढ़ी वर्तमान
युवा के पथ प्रदर्शक
दिशा दृष्टि सोपान जिसे कहते।।
माँ भारती के वीर सपूतों की
गाथा निष्काम कर्म धर्मयुद्ध
जीवन का संग्राम है जिसे कहते।।
जीवन मोह, पश्चाताप ,भय
से मुक्त जीवन मूल्य त्याग
बलिदान जिसे कहते ।।।

बलिदान
दिवस या सहादत का दिन
चाहे जो भी कह लो
राष्ट्र भक्त के बलिदानों का हम तो हिंदुस्तान जिसे कहते।।
युवा उमंग उल्लास माँ भारती की वेदना गुलामी की बेड़ियोँ को तोड़ने
युग युवा साथ निकल पड़े।।
हंसते हंसते फांसी के फंदे
पर झूल गए हिंदुस्तान जिंदाबाद
कहते कफ़न तिरंगा ओढ़ गए।।
ना जाने कितने ही यातना को फूलों का हार मान स्वीकार किया हँसते
कहते चले गए खुश रहो देश के
वासी हम तो मातृ भूमि की माटी का
चंदन माथे पर लिये चले गए।।
युवा भगत सिंह ,राजगुरु ,सुखदेव के
त्याग बलदानो का मोल हम क्या देंगे
यदि कुछ दे सकते है तो कहती है
लाहौर जेल की दीवारें जहाँ युवा
फाँसी के तख्तों पर झूल गए।।
पुणे खेड़ा, लुधियाना पंजाब ,बंगा
जो अब है पाकिस्तान की माटी का
कण कण बोल रहा युवा उठो जागो
भगत सिंह ,राजगुरु ,सुखदेव सा तुन्हें
देख सके।।
गर्व करे राष्ट्र तुम पर वीर सपूतों ने
जिसकी खातिर प्राणों का बलिदान
किया जाते जाते अपनी अभिलाषा
अतीत के पन्नो से वर्तमान के उपहार
दिये गए।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




मयंक श्रीवास्तव से प्रो. अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

हिन्दी की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका— ‘धर्मयुग’ और इसके यशस्वी सम्पादक आ. धर्मवीर भारती से साहित्य जगत भलीभाँति परिचित है। कहते हैं कि इस पत्रिका में रचनाओं के प्रकाशित होते ही उन दिनों देश-भर में साहित्यिक चर्चाएँ प्रारंभ हो जाया करती थीं। ऐसी ही एक रचना, जिसकी पृष्ठभूमि में भारत-चीन युद्ध (1962) और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) से उपजी भूख, गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और इनसे पीड़ित करोड़ों भारतीयों की मार्मिक व्यथा-कथा है, ‘धर्मयुग’ में 13 सितम्बर 1980 को प्रकाशित हुई— “अपनी तो इस मँहगाई में डूब गयी है लुटिया बाबू/ लेकिन कैसे बने तुम्हारे ऊँचे ठाठ मुगलिया बाबू” और देश-भर में इस ग़ज़ल के रचनाकार मयंक श्रीवास्तव की चर्चाएँ होने लगीं।

ग़ज़ल लिखते-लिखते मयंक जी कब गीत लिखने लगे, यह उतना जरूरी नहीं जितना यह कि अब तक उनके छः गीत संग्रह— ‘सूरज दीप धरे’ (1975), ‘सहमा हुआ घर’ (1983), ‘इस शहर में आजकल’ (1997), ‘उँगलियाँ उठती रहें’ (2007), ‘ठहरा हुआ समय’ (2015) और ‘समय के पृष्ठ पर’ (2019) और एक गीतिका संग्रह— ‘रामवती’ (2011) प्रकाशित हो चुके हैं। कारण यह है कि उनकी ग़ज़लों में गीत का ही ‘परिविस्तार’ दिखाई पड़ता है। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि उनके गीतों में नवगीत का ‘परिविस्तार’ दिखाई पड़ता है। कुछ भी हो, यह रचनाकार स्वयं ग़ज़ल-गीत-नवगीत आदि के भेद में कभी नहीं पड़ा— जो मन-भाया सो पढ़ लिया, जो मन आया सो लिख लिया। जो भी पढ़ा उससे वह अनुभव-समृद्ध हुए और जो भी लिखा उससे आंचलिकता एवं नगरीयता जैसी विशेषताओं के समन्वय से उदभूत युगीन चेतना उनकी रचनाओं में व्यंजित होती चली गयी। यानी की भावक जिस रूप में उनकी रचनाओं को देखना चाहे, देख ले और अपनी सुविधानुसार उनसे अर्थ ग्रहण कर ले— “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी” (कवि-कुल कमल बाबा तुलसीदास)।
उ.प्र. के आगरा जिले की तहसील फिरोजाबाद (अब जिला) के छोटे से गाँव ‘ऊंदनी’ में 11 अप्रेल 1942 को जन्मे जाने-माने गीतकवि मयंक श्रीवास्तव 1960 से माध्यमिक शिक्षा मंडल, म.प्र., भोपाल में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए दिसंबर 1999 में सहायक सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने छंदबद्ध कविता को प्रकाशित-प्रशंसित करने के उद्देश्य से भोपाल के साप्ताहिक पत्र ‘प्रेसमेन’ (2007 से 2009 तक) में समीर श्रीवास्तव के साथ बतौर साहित्य संपादक कार्य किया। उनके कुशल संपादकत्व में इस पत्र ने छंदबद्ध कविता पर केंद्रित कई संग्रहणीय विशेषांक निकाले, जिससे देश में छंदबद्ध कविता का माहौल बनने लगा। ‘प्रेसमेन’ की तुलना ‘धर्मयुग’ से होने लगी। जो साहित्यकार ‘धर्मयुग’ में छप चुके थे, उनको इस पत्र में छपना उतना ही सुखद और गौरवशाली लगने लगा और जो लोग ‘धर्मयुग’ में छपने से रह गये थे, उन्हें भी इसमें छपकर वैसा ही सुख और संतोष हुआ। ऐसा इसलिए भी हुआ क़ि मयंक जी ने संपादन-कार्य में सदैव अपनी साहित्यिक समझ और समायोजन शक्ति का संतुलित और सार्थक उपयोग किया। वह बड़ी साफगोई से कहते भी हैं— “साहित्य सृजन एवं संपादन मनुष्य और समाज को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, किसी कुत्सित और मानवताविरोधी विचारधारा को केंद्र में रखकर नहीं।”

वरिष्ठ गीतकार के रूप में महामहिम राज्यपाल (म.प्र.) द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित मयंक श्रीवास्तव के रचनाकर्म पर अब तक भोपाल की दो पत्रिकाओं— ‘संकल्प रथ’ (2015, सं. राम अधीर) एवं ‘राग भोपाली’ (2016, सं. शैलेंद्र शैली) द्वारा विशेषांक प्रकाशित किये जा चुके हैं। उनकी रचनाधर्मिता पर अन्य पत्रिकाओं— ‘अक्षरा’, ‘गीत गागर’, ‘मध्य प्रदेश सन्देश’, ‘पहले-पहल’ आदि ने भी कई महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किये हैं। अपने स्थापना-वर्ष से ही ‘साहित्य समीर’ पत्रिका (सं. कीर्ति श्रीवास्तव) भी अपने ढ़ंग से उनको अक्सर ‘स्पेस’ देती रहती है। भोपाल ही नहीं, देश के तमाम साहित्यकार, यथा— देवेंद्र शर्मा ‘इंद्र’, विद्यानंदन राजीव, दिनेश सिंह (अब सभी कीर्तिशेष), यतीन्द्र नाथ राही, गुलाब सिंह, मधुसूदन साहा, वीरेंद्र आस्तिक, जहीर कुरैशी, प्रेम शंकर रघुवंशी, सुरेश गौतम, शिव अर्चन, महेश अग्रवाल आदि उनका जिक्र अपने लेखों, संस्मरणों आदि में बड़े स्नेह और सात्विकता के साथ करते रहे, यह भी विदित ही है। कहने का आशय यह कि सहज, सौम्य और शालीन स्वभाव के मयंक जी एक बेहतरीन रचनाकार के रूप में उतने ही प्रतिष्ठित हैं, जितने कि एक कुशल संपादक के रूप में। — अवनीश सिंह चौहान

अवनीश सिंह चौहान— “अपनी तो इस मँहगाई में डूब गयी है लुटिया बाबू/ लेकिन कैसे बने तुम्हारे ऊँचे ठाठ मुगलिया बाबू”, आपकी यह रचना धर्मयुग में 13 सितम्बर 1970 को प्रकाशित हुई थी। क्या कारण रहा कि ‘धर्मयुग’ जैसी लोकप्रिय पत्रिका में प्रकाशित इस युवा रचनाकार पर नवगीत के पुरोधा राजेन्द्र प्रसाद सिंह और शम्भुनाथ सिंह की दृष्टि नहीं पड़ी?

मयंक श्रीवास्तव— यह सच है कि 13 सितंबर 1970 के ‘धर्मयुग’ में मेरी महंगाई पर केंद्रित उक्त रचना प्रकाशित हुई थी और पूरे देश में चर्चा के केंद्र में भी रही। उस समय इस रचना के संबंध में मुझे अनेक पत्र भी मिले थे। किन्तु, किसी भी पत्रिका में जो रचना प्रकाशित होती है, उसे संपूर्ण देश के रचनाकार पढ़ लें, यह आवश्यक नहीं है। संभवतः राजेंद्र प्रसाद सिंह और डॉ शंभूनाथ सिंह का ध्यान उक्त रचना के कलमकार पर केंद्रित इसलिए न हो पाया हो क्योंकि ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित उक्त रचना नवगीत न होकर हिंदी गजल थी। हाँ, समीक्षकों की राय में मेरी गजलें मेरे गीतकार रूप का ही परिविस्तार हैं तथा इनमें नवगीत की गंध बसी हुई है। यहाँ मैं यह भी बताना चाहूँगा कि जब ‘नवगीत दशक’ की योजना पर डॉ शंभूनाथ सिंह काम कर रहे थे तब नवगीतकार राम सेंगर के साथ वे दो बार मेरे आवास पर आए थे तथा रात्रि निवास भी किया था। किन्तु उस समय ‘नवगीत दशक’ में मेरे गीतों के प्रकाशन के संबंध में उन्होंने मुझसे कोई बात नहीं की थी और मैंने भी इस संबंध में उनसे किसी प्रकार की बात करना उचित नहीं समझा था।

अवनीश सिंह चौहान— आपका जन्म कब और कहाँ हुआ? उस समय आपके परिवार की स्थिति कैसी थी?
मयंक श्रीवास्तव— मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के जनपद फिरोजाबाद के ग्राम ऊँदनी में 11 अप्रैल 1942 को पिता स्व. देवीशंकर एवं माता स्व. श्रीमती रामश्री के यहाँ हुआ। उन दिनों एक ओर देश में स्वंत्रता प्राप्ति के लिए आग धधक रही थी, तो वहीं मेरा परिवार जैसे-तैसे अपनी गुजर-बसर कर रहा था। हमें आजादी मिली किन्तु परिवार की स्थितियाँ जस-की-तस थीं। उसी समय एक विकट स्थिति उत्पन्न हुई। हुआ यह कि उत्तर प्रदेश के पटवारियों ने, शायद 1952 में, वेतन वृद्धि की मांग को लेकर हड़ताल कर दी और मामला इतना आगे बढ़ गया कि सभी पटवारियों ने अपने इस्तीफे दे दिए, जिन्हें तत्कालीन सरकार द्वारा स्वीकार भी कर लिया गया। यह घटना हमारे परिवार के लिए बहुत दुखद थी— मेरे बड़े भाई पटवारी थे और उनका इस्तीफा भी स्वीकार कर लिया गया। मेरे बड़े भाई एवं बहन शादी के योग्य थे। पिताजी पर घर चलाने की जिम्मेदारी थी ही; अतः वे पास के गाँव जेवरा के सरगना अहीर की दुकान से राशन आदि लाने लगे। शायद उन्होंने लिख कर दिया होगा कि कर्ज नहीं चुका सके तो खेत सरगना का होगा। सरगना अहीर बहुत चालाक था। उसने पटवारी से मिलकर खेत अपने नाम करा लिया। रोटी के लाले पड़ना ही थे। इसलिए सच कहूँ तो मैंने गरीबी की भयावह स्थिति को बहुत नजदीक से देखा है। गरीबी के कड़वे और तीखे तीर सहे हैं। भूख, अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा का सामना किया है। गाँव में अन्य परिवारों की गरीबी, पीड़ा और उत्पीड़न को खुली आँखों से देखा है। शायद इसीलिये मैंने अपने गीतों में इन सभी विषम स्थितियों को गाया है। गीत को अभिव्यक्ति का माध्यम इसलिए बनाया, क्योंकि मुझे लगता है कि गीत के माध्यम से ही अपने एवं समाज के दुख-दर्द को अभिव्यक्त कर सकता हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— आपने कब और कहाँ से शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की? इस हेतु आपको किस प्रकार का श्रम एवं संघर्ष करना पड़ा? आप मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल में कब चयनित हुए और कब सेवानिवृत्त हुए?

मयंक श्रीवास्तव— निकटस्थ ग्राम सड़ामई की प्राथमिक शाला से प्राथमिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद मैंने जूनियर हाई स्कूल, साढ़ूपुर में छठवीं कक्षा में प्रवेश लिया, किन्तु छठवीं कक्षा के बाद दो साल स्कूल जाना नहीं हुआ, क्योंकि मेरी पढ़ाई के लिए मेरे पिताजी के पास खर्च उठाने की सामर्थ्य नहीं थी। अतः न चाहते हुए भी  दो साल मुझे घर पर ही बैठना पड़ा। दो साल बाद फिर उसी विद्यालय में प्रवेश लेकर मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की। परीक्षा उत्तीर्ण हुई तो पिताजी ने साहस करके डी.ए.वी. इंटर कॉलेज, फिरोजाबाद में मुझे प्रवेश दिलवा दिया। तभी एक समस्या और उत्पन्न हो गई। समस्या यह कि फिरोजाबाद में रहकर पढ़ना मेरे लिए संभव नहीं था, क्योंकि शहर में रहने का व्यय पिताजी वहन करने की स्थिति में नहीं थे। इसलिए हमने विचार किया कि गाँव में रहकर ही फिरोजाबाद आया-जाया जाय। कुछ रास्ता नंगे पाँव पैदल चलकर और कुछ सफर ट्रेन से — मेरा गाँव निकटतम रेलवे स्टेशन (मक्खनपुर) से लगभग डेढ़ कोस दूर था। मक्खनपुर से सुबह सात बजे ट्रेन फिरोजाबाद जाया करती थी और वही ट्रेन फिरोजाबाद से रात सात-आठ बजे मक्खनपुर वापस आ जाया करती थी। इसलिए सुबह डेढ़ कोस पैदल चलकर मेरा मक्खनपुर से सात बजे वाली ट्रेन से फिरोजाबाद जाना होता था और उसी ट्रेन से रात को वापस आना भी होता था। उन दिनों इस प्रकार से यात्रा करने में मुझे बेहद श्रम एवं संघर्ष करना पड़ा, किन्तु 1960 में डी.ए.वी. इंटर कॉलेज, फिरोजाबाद से जब मैंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की तो उम्मीद की एक नयी किरण मिल गयी। हाईस्कूल परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद ही वर्ष 1960 में मध्य प्रदेश माध्यमिक शिक्षा मण्डल में नौकरी लग गई तो भोपाल आ गया। किन्तु वर्ष 1999 में अस्वस्थता के कारण मैंने उक्त विभाग से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली। सेवानिवृत्ति के बाद शब्द-साधना करने में लग गया और आज भी बस यही कर रहा हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आप आध्यात्मिक है? नहीं तो आपका समय कैसे बीतता है? काव्य लेखन का संस्कार आपको कहाँ से मिला ?
मयंक श्रीवास्तव— मेरी रुचि आध्यात्मिक कभी नहीं रही। इसका अर्थ यह भी नहीं कि मैं आध्यात्मिक नहीं हूँ। मगर मंदिर जाना-आना खास अवसरों पर ही होता है। शनिवार एवं मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ अवश्य कर लेता हूँ। मेरा ज्यादा समय स्वाध्याय एवं सृजन में ही बीतता है। वैसे तो कविता में रुचि बचपन से ही थी, किन्तु विशेष रुचि का विकास उस समय हुआ जब मैं जूनियर हाईस्कूल का छात्र था। उन दिनों हमारे जूनियर हाईस्कूल में अंताक्षरी का आयोजन प्रति शनिवार को हुआ करता था। उस आयोजन में मैं भी भाग लिया करता था। कविता के प्रति विशेष लगाव यहीं से प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे छंद-विधान, तुकों आदि का ज्ञान होने लगा, जिसका परिणाम अब आप सभी के सामने है।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आपने गीत के शाश्वत प्रतिमानों को केंद्र में रखकर अपनी सर्जना प्रारम्भ की थी? यदि नहीं, तो क्या आपको जो ठीक लगा वह समयानुसार आपने लिख-पढ़ लिया? आपकी प्रथम कृति— ‘सूरज दीप धरे’ (1975) की रूप-रेखा कब और कैसे बनी और क्या उस समय आप गीत और नवगीत के बीच अंतर को जानते-समझते थे?

मयंक श्रीवास्तव— गीत लेखन में मेरी रुचि प्रारंभ से ही रही है और इसलिये इस विधा में यथासंभव सहयोग भी देता रहा हूँ। प्रत्येक लेखक के अपने प्रतिमान होते हैं जो समय और उम्र के साथ बदलते रहते हैं। प्रतिमानों को केंद्र में रखकर कोई रचना लिखी गयी या रचना को केंद्र में रखकर कोई प्रतिमान गढ़ा गया, यह कहना बहुत मुश्किल है। किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि प्रत्येक रचनाकार की यह प्रबल इच्छा रहती है कि उसने जो सृजन किया है उसका पुस्तक रूप में प्रकाशन भी हो। ‘सूरज दीप धरे’ का जब प्रकाशन हुआ था तब मेरी उम्र लगभग 33 वर्ष रही होगी। चूँकि उस समय मैं भी अपने गीतों को संग्रह के रुप में देखना चाहता था, अतः प्रकाशन की रूपरेखा कुछ मित्रों के सहयोग से स्वयं बना ली।

यहाँ एक बात और स्पष्ट करना चाहता हूँ कि जब मैंने गीत लिखना प्रारंभ किया उस समय में गीत एवं नवगीत के भेद को नहीं जानता था। प्रारंभ में मैं रामावतार त्यागी से बहुत प्रभावित रहा, जिसका प्रभाव मेरे लेखन पर भी पड़ा। परिणामस्वरूप पारंपरिक गीतों का संग्रह- ‘सूरज दीप धरे’ आप सभी के समक्ष है। मेरे मन पर पड़े संस्कार तत्कालीन (समकालीन) परिवेश, मेरी व्यक्तिगत परिस्थितियाँ, भोगे हुए दर्द की कुलबुलाहट आदि ने मेरे गीत सृजन को गति प्रदान की। ‘सूरज दीप धरे’ के गीत वैयक्तिक होते हुए भी, संपूर्ण समाज की सामूहिक अभिव्यक्ति रही। किन्तु ‘सूरज दीप धरे’ के प्रकाशन के बाद मेरे गीत लेखन के शिल्प, शैली, सोच, छंद विधान में नैसर्गिक रूप से परिवर्तन आया। अतः मैंने मानवीय जीवन संघर्ष के साथ समयगत सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक परिवर्तन एवं समय सापेक्षता को ध्यान में रखते हुए गीत लिखे, जो ‘सहमा हुआ घर’ में प्रकाशित हुए।

अवनीश सिंह चौहान— ‘सूरज दीप धरे’ (1975)— इस आशावादी, भावुक एवं सुखद शीर्षक के बाद के तीन शीर्षक— ‘सहमा हुआ घर’ (1983), ‘इस शहर में आजकल’ (1997) और ‘उँगलियाँ उठती रहें’ (2007) कमोवेश आंचलिकता, नागरिकता, सामाजिकता, आर्थिकता, सांस्कृतिकता जैसी विशेषताओं के समन्वय से उदभूत युगीन चेतना को व्यंजित करते हैं, यह सब कैसे बन पड़ता है?

मयंक श्रीवास्तव— ‘सूरज दीप धरे’, जो 1975 में प्रकाशित हुआ था, की रचनाएँ उस समय की सामाजिक परिस्थितियों एवं भोगे हुए यथार्थ को दृष्टिगत रखते हुए लिखी गई थीं। जैसे-जैसे समय बदलता जाता है, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थितियों में निश्चित रूप से परिवर्तन होता चला जाता है, जिसका प्रभाव प्रत्येक रचनाकार की रचनाओं में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त होता है। यही वजह है कि 1983 में प्रकाशित ‘सहमा हुआ घर’, 1997 में प्रकाशित ‘इस शहर में आजकल’ एवं 2007 में प्रकाशित ‘उंगलियां उठती रहे’ के गीतों में आंचलिक बोध, नागरिक बोध, सामाजिक परिवेश,  राजनैतिक एवं आर्थिक मूल्य के साथ नैतिक मूल्यों में गिरावट आदि को अनुप्राणित किया गया है। चूँकि उपरोक्त वस्तुस्थिति स्वाभाविक रूप से उपस्थित हुई है, इसलिए इनमें युगीन चेतना और जन कल्याणकारी भावना का समावेश नैसर्गिक रूप से उपस्थित हुआ है।

अवनीश सिंह चौहान— आपके दो नवगीत-संग्रह— ‘ठहरा हुआ समय’ (2015) और ‘समय के पृष्ठ पर’ (2019) जहाँ समय के पृष्ठ पर ठिठककर खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, वहीं तत्कालीन खुरदरे यथार्थ से सार्थक संवाद करते भी दिखाई पड़ रहे हैं। कहीं यह रचनाकार के अंतर्लोक में ‘प्रलय से लय की ओर’ या ‘लय से प्रलय की ओर’ जैसी किसी यात्रा का संकेत तो नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— ‘ठहरा हुआ समय’ वर्ष 2015 में प्रकाशित हुआ, जबकि ‘समय के पृष्ठ पर’ 4 वर्ष बाद 2019 में प्रकाशित हुआ। इन 4 वर्षों में हमारे समाज में  नैतिक मूल्यों, चारित्रिक मूल्यों, राजनीतिक मूल्यों आदि के स्तर पर जो टकराहट होती रही है, उससे स्वाभाविक रूप से मेरे मानस-पटल पर गहरा दबाव बना। इसलिए इन गीत संग्रहों में ‘खुरदरा यथार्थ’ की उपस्थिति को नकारा नहीं जा सकता। हाँ, यह सच है कि इनकी सर्जना के दौरान मेरे मस्तिष्क में  ‘प्रलय से लय की ओर’ या ‘लय से प्रलय की ओर’ जैसी कोई प्रतिछवि विद्यमान नहीं थी।
अवनीश सिंह चौहान— आप नवगीत का जन्म पारम्परिक गीत की कोख से मानते हैं। नवगीत नवगीत की कोख से जन्म न लेकर गीत की ही कोख से जन्म क्यों लेता है? ऐसे में क्या गीत को नवगीत की ‘सरोगेट मदर’ कहना उचित है?

मयंक श्रीवास्तव— मेरा मानना है कि गीत और नवगीत की पीड़ा में कोई विशेष फर्क नहीं होता है। समयानुसार साहित्य में रचनाओं की भाषा, शब्द, संवेदना आदि में स्वाभाविक रूप से परिवर्तन देखा जाता रहा है। इसलिए गीत अपने समय के अनुसार अपना स्वरूप स्वतः ही ग्रहण कर लेता है। सामाजिक परिवर्तन गतिशील होता है, मानवीय परिस्थितियाँ भी परिवर्तित होती रहती हैं। जब गीतों में समय और स्थितियों के अनुसार लेखन को महत्व दिया जाता है तब नया कथ्य, शिल्प आने पर भी वर्तमान में लिखे जा रहे गीत पारंपरिक हो जाते हैं। अतः यह माना जा सकता है कि पारंपरिक गीत से ही नवगीत का जन्म हुआ है; नवगीत गीत के विकास का ही सोपान है; नवगीत पारंपरिक गीत का ही परिष्कृत रूप है। यानी कि नवगीत ने गीत को रूढ़िग्रस्त होने से बचाया है और उसकी अस्मिता की रक्षा की है। इस हेतु हमें नवगीतकारों का कृतज्ञ होना चाहिए। जहाँ तक गीत के ‘सरोगेट मदर’ होने का प्रश्न है, मेरी दृष्टि में ‘सरोगेट मदर’ शब्द ही प्रासंगिक नहीं लगता है, क्योंकि यह कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। जो भी हो गीति साहित्य के इतिहास में नवगीत को स्वर्णाक्षरों में रेखांकित किया जाएगा, ऐसा मेरा विश्वास है।

अवनीश सिंह चौहान— “नया भाव-बोध, नया शिल्प, नयी शैली, नयी विषय-वस्तु, नया छंद लेकर लिखा गीत ही नवगीत का रूप ले सकता है। नवगीत में भी लय-भंग किसी भी स्तर पर स्वीकार नहीं की जा सकती। नयी पीढ़ी के गीतकारों को इस पर ध्यान देना जरूरी है”— ‘समय के पृष्ठ पर’ कृति में आपको यह सब कहने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी?

मयंक श्रीवास्तव— ‘समय के पृष्ठ पर’ कृति का सृजन जिस समय हुआ था वह समय आज भी उसमें मौजूद है। वह उस समय के अनुरूप नये विषय, नये छंद और नयी संवेदनाओं के साथ उपस्थित हुआ है, जिसमें गीतों का अपना मौलिक व्याकरण है। यह सत्य है कि जहाँ गीतों की बात होती है, वहाँ गीतों के लयात्मकता की उपेक्षा नहीं की जा सकती, उसमें लय और तरंग को शामिल होना चाहिए। लय तो गीतों की प्राण होती है, इसलिए लय के बिना गीत की कल्पना नहीं की जा सकती। गीत या नवगीत में गीतात्मकता, परिपक्व छंद विधान, लय प्रवाह आवश्यक है। गीत की मूल चेतना रागात्मक है, अतः उपरोक्त बिंदुओं को नकारा नहीं जा सकता। जहाँ तक यह लिखने की आवश्यकता की बात है, मैं प्रसंगवश आपको बताना चाहता हूँ कि बिहार से प्रकाशित एक समवेत नवगीत संकलन में एक गीतकवि के कुछ गीत प्रकाशित किए गए, जिनमें न तो छंदानुशासन का ध्यान रखा गया और न ही लय का। जब मैंने संपादक महोदय से फोन पर बात कर उनका ध्यान इस ओर आकर्षित करने की कोशिश की, तब उनका उत्तर कि कथ्य तो है। मेरा मत है कि अगर कथ्य पर ही ध्यान देना है, तो छंदमुक्त कविता लिखनी चाहिए। इससे नवगीत का स्वरूप भी ख़राब नहीं होगा।

अवनीश सिंह चौहान— भोपाल जैसे बड़े शहर में रहते हुए भी आप सदैव अपने गाँव— ‘ऊँदनी’ को याद करते रहे है। अपने गीतों में ग्रामीण परिवेश पर इतने सलीके से बात करने के पीछे कोई ख़ास वजह तो नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— मेरा जन्म गाँव में हुआ है, जहाँ की मिट्टी और पानी की गंध मेरे भीतर समाहित है। गाँव में लोग आर्थिक अभावों, बीमारियों और आपसी संबंधों में टकराहटों के साथ अन्य कई तरह की पारिवारिक, राजनीतिक संकटों से गुजरते हैं। दबंगों एवं धनपतियों द्वारा कमजोर वर्ग का शोषण, भूख-गरीबी आदि के दृश्य मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। गाँव में जन्म होने के कारण ही मेरे गीतों में ग्रामीण-बोध के साथ सामाजिक-आर्थिक हालातों का ‘प्रजेंटेशन’ एवं शहरी जीवनशैली और उनके नैतिक, चारित्रिक, राजनीतिक बोध का प्रतिबिंब होना स्वाभाविक है।

मेरा भावनात्मक लगाव ‘ऊँदनी’ से आज भी कम नहीं हुआ है, यह सच है। मेरा यह भी विचार है कि शहरों की अपेक्षा गाँव में सच्चाई, अपनापन, संवेदना अधिक विद्यमान है। आम आदमी का मौलिक स्वरूप गाँव में ही देखने को मिलता है और इसलिए ग्रामीण जीवन को केंद्र में रखकर लिखे गए मेरे तमाम गीत आम आदमी के गीत हैं। इस संबंध में भोपाल के वरिष्ठ ग़ज़लकार जहीर कुरैशी ने अपने एक आलेख में लिखा भी है— “मयंक जी के समग्र लेखन में ग्राम  ‘ऊँदनी’ बीज रूप में निरंतर मौजूद रहता है और संभवतः इसीलिए उनके गीतों में गाँव के बिम्ब बहुतायत में मौजूद हैं। मयंक जी मानते भी हैं कि नई सदी के बदलाव के बावजूद गाँव में अभी भी थोड़ी संवेदना, सच्चाई और सादगी बची हुई है।”

अवनीश सिंह चौहान— ‘संकल्प-रथ’ (दिसम्बर 2017) के अंक— ‘गीत-कवि मयंक श्रीवास्तव पर एकाग्र’ में राम अधीर ने अपनी सम्पादकीय में आपके (नव)गीतों के छंद-विधान पर बात करते हुए कहा है कि आपके अधिकांश (नव)गीत 24 और 32 मात्राओं से रचे गये हैं। यदि यह सच है, तो इसके पीछे क्या वज़ह रही? यदि नहीं, तो आप अपने (नव)गीतों में किन छंदों का प्रयोग प्रमुखता से करते आये हैं?
मयंक श्रीवास्तव— (नव)गीत स्वाभाविक रूप से मेरे भीतर से निकलते हैं। मैं जिस विषयवस्तु को लेकर अपने (नव)गीत लिखता रहा हूँ उसमें मैंने न तो कभी मात्राओं पर ध्यान दिया और न ही कभी किसी छंद विशेष का आग्रही रहा हूँ, क्योंकि यह एक नैसर्गिक रचना-प्रक्रिया है, जो स्वतः अपनी भाषा, शब्द, स्वरूप विषय के अनुरूप ग्रहण कर लेती है। यह हो सकता है कि राम अधीर ने मेरे गीतों के छंद-विधान, मात्राओं आदि के संबंध में आकलन किया हो।

अवनीश सिंह चौहान— आपने अपनी ग़ज़लों में सीधी-सपाट एवं इकहरी जुबान का प्रयोग कर आज की लाइलाज व्यवस्था पर करीने से चोट की है। ग़ज़लों की ओर आपका झुकाव कब और कैसे हुआ?

मयंक श्रीवास्तव— रचनाकार किसी एक विधा से बंधा हुआ हो, यह आवश्यक नहीं है। वह स्वतंत्र, किन्तु स्वाभाविक रूप से अपनी रचना-प्रक्रिया करता रहता है। इसलिए मैंने भी किसी मापदंड को रखकर अपनी गजलों (गीतिकाओं) का सृजन नहीं किया। हो सकता है मेरी गजलों (गीतिकाओं) की भाषा इकहरी और सपाट हो, किन्तु  उनका अपना आकर्षण है। जहाँ तक गजलों की ओर झुकाव का प्रश्न है तो मैं यही कहना चाहूँगा कि जब मेरा गीत संग्रह— ‘सूरज दीप धरे’ आया, उस समय दुष्यंत कुमार का गजल संग्रह— ‘साये में धूप’ आया था। उनकी गजलों की चर्चा ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ आदि पत्रिकाओं में प्रमुख रूप से हो रही थी। उनकी गजलों की लोकप्रियता के कारण ही देश के कई गीतकवि गजल विधा में अपनी संभावनाएं तलाश रहे थे। यह एक तरह से हिंदी गजलों के स्वर्णयुग की शुरुआत थी, जिससे, आंशिक रूप से ही सही, मैं भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। अतः मैंने भी कुछ गजलें (गीतिकाएँ) लिखीं, परंतु यह विधा मेरे लेखन के केंद्र में कभी नहीं रही। मैं पहले की तरह गीत ही लिखता रहा और आज भी गीत ही लिखता हूँ।

अवनीश सिंह चौहान— एक समर्थ गीतकवि और श्रेष्ठ ग़ज़लकार होने के नाते आप गीत और ग़ज़ल के मर्म को भलीभाँति जानते हैं। (नव)गीत और ग़ज़ल में बुनयादी अंतर क्या है? और क्या इस अंतर में (नव)गीत को सशक्त या अशक्त के चश्मे से देखना उचित है?
मयंक श्रीवास्तव— कुछ लोग मानते हैं कि गीत और गजल गीति-वृक्ष की ही दो शाखाएँ हैं, किन्तु मैं लोगों के इस विचार से सहमत नहीं हो पाता। वस्तुतः गजल हमारी जमीन की उपज नहीं है। गजल की प्रकृति, प्रवृत्ति एवं स्वरूप अलग है और इसका कारण मूलतः भारतीय न होना है। गजल अरबी से चलकर फारसी और उर्दू के रास्ते हिंदी में आई है। इसकी रचना-प्रक्रिया और छंद विधान गीत से एकदम अलग है। दोनों का व्याकरण, शिल्प, शैली अलग है। दोनों का स्वभाव अलग है। इसलिए समानता के आधार पर दोनों की तुलना नहीं की जा सकती। गीत में एक ही भावानुभूति का निर्वाह अंत तक करना होता है, व्यक्त भाव को टूटना नहीं चाहिए, जबकि गजल का दो पंक्तियों का शेर अलग-अलग अर्थ एवं भाव प्रदान करता है। गीत का अपना फॉर्मेट है और ग़ज़ल का अपना फॉर्मेट, इसलिए गीत को गजल के फॉर्मेट में ढाला नहीं जा सकता। मैं गीत को गजल के साथ जोड़कर देखने का पक्षधर नहीं हूँ। गीत मूलतः और मुख्यतः जीवन की जीवंत अभिव्यक्ति है। गीत तो भारतीय संस्कारों से संपृक्त संगीतमय मांगलिक उद्गार है। इसे सशक्त या अशक्त के चश्मे से देखना भी उचित नहीं है।
अवनीश सिंह चौहान— हिंदी पत्रकारिता (खासकर काव्य के क्षेत्र में) में कभी-कभी बेहद महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं— ‘नये-पुराने’ पत्रिका के ‘छः गीत विशेषांक’ और ‘प्रेसमेन’ के छंदबद्ध कविता पर केंद्रित तमाम अंक। ‘प्रेसमेन’ के यशस्वी साहित्य संपादक के रूप में ‘संपर्क, संपादन, प्रकाशन एवं प्रसारण’ से सम्बंधित आपके क्या अनुभव रहे?

मयंक श्रीवास्तव— दुर्भाग्य से कीर्तिशेष कवि एवं आलोचक दिनेश सिंह द्वारा संपादित ‘नये-पुराने’ पत्रिका के ‘गीत विशेषांक’ मुझे देखने को नहीं मिल सके (यद्यपि इन महत्वपूर्ण अंको की चर्चा उन दिनों पूरे देश में हो रही थी)। मेरा उनसे परिचय बहुत बाद में बना और जब बना तो उन्होंने बड़े मनोयोग से मेरे एक गीत संग्रह की धारदार समीक्षा लिखकर मुझे भेजी। उन दिनों वे अपने सहयोगी (अवनीश सिंह चौहान) के साथ ‘नये-पुराने’ पत्रिका का ‘कैलाश गौतम स्मृति अंक’ तैयार कर रहे थे। वैसे साहित्यिक पत्रकारिता का अपना इतिहास रहा है और इस इतिहास को खँगालने पर पता चलता है कि समय-समय पर गीत विशेषांकों में प्रकाशित गीति-साहित्य की चर्चा साहित्य जगत में होती रही है। सो मैंने भी ‘प्रेसमेन’ के छंदबद्ध कविता पर कई विशेषांक निकाले। प्रकाशन के लिए सामग्री की दिक्कत कभी नहीं आई, क्योंकि रचनाकारों ने कभी निराश नहीं किया। एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि ‘प्रेसमेन’ का साहित्य संपादक होने के नाते केवल प्रकाशन सामग्री जुटाना और उसे प्रकाशन के लिए भेजना ही मेरा काम था। ‘प्रेसमेन’ के संपादक एवं मालिक अलग थे। अतः मुझे कभी भी आर्थिक या किसी अन्य प्रकार की समस्या का सामना नहीं करना पड़ा। ‘प्रेसमेन’, जिसके अंक केवल छांदस रचनाकारों को ही यथासंभव प्रेषित किए जाते रहे हैं, के कार्यकारी संपादक समीर श्रीवास्तव प्रसारण आदि का उत्तरदायित्व संभाल ही लेते थे। इससे मेरा काम और भी आसान हो जाता था।

अवनीश सिंह चौहान— आप ताउम्र मंचीय गठजोड़ और प्रकाशकीय हथकण्डों से कौसों दूर रहे। एक सिद्धहस्त (नव)गीतकार, ग़ज़लकार एवं कुशल संपादक (प्रेसमेन) के रूप में आप ‘साहित्य में राजनीति’ और ‘राजनीति में साहित्य’ को किस प्रकार से देखते हैं?
मयंक श्रीवास्तव— आजकल साहित्य में राजनीतिक हस्तक्षेप कुछ अधिक देखने को मिल रहा है। किसी भी रचनाकार के बारे में प्रायः यह देखा जाने लगा है कि राजनीतिक रूप से वह किस विचारधारा का है— लेखक वामपंथी है या राष्ट्रवादी, समाजवादी या निरपेक्ष भाव का है। तमाम पत्र एवं पत्रिकाएँ राजनीतिक विचारधारा के अनुसार प्रकाशित हो रही हैं। आज लेखन राजनीतिक विचारधारा के अनुसार हो रहा है और उनके विषय भी विचारधारा के अनुसार तय किए जा रहे हैं। विचारधारा के अनुसार लेखक संघ का गठन हो रहा है। साहित्य सम्मेलन भी विचारधारा के अनुसार हो रहे हैं, जिनमें विचारधारा के अनुसार राजनीतिज्ञ भी आने लगे हैं। अतः साहित्य में राजनीति एवं राजनीति में साहित्य ने प्रवेश कर लिया है। मैं इसे मानव समाज के लिए सही नहीं मानता, साहित्य सृजन मनुष्य एवं समाज को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए। यदि मनुष्य दुखी या पीड़ाग्रस्त है तो उसमें छिपे कारकों की पहचान और पड़ताल होना आवश्यक है। साहित्य का कार्य उन कारकों को इंगित करना तो है ही, आवश्यकता पड़ने पर उन्हें तर्जनी दिखाना भी जरूरी है। वर्तमान साहित्य मानवीय संवेदनाओं से अत्यंत समीपता से जुड़ा है और पूरी ईमानदारी से यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हो रहा है, इस दृष्टि से भी इसे देखना चाहिए।

अवनीश सिंह चौहान— स्त्री सशक्तीकरण को लेकर (नव)गीत में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा जा रहा है। किन्तु ऐसा क्या कारण है कि (नव)गीत में अक्सर स्त्री की देह (रूप आदि) को केंद्र में रखा गया है, उसकी मेधा को नहीं?

मयंक श्रीवास्तव— स्त्री लेखन एवं पुरुष लेखन की अपनी मर्यादा है, जिसमें एक-दूसरे को महत्व देने का प्रश्न उपस्थित नहीं होता। अपनी रचना-प्रक्रिया में प्रत्येक रचनाकार भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुजरता है। उस समय उसके दिमाग में स्त्री-पुरुष लेखन की अपनी तरह की प्रतिछवि होती है, इसलिए स्त्री सशक्तिकरण अथवा उसके देह रूप को देखना उचित प्रतीत नहीं होता। समाज में रचनाकार पर स्त्री की जो छवि ज्यादा छाई रहती है, वह उसी को अपनी रचना की विषयवस्तु बनाता है। उसमें कोई बौद्धिक छवि हो, तो भी वह एक सामान्य जीवन शैली है, जिसको लेखन के लिए आवश्यक विषयवस्तु माना जाय, यह जरूरी नहीं।

अवनीश सिंह चौहान— संवेदनशील मनुष्य होने के नाते आप निश्चय ही अपनी साहित्यिक यात्रा में अपने प्रिय, सम्माननीय एवं वरिष्ठ रचनाकारों-मित्रों के काल-कवलित होने पर आहत हुए होंगे। अब आप उन्हें किस प्रकार से याद करते हैं?

मयंक श्रीवास्तव— एक रचनाकार होने के नाते हमेशा ही अपने वरिष्ठ रचनाकारों का सम्मान करता हूँ। इनमें से कई साहित्यकार मेरे प्रेरणास्रोत भी रहे हैं, जिनकी याद आने पर अपनी पीड़ा से बड़ी मुश्किल से समझौता कर पाता हूँ। सच कहूँ तो अपने प्रिय जब इस संसार को छोड़ते हैं तब आहत होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में मुझे अपने प्रिय रचनाकार की रचनाओं को पढ़ना सबसे अधिक शांति प्रदान करता है।
अवनीश सिंह चौहान— आज प्रिंट की बड़ी पत्रिकाएँ जहाँ गीत-नवगीत को ‘स्पेस’ नहीं दे पा रही हैं, वहीं लघु पत्रिकाएँ दम तोड़ रही हैं। ऐसे में इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकारिता का भविष्य कैसा है और पाठकीयता पर इसका किस प्रकार का असर देखने को मिल रहा है?
मयंक श्रीवास्तव— साहित्य की हर विधा में उतार-चढ़ाव आता ही रहता है। कभी गीतों को महत्व मिलता है, तो कभी कविता को अधिक महत्व मिलता है— और यह सब समय की रूचि तय करती है। किसी पत्रिका के प्रकाशन में आर्थिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है, किन्तु हमेशा ही पत्रिका की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ रहे, यह आवश्यक नहीं है। लघु पत्रिकाओं के सामने आर्थिक संकट प्रायः बना ही रहता है। कुछ लघु पत्रिकाएँ सरकारी विज्ञापनों से प्रकाशित होती हैं। सरकारी विज्ञापन भी हमेशा नहीं मिल पाता। अतः बहुत-सी पत्रिकाएँ या तो समय से नहीं निकल पाती या कुछ समय बाद उनका प्रकाशन ही पूरी तरह से बंद हो जाता है। ऐसी स्थिति में साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों के सामने संकट उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। जहाँ तक इंटरनेट की साहित्यिक पत्रिकाओं का प्रश्न है, इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकाओं का चलन अभी काफी बढ़ा है। किन्तु अभी भी आम पाठक उनसे पूरी तरह से जुड़ नहीं पाया है। यह भी देखने में आ रहा है कि ज्यादातर रचनाकार ही इंटरनेट पर साहित्यिक पत्रिकाओं को देखते, पढ़ते, प्रकाशित होते हैं; आम पाठक को इंटरनेट या प्रिंट की साहित्यिक पत्रिकाएँ सुलभ नहीं हैं। इसलिए वेब पत्रिकाओं का भविष्य कैसा रहेगा, यह कहना अभी उचित नहीं लगता— यह तो आने वाला समय और परिस्थितियाँ ही तय कर सकेंगी।




अनुवाद : संकल्पना एवं स्वरूप

‘अनुवाद’ शब्द अंग्रेजी के ‘Transalation’ शब्द के लिए हिंदी पर्याय के रूप में चर्चित है| इसका अर्थ है एक भाषा से दूसरी भाषा में भाव-विचार को ले जाना होता है| ‘Translation’ के समान प्रतीत होने वाला दूसरा शब्द भी अंग्रेजी में उपलब्ध है- ‘Transcription’ इसे हिंदी में लिप्यंतरण कहा जाता है| दोनों शब्द समानार्थी होने का भ्रम उत्पन्न कर सकते हैं परंतु दोनों शब्दों में अंतर हैं| इस अंतर को एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है| जैसे- ”राम ने रावण को मारा|” इस वाक्य को उपुर्यक्त दोनों प्रकार से रूपांतरित करने पर दो रूप सामने आ जाते हैं|

  • Ram Killed Ravan (Translation)
  • Ram ne Ravan Ko Mara (Transcription)

(राम ने रावण को मारा|)

इससे सिद्ध होता है कि पहले वाक्य के द्वारा अनुवाद किया है और दूसरे वाक्य में मूल वाक्य की केवल लिपि परिवर्तीत करके ‘रोमन लिपि’ में रख दिया है| ‘अनुवाद’ के संदर्भ में ‘भाषांतर’ की बात करते समय हमारा अभिप्राय मूल आशय, भाव-विचार को दूसरी (लक्ष्य) भाषा में उसके स्वभाव और प्रकृति के अनुसार अंतरित करना है न कि केवल लिप्यंतरण करना| हिंदी भारत देश की राजभाषा है जब से हिंदी राजभाषा बनी है तब से हिंदी के प्रयोजनमूलक रूप में अनुवाद एक जरूरी एवं अनिवार्य साधन बनकर उभरकर आया है| अनुवाद विज्ञान विनाश का विज्ञान नहीं है बल्कि यह एक-दूसरे को जोड़ने का कार्य करता है| अपनेपन एवं अविष्कार का कार्य अनुवाद करता है| इसी वजह से इस युग की आवश्यक प्रक्रिया के भूमिका में समाज, संस्कृति, भाषा आदि सभी के समन्वय के लिए अनुवाद महत्त्वपूर्ण है| अनुवाद के लिए दो भाषाओं का ज्ञान होना आवश्यक होता है| इन दो भाषाओं को अनुवाद विज्ञान में ‘स्त्रोत भाषा’ और ‘लक्ष्य भाषा’ की संज्ञा दी गई है| जिस भाषा का आशय अनूदित होता है वह ‘स्त्रोत भाषा’ कहलाती है और जिस भाषा में अनुवाद किया जाता है वह ‘लक्ष्य भाषा’ होती है|  

‘अनुवाद’ संस्कृत भाषा का शब्द है| अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद्’ धातु से है, जिसका अर्थ है- कहना या बोलना| ‘वद्’ धातु से ‘धञ्’ प्रत्यय जुड़ने से ‘वाद’ शब्द बना है| फिर उसमें ‘बाद में’, ‘पीछे’ आदि अर्थों में प्रयुक्त ‘अनु’ उपसर्ग जोड़ने से ‘अनुवाद’ शब्द की निर्मिती हुई है|

विभिन्न भाषा के अनेक विद्वानों ने अपने-अपने मतानुसार अनुवाद की परिभाषाएँ की हैं| वह निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत हैं-

I हिंदी विद्वानों के मतानुसार-

  • डॉ. कृष्ण कुमार गोस्वामी- ”एक भाषा में व्यक्‍त भावों या विचारों को दूसरी भाषा में समान और सहज रूप से व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद है|”1 अर्थात् स्त्रोत भाषा के आशय को लक्ष्य भाषा में मूल भावों के साथ परिवर्तीत करना ही अनुवाद कहलाता है|
  • डॉ. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव- ”एक भाषा (स्त्रोत भाषा) की पाठ सामग्री में अंतर्निहित तथ्य का समतुल्यता के सिद्धांत के आधार पर दूसरी भाषा (लक्ष्य भाषा) में संगठनात्मक रूपांतरण अथवा सर्जनात्मक पुनर्गठन को ही अनुवाद कहा जाता है|”2 अर्थात् मूल भाषा की साधन सामग्री को आशय के साथ दूसरी भाषा में रुपांतरित करना ही अनुवाद होता है|
  • हरिवंशराय बच्चन- ”यूनानी विद्वानों ने कला के संबंध में जो सबसे बड़ी बात कही थी, वो यह थी कि कला को कला नहीं प्रतीत होना चाहिए, उसे स्वाभाविक लगना चाहिए| इसी प्रकार अनुवाद को अनुवाद नहीं लगना चाहिए| उसे मौलिक लगना चाहिए| यह तभी संभव है जब सृजन में शब्द के स्थान को सूक्ष्मता से समझ लिया जाए| शब्द के स्थूल रूप और उसके कोश पर्याय को अंतिम सत्य मान लेने वाला सफल अनुवाद नहीं हो सकता| शब्द साधन है साध्य नहीं| साध्य तो वह भाव या विचार है जो पीछे है|”3 अर्थात् किसी कला, भाव, को अगर अनूदित करना है तो उसमें मौलिक भाव के साथ अनूदित करना चाहिए| अनूदित करते समय सहज भाव सहित कला रूपांतरित होनी चाहिए| तभी उसे अनुवाद कहा जाता है|
  • अवधेश मोहन गुप्त- ”अनुवाद स्त्रोत पाठ के कथन और कथ्य की लक्ष्य भाषा में सहज एवं समतुल्य अभिव्यक्ति है|”4 अर्थात् अनुवाद करते समय मूल पाठ के कथ्य एवं कथा के भाव को सहज रूप से भाषांतरित करना ही अनुवाद होता है|

II संस्कृत विद्वानों के मतानुसार-

  • शब्दार्थ चिंतामणि कोश में लिखा है- ”ज्ञानार्थस्य प्रतिपादने”5 अर्थात् पहले कहे गए आशय को उसी भावों के साथ पुन: प्रस्तुत करना ही अनुवाद है|
  • ऋग्वेद में लिखा है- ”अन्वेको वदति यद्ददाति|”6 अर्थात् किसी कथन के पश्चात् उस कथन के मूल विचारों सहीत, दूसरी भाषा द्वारा प्रस्तुत करना ही अनुवाद कहलाता है|
  • पाणिनि के अनुसार- ”अनुवादे चरणानाम्|”7 अर्थात्‌ ‘अष्टाध्यायी’ ग्रंथ में पाणिनि लिखते हैं कि पूर्व कहे गए विधान को मूल आशय के साथ दूसरी भाषा में प्रकट करना याने अनुवाद है|
  • भर्तहरि के अनुसार- ”आवृत्तिरनुवादोवा|”8 अर्थात् बार-बार होनेवाली आवृत्ति, मूल भावों के साथ लक्ष्य भाषा में रूपांतरित होना याने अनुवाद कहलाता है|

III पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार-

  • ए. एच. स्मिथ- “अर्थ को बनाए रखते हुए, अन्य भाषा में अंतरण ही अनुवाद है|”9 अर्थात् किसी रचना को स्त्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में परिवर्तीत करते समय मूल रचना के अर्थ को जैसा की वैसा रूपांतरित करना ही अनुवाद है|
  • फोर्स्टन- ”एक भाषा में अभिव्यक्‍त पाठ के भाव की रक्षा करते हुए जो सदैव संभव नहीं होता, दूसरी भाषा में उसे उतारने का नाम ही अनुवाद है|”10 अर्थात् एक भाषा के वास्तविक विचारों को बाधित न होते हुए दूसरी भाषा में परिवर्तीत करने का प्रयास ही अनुवाद होता है|

उपर्युक्त सभी विद्वानों के अवलोकन से सिद्ध होता है कि मूल विषय, आशय, या भाव और उसके अनुवाद में सहज समतुल्यता होना जरूरी है| अनुवादक का यह कर्तव्य है कि वह मूल पाठ के विचारों को जहाँ दूसरी भाषा में लाने का प्रयास करे| जिसमें वह अनुवाद कर रहा है, तब जाकर अनुवाद सफल एवं सार्थक होता है| इसके लिए अनुवादक को दोनों भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए| तब मूल रचना की मौलिकता और रचनाकार की निजता को बनाए रखना जरुरी है|

वर्तमान युग में अनुवाद लोगों के लिए अनिवार्य अंग बना है| विश्व में मन की भूख को संतुष्ट करने के लिए ज्ञान और भाषानुभूतियों के आदान-प्रदान की आवश्यकता है| विश्व में देश की भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान, विज्ञान, साहित्य एवं कला इत्यादि भंडार को दूसरे देश की भाषाओं में अनूदित करके उपलब्ध किया जाता है| इस प्रकार देश के अनेक भागों की भाषाओं में प्राप्त ज्ञान के साधन सामग्री को अन्य अनेक भाषाओं में उपलब्ध करना अनुवाद के माध्यम से संभव है|

निष्कर्षत: कहा जाता है कि अनुवाद का उद्देश्य स्त्रोत भाषा के भाव को, विचार को, आशय को, दूसरी भाषा याने लक्ष्य भाषा में यथा संभव अभिव्यक्त करने के लिए मूल भाव को चोट न पहुँचाते हुए उसे सही सलामत सुनिश्चित करना ही अनुवाद होता है|

 

संदर्भ ग्रंथ-

  1. साहित्य सौरभ – संपा. हिंदी अध्ययन मंडल, सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय, पुणे परिदृश्य प्रकाशन मुंबई, प्रथम संस्करण – 2019, पृष्ठ क्र.166
  2. वही, पृष्ठ क्र.165
  3. वही, पृष्ठ क्र.167
  4. वही, पृष्ठ क्र.166
  5. वही, पृष्ठ क्र.164
  6. वही, पृष्ठ क्र.164
  7. वही, पृष्ठ क्र.164
  8. वही, पृष्ठ क्र.164
  9. वही, पृष्ठ क्र.168
  10. वही, पृष्ठ क्र.168



ए मेरे प्यारे वतन तुझ पे जल कुर्बान

22 मार्च विश्व जल दिवस ,जल संकट और कुछ चिंतन– / ‘ए मेरे प्यारे वतन तुझ पे जल कुर्बान’ 
 
“जल संरक्षणम् अनिवार्यम्। विना जलं तु सर्वं हि नश्येत्। दाहं कष्टंं करोति दूरम् । जल संरक्षणम् परिहारक”
   जीवन धारण के लिए अन्यतम मौलिक प्रयोजन है पानी पृथ्वी में स्थल भाग से ज्यादा जल भाग होने के बावजूद पीने लायक पानी का मात्रा बहुत ही कम है। इसलिए प्रकृति के संरक्षण और विशेष रूप से पानी के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय दिन की आवश्यकता थी, जिस पर लोगों को प्रकृति के लिए बढ़ती समस्याओं से सतर्क किया जाए । 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है । इसे पहली बार वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डी जेनेरियो में पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन की अनुसूची 21 में आधिकारिक रूप से जोड़ा गया था। वर्ष 1993 में संयुक्त राष्ट्र की सामान्य सभा द्वारा इस दिन को एक कार्यक्रम के रूप में मनाने का निर्णय किया गया। विश्व जल दिवस भारत, घाना, यू.एस.ए, पाकिस्तान, नाइजीरिया, मिस्र, बांग्लादेश, इंडोनेशिया और दुनिया भर में संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों द्वारा मनाया जाता है।
    विश्व जल दिवस पानी और इसके संरक्षण के महत्व पर केंद्रित है। नीले रंग की जल की बूंद की आकृति विश्व जल दिवस उत्सव का मुख्य चिन्ह है। संयुक्त राष्ट्र दिवस प्रत्येक वर्ष के लिए एक थीम का चयन करता है, कोरोना को ध्यान में रखते हुए इस साल का विषय- “शांत रहिए, दयालु रहिए और बुद्धिमान रहिए” रखा गया है। विषय का अर्थ कुछ इस तरह है कि यदि हम सभी के प्रति दया की प्रवृत्ति रखेंगे तो सब हमसे खुश रहेंगे, हम भी खुश रहेंगें।
प्रकृति के पांच तत्व – जल, अग्नि, वायु ,पृथ्वी एवं आकाश में से केवल मात्र जल ही जो नग्न मात्र है। पृथ्वी पर उपस्थित कुल मात्रा का मात्र 1% ही व्यवहार उपयोगी है; इस 1 फीसदी जल पर दुनिया के 6 अरब आबादी समेत सारे सजीव और वनस्पति निर्भर है। जल जीवन के लिए अमृत है एवं प्रकृति के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है इसका दुरुपयोग इसे दुर्लभ बना रहा है।
     पानी हम सभी प्राणियों के लिए एक अहम भूमिका निभाता है आज मनुष्य जल को लेकर बहुत लापरवाह है उन्हें अपने अलावा किसी और की फिक्र ही नहीं है उसने जितनी भी नई खोज की है उससे भी कई ज्यादा अपने संसाधनों का बुरी तरह से दुरुपयोग भी किया है और जिससे हमारा नुकसान ही हुआ है। पानी जीव जगत के लिए जरूरी चीजों में एक है और इसे समझदारी से इस्तेमाल करना ही सबके लिए लाभकारी होगी। ऐसा मानना है कि बीसवीं सदी में टेल ने जो वाणिज्य था 21वीं सदी के बाद उससे भी बड़ा वाणिज्य पानी करेगा। भारत बीते लगभग एक दशक से जलसंकट से गुजर रहा है। साल 2018 में नीति आयोग ने बताया कि देश में करीब 60 करोड़ लोग पीने के पानी की अनातन झेल रहे हैं। दूसरी ओर देश से सबसे ज्यादा पानी पड़ोसी देश चीन में बेचा जा रहा है। साल 2020 में चीन भारत से मिनरल और नेचुरल वॉटर का सबसे बड़ा खरीददार बना, जिसके बाद दूसरे नंबर पर भारत ने मालदीव को पानी बेचा। पूरे विश्व में देखे तो चारों और सूखा पढ़ा हुआ है। सूखा अचानक नहीं पड़ता है ये शनेः शनेः आगे बढ़ता है ।    
        जनसंख्या विस्फोट ,जल संसाधनों का अति उपयोग,जल का दुरुपयोग, पर्यावरण की शक्ति तथा जल प्रबंधन की दूर व्यवस्था के कारण विश्व के सारे देश जल संकट की त्रासदी भोग रहे हैं। आज भी देशों में कई बीमारियों का एकमात्र कारण प्रदूषित जल है।
जनसंख्या वृद्धि शहरीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रकृति से उपलब्ध पर जल की मात्रा लगाकर कम होते जा रहे हैं। भूगर्भ जल का स्तर दिन व दिन तेजी से गिरता जा रहा है। अगर हम जल संरक्षण के प्रति गंभीर नहीं हुए तो तीसरा विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा और इसका पूरा जिम्मेदार हम होंगे लक्षण आज विश्व की सर्वोपरि प्राथमिकताओं में से एक होना चाहिए। क्या आप जानते हैं कि साउथ अफ्रीका के किसी-किसी स्थान में आज ऐसा हो गया है पानी सहजता से उपलब्ध न होने के कारण सरकार द्वारा हर व्यक्ति के लिए प्रतिदिन एक मात्रा के पानी देने की व्यवस्था हो गई है। कुछ देश तो ऐसे हैं जहां शराब कम मूल्य में और पानी उसे कई गुणा अधिक मूल्य देकर खरीदना पड़ता है। कुछ देशों में पानी का उपलब्धता कम होने के कारण बड़े बड़े बिल्डिंग,प्लांस, ऑफिस आदि से व्यवहार पानी को अत्याधुनिक मशीनों द्वारा नवीकरण करके वहीं पानी फिर व्यवहार योग्य बनाया जाता है; तो हम इससे धारणा बना सकते हैं कि पानी के लिए अभी से ही हमारा युद्ध शुरू हो गया है। हमें यह बात समझ जाना चाहिए कि अगर आपका पड़ोसी पानी बर्बाद करता है तो आपका भी वाटर लेवल में गिरावट हो रहा है, भले ही पानी निकालने में उनका पैसा गया है परंतु संसाधन तो प्रकृति की है, इसलिए सावधान होना बहुत जरूरी है। हमें इस बात को गंभीरता से विचार करना चाहिए तथा हमारे बच्चों को भी इसके बारे में जागरूक करना चाहिए। क्योंकि जल है तो कल है इसके बिना अकाल ही अकाल है।
      हम कई क्षेत्रों में देखते हैं बिना रोकथाम के पानी निकालने से भूजल के स्तर में गिरावट आती है। इसके लिए भूजल के वितरण प्रबंधन नियमों का पालन करना जरूरी है, साथ ही एक नए कानून बनाने की जरूरत है। जो किसी भी प्रकार के वाटर वेस्टेज को एक गैर कानूनी काम के रूप में देखें और ऐसा करने वालों को जुर्माना सहित सजा देने का प्रावधान रखें। हमारे बरिष्ठ बड़े अधिकारी भी समय-समय में ख़ुद जल व्यवस्था का सर्वेक्षण करें क्योंकि जो ऐसे पद में होते हैं उनका दायित्व अधिक बढ़ जाता है और दायित्व अगर आपने मानव जाति को बचाने का हो तो उसे अपने परम धर्म एवं गुरु गंभीरता से लेना अत्यंत आवश्यक है।
       भारत में 28 मई 2016 को गुड़गांव के वार्ड संख्या 11 की कृष्णा कॉलोनी के लोगों में सड़क पर उतर कर प्रदर्शन किया नगर निगम और जिला प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करते हुए पेयजल उपलब्ध कराने की मांग की परंतु पानी जब स्टोरेज में ही नहीं होगा तब लोगों तक पानी कैसे पहुंचाए। पानी की पाइप में बिजली के कारण पानी न आना आम बात है परंतु आवादी से कम पानी की मात्रा होने से पानी उपलब्ध करना असंभव था।     भारत के उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों में प्रतिवर्ष पोखोरों का सुख जाना भूजल स्तर का नीचे का भाग जाना, बंगलुरु में 262 जलाशयों में से 101 का सुख जाना, महाराष्ट्र, दक्षिण दिल्ली में भूमिगत जल स्तर 200 मीटर से नीचे चला जाना, चेन्नई, तमिलनाडु और आसपास के क्षेत्रों में प्रतिवर्ष 3 से 5 मीटर भूमिगत जल स्तर में कमी जल संकट का गंभीर स्थिति की ओर इशारा करती है।
     साउथ अफ्रीका का विख्यात शहर कैप टाउन में वर्षा न होने के कारण और भूजल सूख जाने के कारण ऐसा वक्त भी आया जब बस 3 महीनों के लिए पानी शेष रह गया था। जिस कारण स्थान- स्थान में तेल डिपो की तरह 200 पानी का सेंटर बनाई गई और प्रत्येक घर में इतनी सीमित 87 लीटर पानी सप्लाई दिया गया और जिस दिन डे 0 हो गया उसके बाद 27 लीटर पानी ही दिया गया जबकि एक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए 3 लीटर पानी पीना अनिवार्य है। एक दिन ऐसा भी आ सकता है, शहरीकरण-औद्योगिकरण, पानी की अत्याधिक बर्बादी जलस्तर में अत्यधिक गिरावट के कारण हरा भरा जगह जीने लायक नहीं रहेगा और लोग पानी की तलाश में अलग जगह अपना बसेरा बना लेगा।
     ‘साओ पालो’ दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाले शहरों में से एक है। ब्राजील की आर्थिक राजधानी साओ पौलो यहां 2.1 करोड़ से अधिक लोग रहते हैं इस शहर के सामने साल 2015 में वही स्थिति आयी जो आज कैप टाउन के सामने हैं। वहां सूखा बढा और ऐसे हालत में मात्र 20 दिनों की पानी की सप्लाई मिल रहे थे। इस दौरान एक जगह से दूसरी जगह पानी पहुंचाने वाले ट्रकों को पुलिस सुरक्षा के बीच ले जाया गया था। ऐसे उदाहरण बहुत सारे हैं। इसी से हम शिक्षा ले सकते हैं कि पानी के लिए विश्व कितना लड़ रहा है। 
    यहां तक आप को पता चल गया होगा आज पानी विश्ववासी के लिए आखों की नीर क्यों बनती जा रही है। यह मर नहीं सकता परंतु ख़त्म ज़रूर हो सकता है। जब तक जल के महत्व का बोध हम सभी के मन में नहीं होगा तब तक सैद्धांतिक स्तर पर स्थिति में सुधार संभव नहीं है इसके लिए लोगों को जल कि सुरक्षा के लिए सही प्रबंध करना होगा। अतः कह सकते है कि जल संरक्षण के बारे में सरकार द्वारा कुछ योजना बनाकर सबको इसका उपाय और लाभकरिता के बारे में अवगत कराना चाहिए। यदि वक्त रहते जल संरक्षण पर ध्यान न दिया गया तो जल के लिए त्राहि-त्राहि मचेगा तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं और हम सब इसके लिए जिम्मेदार होंगे। आज स्वच्छ जल उपलब्ध न हो पाना एक विकट समस्या है। जिस कारण लोग आत्महत्या तक कर लेते हैं। जहां आज एक और पानी की मांग लगातार बढ़ती जा रही है उसी समय प्रदूषण और मिलावट के उपयोग किए जाने वाले जल संसाधन की गुणवत्ता तेजी से घट रही है। जल संरक्षण का कार्य भारत में सदियों से चलता आ रहा है राजस्थान आदि जगहों में पुराने दिनों से ही तालाबों,कुंडों में या जलाशयों में जल संचय करने की परंपरा सरकारी तौर पर नहीं सामाजिक तौर पर किया जाता है, परंतु सभी जगहों में अगर सरकारी तौर से किया जाए है तो बहुत ही कल्याणकारी होगी।
पश्चिमी राजस्थान में जल के महत्त्व पर पंक्तियाँ लिखी गई हैं उनमें पानी को घी से बढ़कर बताया गया है।
 
‘‘घी ढुल्याँ म्हारा की नीं जासी।
पानी डुल्याँ म्हारो जी बले।।’’
 
 महेंद्र मोदी नामके लेखक ने पानी के महत्व पर ‘ए मेरे प्यारे वतन तुझ पे जल कुर्बान’ नाम से एक किताब लिखा है। जिसमें पानी के संरक्षण के गुर संरक्षण के बारे में हैं। असम राज्य के जाने-माने जीव वैज्ञानिक बी.बरूआ कॉलेज के प्रक्तान अध्यापक श्रीमान दिनेश वैश्य जी ने भी पानी के विभिन्न विषयों की चर्चा करते हुए ‘पानी’ नाम से एक पुस्तक निकला है। उसमें आज हमारे समाज में पानी को लेकर चलता आ रहा सांस्कृतिक, संकट, संघाट, अधिकार और वाणिज्य की राजनीति आदि विषयों को सुंदर ढंग से स्थापित किया है। ऐसी सोच और लेखनी की हमारे समाज को आज सख़्त जरूरत है।
  मेरी शब्द यहां खत्म हो सकते हैं परंतु पानी बचाने के उपाय नहीं आप भी सोचे हर रोज आप पानी बचाने के लिए क्या करते हैं। सब्जी, चावल धोने वाले पानी को अपनी बगीचों में, और कपड़े धोने वाले पानी से आपका बाथरूप साफ करने में उपियोग का सकते है, खेतों में आधुनिक प्रक्रिया से पानी सींचना चाहिए इसी प्रकार बहुत सारी विकल्प निकालकर पानी बचाने का प्रण को अपने दिनचर्या में शामिल कर सकते है, तभी आने वाले भविष्य में हम एक तनाव मुक्त जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
 
स्वलिखित मौलिक एवं अप्रकाशित
मंजूरी डेका
सहकारी शिक्षिका
नाइट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय
गुवाहटी,
विश्वनाथ, असम
ई मेल – [email protected]



गंगा

 

जय गंगे माता ,निश दिन जो तुझे
धता सुख संपत्ति पाता ।।
मईया जय गंगे माता ।।
ब्रह्मा के कर कमण्डल से शिव शंकर जटाओं प्रवाह तेरा प्रवाह है आता।
गो मुख से उद्गम ,तेरा पतित पावनि माता मईया जय गंगे माता ।।
सगर कुल तारिणी ,भगीरथ तप से धरती पर लता ,सकल पदारथ दायनी मोक्ष कि माता मईया जय गंगे माता।।
ब्रह्म मुहूर्त कीे ध्यान ,ज्ञान ,स्नान कि मनभावनी माता मईया जय गंगे माता।।
तेरा पानी अमृत निर्मल, निर्झर बहता बजु करे कोई तेरे जल से खुदा को आवाज लगाता कोई अभिषेख करे ईश्वर का तेरे जल से तू सबकी आस्था तेरा सबसे नाता मईया जय गंगे माता।।
खेतों कि हरियाली खेतों कि, खुशहाली किसान कि ,गावँ किसान से तेरा घर परिवार का नता रिश्ता नाता मईया जय गङ्गे माता।।
धर्म ,कर्म कि जननी सद्गति दायनि तेरे जल के अमृत कलश कुम्भ कि पावन डुबकी से मानव तर जाता ।
मईया जय गंगे माता।।
सकल मनोकामना दायनी मंगल कर्ता अमंगल हर्ता मईया जय गंगे माता।।
गंगोत्री ,हरिद्वार हरी कि पैड़ी, अदृश्य सरस्वती ,प्रत्यक्ष यमुना का संगम हर्ष आनंद का दाता मईया जय गंगे माता।।
काशी में घाटों का पावन तट विश्व विशेश्वर को भाता ।
मरणकर्णिका मुक्ति धाम, महाकाल का श्मशान मुक्ति बोध कि मुक्ति धाम कि माता मईया जय गंगे माता।
पाटलिपुत्र का अविरल अवतरण बौद्ध बिहार का संस्कार अखंड भारत के सिंह मौर्य का शौर्य विष्णु गुप्त का ज्ञान ,कर्म धर्म बताता मईया जय गंगे माता।।
सागर कि गहराई जीवन कि सच्चाई में विलय तुम्हारा ।
जन्म जीवन कि निरंतरता का सत्य अनन्त भगवंत का आदि अनंत भाव जगाता मईया जय गंगे माता।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर