1

गंगा

 

जय गंगे माता ,निश दिन जो तुझे
धता सुख संपत्ति पाता ।।
मईया जय गंगे माता ।।
ब्रह्मा के कर कमण्डल से शिव शंकर जटाओं प्रवाह तेरा प्रवाह है आता।
गो मुख से उद्गम ,तेरा पतित पावनि माता मईया जय गंगे माता ।।
सगर कुल तारिणी ,भगीरथ तप से धरती पर लता ,सकल पदारथ दायनी मोक्ष कि माता मईया जय गंगे माता।।
ब्रह्म मुहूर्त कीे ध्यान ,ज्ञान ,स्नान कि मनभावनी माता मईया जय गंगे माता।।
तेरा पानी अमृत निर्मल, निर्झर बहता बजु करे कोई तेरे जल से खुदा को आवाज लगाता कोई अभिषेख करे ईश्वर का तेरे जल से तू सबकी आस्था तेरा सबसे नाता मईया जय गंगे माता।।
खेतों कि हरियाली खेतों कि, खुशहाली किसान कि ,गावँ किसान से तेरा घर परिवार का नता रिश्ता नाता मईया जय गङ्गे माता।।
धर्म ,कर्म कि जननी सद्गति दायनि तेरे जल के अमृत कलश कुम्भ कि पावन डुबकी से मानव तर जाता ।
मईया जय गंगे माता।।
सकल मनोकामना दायनी मंगल कर्ता अमंगल हर्ता मईया जय गंगे माता।।
गंगोत्री ,हरिद्वार हरी कि पैड़ी, अदृश्य सरस्वती ,प्रत्यक्ष यमुना का संगम हर्ष आनंद का दाता मईया जय गंगे माता।।
काशी में घाटों का पावन तट विश्व विशेश्वर को भाता ।
मरणकर्णिका मुक्ति धाम, महाकाल का श्मशान मुक्ति बोध कि मुक्ति धाम कि माता मईया जय गंगे माता।
पाटलिपुत्र का अविरल अवतरण बौद्ध बिहार का संस्कार अखंड भारत के सिंह मौर्य का शौर्य विष्णु गुप्त का ज्ञान ,कर्म धर्म बताता मईया जय गंगे माता।।
सागर कि गहराई जीवन कि सच्चाई में विलय तुम्हारा ।
जन्म जीवन कि निरंतरता का सत्य अनन्त भगवंत का आदि अनंत भाव जगाता मईया जय गंगे माता।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




विश्व पर्यावरण

—– – विश्व पर्यावरण —

पर्यावरण प्रदूषण प्राणी प्राण कि आफत ब्रह्ममाण्ड के दुश्मन।
नदियां ,झरने ,तालाब ,ताल तलइया सुख गए धरती बंजर रेगिस्तान।।
श्रोत जल का चला गया पाताल जल ही जीवन का जीवन दर्शन का सरेआम मजाक ।।
युद्ध होगा अब जल कि खातिर जल बिन तड़फ तड़फ कर निकलेगा प्राणी का प्राण।।
जल जो अब भी है बचा हुआ है प्राणी के कचड़े से हुआ कबाड़।।
ऋतुओं ने चाल बदल दी मौसम का बदल गया मिज़ाज ।।
सर्दी में गर्मी ,गर्मी में सर्दी ,वर्षा मर्जी कि मालिक जब चाहे आ जाय जाय।।
प्रकृति के मित्र धरोहर प्राणी विलुप्त प्रायः दादा ,दादी कि कहानियो के ही पात्र पर्याय।।
बन ,उपवन ही जीवन पेड़ पौधे कट रहे चमन धरती के हो रहे बिरान ।।
हवा में घुली जहर साँसों में जहर आफत में है प्राणी प्राण ।
ध्वनि प्रदुषण ,धुँआ प्रदूषण साँसत में है जान। ।
पर्यावरण ,प्रदुषण बन गया बिभीषन नित्य ,प्रतिदिन निगल रहा शैने ,शैने ब्रह्माण्ड प्राणी का ज्ञान ,विज्ञानं।।
प्रतिदिन विश्व में कहीं न कहीं अवनि डोलती भय भूकंप का भयावह साम्राज्य।।
सुनामी ,तूफ़ान कि मार झेलता युग संसार।।
प्राणी, प्राण प्रकृति का संतुलन असंतुलित धरती का बढ़ रहा तापमान ।।
ग्लेशियर पिघलते सागर तल कि ऊंचाई बढ़ती अँधेरा होता आकाश ।।
अँधा धुंध विकास कि होड़ में अँधा प्राणी जीवन के मित्र नदारत पर्वत हुए चट्टान।।
समय अब भी कुछ बाकी कुछ तो सोचो प्राणी प्रकृति का करो पुनर्निमाण।।
प्रदूषण के खर दूषण दानव को ना करने दो विनास।।
प्रकृति कि मर्यादा के राम बनो, मधुबन के मधुसूदन, कालीदह का नटवर नागर कि मुरली कि बनो तान।।
जल सरक्षण ,बन सरक्षण का अलख का हो शंकनाद।।
प्रदूषण के दानव से संरक्षित संवर्धित का हो संसार ।।
बृक्ष भी हो जैसे संतान, जल कि अविरल ,निर्मल धरा का बहे प्रवाह।।
ऋतुएँ ,मौसम हो संतुलित हरियाली खुशहाली का ब्रह्माण्ड।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पितसम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




प्रकृति प्रदुषण का यथार्थ

 

पेड़, पौधे ,जंगल कट रहे नए, नए नगर, शहर बस रहे। प्रकिति कुपित मानव पुलकित ब्रह्मांड के मानक बदल रहे।।
जहर हवा ,दूषित जल है जीवन कितना मुश्किल है नदियां, झरने ,झील सुख गए अपनी पहचान से रूठ गए।।
नदियां जीवन रेखा सी नित्य, निरंतर निर्मल ,निर्झर बहती कहती भारत भूमि जन्नत कि शान हो रहे बीरान।।
नदियां नालों में तब्दील इंसानी हरकत हद से प्रदूषित संकीर्ण हर सुबह कसमे खता है इंसान धरती को स्वर्ग बनाएंगे पर्यावरण बचाएंगे।।
ढले शाम नई गन्दगी देकर पृथ्वी कि हस्ती प्रदूषित और विभूषित करत जाता इंसान।।
इंसान का एक दूजे से नहीं कोई रिश्ता नाता इंसान ही प्रदूषण बेचता इंसानी समाज ही खाता और पचाता पर्यावरण बदहाल।।
आटा, चावल ,घी ,तेल ,मशाला जाने क्या ,क्या दवाई और मिठाई आधा असली आधा नकली ,नकली का बोल
बाला इंसान।।

इंसानो को खुद कि चिंता ही नहीं प्रकृति धरा धन्य को क्या बचा पाएगा। आने वाली नाश्लो को वीरान बीमारी कि युग सृष्टि घुट घुट मरने को दे जाएगा।।
तील तील मरता इंसान अपनी पैदाईस जिंदगी पर सिर धुन धुन कर रोयेगा पछतायेगा।।
अंधा धुंध कटते बृक्ष जंगल।बनता मैदान प्रकृति के प्राणी मरते पल पल करते इंसानों से जीवन रक्षा कि गुहार।।
इंसानो ने उनका घर ,जीवन ,छिना सभ्यता विकास कि दौड़ होड़ में मरते मरते युग इतिहास में कहानी किस्सों के बनते गए किरदार।।

मरते ,मरते अस्तित्व को लड़ते लड़ते इंसानों को देते जाते श्राप मेरा तो आश्रय अस्तित्व है छीना तुम खुद के अस्तित्व में करोगे हाहाकर लम्हा लम्हा भय भयंकर झेलोगे संताप।। झेलोगे नामी और सुनामी धरा डोलती बोलती और तूफ़ान।।
तेरे कर्मो का फल प्रकृति पर्यावरण का श्राप परिणाम मानव और मानवता के लिये नहीँ क़ोई विकल्प नही संयम
संकल्प ही शेष आज।।
प्रकृति बचाओ, युग बचाओं, शुद्ध हवा और पानी जल ही जीवन ,वन ही जीवन झरने नदियां और पहाड़,प्रकिति जिंदगानी।।
परिवार प्रकृति का सरक्षण ना हो।कोई प्रदूषण हो स्वच्छ हवा और पानी हो स्वस्थ मानव मन और काया लम्बी जिंदगानी हो।।
कलरव करती नदियां मौसम ऋतुए चलती जाएँ अपनी गति और चाल प्रकृति का हर प्राणी मानवता का मित्र रहे ना पिघले ना ग्लेशियर ना बढे धरती का ताप ।।
समन्दर से ना उठे क़ोई गुबार सर्दी,गर्मी ,वर्षा शरद पृथ्वी के अभिमान ।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




बिना तेरे

तेरा हो जाऊँ

तेरा हो जाऊँ

तेरी बाहों के सिरहाने पे, सर रख कर सो जाऊँ ।
तेरे हसीं खाबों में हमेशा के लिए गुम हो जाऊँ ।।

हम भी बड़े बेताब हैं,तेरे दिल में रहने को;
तू प्यार से बुला मुझे,मैं अंदर तभी तो आऊँ ।

तुझे हक़ से दुनिया वालों से माँग ही लूँगा;
बस, पहले ज़माने की नजर में कुछ हो जाऊँ।

हर वक्त मेरे ही ख़्याल पैदा हो तेरे ज़हनो-दिल में; तेरी यादों में अहसासों के कुछ मीठे बीज बो जाऊँ ।

अब तो दिन-रात यही फ़रियाद करता है ‘दीप;
ता क़यामत तू मेरी हो जाए ,मैं तेरा हो जाऊँ।

तेरी बाहों के सिरहाने पे, सर रख कर सो जाऊँ ।
तेरे हसीं खाबों में हमेशा के लिए गुम हो जाऊँ ।।

    संदीप कटारिया (करनाल, हरियाणा)