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पूछते हो मैं कौन हूं….

मैं अर्पण हूं,समर्पण हूं,

श्रद्धा हूं,विश्वास हूं।

जीवन का आधार,

प्रीत का पारावार,

प्रेम की पराकाष्ठा,

वात्सल्य की बहार हूं।

तुम पूछते हो मैं कौन हूं?

 

मैं ही मंदिर, देवप्रतिमा।

मैं ही अरुण, अरुणिमा।

मैं ही रक्त, रक्तिमा।

मैं ही गर्व ,गरिमा।

 

मैं ही सरस्वती, ज्ञानवती

मैं ही बलवती, भगवती

मैं ही गौरी, मैं ही काली

मैं ही उपवन,मैं ही माली।

 

मैं ही उदय, मैं ही अस्त,

मैं ही अवनि ,मैं ही अम्बर।

मैं अन्नपूर्णा, सर्वजन अभिलाषा

करुणा, धैर्य, शौर्य की परिभाषा।

मैं ही मान, मैं ही अभिमान

मैं ही उपमेय, मैं ही उपमान।

मैं ही संक्षेप, मैं ही विस्तार

मैं ही जीवन, जीवन का सार।

 

मैं भूत, भविष्य, वर्तमान हूं,

हर तीज- त्योहार की आन हूं

सुनी कलाई का अभिमान हूं।

और..तुम पूछते हो मैं कौन हूं”?

 

तो सुनो, अब ध्यान लगाकर..

मैं पापा की परी, मां की गुड़िया,

दादा की लाडो,दादी की मुनिया।

काका की गुड्डो, काकी की लाली,

भैया की छुटकी, दीदी की आली।

 

मैं ही रौनक, मैं ही सबकी शान हूं।

मैं ही दानी, मैं ही सबसे बड़ा दान हूं।

मैं ही सबसे बड़ा दान हूं………….।

अब तो समझ गए कि मैं कौन हूं….?

 

लेखक: 

सुशील कुमार ‘नवीन’

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और शिक्षाविद है।

96717-26237

 
 



वर्तमान में मर्यादा और राम

 

कहते भगवान राम को
करते शर्मशार भगवान को।।
त्रेता में रावण ने सीता का हरण किया।
बहन सूपनखा की नाक कान कटी
नारी अपमान में नारी का हरण किया।।
ना काटी नाक कान नारी सीता का
आदर सम्मान किया।।
चाहता रावण यदि सीता के नाक कान काट प्रतिशोध चुका सकता था जीवन की रक्षा कर सकता था।।

रावण कायर नही राम को
दी चुनौती आखिरी सांस तक
ना मानी हार ।।
बहन सम्मान में
राज्य परिवार समाज सबका
किया त्याग समाप्त।।
राम रावण युद्ध का सूपनखा
की नाक कान हीआधार।।
ना राम जानते रावण को ना
रावण का राम से कोई प्रतिकार
सरोकार।।
रावण अट्टहास करता युग का
पतन हुआ अब कितनी बार।।

द्वापर में भाई दुर्योधनन
भौजाई का चिर हरण करता।।
भरी राज्य सभा मे द्रोपदी
नारी मर्यादा को तहस नहस
करता।।
पति परमेश्वर ही पत्नी का
चौसर पर दांव लगाता कितना
नैतिक पतन हुआ ।। रावण
लज्जित कहता कैसे मानव
कैसा युग राम कहाँ महिमा
मर्यादाओ का युद्ध कहाँ।।

स्वयं नारायण कृष्ण द्रोपदी
मर्यादा का मान धरा।
कब तक आएंगे भगवान
करने मानवता की रक्षा।।
रावण कहता बड़े गर्व से
राम संग भाई चार ।।

राम लखन बन में भरत शत्रुघ्न
कर्म धर्म तपोवन साथ।।

द्वापर में भाई भाई का शत्रु
पिता मात्र कठपुटली आँखे
दो फिर भी अंधा ।।।

पिता पुत्र
दोनों ही स्वार्थ सिद्धि में अंधे
रिश्ते परिहास कुल कुटुम्ब
मर्म मर्यादा का ह्रास।।
रावण कलयुग देख बदहवास
रावण को स्वयं पर नही
होता विश्वाश।।
कलयुग में तो रावण का
नही नाम निशान ना राम
कही दृष्टिगोचर चहुँ ओर भागम
भाग हाहाकार।।
एक बिभीषन से रावण का सत्यानाश
अब तो हर घर परिवार में विभीषण
कुटिलता का नंगा नाच।।
महाभारत में तो भाई भाई आपस
में लड़ मरके हुए समाप्त।
भाई भाई का दुश्मन पिता पुत्र
में अनबन परिवार समाज की
समरसता खंड खंड खण्डित राष्ट्र।।
बृद्ध पिता बेकार पुत्र समझता भार
एकाकीपन का पिता मांगता
जीवन मुक्ति सुबह शाम।।
घर मे ही बहन बेटी
नही सुरक्षित रिश्ते ही रिश्तो की अस्मत को करते तार तार।।
बदल गए रिश्तों के मतलब
रिश्ते रह गए सिर्फ स्वार्थ।।
एक विभीषण कुलद्रोही दानव
कुल का अंत।
घर घर मे कुलद्रोही मर्यादाओ का
क्या कर पाएंगे राम स्वयं भगवंत।।
अच्छाई क्या जानो तुम भ्रष्ट ,भ्रष्टाचारी
अन्यायी ,अत्याचारी शक्ति शाली
राम राज्य की बात करते आचरण
तुम्हारा रावण दुर्योधन पर भारी।।

रावण के मरने जलने का
परिहास उड़ती कलयुग
कहता रावण गर्व से राम राज्य तो ला नही सकते ।।।

रावण की जलती ज्वाला से
राम नही तो रावण की अच्छाई
सीखो।।
शायद कलयुग का हो उद्धार
डूबते युग समाज मे मानवता
का हो कुछ कल्याण।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




नारी तू न्यारी अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता हेतु

नारी है तू नारी है तू नारी है
दुनियाँ तुझ पे वारी है वारी है।।
तुझसे दुनियाँ सारी है दुनियां सारी है
शक्ति की देवी ममता की माता है जननी नारी है।।
प्रेम सरोवर है क्रोध में अंगारी है
चपला, चचल बाला सुकुमारी है।।
देवो की देवी देव शक्ति अधिस्ठात्री है
रिश्तो की जननी बिटिया दुलारी है।।
छाया माया सत्य सत्कारी है
बहन भगिनी माँ बेटी रिश्तो की
मर्यादा ,गरिमा, महिमा संचारी है।।
छमा ,दया की सागर अमृत की
गागर युग मर्म संसारी है।।
तेरे होने से दुनिया ये सारी है
अन्याय भी सहती समाज का
संयम धैर्य को धारण जग कल्याणी है।।
कोमल हृदय तुम्हारा
पहुचाए कोई हानि अतिसय
करुणा कर दे देती छमा।
यदि कोई मर्यादा की सीमाएं
देता लांघ काल अवतारी है।।
कोमल कली किसलय तेरे
रूप जब कोई करता दुःसाहस
प्रयास पुरुष प्रधान समाज
की कमजोरी लाचारी है।।
बेबस दिन हीन लाचार तू नही
युग पथभ्रष्ट शर्म शर्मिंदा कलंक
कलंकित दुनियाँ सारी है
तेरे संग जब हो अत्याचार
मच जाता हाहाकार तेरी हाय
हद में जल जाता पुरुष प्रधान समाज।।
समाज का अहंकार मृत्यु तू
महाकाल रणचण्डी काली है।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




बेटी और नारी अंतराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता हेतु

1–बेटी और नारी

नन्ही परी की किलकारी
गूंजे घर मन आँगना।।
कहता कोई गृहलक्ष्मी
आयी घर आँगन की गहना।।
बेटी आज बराबर बेटों के
फर्क कभी ना करना।।
बेटी बेटा एक सामान
बेटी बेटों की परिवरिश
दो आँखों से ना करना।।
पड़ती बेटी बढती बेटी
अभिमान सदा ही करना।।
शिक्षित बेटी सक्षम बेटी
परिवार समाज के संस्कार
का रहना।।
बेटियां हर विधा हर क्षेत्र में
आगे बढ़ती देख रही है दुनियां
शिक्षित समाज में फिर भी
बेटी को संसय भय में पड़ता
है जीना।।
माँ बाप सुबह शाम ईश्वर से
करते प्रार्थना ।।
विद्यालय से शकुसल वापस
आ जाए बेटी तो कहते शुभ
दिन है अपना।।
नगर गली चौराहे पे नर भक्षी
पिचास गिद्ध दृष्टि से कब
कर दे दानवता का नंगा नाच
बेटी का मुश्किल हो
जाए जीना।।
बेटी अनमोल रत्न है जजनी
मानव की नारी की कली कोमल।।
आवारा भौरों का संस्कार से क्या
लेना देना।।
समाज को शर्मसार कर देते
बेटी नारी मर्यादा का तार तार
करते।।
पुरुष समाज के आहंकार
विकृत होता समाज ।।
टूट जाती मर्यादाये मिट जाता
लोक लाज।।
मानवता की पीड़ी में कही कभी
दानवता की सुनाई दे जाती पद
चाप।।
बेटी नारी की जिम्मेदारी
का एहसास ।।
बेटी शक्ति स्वरुप नारी
विराट रूप।।
बेटी सक्षम शिक्षित नारी
समाज राष्ट्र की गौरव मान।।

2–वर्तमान का परिवेश और बेटी नारी

विकसित होते पल प्रहर
समाज संस्कार पर प्रश्न
अनेको।।
शिक्षा मर्यादा संस्कार का
आधार ।।
आवारा भौरों की शक्ल में
नर भक्षी और शैतान ।।
आवारा भौरों को आकर्षित
करता वर्तमान का परिवेश
समाज।।
दुःशासन क्या चीर खिंचेगा
वस्त्र नहीं पुरे तन पे पाश्चात
श्रृंगार।।
सुपनखा के कारण हुआ था
राम रावण का भीषण संग्राम।।
सुपनखा अब फैसन है
रावण जैसा भाई नहीं है आज।।
कृष्णा किसकी लाज बचाये
बचा नहीं अब लोक लाज।।
बेटी अस्मत इज़्ज़त नहीं
सुरक्षित घर में
रिश्तों की मर्यादा आये दिन अब टूटती
भय दहसत में बेटी पल पल
पल घुटती मरती।।
घर बाहर चारो और बेटी
नहीं सुरक्षित।।
दोष सनाज का बेटी बेटो
की हया लाज अब छुटी।।
बेटी नारी नव दुर्गा अवतारी
दुष्ट दलन की दुर्गा काली।।
बेटी बेटो में हो सभ्यता
की समझदारी नकल
नहीं किसी की अपनी
पहचान की हो बेटी नारी।।
पुरुष समाज में दलित
दासता की ना हो बेटी
नारी मारी।।
बेटी की जाती धर्म तो मात्र
शिक्षा सक्षम मजबूत इरादों
की बेटी नारी।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




नारी के रुप अनेको अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता हेतु

नारी के रुप अनेकों
नारी से नश्वर संसार
नारी शक्ति से अर्धनारीश्वर भगवान।।

नारी की महिमा अपरंपार
देव ना पावे पार मानव की
क्या बिसात।।

बेटी बढती पढ़ती नारी का
बचपन बेटी ही बहन माँ भगिनी
अर्धाग्नि रिश्तों का संसार।।

पुरुष प्रधान समाज मे नारी
पर होते अत्याचार
चाहे बचपन की बेटी हो या
युवा पल प्रहर भयाक्रांत।।

सत्य यह भी बेटी नारी स्त्री
पर जो भी होते अत्याचार
बेटी नारी स्त्री की होती
बराबर की हिस्सेदार।।

बेटी कोख में मारी जाती
होती नारी की ही कोख।।
कभी सहमति कभी असहमति
कन्या भ्रूण की हत्याएं किस
किस पर दे दोष।।

दहेज का दानव बेटियों
की बलि चढ़ाता माँ बाप
को कायर कमजोर बनाता।।

तब भी एक नारी होती
सासु माँ माँ के संबंधों
में भय भयंकर भारी होती।।

बेटी अबला नारी असहाय
दुख पीड़ा की मारी होती।।
अंधी गलियों की बेगम रानी
नारी दूजे नारी की दहसत दंश
दर्द की हिस्सेदारी होती।।

जिस्मफरोसी के धंधे की ठग
ठगनी नारी होती।।
बेटी नारी की दुर्दशा में नारी
पुरुषों की बराबर की भागिदारी होती।।

बिन नारी के सहमति से नही ताकत
पुरुषों में नारी बेटी का अपमान हो संभव।।
लोहे को लोहा ही कटता नारी नारी
की आरी होती।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




अनुवाद : स्वरूप आणि संकल्पना

जागतिक दृष्टीकोनातून विचार केला तर आपल्या असे लक्षात येते कि, वेगवेगळ्या देशात राहणा-या लोकांची ऐतिहासिक पार्श्वभूमी, भौगोलिक परिस्थिती भिन्न असते. सांस्कृतिक, सामाजिक जीवन भिन्न असते. माणसाला परस्परांचे जीवन, संस्कृती, परंपरा, ज्ञानसंपदा इ. जाणून घेण्याची उत्सुकता असते. या उत्सुकतेपोटी माणूस त्या त्या ठिकाणच्या साहित्याचा अभ्यास करतो, परंतु भाषेच्या अडसरामुळे ते शक्य होत नाही. अशा परिस्थितीत मार्ग असतो तो अनुवादाचा वेगवेगळ्या भाषेतील व्यक्त झालेले विचार अनुभव व भावना या गोष्टीच्या आदानप्रदाना साठी अनुवाद हा मुख्य स्त्रोत आहे. विविध भाषेतील ज्ञान भांडार समजून घेण्यासाठी त्या भाषेतील साहित्याचा अनुवाद होणे गरजेचे आहे.

            भारतातील विविध भाषेतील उत्तमोत्तम ग्रंथाचे अनुवाद करण्यासाठी केंद्रशासनाने उपक्रम राबविले आहे. त्याच मुळे हिंदी, बंगाली, गुजराती, तमिळ, कन्नड, तेलगु, मराठी इ. भाषेतील साहित्याचा आपल्याला परिचय झाला तसेच अनुवादामुळे पाश्चात्य साहित्य ही भारतीय लोकापर्यंत पोहचले.

            भारतीय भाषांचा अनुवादाचा विचार केला तर पहिल्यांदा आपल्याला विविध संस्कृतीची परंपरा समजावून घेणे आवश्यक आहे. अनुवाद करताना समाज संस्कृती आणि बोली या घटकांचा परिचय होतो. कोणत्याही साहित्यातून त्या त्या प्रदेशाची संस्कृती प्रतिबिंबित होते. साहित्याच्या केंद्रस्थानी संस्कृती असते.

 

अनुवाद : अर्थ आणि व्याख्या

अनुवाद हा तत्सम शब्द आहे. अनु + वद म्हणजेच “वद” धातूला “अनु” उपसर्ग लागून हा शब्द बनवला आहे, याचा व्युत्पत्तीमूलक अर्थ पुन्हा बोलणे TRANSLATION  या शब्दाला मराठीमध्ये भाषांतर आणि हिंदीमध्ये अनुवाद या संज्ञा आहेत. ट्रान्सलेशन या शब्दाची उत्पत्ती लॅटिन भाषेत सापडते. Trans या शब्दाचा अर्थपूर्ण (Across or Beyond – पलीकडे दुसऱ्या ठिकाणच्या किवा स्थितीत) आणि Lation या शब्दाचा अर्थ घेऊन जाण्याची क्रिया म्हणजेच एका भाषेतील मजकूर दुसऱ्या   भाषेत घेऊन जाण्याची क्रिया असा अर्थ होतो.

  • अनुवादाची व्याख्या

            पूर्वी मर्यादित स्वरुपात अनुवाद केले जायचे. आता मात्र जीवनाच्या सर्व व्यवहारामध्ये सर्रास वापर केला जातो. अनुवाद या शब्दाच्या अर्थाचा अभ्यास करताना अनुवादाच्या वेगवेगळ्या भाषेतील व्याख्या अभ्यासणे गरजेचे आहे.

  • “विधी विहितस्या नुवचनमनुवाद:” न्यायसूत्र
  • “ज्ञातस्य कथनमनुवाद:” जैमिनीय ज्ञानमाला
  • “अनुवाद वह द्वद्वात्मक प्रक्रिया है l जिसमे स्त्रोत पाठ की अर्थ संरचना (आत्मा) का लक्ष्य पाठ की श़ैलीगत संरचना (शरीर) द्वारा प्रस्थापित होता है l – जी गोपीनारायण 
  • “एक भाषा मे व्यक्त विचारों को लक्ष भाषा मे तथा संभव अपने मूल रूप मे लाने का प्रयास करता है l – डॉ. भोलानाथ तिवारी
  • “ मूळ वस्तूतील सर्वच्या सर्व अभिप्राय प्रसादयुक्त वाणीने सांगणे”. श्री. म. माटे
  • “आदर्श अनुवाद कृती ही मूळ साहित्य कृतिशी फार इमान राखून बांधलेली किवा फार दूर गेलेली मोकळी असू नये आशयाची समानता साधणारा अनुवाद अधिक स्वीकारार्य ठरते. – डॉ. द. भि. कुलकर्णी
  • भाषांतर ही संहितेची एका भाषिक – सांस्कृतिक आवरणातून दुसऱ्या भाषिक आवरणातून, दुसऱ्या भाषिक आवरणात स्थानांतर करणारी द्वैभाषिक प्रक्रिया आहे. भाषांतर म्हणजे एका भाषेतील, वाक्यातील अर्थ दुसऱ्या भाषेतील वाक्यामध्ये जसाच्या तसा आणणे – भालचंद्र नेमाडे
  • “Translation is the replacement of tertual Materialin one language (Source Language) by equivalent tertual Material another language (Target Language)” I.C. Catford
  • Nida – Translating consists in producing in the recpeter language The ciasest natural equivalent to the message of the source language First in meaning and secondly in style” याने शैलीला महत्व दिले.

 

  • Translation is the transference of the content of text from one language in to another, bearing in mind that we can note always dissociate the content from the from” – Foressten

उपरोक्त व्याख्यांचा अभ्यास करताना असे जाणवते की, एकही व्याख्या अनुवादाच्या वैशिष्ट्यांनी परिपूर्ण अशी नाही प्रत्येकजण वेगवेगळ्या पद्धतीने व्याख्या करण्याचा प्रयत्न करतो. अनुवाद ही एक व्यापक संज्ञा आहे आणि भाषांतर त्याच्यात सामावणारी संज्ञा आहे.

            अनुवाद करताना भाषेत व्यक्त झालेले विचार दुसऱ्या भाषेत सांगण्याचा प्रयत्न करणे होय. – डॉ. द.भि. कुलकर्णी यांच्या मतानुसार अनुवाद मूळ साहित्य कृतींशी जास्त प्रमाणात दिलेली किवा फार दूर गेलेली असू नये. तर श्री.म.माटे म्हणतात की मूळ साहित्य कृतीत सर्वच्या सर्व अभिप्राय अनुवादित साहित्य कृतीत सांगावे. पाश्चात्य मीमासंक Nida शैलीला महत्व देताना दिसतो.

            उपरोक्त सर्व मीमासांकानी केलेल्या व्याख्या उत्कृष्ट आहेत. त्याचा परामर्श घेताना अनुवादाचे स्वरूप हळूहळू उलगडत जाते.    

 

  • संकल्पना आणि स्वरूप

अनुवादाचा अर्थ म्हणजे एका भाषेतील कलाकृती दुसऱ्या  भाषेत नेणें एवढाच नाही तर मूळ कलाकृती सामाजिक, ऐतिहासिक ,राजकीय वातावरणाची निर्मिती असते त्याच जाणिवेने ती अनुवादित करावी लागत असते. रोमन काळापासूनच अनुवाद संकल्पनेचा विकास झालेला आहे. एरिक याकोबसन यांच्या मतानुसार भाषांतर करणे ही रोमन लोकांनी शोधलेली कला आहे. तर सिसेरी होरॅस यांनी अनुवाद संकल्पनेचा विचार केला आहे.

            अनुवाद करताना ब-याचदा वाक्यरचनेत नव्याने बदल करावे लागतात. सम मूल्यांकाचा आधार घेत अनुवादकाला आपले कार्य यशस्वीपणे सिद्ध करावे लागते ही वस्तुस्थिती आहे. भाषेत भाव जाणिवाचे रचना तंत्र वेगळे असते. प्रत्येक भाषेत भाव जाणिवाचे अनेक रूपबंध असतात आणि त्यांची स्वतःची वैशिष्ट्येही असतात. विशिष्ट रचना आणि प्रणाली यामुळे भाषेची एक विश्व धारणा निर्माण होत असते या सर्वांचा समावेश अनुवाद संकल्पनेत होत असतो. जॉर्ज स्टेनर या अभ्यासकाने आफ्टर बायबल” या ग्रंथामध्ये अनुवाद संकल्पनेचे विश्लेषण केले.

अनुवाद ही भाषा विज्ञानाची एक शाखा आहे. एका भाषेचा दुस-या भाषेशी असलेला संबध शोधण्यासाठी अनुवाद कला आवश्यक आहे. भाषा मधील समानता तसेच त्यातील फरक यांची माहिती अनुवादामुळे मिळते. अनुवादाला आधुनिक जीवनामध्ये सामाजिक ,राजकीय, आर्थिक, सांस्कृतिक, वैज्ञानिक अशा सर्वच क्षेत्रामध्ये राष्ट्रीय व आंतरराष्ट्रीय स्तरावर व्यापक रूप प्राप्त झाले आहे. साहित्यातील अनुवादाने संस्कृती समृद्ध होते.

प्र. ना. परांजपे म्हणतात, अनुवाद म्हणजे मौखिक किवा लिखित भाषेच्या माध्यमातून एकदा व्यक्त झालेल्या आशयाची त्याच भाषेचा किँवा दुसऱ्या एखाद्या भाषेच्या माध्यमातून पुन्हा केलेली मौखिक किवा लिखित अभिव्यक्ती होय.

डॉ. कल्याण काळे म्हणतात, “पूर्ण सिद्ध मजकूराचे स्पष्टीकरण विवरण अथवा विस्तार म्हणजे अनुवाद होय.” दात्यांच्या शब्द कोशात पुन्हा पुन्हा सांगणे. पाठ करणे, स्पष्ट करणे असा अर्थ सांगितला आहे.

अनुवाद ही दोन संस्कृती मधील अंतरक्रिया असते तशीच ती दोन भाषामधील अंतरक्रिया असते. त्या भाषांपैकी ज्या भाषेतल्या मजकुराचा अनुवाद करायचा त्या भाषेला मूळ भाषा अथवा स्त्रोत भाषा (Source language) म्हणतात. तर ज्या भाषेत अनुवाद करायचा तिला लक्ष्य भाषा (Target Language) म्हणतात. प्रत्येक भाषेला एक परंपरा असते आणि त्या भाषेतील साहित्यात ज्ञान भांडाराचे संचित असते त्यामुळे अनुवाद करणे म्हणजे एखाद्या साहित्य कृतीचे शब्दशः भाषांतर करणे नव्हे तर मूळ साहित्य कृती मधील सांस्कृतिक, सामाजिक, वातावरण विचार आणि भाव भावना दुसऱ्या भाषेतील वाचका पर्यंत पोहचविणे होय.

मराठी साहित्याच्या संदर्भात चंद्रशेखर जहागीरदार यांची अनुवाद मीमांसा ही तौलानिक साहित्य अभ्यासक असणारी प्रमुख संकल्पनात्मक घटना आहे असे मानले तर तौलानिक साहित्यचे हिंदी अभ्यासक नरेश गुहा यांनी तौलानिक भाषांतराचा समावेश करता येईल असे म्हटले आहे. त्यामुळे तौलानिक साहित्याची एक शाखा म्हणून अनुवादाचा विचार केला जात होता. १९५८ साली पाश्च्यात्य देशात झालेल्या आंतरराष्ट्रीय चर्चा सत्रात तौलानिक साहित्य अभ्यासकांमध्ये जागतिक साहित्यांचा आस्वाद घेण्याच्या संदर्भात भाषांतर ही संकल्पना पुढे आली आहे असे अभ्यासकांनी नमूद केले आहे. एका भाषेतील साहित्याचा अन्य भाषिकांनी आस्वाद घ्यायचा असला तरी तो भाषांतरा शिवाय शक्य नाही.                            (वसंत डहाके २०११/२१८) अशा स्वरुपात अनुवाद संकल्पना पुढे आली असली तरी भाषांतर मीमांसा ही स्वतःच एक ज्ञान शाखा असून ती तौलानिक साहित्य अभ्यासकांची एक शाखा नव्हे किवा भाषा विज्ञानाचे ही विशिष्ट असे अभ्यास क्षेत्र नव्हे. तिचे स्वतःचे असे व्यापक आणि व्यामिश्र असे अभ्यास क्षेत्र आहे. (वसंत आबाजी डहाके २०११.२९५) असेही स्पष्ट झाले. तौलानिक साहित्य अभ्यासक क्षेत्रा बरोबरच अनुवादाचा संबध हा शैली विज्ञान, भाषा विज्ञान आणि वाड्मय इतिहास ,सौंदर्य शास्त्र ,चिन्ह मीमांसा या ज्ञानशाखांशी आहे. तौलानिक साहित्याच्या अभ्यासात समान संस्कृती आणि भाषा यांचा विचार साहित्याच्या संदर्भात केला जातो. अनुवादामध्ये स्त्रोत भाषेतील साहित्य कृतीचा लक्ष्य भाषेतील साहित्य कृतीवरील प्रभाव महत्वाचा ठरत असतो. तौलानिक साहित्य अभ्यासात भाषांतर प्रक्रियेचा विचार केलेला नसतो. या कारणाने भाषांतर मीमांसेला स्वतंत्र स्थान प्राप्त झाले.

भाषेच्या अनेक बाजूचा विचार करणारे भाषा विज्ञान अनुवादाच्या क्षेत्रामध्ये महत्वाचे ठरते. साहित्य कृतींचा भाषा वैज्ञानिक दृष्ट्या अभ्यास करताना अनुवादकाला प्रामुख्याने भाषेचे संज्ञापनाचे कार्य लक्षात घेऊनच भाषिक संरचनेला हात घालावा लागतो. अनुवाद वाक्यांश आशयानुसार व लक्ष्य भाषेत आकृत्रिम ठरते आहे का हे पहिले जाते. भाषा विज्ञानात अर्थाला महत्व असल्याने अनुवाद करताना व्यंग्यार्थ सूचन करणारे घटक स्वतः योजना, वृत्ती योजना, वाक्य रचना नादानुवतित्व इत्यादी घटकाचा विचार करावा लागतो.

यावरून अनुवाद मीमांसेचे क्षेत्र व्यापक स्वरूपाचे आहे हे लक्षात येते. अनुवाद करताना मूळ भाषेतील सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय, आचार – विचार, अर्थ, भावना या सगळ्यातच सहजता आली पाहिजे या घटकांचा विचार अनुवादाच्या स्वरुपामध्ये केला आहे.

अनुवाद म्हणजे पूर्वी केलेल्या कृतीचीच पुनरावृत्ती करणे. आज आपण पाहिले तर सर्वत्र अनुवाद आणि भाषांतर या संज्ञा एकाच अर्थाने वापरल्या जातात परंतु असे करणे चूक आहे अनुवाद हा दोन प्रकारचा असू शकतो उदा. मल्लीनाथाची टीका हा योग वसिष्ठात्मक तयार झालेला आहे. हा भाषिक अनुवाद तर प्राकृत ग्रंथाच्या संस्कृत छाया, रामायण, महाभारताची निरनिराळ्या भाषामधून झालेली रुपांतरे. महाभारताची गीते वरील टीका म्हणजे ज्ञानेश्वरी हा अनुवाद भिन्न भाषिक अनुवाद सांगता येईल अनुवादाला मोठी परंपरा आहे. जगातल्या भाषेमध्ये उत्तोमोत्तम साहित्य आज उपलब्ध आहे.

सारांश

मूळ भाषेतील साहित्य कृतीचा साध्य भाषेत अनुवाद करणे म्हणजे एका सांस्कृतिक संदर्भातील अनुवादाला अर्थासह दुसऱ्या समूहाला नव्याने ओळख करून दिली जाते. दोन समान भौगोलिक परिस्थितीने एकमेकांपासून दूर असते तरी अशा आविष्कारांच्या माध्यमातून मूळ कलाकृती अनुवादका मार्फत वाचका पर्यंत पोहचविली जाते. साध्य भाषा आणि मूळ भाषा जर एकाच देशातील असतील तर सामाजिक सांस्कृतिक जडणघडणीत फार भिन्नता आढळत नाही , परंतु परकीय भाषेत अनुवाद करताना भिन्नता आढळते.

अनुवादित साहित्याचा स्वातंत्र्योत्तर काळातील साहित्याच्या तौलानिक अभ्यासामुळे विशेष महत्व प्राप्त झाले. जगाच्या पाठीवर अनेक भाषा बोलल्या जात असल्याने मानवाने जीवन व्यवहारात त्रिभाषा सूत्रीचा स्वीकार केला आहे. माणसाने देश काळ ,भाषा यांच्या सीमा ओलांडून निर्माण केलेला विचार इतरांपर्यंत पोहचविणे हे अत्यंत महत्वाचे कार्य अनुवादामुळे घडलेले आहे. मानवी जीवनाच्या सर्व क्षेत्राचा विकास करायचा असेल तर अनुवाद अतिशय महत्वाचा आहे. जागतिक पातळीवर गाजलेली पुस्तके मराठीमध्ये लवकर अनुवादित होताना दिसतात. संस्कृतीचे आदान प्रदान या घटकामुळे अनुवाद महत्वाचे ठरते.

 

संदर्भ ग्रंथ

  • काळे, कल्याण सोमण अंजली सेवा भाषांतर मीमांसा प्रतिमा प्रकाशन पुणे प्रथम आवृत्ती १९९४
  • गोपीनाथजी, अनुवाद सोच और संस्कार, पृष्ठ क्र ९ .
  • परांजपे प्र.न. मराठी वाङ्मय कोश खंड चौथा संपादक विजया राज्याध्यक्ष महाराष्ट्र साहित्य आणि संस्कृती मंडळ मुबई १४
  • माटे श्री. म. विवेक मंडळ विकास मंडळ पुणे प्रथम आवृत्ती
  • डहाळे वसंत आबाजी २०११. मराठी समीक्षेची सद्यस्थिती पॉप्युलर प्रकाशन

जोशी लक्ष्मनशास्त्री (सेवा) १९८५ मराठी विश्वकोश खंड १८

महाराष्ट्र राज्य मराठी शब्दकोश निर्मिती मंडळ मुबई.  




अनुवाद के प्रकार

अनुवाद शब्द का संबंध ‘वद ‘धातु से है, जिसका अर्थ होता है ‘बोलना’ या ‘कहना’। वद् में  धत्र प्रत्यय लगने से वाद शब्द बनता है। अनुवाद का मूल अर्थ है पुनः कथन या   किसी के कहने के बाद कहना। प्राचीन भारत में शिक्षा के मौलिक परंपरा थी। गुरु जी कहते थे उसे दोहराते थे। इस दोहराने को भी अनुवाद या अनु वचन कहते थे। एक भाषा की किसी सामग्री का दूसरी भाषा में रूपांतरण ही अनुवाद है। इस तरह अनुवाद का कार्य है एक  भाषा में व्यक्त विचारों को दूसरी भाषा में व्यक्त करना। यह बहुत सरल कार्य नहीं है।  हर भाषा विशिष्ट परिवेश में पनपती है।एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथा समय सहज किसी व्यक्ति द्वारा भाषा में व्यक्त करने का प्रयास अनुवाद कहलाता है।

         अनुवाद का मूल उद्देश्य भाषा की रचना के भाव या विचार तथ्य भाषा में यथा समय अपने मूल रूप में लाना। अनुवाद के लिए स्त्रोत्र भाषा में भाषा या विचारों की व्यक्त करने के लिए जिस अभिव्यक्ति का प्रयोग है उसके यथासंभव समान या अधिक से अधिक समान अभिव्यक्ति की खोज लक्ष्य भाषा में होनी चाहिए। लक्ष्य भाषा में स्त्रोत्र भाषा के यथा समय जिस अभिव्यक्ति की खोज हो लक्ष्य भाषा में सहयोग।

     अनुवाद को कला और विज्ञान दोनों ही रूपों में स्वीकारने की मानसिकता इसी कारण  पल्लवित हुई है कि संसारभर की भाषाओं के पारस्परिक अनुवाद की कोशिश अनुवाद की अनेक शैलियों और प्रविधियों की ओर इशारा करती हैं।

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अनुवाद की एक भंगिमा तो यही है कि किसी रचना का साहित्यिक-विधा के आधार पर अनुवाद उपस्थित किया जाए। यदि किसी नाटक का नाटक के रूप में ही अनुवाद किया जाए तो ऐसे अनुवादों में अनुवादक की अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का वैशिष्ट्य भी अपेक्षित होता है। अनुवाद का एक आधार अनुवाद के गद्यात्मक अथवा पद्यात्मक होने पर भी आश्रित है। ऐसा पाया जाता है कि अधिकांशतः गद्य का अनुवाद गद्य में अथवा पद्य में ही उपस्थित हो, लेकिन कभी-कभी यह क्रम बदला हुआ नजर आता है। कई गद्य कृतियों के पद्यानुवाद मिलते हैं, तो कई काव्य कृतियों के गद्यानुवाद भी उपलब्ध हैं। अनुवादों को विषय के आधार पर भी वर्गीकृत किया जाता है और कई स्तरों पर अनुवाद की प्रकृति के अनुरूप उसे मूल-केंद्रित और मूल मुक्त दो वर्गों में भी बाँटा गया है। अनुवाद के जिन सार्थक और प्रचलित प्रभेदों का उल्लेख अनुवाद विज्ञानियों ने किया है, उनमें शब्दानुवाद, भावानुवाद, छायानुवाद, सारानुवाद, व्याख्यानुवाद, आशु अनुवाद और रूपांतरण को सर्वाधिक स्वीकृति मिली है।

·             अनुवाद के प्रकार :-

  1.गद्यानुवाद : गद्यानुवाद सामान्यत: गद्य में किए जानेवाले अनुवाद को कहते हैं।    किसी भी गद्य रचना का गद्य में ही किया जाने वाला अनुवाद गद्यानुवाद कहलाता है। किन्तु कुछ विशेष कृतियों का पद्य से गद्य में भी अनुवाद किया जाता है। जैसे ‘मेघदूतम्’ का हिन्दी कवि नागार्जुन द्वारा किया गद्यानुवाद।

2.पद्यानुवादपद्य का पद्य में ही किया गया अनुवाद पद्यानुवाद की श्रेणी में आता है। दुनिया भर में विभिन्न भाषाओं में लिखे गए काव्यों एवं महाकाव्यों के अनुवादों की संख्या अत्यन्त विशाल है। इलियट के ‘वेस्टलैण्ड’, कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘कुमारसंभवम्’ तथा टैगोर की ‘गीतांजलि’ का विभिन्न भाषाओं में पद्यानुवाद किया गया है। साधारणत: पद्यानुवाद करते समय स्रोत-भाषा में व्यवहृत छंदो का ही लक्ष्य-भाषा में व्यवहार किया जाता है।

 

3.छंद मुक्तानुवादइस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक को स्रोत-भाषा में व्यवहार किए गए छंद को अपनाने की बाध्यता नहीं होती। अनुवादक विषय के अनुरूप लक्ष्य-भाषा का कोई भी छंद चुन सकता है। साहित्य में ऐसे अनुवाद विपुल संख्या में उपलब्ध हैं।

 4.काव्यानुवाद : स्रोत-भाषा में लिखे गए काव्य का लक्ष्य-भाषा में रूपांतरण काव्यानुवाद कहलाता है। यह आवश्यकतानुसार गद्य, पद्य एवं मुक्त छंद में किया जा सकता है। होमर के महाकाव्य ‘इलियड’ एवं कालिदास के ‘मेघदूतम्’ एवं ‘ऋतुसंहार’ इसके उदाहरण हैं।

  1. नाट्यानुवाद :किसी भी नाट्य कृति का नाटक के रूप में ही अनुवाद करना नाट्यानुवाद कहलाता है। नाटक रंगमंचीय आवश्यकताओं एवं दर्शकों को ध्यान में रखकर लिखा जाता है। अत: इसके अनुवाद के लिए अभ्यास की आवश्यकता होती है। संस्कृत के नाटकों के हिंदी अनुवाद तथा शेक्सपियर के नाटकों के अन्य भाषाओं में किए गए अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  2. कथा अनुवाद :कथा अनुवाद के अंतर्गत कहानियों एवं उपन्यासों का कहानियों एवं उपन्यासों के रूप में ही अनुवाद किया जाता है। विश्व प्रसिदध उपन्यासों एवं कहानियों के अनुवाद काफ़ी प्रचलित एवं लोकप्रिय हैं। मोपासाँ एवं प्रेमचंद की कहानियों का दुनिया की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ है। रूसी उपन्यास ‘माँ’, अंग्रेजी उपन्यास ‘लैडी चैटर्ली का प्रेमी’ तथा हिंदी साहित्य के ‘गोदान’, ‘त्यागपत्र‘ तथा ‘नदी के द्वीप’ के विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए हैं।

7.शब्दानुवाद : स्रोत-भाषा के शब्द एवं शब्द क्रम को उसी प्रकार लक्ष्य-भाषा में रूपांतरित  करना शब्दानुवाद कहलाता है। यहाँ अनुवादक का लक्ष्य मूल-भाषा के विचारों को रूपांतरित करने से अधिक शब्दों का यथावत् अनुवाद करने से होता है। शब्द एवं शब्द क्रम की प्रकृति हर भाषा में भिन्न होती है।

अत: यांत्रिक ढंग से उनका यथावत अनुवाद करते जाना काफ़ी कृत्रिम, दुर्बोध्य एवं निष्प्राण हो सकता है। शब्दानुवाद उच्च कोटि के अनुवाद की श्रेणी में नहीं आता।

8.भावानुवाद : साहित्यिक कृतियों के संदर्भ में भावानुवाद का विशेष महत्त्व होता है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल-भाषा के भावों, विचारों एवं संदेशों को लक्ष्य-भाषा में रूपांतरित  किया जाता है। इस संदर्भ में भोलानाथ तिवारी का कहना है : ‘मूल सामग्री यदि सूक्ष्म भावों वाली है तो उसका भावानुवाद करते हैं।’ भावानुवाद में संप्रेषिता सबसे महत्त्वपूर्ण होती है। इसमें अनुवादक का लक्ष्य स्रोत-भाषा में अभिव्यक्त भावों, विचारों एवं अर्थों का लक्ष्य-भाषा में अंतर करना होता है। संस्कृत साहित्य में लिखे गए कुछ ललित  निबंधों के हिंदी अनुवाद बहुत ही सफल सिद्ध हुए हैं।

  1. छायानुवादअनुवाद सिद्धांत में छाया शब्द का प्रयोग अति प्राचीन है। इसमें मूल-पाठ की अर्थ छाया को ग्रहण कर अनुवाद किया जाता है। छायानुवाद में शब्दों, भावों तथा संकल्पनाओं के संकलित प्रभाव को लक्ष्य-भाषा रूपांतमेंण किया जाता है। संस्कृत में लिखे गए भास के नाटक ‘स्वप्नवासवदत्तम्’ एवं कालिदास के नाटक ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ के हिंदी अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  2. सारानुवाद :सारानुवाद का अर्थ होता है किसी भी विस्तृत विचार अथवा सामग्री का संक्षेप में अनुवाद प्रस्तुत करना। लंबी रचनाओं, राजनैतिक भाषणों, प्रतिवेदनों आदि व्यावहारिक कार्य के अनुवाद के लिए सारानुवाद काफ़ी उपयोगी सिद्ध होता है। इस प्रकार के अनुवाद में मूल-भाषा के कथ्य को सुरक्षित रखते हुए लक्ष्य-भाषा में उसका रूपांतरण कर दिया जाता है। सारानुवाद का प्रयोग मुख्यत: दुभाषिये, समाचार पत्रों एवं दूरदर्शन के संवाददाता तथा संसद एवं विधान मंडलो के रिकार्ड कर्ता करते हैं।
  3. व्याख्यानुवादव्याख्यानुवाद को भाष्यानुवाद भी कहते हैं। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक मूल सामग्री के साथ-साथ उसकी व्याख्या भी प्रस्तुत करता है। व्याख्यानुवाद में अनुवादक का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण होता है।

और कई जगहों में तो अनुवादक का व्यक्तित्व एवं विचार मूल रचना पर हावी हो जाता है।बाल गंगाधर तिलक द्वारा किया गया ‘गीता’ का अनुवाद इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

  1. आशु अनुवादआशु अनुवाद को वार्तानुवाद भी कहते हैं। दो भिन्न भाषाओं, भावों एवं विचारों का तात्कालिक अनुवाद आशु अनुवाद कहलाता है। आज जैसे विभिन्न देश एक दूसरे के परस्पर समीप आ रहे हैंI इस प्रकार के तात्कालिक अनुवाद का महत्त्व बढ़ रहा है। विभिन्न भाषा-भाषी प्रदेशों एवं देशों के बीच राजनैतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व के क्षेत्रों में आशु अनुवाद का सहारा लिया जाता है।
  2. आदर्श अनुवाद :- आदर्श अनुवाद को सटीक अनुवाद भी कहा जाता है। इसमें अनुवादक आचार्य की भूमिका निभाता है तथा स्रोत-भाषा की मूल सामग्री का अनुवाद अर्थ एवं अभिव्यक्ति सहित लक्ष्य-भाषा में निकटतम एवं स्वाभाविक समानार्थों द्वारा करता है। आदर्श अनुवाद में अनुवादक तटस्थ रहता है तथा उसके भावों एवं विचारों की छाया अनूदित सामग्री पर नहीं पड़ती। रामचरितमानस, भगवद्गीता, कुरान आदि धार्मिक ग्रंथ के सटीक अनुवाद इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
  3. रूपांतरण :- आधुनिक युग में रूपांतरण का महत्त्व बढ़ रहा है। रूपांतरण में स्रोत-भाषा की किसी रचना का अन्य विधा(साहित्य रूप) में रूपांतरण कर दिया जाता है। संचार माध्यमों के बढ़ते हुए प्रभाव एवं उसकी लोकप्रियता को देखते हुए कविता, कहानी आदि साहित्य रूपों का नाट्यानुवाद विशेष रूप से प्रचलित हो रहा है। ऐसे अनुवादों में अनुवादक की अपनी रुचि एवं कृति की लोकप्रियता महत्त्वपूर्ण होती है। जैनेन्द्र, कमलेश्वर, अमृता प्रीतम, भीष्म साहनी आदि की कहानियों के रेडियो रूपांतरण प्रस्तुत किए जा चुके हैं। ‘कामायनी’ महाकाव्य का नाट्य रूपांतरण काफ़ी चर्चित हुआ है। 

रूपांतरण अनुवाद का पुनर्सृजित रूप के निम्नलिखित दो उदाहरण –
उदाहरण-1  मूल : लूटि सकै तौ लूटियौ, राम नाम है लूटि ।
पीछैं ही पछिताहुगे, यह तन जैहै छूटि ।।
                                                            

                                                    अनुवादRejoice O Kabir

In this great feast
of Love !
Once death
knocks at your door,
This golden moment
will be gone
For ever !
                -Translated by Sahdev Kumar

 

उदाहरण– 2 मूल One Moment in Annihilation’s Waste,
One Moment, of the Well of Life to taste
The Stars are setting and the Caravan,
Starts for the dawn of Nothing& oh, make haste!
                                                        -Rubaiyat (Fitzgerald) 

अनुवाद –  अरे, यह विस्मृति का मरु देश
        एक विस्तृत है, जिसके बीच
        खिंची लघु जीवन-जल की रेख,
        मुसाफ़िर ले होठों को सींच ।
                              एक क्षण, जल्दी कर, ले देख
                              बुझे नभ-दीप, किधर पर भोर
                 कारवाँ मानव का कर कूच
                 बढ़ चला शून्य उषा की ओर !
              उपर्युक्त दोनों अनुवाद मूल के आधार पर नई रचनाएँ बन गई हैं। ये अनुवाद नहीं बल्कि मूल का ‘अनुसृजन’ है। इसमें मूल लेखक की भाँति अनुवादक की सृजनशील प्रतिभा की स्पष्ट झलक देखने को मिल रही है। राजशेखर दास ने ठीक ही कहा है : ‘कविता का अनुवाद कितना ही सुंदर क्यों न हो वह केवल मूल विचारों पर आधृत एक नई कविता ही हो सकती है।’ यही कारण है कि साहित्यिक अनुवाद को एक कलात्मक प्रक्रिया माना गयाI               

                                 

  • निष्कर्ष : –

     अनुवाद कि विभिन्न परिभाषाएँ तथा अनुवाद संबंधी प्रस्तुत किए गए विचारों के आधार पर अनुवाद के स्वरूप को लेकर यही कहा जा सकता है कि,किसी का संदेश आशा में प्रस्तुत करना अनुवाद है।अनुवाद में मूल का अर्थ तथा सुरक्षित रहे और लक्ष्य भाषा में सरल सहज प्रतीत हो। अनुवाद के स्वरूप से संबंधित यह तथ्य कार्य के प्रमुख आधारभूत घटक निश्चित करता है। स्त्रोत भाषा और उसके स्वरूप का ज्ञान होना तथा स्रोत भाषा में प्रस्तुत संदेश और उसके स्वरूप का ज्ञान होना आवश्यक हैI
 

संदर्भग्रंथ सूची :-

 1) अनुवाद विज्ञान – डॉ भोलानाथ तिवारी, प्रकाशक – शब्दाकार 1672
 2)अनुवाद कला सिद्धांत और प्रयोग – डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया
 3)अनुवाद सिद्धान्त और प्रयोग – भोलानाथ तिवारी 1972 : 202-14

 

 

                            

 




महिला दिवस पर विशेष

*नारी दिवस विशेष*
महाभारत होता है औरत से
सिख अभी इस बात को सुनकर
गर अपमान किया औरत का
हर चौराहा महाभारत होगा ,

बचा नही कोई दुनिया में
औरत के अपमानों से
औरत की सम्मान में सुख हैं
अपमान में लाखों शहादत होगा,

हर मुश्किल से लौट के आया
औरत का सम्मान किया जो
औरत का सम्मान हमेसा
ईश्वर का ही इबादत होगा,

औरत की अपमान से मिटा
कुरु रावण का वंश ही सारा
औरत की जो मान में मिटा
उसी का सारा इमारत होगा ,

चाहे यवन हो चाहे गगन हो
सब औरत के लिए ही डूबा
बचा ना पाया अपनी दौलत
जो लड़ा उसकी का रियासत होगा,

औरत का सम्मान किया जो
उसकी बात हमेसा माना
रहेगा हरदम शौकत उसकी
उसी का हरदम सियासत होगा ।।
©बिमल तिवारी “आत्मबोध”
   देवरिया उत्तर प्रदेश