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*शिक्षा और समाज में समावेश के लिए बहुभाषावाद को बढ़ावा दे*

*शिक्षा और समाज में समावेश के लिए बहुभाषावाद को बढ़ावा दे*

हर साल 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। मानवीय अस्तित्व भाषा के साथ इस प्रकार संबंधित है कि एक के अभाव में दूसरे का स्वरूप ही स्पष्ट नहीं होता। यह मानव जाति की विशेषता है कि शिशु अवस्था से ही वह भाषिक क्षमता जन्म के साथ ले आता है। अन्य किसी प्राणी में यह विलक्षण क्षमता नहीं होती अतः भाषा को मानव जीवन का वरदान कहा जा सकता है। भाषा को मानव का सर्वोच्च उत्कृष्ट प्रभावशाली माध्यम और आविष्कार माना जा सकता है। इसकी तुलना में बड़े-बड़े आविष्कार भी नगण्य है। वस्तुतः विभिन्न आविष्कारों के मूल में भाषा की शक्ति ही है ।

इस दिवस के पीछे का इतिहास—
दरअसल, 21 फरवरी के दिन 1952 में ढाका विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी मातृभाषा का अस्तित्व बनाए रखने के लिए एक विरोध प्रदर्शन किया था। यह विरोध प्रदर्शन बहुत जल्द एक नरसंहार में बदल गया जब तत्कालीन पाकिस्तान सरकार की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसा दी। इस घटना में 16 लोगों की जान गई थी। भाषा के इस बड़े आंदोलन में शहीद हुए लोगों की स्मृति में 1999 में यूनेस्को (United Nation) ने पहली बार अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी। कह सकते हैं कि बांग्ला भाषा बोलने वालों के मातृभाषा के लिए प्यार की वजह से ही आज पूरे विश्व में अपनी मातृभाषा के नाम एक दिन अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में मनाते है। बांग्लादेश में इस दिन एक राष्ट्रीय अवकाश होता है।
इस दिवस को मनाने का उद्देश्य है कि विश्व में भाषाई एवँ सांस्कृतिक विविधता और बहुभाषिता को बढ़ावा मिले।
2000 को अन्तर्राष्ट्रीय भाषा वर्ष घोषित करते हुए, संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के महत्व को फिर दोहराया है। हर साल इस दिवस की अलग थीम होती है। 2021 के लिए इस दिन की थीम रखी गई है, “Fostering multilingualism for inclusion in education and society” यानि “शिक्षा और समाज में समावेश के लिए बहुभाषावाद को बढ़ावा देना” भाषा के ज़रिये ही देश और विदेशों के साथ संवाद स्थापित किया जा सकता है।
मातृभाषा का शाब्दिक अर्थ है — मां की भाषा; जिसे बालक मां के सानिध्य में रहकर सहज रूप से सुनता और सीखता है। मातृभाषा मानव अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य परिवार जनों के बीच रहकर सहज और स्वाभाविक रूप से सीखता है, क्योंकि शिशु मां के सानिध्य में अधिक रहता है इसलिए बचपन से सीखी गई बोली या भाषा को मातृभाषा का नाम दिया जाता है। मातृभाषा को मनुष्य का प्रथम भाषा कहा जा सकता है। मातृभाषा सामाजिक दृष्टि से निर्धारित व्यक्ति की आत्मीय भाषा है जिसके द्वारा उसकी अस्मिता किसी भाषाई समुदाय से उसके सामाजिक परंपरा और संस्कृति की विशेषताओं से संबंध होती है।
भारत में *नई शिक्षा नीति 2020* ने निचले स्तर की पढ़ाई के माध्यम के लिए मातृभाषा या स्थानीय भाषा के प्रयोग पर ज़ोर दिया गया है। जिसका उद्देश्य बच्चों को उनकी मातृभाषा और संस्कृति से जोड़े रखते हुए उन्हें शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाना है। अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा में बच्चे को पढ़ने में आसानी होगी और वह जल्दी सीख पाएगा उसकी नींव मजबूत होगी। इसी प्रकार उच्च शिक्षा के स्तर पर भी बहुभाषिकता को राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्वीकार किया गया है, परंतु चुनौती है इसके क्रियान्वयन की। हमारे देश में भाषा के प्रति अनेक प्रकार के भ्रम फैले हैं, जिनमें एक भ्रम है कि अंग्रेजी विकास और ज्ञान की भाषा है। इस बात से यूनेस्को सहित अनेक संस्थानों के अनुसंधान यह सिद्ध कर चुके हैं कि अपनी भाषा में शिक्षा से ही बच्चे का सही मायने में विकास हो पाता है। इस हेतु मातृभाषा में शिक्षा पूर्ण रूप से वैज्ञानिक दृष्टि है। इसी मत को भारत के राष्ट्रीय मस्तिष्क अनुसंधान केंद्र तथा शिक्षासंबंधित सभी आयोगों आदि ने भी माना है। कोठारी आयोग नें सबसे पहले शिक्षा के लिए त्रिभाषा फॉर्मूला दिया था। जिसमें राजभाषा, मातृभाषा के साथ एक विदेशी भाषा पढ़ाने की बात की गयी थी।
भारत के कई महान मनीषियों ने मातृभाषा के संदर्भ में सकारत्मक टिप्पणियां भी कि है —–
भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में प्रसिद्ध *कवि भारतेंदु हरिश्चंद* जी ने निज भाषा का महत्त्व बताते हुए लिखा हैं कि—
*‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल। बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।’*
भारत की निज भाषा से भारतेन्दु जी का तात्पर्य हिन्दी सहित भारतीय अन्य भाषाओँ से रहा हैं। उनके अनुसार अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषाओँ में प्राप्त शिक्षा से आप प्रवीण तो हो जाओगे किन्तु सांस्कृतिक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण से हीन ही रहोगे। उसी काल में भारतेन्दु जी ने मातृभाषा में शिक्षा की अवधारणा को भी साकार करने का अनुग्रह किया हैं। सांस्कृतिक और सामाजिक वैभव की स्थापना का प्रथम पायदान निज भाषा यानी मातृभाषा में शिक्षा में ही निहित हैं। बिना मातृभाषा के ज्ञान और अध्ययन के सब व्यवहार व्यर्थ हैं।
*महात्मा गांधी* ने कहा था, “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वह सृजन के लायक नहीं रहे…..विदेशी भाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है। इसी संदर्भ में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एवं वैज्ञानिक *डॉ. अब्दुल कलाम* के शब्दों का यहां उल्लेख आवश्यक है, “मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की।’’
परन्तु ऐसा भी है कि मनुष्य को अलग-अलग भाषा भी सीखना चाहिए *भाषा किसी की पैतृक संपत्ति नहीं होती*। कोई भी किसी भी भाषा को सीख ले वह भाषा उसका बन जाती है। भाषा, उपभाषा, बोली, उपबोली ही किसी भी जाति- समुदाय की साहित्य – संस्कृति को समृद्ध बनाती है, इसके द्वारा व्यक्ति अपनी व्यक्तित्व का विकास करता है, विभिन्न साहित्य का रसास्वादन भी किया जा सकता है।
कुछ भाषा आपको सुनने में अट -पट्टा सा लग सकता है, समाज में ऐसे कई व्यक्ति भी मिल जाते हैं जो अपनी मातृभाषा को घर के बाहर बोलने में संकोच महसूस करते हैं परंतु हर भाषा की अपनी गरिमा होती है और हमें हर प्रकार की बोली,भाषाओं के प्रति सम्मान प्रदर्शन करना चाहिए। बहुभाषिकता के महत्व के उपरांतराष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्धन में पिछड़ रहे हैं। यूनेस्को के अनुसार विश्व में बोली जाने वाली लगभग छः हजार भाषाओं में से 43% भाषाएं धीरे-धीरे समाप्त होने की कगार पर है। पीपल्स लिंग्विस्टिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में 780 भाषाएं है तथा पिछले 50 वर्षों में 220 भाषाएं लुप्त हो गई है तथा 197 भाषाएं लुप्तप्राय होने के कगार पर है। आधुनिक, दिची, घल्लू, हेल्गो तथा बो कुछ ऐसी भाषाएं है जो देश में विलुप्त हो चुकी हैं।
भाषा के महत्त्व की स्वीकृति आधुनिक युग की उपलब्धि नहीं है बल्कि मानव संस्कृति के विकास काल से ही भाषा का महत्व स्वीकृत रहा है वेदों में इसकी भूरी भूरी प्रशंसा हुई है। ऋग्वेद में तो इसकी तुलना देवी शक्ति से की गई है—
” महो देवो मत्यो आ विवेष ”
अतः यह कहना चाहूंगी
मातृभाषा केवल ज्ञान प्राप्ति ही नहीं बल्कि मानवाधिकार संरक्षण, सुशासन, शांति-निर्माण, सामंजस्य और सतत विकास के हेतु एक आधारभूत अर्हता है। मातृभाषा को मित्रभाषा बनाइए मात्रभाषा बनाकर मृत भाषा ना बनाएं, मातृभाषा की उन्नति के लिए हमे हमेशा प्रयासरत रहना चाहिए। यही हमारा कर्तव्य है……

मंजूरी डेका
विषय शिक्षिका
नाइट उच्त्तर माध्यमिक विद्यालय
गुवाहाटी, असम
ईमेल- [email protected]




मौन

 

जुबान ,जिह्वा और आवाज़ जिसके संयम संतुलन खोने से मानव स्वयं खतरे को आमंत्रित करता है और ईश्वरीय चेतना की सत्ता को नकारने लगता है।अतः जिह्वा जुबान का सदैव
संयमित संतुलित उपयोग ही नैतिकता नैतिक मूल्यों को स्थापित करता है जिह्वा जुबान का असंयमित असंतुलित प्रयोग घातक और जोखिमो को आमंत्रण देता है ।प्रस्तुत लघुकथा इसी ईश्वरीय सिद्धान्त पर आधारित आत्मिक ईश्वरीय तत्व का बोध कराती समाज को एक सार्थक संदेश देती है– जमुनियां गांव में बहुत बढ़े जमींदार मार्तंड सिंह हुआ करते थे आठ दस कोस में उनसे बड़ा जमींदार कोई नही था उनके परिवार की सेवा में पूरे गांव के लोग चाकरी करते थे चाहे खुद जमींदार मार्तण्ड सिंह की ही बिरादरी के लोग क्यो न हो ।मार्तण्ड सिंह के गांव के ही उनके पट्टीदार थे अनंत सिंह जो बहुत साधारण हैसियत के व्यक्ति थे किसी प्रकार उनका खर्चा चलता जब उन पर जमींदार मार्तण्ड सिंह की कृपा होती ।अनंत सिंह का बेटा मार्तण्ड सिंह का घरेलू कार्य करता जैसे मालिक को नहलाना
उनकी मालिश करना पैर दबाना आदि
मार्तण्ड सिंह के दो बेटे और एक बेटी थी जिनका नाम शमसेर सिंह दुर्जन सिंह और बेटी का नाम प्रत्युषा था तीनो अंग्रेजी कान्वेंट स्कूल में क्लास थर्ड फोर्थ फिफ्थ में पढ़ते थे अनंत सिंह के बेटे निरंकार सिंह को भी पढ़ने का बहुत शौख था मगर एक तो अनंत सिंह की हैसियत नही थी दूसरे मार्तण्ड सिंह का खौफ वे हमेशा कहते खाने का ठिकाना नही बेटे को हाकिम
कलक्टर बनाने का सपना देखोगे तो दो रोटी पूरे परिवार को मेरी चाकरी से मिलता है उसे भी बंद करा दूंगा।अनंत सिंह एवं उनका परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मार्तण्ड सिंह की गुलामी ईश्वर का न्याय और भाग्य मानकर मन मसोस करते जाते।मगर उनका बेटा निरंकार मन ही मन ईश्वर की शक्ति अपनी आत्मा से प्रतिज्ञ था कि वह पिता की विवसता की दासता तोड़ेगा वह मार्तण्ड सिंह की चाकरी करता और बेवजह चाबुक लात बेत की मार ठकुराई जमीदारी के शान की खाता रहता इन सबके बीच वह समय निकाल कर मार्तण्ड सिंह के बेटे बेटियों की किताब माँगकर पढ़ता
मार्तण्ड सिंह के बेटो बेटी को पढ़ने में
कोई रुचि नही रहती सिर्फ बाप के भय से पढ़ने की औपचारिकता करते
इधर निरंकार मार्तण्ड सिंह की चाकरी में प्रतिदिन चाबुक डंडे लात घूंसों की
मार सहता कभी नाक फूटती कभी
हाथ पैर में घाव के दर्द से परेशान हो
जाता फिर भी वह अपने पिता अनन्त सिंह से कुछ नही बताता ना ही इतने जुल्म पर मार्तण्ड सिंह से ही कुछ कहता सिर्फ मौन रह सबकुछ बर्दास्त करता अपने उद्देश्य पथ शिक्षा हेतु सारे प्रयास करता एक दिन ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने निरंकार को पढ़ते देख लिया और कुछ सवाल किया उनको लगा कि निरंकार उनके बेटे बेटियों से ज्यादा तेज और कुशाग्र है सो उन्होंने क्रोध से उसे सलाखों से दाग दिया छटपटात तड़फड़ाता निरंकार कुछ नही बोला और फिर नित्य की भाँती अपनी कार्य मे लग गया।समय बीतता गया निरंजन ने चोरी चोरी हाई स्कूल प्राईवेट पास प्रथम श्रेणि में पास किया जिसकी जानकारी मार्तण्ड सिंह जी को नही थी।उनके दोनों बेटों एव बेटी ने भी किसी तरह हाई स्कूल पास कर लिया अब ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिये अपने बच्चों को शहर के स्कूल भेजा और निरंकार को साथ बच्चों का भोजन बनाने और सेवा के लिये साथ भेजा आब क्या था निरंकार को ईश्वर ने अवसर दे दिया वह खुशी खुशी शमशेर दुर्जन प्रत्यूषा के साथ साथ लखनऊ चला गया और वहां इनका खाना बनाता बर्तन माजता कपड़े साफ करता और समय निकाल कर उन्ही की किताबो से चोरी छिपे पड़ता रहता धीरे धीरे मार्तण्ड सिंह के बच्चों ने इंटर मीडिएट स्नातक की परीक्षा पास की निरंजन ने स्नातक व्यक्तिगत छात्र के रूप में विश्विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया जब समाचार पत्रों में खबर छपी तब शमशेर दुर्जन ने उसकी इतनी धुनाई की वह लगभग मरणासन्न हो गया उसे मरा जानकर शमसेर एव दुर्जन ने पास की झाड़ी में फेंक दिया।सुबह फजिर की नवाज़ से पहले मिया नासिर उधर से गुजर रहे थे कि किसी इंसान के कराहने की आवाज़ सुनाई दी फौरन जाकर देखा तो एक इंसान जो मरणासन्न था मगर सांसे चल रही थी मिया साहब उसे उठाकर अपने घर ले गए और उसका देशी इलाज शुरू किया होश आने पर जब उसका नाम नासिर ने पूछा तो उसने सारी घटना आप बीती बताकर अपना असली नाम छुपाने की बिना पर नासिर को अपना असली नाम बताते हुये उसे छुपाने का आग्रह किया और नकली नाम रहमान से परिचय करवाया नासिर को कोई आपत्ति नही थी । नासिर जूते चप्पलों की मरम्मत का काम करता था नासिर के ही कार्य को रहमान उर्फ निरंकार ने शुरू किया।एक दिन फुटपाथ पर बैठा रहमान जूतो चप्पलों की मरम्मत का कार्य कर रहा था कि उधर से गुजरते शमशेर और दुर्जन की नज़र उस पर पड़ी दोने जाकर अपने जूते पालिश करवाये और उसके उपरांत उसे अपने बूटों से इतनी तेज मारा की निरंकार सड़क के एक किनारे जा गिरा उसके नाक हाथ मे घाव हो गए और खून गिरने लगा फिर भी वह कुछ नही बोला देखने वाले लोगो को दया और शर्मिदगी महसूस हुई मगर वे भी कुछ बोल नही सके। इसी तरह समय बीतता गया निरंकार ने स्नातकोत्तर में विश्विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया ।अब उसका मकशद जीवन भर की जलालत जुर्म की जिंदगी को स्वयं परिवार को आज़ाद कराना उसने दिन रात कड़ी मेहनत की और भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुआ उसके चयन की खबर उसके गांव उसके पिता और मार्तण्ड सिंह को हो चुकी थी ।चयन होने के बाद निरंकार नासिर के साथ अपने गांव गया और सबसे पहले अपने पिता का आशिर्वाद प्राप्त किया उसके पिता अनंत देव अपना आशीर्वाद देने के बाद अपने बेटे को ठाकुर मार्तण्ड सिंह के पास ले गए ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने पिता
अनंत देव सिंह से कहा तुम्हारे बेटे ने हमारे परिवार के क्रूरता अन्याय अत्याचार को अपने संयम संतुलन आचरण से बर्दाश्त किया कभी कुछ नही बोला मौन रहा ठीक
उसी प्रकार जैसे कोई पत्थर की मूर्ति
संवेदन हीन जिसे दर्द पीड़ा का एहसास नही था यह निरंकार की निरंकुशता के खिलाफ सहनशक्ति थी और उसके चैतन्य सत्ता आत्मा में जीवन मूल्य उद्देध्य की जागृति का जांगरण का परिणाम हैं जिसने उसे सफल किया जैसे कि मरे हुये जानवर की खाल की सांस से लोहा भस्म हो जाता है ठीक उसी प्रकार निरंकार के मौन ने हमारी निरंकुशता की जमीदारी को भस्म करने की प्रतिज्ञा पूर्ण की है तुम भाग्यशाली हो ठाकुर अनंत सिंह और हम अन्याय क्रुरता में रक्त सम्बन्धो को भूलने वाले
अब शनै शैन अपने समाप्त होने की दर्द पीड़ा में जलते जाएंगे।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




जिंदगी को जान मील गई

जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मिल गयी दुनियां के झमेले में जान मील गयी।।
दिल धड़कता है धड़कन बोलती है जिंदगी की हमसफर अंदाज़ मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबो के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मिल गयी।।
क्या कहूँ क्या नाम दूँ जन्नत की
जीनत आसमान की परी या नाज रौशन कहूँ ,कुछ न कहूँ बस देखता रहूँ जिंदगी का आश विश्वास मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मिल गयी।।
तन्हा जिंदगी की बिरानियो में
मौजो की कश्ती राजदार मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मील गयी।।
बचपन जवाँ दिल की चाहत
हकीकत साँसों में बसी धड़कन
आवाज़ मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मील गयी।।
पंख उम्मीदों के जज्बा हौसला
जिंदगी मंजिल की परवाज़ मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मील गयी।।
साथ चलने ख़ुशी गम में
जीने मरने का वादा चाहतो की
चाहत सौगात मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मील गयी दुनियां के झमेले में जान मिल गयी।।
जिंदगी का लम्हा तकदीर
इश्क हुस्न की जागीर अंजान
जिंदगी का इज़हार मील गयी।।
जिंदगी को आज अरमान मील गयी ख्वाबों के मुहब्बत की उड़ान
मिल गयी दुनियां के झमेले में जान मील गयी।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




मुस्कुराता सूरज जीवन दर्शन

सूर्य मुस्कुराता छितिज पर
भाव चेतना मकसद मंजिल
का पैगाम लिये।।
नया सबेरा उम्मीदों
विश्वास की नई किरण
उदय उदित उड़ान स्वर्णिम भविष्य का
उत्साह खुशियों का पैगाम लिये।।
उदय प्रशांत की गहराई
अंतर्मन से दिव्य दृष्टि के
आसमान में मानवता का
सम्मान लिये।।
सूर्य स्वय देव
त्रिभुवन में आता युग
का देव प्रथम तमस मिटाते
सर्वोच्च शिखर पर मानव
मानवता का संसार लिये।।
शौर्य सूर्य का प्रतिदिन प्रातः
अभिवादन आचरण मिल
जुल कर साथ रहें युग मे
प्रातः बेला दिन का अभीष्ट
विशिष्ठ इष्ट दिनेश प्राणी
प्राण की गरिमा गौरव मान लिये।।
नव जागृति कासंचार उत्साह
बैभव विकास का निर्माण
सत्य समपर्ण निष्ठा साथ लिये।।
पल प्रहर दिन महीना साल
युग प्रवाह संस्कृति संस्कार
कर्म धर्म श्रम सत्यार्थ व्यवहार
का युग साथ आवश्यकता आविष्कार
लिये।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




दिल से बड़ा कोई ताज नहीं, ,,,,,,,,,,,,

क्यों आ के किनारे पर डूबी 

ये कश्ती हमको याद नहीं 

बस दर्दे मोहब्बत है दिल में 

और इसके सिवा कुछ याद नहीं 

क्या जाने दिल बेचारा ये 

हार जीत क्या होती है 

पल -पल जल के हारा क्यों 

ये दिल शमा पर याद नहीं 

जाने सकूँ क्यों मिलता है 

इस दिल को अब  अंगारों पर 

क्यों आगोश में कातिल की सोया 

अब घायल दिल को याद नहीं 

ये तन्हा-तन्हा रोता है 

करता ये फरियाद नहीं 

जिस दिल से मोहब्बत कर बैठा 

उस दिल से बड़ा कोई ताज नहीं 

 

सुशील सरना /21-2-21 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 

 

 

 




दिल से बड़ा कोई ताज नहीं, ,,,,,,,,,,,,

क्यों आ के किनारे पर डूबी 

ये कश्ती हमको याद नहीं 

बस दर्दे मोहब्बत है दिल में 

और इसके सिवा कुछ याद नहीं 

क्या जाने दिल बेचारा ये 

हार जीत क्या होती है 

पल -पल जल के हारा क्यों 

ये दिल शमा पर याद नहीं 

जाने सकूँ क्यों मिलता है 

इस दिल को अब  अंगारों पर 

क्यों आगोश में कातिल की सोया 

अब घायल दिल को याद नहीं 

ये तन्हा-तन्हा रोता है 

करता ये फरियाद नहीं 

जिस दिल से मोहब्बत कर बैठा 

उस दिल से बड़ा कोई ताज नहीं 

 

सुशील सरना /21-2-21 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

 

 

 

 




सूफी काव्य में पर्यावरण चेतना (‘पद्मावत’ के विशेष संदर्भ में)

               सूफी काव्य में पर्यावरण चेतना
                (‘पद्मावत’ के विशेष संदर्भ में)

                           शोध सार
हिन्दी साहित्य में काव्य की विभिन्न धाराएँ देखने को मिलती हैं। हिन्दी साहित्य की शुरुआत से ही इन धाराओं का विकास साहित्य में देखा जा सकता है। हिन्दी साहित्य का चाहे आदिकाल हो, भक्तिकाल हो, रीतिकाल हो या फिर आधुनिक काल रहा हो। काव्य की विविध धाराएँ विकसित होती रही हैं। हिन्दी साहित्य के भक्ति काल में उन्हीं में से एक धारा है सूफी काव्य धारा या प्रेम काव्य धारा एवम् इस धारा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत। पद्मावत अपने आप में विविध विषयों या सरोकारों को समाहित किए हुए है। उन्हीं में से एक प्रमुख विषय जो उस समय तथा वर्तमान में अत्यधिक प्रासंगिक है वह है पर्यावरण चेतना।
मुख्य शब्द- पर्यावरण, सूफी, प्रेम, धारा, चेतना, जायसी, पद्मावत
                           शोध विस्तार
पर्यावरण शब्द संस्कृत की ‘‘वृ’’ धातु में ‘परि’ तथा ‘आ’ उपसर्ग एवम् ल्युट प्रत्यय जोड़ने पर बना है। अर्थात् परि $ आ $ वृ $ ल्युट्  पर्यावरण।1 मनुष्य के सम्पूर्ण क्रियाकलाप व भौतिक वस्तुएँ तथा समस्त विचारणाएँ जिनके द्वारा आच्छादित हैं उन परिस्थितियों तथा वातावरण को पर्यावरण कहते हैं। पर्यावरण एक अविभाज्य समष्टि है। भौतिक, जैविक एवम् सांस्कृतिक तत्वों वाले पारस्परिक क्रियाशील तंत्रों से इसकी रचना होती है। ये तंत्र अलग-अलग तथा सामूहिक रूप से विभिन्न रूपों में परस्पर सम्बद्ध होते हैं। सूफी काव्य धारा जिसमें कथानक पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। विभिन्न सूफी ग्रंथों में अन्य बिषयों की तरह पर्यावरण चेतना पर विशेष ध्यान आकृष्ट किया गया है। और यह विषय प्रत्येक सूफी ग्रंथं का महत्वपूर्ण एवं प्रमुख विषय बनकर उभरा है।
जायसीकृत पद्मावत में पर्यावरण चेतना विद्यमान है। यह पर्यावरण चेतना निम्नलिखित रूपों में परिलक्षित होती है।
प्राकृतिक पर्यावरण चेतना-
पंच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवम् वायु प्राकृतिक पर्यावरण के मुख्य स्त्रोत हैं। पद्मावत में प्राकृतिक पर्यावरण चेतना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। पद्मावत में दर्शाया गया है कि सिंघल द्वीप के चारों ओर आम के बगीचे थे, इस प्रकार के अनेक उपवन भी थे, जिनमें भाँति-भाँति के वृक्ष खड़े थे। पेड़ों की स्निग्ध और शीतल छाया में पक्षी एवम् पथिक आश्रय लेते थे, पक्षियों का मधुर कलरव उस प्रदेश को आनन्द से भर देता था।
‘‘बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाखा, बुरहि हुलास दखि कै साखा।’’2
सिंहल द्वीप में मानसरोदक सरोवर है, अनेक छोटे बड़े ताल-तलैया भी हैं, कुछ तालाब तो इतने विशाल हैं, कि एक किनारे पर खड़े होकर दूसरा किनारा दिखाई नहीं देता। तालाबों में जल के फूल तथा जल के पक्षी है।।
‘‘ताल, तलाब बरनि नहिं जाहीं, सूझै बार-पार कहुँ नाहीं।
फूले कुमुद सेत उजियारे, मानहुँ उए गगन महुँ तारे।।’’3
जायसी ने बारहमासा के रूप में एवम् षड् ऋतु वर्णन के रूप में प्राकृतिक पर्यावरण के प्रति चेतना को दर्शाया है। आकाश में बादल गरजने लगे हैं। उड़ते हुए बगुलों की पंक्ति शोभायमान हो रही है। मेंढ़क, मोर, कोयल और पपीहा प्रसन्न होकर बोल रहे हैं। स्वच्छ जल में सारस किलोलें कर रहे हैं और ख्ंाजन पक्षी शोभा बढ़ा रहे हैं। आम्र डालियों पर आम पक गए हैं। तोता उनका रसास्वादन कर रहे हैं।
पद्मावत के उक्त वर्णन से यह पता चलता है कि तत्कालीन समाज में प्रकृति के अंगों जैसे सरोवर, नदी, वन, उपवन पक्षी एवम् प्राकृतिक जन्तुओं के प्रति पर्याप्त प्राकृतिक पर्यावरण चेतना विद्यमान थी।
सामाजिक पर्यावरण चेतना-
पद्मावत में तत्कालीन समाज में बहु विवाह की प्रथा थी। रत्नसेन रानी नागमती के होते हुए भी पद्मावती से विवाह करके चित्तौड़ ले आया था। पत्नियाँ पतिवृत धर्म का पालन करती थी।
‘‘नागमती रूपवंती रानी, सब रनिवास पाठ परधानी।
नागमती पद्मावती रानी, दुवौ महासत सती बखानी।।’’4
उस समय घरों में पक्षी पाले जाते थे। पालतू पक्षियों में तोता प्रमुख था। सिंहल द्वीप की राजकुमारी का पालतू तोता हीरामन था।
पद्मावत में सभी मांगलिक कार्य शुभ मुहूर्त में किए जाते थे। पण्डित जन ज्योतिष के आधार पर शुभ मुहूर्त बताते थे।
‘‘पत्रा काढ़ि गवन दिन देसहिं, कौन दिवस दहुँ चाल।
दिसा सूल चक जोगिनी, सोंह न चलिए काल।।’’5
पद्मावत में विवाह के अवसर पर पिता अपनी पुत्री को स्वेच्छा से प्रसन्नता पूर्वक दहेज दान करता था। जो पुत्री के ससुराल जाने के साथ जाता था। पद्मावती और रतनसेन विदा होकर चित्तौड़ जाने लगे। तो पद्मावती के पिता गन्धर्व सेन ने दहेज के रूप में बहुत सी सम्पत्ति दी।
जायसी ने जिसका वर्णन इस प्रकार किया है
‘‘भले पंखेर जराव सँचारे, लाख चारि एक थरे पिटारे।
रतन पदारथ मानिक मोती, काढ़ि भण्डार छीन्ह रथ जोती।।’’6
उक्त वर्णन में खुशहाल सामाजिक दशा का चित्रण मिलता है। किन्तु कुछ स्थानों पर सामाजिक बुराईयों का चित्रण भी किया गया है। उन सामाजिक बुराईयों को चित्रित करके कवि का लक्ष्य तत्कालीन समाज से उन्हें दूर करने का रहा होगा। उस समय राजाओं को शिकार खेलने का शौक था, हिंसा का भाव होने से यह एक सामाजिक बुराई है, बहुविवाह एवम् सती प्रथा का वर्णन करके उसे भी दूर करने का लक्ष्य रहा होगा। जो की सामाजिक पर्यावरण के सुदृढ़ स्वरूप के प्रति चेतना को दर्शाता है साथ ही सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि और उसके सुसंस्कारित रूप को बनाये रखने के लिये प्रेरित करता है।
आर्थिक पर्यावरण चेतना-
पद्मावत में तत्कालीन समाज समृद्ध दिखाई देता है कहीं भी अभाव, कलह एवम् आर्थिक संघर्ष का वर्णन नहीं मिलता। उस समय लेाग जहाज से यात्रा करते थे। समुद्री मार्ग से ही व्यापार होता था। लोगों के पास सोना, चाँदी, माणिक, मोती एवम् रत्नों के भण्डार थे। गायें, घोड़े एवम् पर्याप्त कृषि भूमि थी। व्यापारी, व्यापार से समृद्ध थे। इस प्रकार तत्कालीन समाज में आर्थिक पर्यावरण के प्रति चेतना प्रदर्शित होती है।
सांस्कृतिक पार्यवरण चेतना-
पद्मावत में सांस्कृतिक पर्यावरण चेतना भी दृष्टिगोचर होती है। धर्म, भक्ति, सौन्दर्य एवम् कला संस्कृति के अंग हैं। इन अंगों का पद्मावत में पर्याप्त वर्णन मिलता है। पद्मावत् में जिस समय का वर्णन किया गया है उस समय के जोगी, सारंगी बजाकर गाते थे और सिंगी फूंकते थे। लोग सौन्दर्य के पुजारी थे। राजा रत्नसेन, हीरामन, तोता से पद्मावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर घर से निकल पड़ा और जोगी बन गया।
‘‘तजा राज, राजा था जोगी किंगरी कर गहेउ वियोगी।
तब विसँभर मन बाउर लटा, अरुझा, पे्रेम परी सिर जटा।
चन्द्र बदन और चन्दन दहा, भसम चढ़ाई कीन्ह तन खेहा।
मेखल, सिन्घी, दंड कर गहा, सिद्ध होई कहँ गोरख कहा।
मुद्रा स्त्रवन कंठ जपमाला, कर उपदान, काँध बघछाला।।’’7
पद्मावत के ‘स्तुति खण्ड में सृष्टिकर्ता का स्मरण किया गया है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का रचनाकार उसी को माना है। उसकी भक्ति करना सृष्टि के लिए आवश्यक बताया गया है। वह सब कुछ देने में समर्थ हैं। पद्मावत में हिन्दू परिधान में इस्लाम के प्रचार की भावना का संकेत मिलता है। उक्त सभी तथ्यों से यह संकेत मिलता है कि तत्कालीन समाज में सांस्कृतिक पर्यावरण के प्रति चेतना विद्यमान थी।
राजनीतिक पर्यावरण चेतना-
राजा के महल इस प्रकार हैं, जैसे इन्द्र के महल हों। चैपालों पर चन्दन के खम्भे हैं। सभापति लोग उन्हीं के सहारे बैठे हैं। नगर निवासी गुणी, पण्डित और ज्ञानी हैं। सभी संस्कृत भाषा में व्यवहार करते हैं। किला आकाश को छू रहा है। किले के चारों ओर खाई है। सिंहल गढ़ में नौ चक्र है।ं इनके घर वज्र के समान दुर्भेद्वद्य हैं। चार प्रकार के सामंतों का वर्णन है।
‘‘गणपति, अश्वपति, गजपति और नरपति।
गढ़ पर बसहिं झारि गढ़ पति, असुपति, गजपति भू-नर-पाती।
सब धौराहर सोने राजा, अपने अपने घर सब राजा।।’’8
राजा वीर एवम् कला निपुण दिखाए गए हैं उनके सैनिक एवम् सेनापति आस-पास शान के लिए प्राणों की आहुति देने वाले हैं। दरबार में सभी कलाओं के रत्न विद्यमान हैं। प्रजा में राजा की पूरी रुचि है।
निष्कर्ष-
उक्त सभी वर्णनों के आधार पर हम कह सकते हैं कि जायसीकृत पद्मावत में पर्यावरण के सभी दृष्टिकोणों के प्रति पर्याप्त पर्यावरण चेतना विद्यमान है। तत्कालीन समाज एवम् व्यवस्था पर्यावरण के लिए पूरी तरह जागरूक है। जायसीकृत पद्मावत पर्यावरण के तमाम अंग और उप अंगों को अपने में समाहित किये हुये है। और उनका वर्णन इस तरह से किया गया है की वह तत्कालीन समाज की पर्यावरण के प्रति चेतना को दिखाता है और उस समय की पर्यावरण चेतना की प्रासंगिकता को वर्तमान समय में भी प्रासंगिक बनाकर पर्यावरण संरक्षण कर एक स्वस्थ समाज के निर्माण की प्रेरणा देता है।
सन्दर्भ-
1. आप्टे वामन शिवराम, संस्कृत हिन्दी शब्दकोश, पृ. 80
2. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, सिंहल द्वीप वर्णन खण्ड, पृ. 5
3. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, सिंहल द्वीप वर्णन खण्ड, पृ. 10
4. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, पद्मावती नागमती सती खण्ड, पृ. 34
5. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, भूमिका पृ. 31
6. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, भूमिका पृ. 31
7. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, भूमिका पृ. 31
8. शुक्ल रामचन्द्र, जायसी ग्रंथावली, सिंहल द्वीप वर्णन खण्ड, पृ. 22

राहुल श्रीवास्तव

अतिथि सहायक प्राध्यापक(हिंदी)

जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर मध्यप्रदेश भारत




निराशा का दौर छोड़ जीत ही जाएंगे

निराशा का दौर छोड़
आशा आस्था संचार में
मिल जाएगा उद्देश्य मार्ग जीत ही जाएंगे ।।
कदम कदम जिंदगी का जंग
मुश्किलें बहुत जिंदगी एक
चुनौती ,जिंदगी की चुनौतियो से जीत जाएंगे उत्सव जीत मनाएंगे।।
उत्साह ,उमंग ,संग जीत ही जाएंगे थकना ,हारना रुकना बिसरायेंगे।।
जिंदगी के जंग में शत्रु अनेक
अंदाज़ा नहीं किधर से होगा
आक्रमण असमन्जस यह भी की
खुद के आस्तीन से धोखे फरेब का संभव हैआक्रमण।।
जीत ही जाएंगे संयम ,संकल्प
संयम का हथियार अपनाएंगे।।
जिन्दंगी के जंग की जीत
मन ,मीत ,लय ,गीत स्वर ,संगीत
तरन्नुम ,तराना जागरूक जीवन
सैनिक की ऊर्जा खजाना।
जीत ही जाएंगे कदापि स्वयं
की संस्कृति संस्कार नहीं गवायेंगे।।
दृष्टि और दिशा से बिचलित नहीं होंगे जीत ही जाएंगे स्वतंत्र अस्तित्व का अलख जगायेंगे।।
उदंडता उन्मुक्त नहीं स्वतंत्रता ,जीत ही जाएंगे इच्छा की परीक्षा को सीमा गर्व गरिमा बनाएंगे ।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




धर्म राजनीति शासन

धर्म आस्था की धतातलअवनि आकाश धर्म मर्यादा संस्कृति संस्कार।।
धर्म शौम्य विनम्र युग समाज
व्यवहार।।
धर्म जीवन मूल्यों आचरण का
सत्य सत्यार्थ।।
धर्म छमाँ करुणा सेवा परोपकार
कल्याण जीव जीवन का सिद्धान्त।।
धर्म न्याय नैतिकता ध्येय ध्यान ज्ञान सिद्धांत।।
धर्म निति नियति का मौलिक आविष्कार।।
धर्म द्वन्द द्वेष घृणा
का प्रतिकार।।
धर्म कर्म वचन दायित्व कर्तव्य बोध से धारण करता प्राणी प्राण।।
धार्म धैर्य है धर्म शौर्य है धर्म
विजयी पथ का मार्ग।।
शासन शक्ति की भक्ति शासक
मति अभिमान का समय काल।।
शासन भय है भय निर्भयता का
आधार शासन शक्ति का मौलिक
अधिकार।।
शासन समन्वय है जन मानस
मन की आवाज़।।
शासन आस्था नहीं शासन विश्वास
राज्य् निति और राजनीति का साकार।।
शासन द्वेष भेद न्याय अन्याय
विवेचना समय काल स्थिती परिस्थिति की माँग।।
शासन दो धारी तलवार है संवैधानिक इसके धार।।
शासन का मूल व्यवहार शासक
की मर्जी और विचार।।
न्याय अन्याय की व्याख्या मौके
मतलब के अनुसार।।
शासन की अपनी विवसता
अँधा कभी कभी दृष्टि दृष्टिकोण
अतीत वर्तमान।।
धर्म और शासन में अंतर मात्र
धर्म मानव मानवता जीव जीवन
निरंतरता ।।
आस्था की अस्ति का
नाम सिर्फ उत्कर्ष उत्थान उत्सर्ग
प्रसंग परिणांम।।
शासन जब चल पड़ता धर्म
मार्ग पर शासन धर्म एकात्म स्वरुप जन्म लेता मर्यादा का श्री राम।।

धर्म शासन का उद्देश्य एक समरसता समता मूलक युग समाज का निर्माण।।
आस्था और विश्वाश का विलय
एक दूजे का ग्राह सम्मत का शासन ।।
जन आकांक्षाओं का
अभिनन्दन राम राज्य् की बुनियाद ।।
जन जन राम सरीखा
शासक शासन प्राण सरीखा।
धर्म का शासन ,शासन में धर्म
नैतिक युग का मर्म राम राज्य् और जय श्रीराम ।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




नौजवान

1-जिंदगी एक संग्राम है आशा का परचम लहरा जिंदगी के कदमों के
निशाँ है।।
जीवन एक संग्राम है
दुख ,दर्द ,धुप और छाँव है
आशा,निराशा रेगिस्तान और तूफ़ान है।।
आंसू ,गम ,मुस्कान है
शोला शबनम शैलाभ है
जीवन में आस्था हथियार है
विश्वाश विजेता का व्यहार है।।
जिंदगी का होना विजेता की
जिंदगी जवाँ ,जोश की शान है
जवां ,जज्बा जिन्दा जिंदगी
पहचान है।।

आशाओं की अवनि ,आरजू का आसमान नौजवान
आशाओं का परचम लहरा
वर्तमान की चुनौती कर रहा स्वर्णिम इतिहास का निर्माण।।
जिंदगी के धुप ,छाँव का योद्धा
तपती रेगिस्तान के शोलो की अग्नि पथ को पथ विजय में बदलता अवरोध सारे तोड़ता आशा का परचम लहराता समय काल की जान की मान जिंदगी जिन्दा नौजवान है।।

2- नौजवान आशा का भविष्य–

मर्द मूल्यों का ,दर्द का एहसास
नहीं तमाम दर्दो को दामन में समेटे लड़ता जिंदगी का संग्रामआशा का परचम लहरातादुनियां में रौशन नाज जिंदगी नौजवान।।

तपिस के अंगार को शबनम की
बूँद में तब्दील कर दे सर्द के बर्फ
को अपनी ज्वाला से अंगार कर दे
वक्त को मोड़ दे आशा का परचम
लहराता निराशा को विश्वाश में बदलता जिंदगी के जंग का जाँबाज नौजवान ।।
नज़रों में मंज़िल मकसद आंसू
भी मंजिलों का अंदाज़ मंजिल
मकसद के कारवां का अकेला मुसाफिर ज़माना देखता चलता
उसकी राह हर हाल में अपनी
मकसद मंजिल की मुस्कान आशा
का परचम लहराता जिंदगी का अंदाज़ नैजवान् ।।
अपने हद हस्ती को निर्धारित करता दुनियां के दामन की खुशियों का तरन्नुम तराना।।
आशा का परचम लहराता जज्बा
ज़माने की आन बान नौजवान
जिंदगी जहाँ में होने का वाहिद आगाज़।।

3–मुश्किलों का विजेता नौजवान —-

हर जहमत से दो दो हाथ
हर मुश्किल की मईयत उठाता
दुस्वारी की महामारी को दुकडे
टुकड़े करता अंधेरो की चाँदनी
सूरज चाँद आशा का परचम लहराता वक्त की अपनी इबारत
का नौजवान।।
तूफानों से लड़ता लडखडाती
कश्ती का मांझी उम्दा उस्ताद
जिंदगी के भंवर मैं नहीं उलझता
मझधार में मौके का पतवार आशा का परचम लहराता लहरों
को चीरता भवरों से निपटाता
जिन्दंगी का जांबाज नौजवान।।
जिंदगी वही जिन्दा हर सवाल
का रखता जबाब ,आई किसी
भी सूरते हाल से टकरा जाने की
मस्ती माद्दा आशा का परचम
लहराता दिलों में बुझाते रोशनी का चिराग नौजवान।।
ना जज्बा ना जज्बात ना
हिम्मत ना हौसलों की उड़ान
ना इरादे फौलाद हो ना अपने
वक्त कदमों की शान पहचान
मुर्दा उस जिंदगी को जान।।
जिन्दा जिंदगी हिम्मत की जागीर
हौसलो का नया आसमान इरादों
की बुलंद इबादत इबारत आशा का परचम लहाराता जिंदगी विजेता जहाँ की गूंज गुंजन आवाज का नौजवान।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर