1

वह बेचती थी गुटका भग —3

सालों से चलता सिलसिला मेरे
भी भावो का आकर्षण अधेड़ उम्र महिला की ओर बढ़ चला जो बेचती थी गुटका।।
मैने भी एक दिन उस अधेड़ उम्र
औरत जो मेरे प्रतिदिन की दिन
चर्या की आवश्यक थी हिस्सा ।।
अनिवार्यता प्रति दिन का
सत्य सत्यार्थ थी किस्सा ।।
किया सवाल माई तू जाड़ा गर्मी
बरसात पाला चाहे कौनो हो
हाल हालात गुमटी के दुकान तोहार
मंदिर मस्जिद गुरुद्वार।।
काहे तोहरे लईका बच्चे नाही का
तोहार पति परमेश्वर करतेन
काहे ये उम्र में जान देत हऊ माई।।
उस अधेड़ उम्र औरत की आंख
डबडबा गई आंखों में आंसुओ का
तूफान जो नही ले रहा था थमने
का नाम ।।
हमे अपनी गलती का हुआ एहसास
लगा मेरे ही कारण इस अधेड़ उम्र
औरत को ना जाने किस पीड़ा का
दर्द अनुभव आघात।।
मैन झट माफी मांगी बोला माई
गलती हमार ना करके चाही कौनो
अइसन सवाल ।।
पथराई मुरझाई नज़रो मायूसी
अंधकार के निराश मन से
उस अधेड़ उम्र की औरत का
जबाब।।
बोली बाबू दोष कौन तोहार
जब भगवाने दिहले हमार जिनगी
बिगाड़ पूछते बाढ़ त ल बाबू तोहू
जान ।।
हम गाय घाट गांव के बाछी बेटी
गोपालापुर में माई बाबू बड़े खुशी
से करेन बियाह ।।
हमरे दुई बेटा एक बेटी पति
परमेश्वर भरा पूरा परिवार।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




वह बेचती थी गुटका भग —2

आते जाते गुटखा शौख के
नाते अधेड़ उम्र की औरत
की दुकान से भाव भावना
का हो गया लगाव।।
अधेड़ उम्र उस औरत ने भी
मुझे अपनी दुकान का नियमित
ग्राहक लिया मान।।
जब कभी हो जाता गुटके
की दुकान पर पहुँचने में एक
दो दिन का भी अंतराल।।
जाने पर करती प्यार से सवाल
जैसे बचपन मे माँ करती थी
सवाल ।।
बेटा कहाँ चला गया था
देर हो गयी तुमने अभी तक नहाया
नही कुछ खाया नही तू हो गया है
शरारती लापरवाह।।
माँ सा ही भाव उस अधेड़ उम्र की
औरत का करती सवाल बाबू का
बात है दुई दिन दिखाई नाही दिए।।

तबियत त ठिक रही घर पर सब
कुशल मंगल बा मुझे भी बचपन
याद आ जाता माँ का कान ऐंठना
डांटना खुद की शरारते बचगाना।।

 

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




वह बेचती थी गुटका

प्रातः नौ बजे दफ़्तर जाने को
चाहे जो भी हो मौसम का मिजाज।।

घर से निकलता दिन शुभ मंगल हो
कोई ना हो विवाद अशुभ ईश्वर से
आराधन करता।।

कार्यालय के मुख्य द्वार पहुंच कर
अपनी दोपहिया वाहन चौकीदार
कक्ष के बगल दाएं बाए खड़ी करता।।

पुनः समीप सड़क पर मुकसुध्धि गुटका शौकीन दुकान पर गुटका क्रय करने को पहुंचता।।

एक छोटी सी काठ की गुमटी
बैठी अधेड़ उम्र की औरत प्रतिदिन छोटी हद हैसियत के व्यवसाय की स्वामिनी मालिकिन।।

मुस्कुराते मिलती मैं गुटखा खरीदता
खाता प्रतिदिन सुबह कार्यलय का
का कार्य शुरू करता।।।

शौख कहूँ या
लत या कहूँ नशा या आदत
से मजबूर आदी ।।
गुटके की तलब तमन्ना अधेड़
उम्र औरत की दुकान को जाने को
प्रेरित करती प्रतिदिन दैनिक दिनचर्या की हद हस्ती मस्ती।।
अधेड़ उम्र की महिला के
जीवन परिवार समाज पालन
पोषण का आधार मात्र पान,
बीड़ी ,तम्बाकू ,की गुमटी दुकान।।

मैं गुटखा खरीद प्रतिदिन सुबह
शौख नाशा आदत की तृप्ति कर
अपनी धुन मस्ती का मतवाला इतराता
कार्य कार्यालय का शुरू कर पाता।।

प्रतिदिन आते जाते गुटखा
शौख के नाते अधेड़ उम्र
औरत की गुमटी की दुकान
मेरे लिये लगती देवालय।।

बिना सुबह प्रतिदिन जाए
उसकी दुकान से खरीद कर
गुटका खाये चैन नही रहता
खोया खोया लगता कुछ खोया खोया।।                       

 

गुटके की गुमटी दुकान की                                   मालिकिन अधेड़ उम्र औरत।।
नारी साहस शक्ति की नई
चेतना की मेरे लिये जान
जागृति पहचान।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश