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*नारी सशक्तिकरण-मेरी बेटी मेरा मान*

शीर्षक :

@नारी सशक्तिकरण-मेरी बेटी मेरा मान@
************************************
(नारी सशक्तिकरण पर एक रचना)

 

नारी सशक्तिकरण एक फरमान है।
माँ की शक्तियाँ जनता ये जहान है।

इनमें अद्भुत क्षमता ऊँची उड़ान है।
पृथ्वी ही नहीं केवल ये आसमान है।

कौन कहता है कि बेटियां बोझ हैं।
ये किसी की नहीं आप की सोच है।

मेरी नजरों में यह बेटियाँ हैं परी।
कीमती हैं बहुत जग में भी बड़ी।

ये तो अनमोल हैं पापा की जान हैं।
दो घरों की यही तो एक वो शान हैं।

इनको मारो ना तुम यार पैदा होने दो।
इनको पालो पोशों और बड़ा होने दो।

खेलने-कूदने दो व समझदार होने दो।
घरके कामों में इनको निपुण होने दो।

भेजो स्कूल इनको पढ़ाओ जी बहुत।
इनका जीवन संवारो व बढ़ाओ बहुत।

इन्हें काबिल बनाओ देश भविष्य के लिए।
इनकी सेवा तो देखो घर व वतन के लिए।

एक पिता की तरह फिर करो हाथ पीला।
आँखें नम रहेंगी सभी की विदा की बेला।

बच्चों को पालना एवं ढ़ंग से पढ़ाना है उन्हें।
ये वो यज्ञ है जीवन में सब कर न पाते इन्हें।

गर्व करिये कि प्रभु ने दी है बेटी आपको।
जरुरी नहीं कि मिलें बेटियाँ हर बाप को।

अब तक जो घर संवारा था रह कर यहाँ।
अब संवारेगी अपनी ससुराल जाके वहाँ।

बेटियाँ ही तो जो दोनों जहाँ की लाज हैं।
पिता की हैं सिरमौर तो पति की ताज हैं।

इनको सम्मान दो देवियों जैसे पूजा करो।
नवरात्रि में ही केवल न इनकी पूजा करो।

आज की बेटी ही तो कल की होगी वो माँ।
ये बहन हैं,बुआ हैं,मौसी भी और नानी माँ।

इनको पालोगे नहीं तो ये रिश्ता कहाँ पाओगे।
कहाँ पाओगे चाची, बड़ी मम्मी और दादी माँ।

रक्षा बंधन के दिन फिर कहाँ से लाओ गे।
क्या पड़ोसी के घर जा राखी बंधवाओ गे।

यज्ञ कभी होता नहीं पूरा कोई जोड़ी बिना।
होगी शादी कहाँ आप की बेटियों के बिना।

इनको फेंको नहीं, झाड़ियों में जा के कहीं।
ये है बिलकुल गलत,कहीं से भी है न सही।

बेटियों को बचाओ और खूब पढ़ाओ इन्हें।
शक्तिशाली और आत्म रक्षक बनाओ इन्हें।

बेटियां आप की माँ भारती की वो शान हैं।
हर एक घर की व हर माँ-बाप की जान हैं।

छूरहीं आसमां अपने हुनर से आज हर बेटियाँ।
कौन सा क्षेत्र है जहाँ बुलंदी पर नहीं हैं बेटियाँ।

आओ लें एक शपथ मिल के हम आप सब।
इनको पालें गें,पोशें गें और नहीं मारें गें अब।

ये कविता लिखने का तभी मान सम्मान है।
बेटियाँ बने सशक्त व नारियाँ पारही मान है।

 

रचयिता :
*डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव*
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
इंटरनेशनल एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर-नार्थ इंडिया
एलायन्स क्लब्स इंटरनेशनल,कोलकाता,प.बंगाल
संपर्क : 9415350596




*कफ़न में ज़ेब नहीं-सब यहीं धरा रह जायेगा*

*कफ़न में जेब नहीं-सब यहीं धरा रह जायेगा*
****************************************

रचयिता :

*डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव*
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.

 

जी रहा है आदमी कपड़े बदल बदल कर।
ले जायेंगे 1दिन लोग कन्धा बदल-2 कर।

जबतक ये साँस चलती है मगरूर रहते हैं।
थमती हैं सांसें जब जाने क्या-2 कहते हैं।

जाने किस घमंड में इंसान हमेशा रहता है।
दुनिया तो ये मेला है आता जाता रहता है।

पहले जैसे अब क्यों मुहब्बत न दिखती है।
मुँह से बोलतेहैं इंसा दिल में कपट रहती है।

आयेगा न काम कुछभी माया ये छलावा है।
प्रेम से तो जी कर देखो गम ना पछतावा है।

अमर तो नहींहै कोई धरती पर जो आया है।
जाना ही पड़ेगा उसको जहाँ से वो आया है।

आज रोज चाहे बदलो कपड़े तरह तरह का।
जाते समय तो सभी पहनते हैं एक तरह का।

कफ़न का रंग तो हमेशा ही एक सा होता है।
चाहे मजदूर हो या राजा येसभी का होता है।

यही कफ़न तो केवल सभीके साथ जाता है।
कफ़न में जेबें नहीं सबयहीं धरा रह जाता है।

मुकाम कोईभी तुम्हें हासिल भलेही हो जाये।
सब है बेकार अगर इंसानियत भी नहीं आये।

 

रचयिता :

*डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव*
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
इंटरनेशनल एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर-नार्थ इंडिया
एलायन्स क्लब्स इंटरनेशनल,कोलकाता, इंडिया

संपर्क : 9415350596




*कफ़न में ज़ेब नहीं-सब यहीं धरा रह जायेगा*

*कफ़न में जेब नहीं-सब यहीं धरा रह जायेगा*
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रचयिता :

*डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव*
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.

 

जी रहा है आदमी कपड़े बदल बदल कर।
ले जायेंगे 1दिन लोग कन्धा बदल-2 कर।

जबतक ये साँस चलती है मगरूर रहते हैं।
थमती हैं सांसें जब जाने क्या-2 कहते हैं।

जाने किस घमंड में इंसान हमेशा रहता है।
दुनिया तो ये मेला है आता जाता रहता है।

पहले जैसे अब क्यों मुहब्बत न दिखती है।
मुँह से बोलतेहैं इंसा दिल में कपट रहती है।

आयेगा न काम कुछभी माया ये छलावा है।
प्रेम से तो जी कर देखो गम ना पछतावा है।

अमर तो नहींहै कोई धरती पर जो आया है।
जाना ही पड़ेगा उसको जहाँ से वो आया है।

आज रोज चाहे बदलो कपड़े तरह तरह का।
जाते समय तो सभी पहनते हैं एक तरह का।

कफ़न का रंग तो हमेशा ही एक सा होता है।
चाहे मजदूर हो या राजा येसभी का होता है।

यही कफ़न तो केवल सभीके साथ जाता है।
कफ़न में जेबें नहीं सबयहीं धरा रह जाता है।

मुकाम कोईभी तुम्हें हासिल भलेही हो जाये।
सब है बेकार अगर इंसानियत भी नहीं आये।

 

रचयिता :

*डॉ.विनय कुमार श्रीवास्तव*
वरिष्ठ प्रवक्ता-पी बी कालेज,प्रतापगढ़ सिटी,उ.प्र.
इंटरनेशनल एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर-नार्थ इंडिया
एलायन्स क्लब्स इंटरनेशनल,कोलकाता, इंडिया

संपर्क : 9415350596




आश्रित सेवारत नारी भाग एक

बचपन की खुशियां
माँ बाप के मन आँगन
घर आँगन की किलकारी
बेटी लक्ष्मी अरमानो की
आशा प्यारी।।
पलको पे बिठा रखा
माँ बाप भाई बहनों ने
कोई कमी नही होने दी
जरा सी बात भी हो जाए
लाँडो के लाड प्यार में सर
पे दूँनिया सारी उठा ली सारी।।
शिक्षा दीक्षा प्यार परवरिस में
धन दौलत जीवन का पल पल
बिटिया के भविष्य पर मिटा दी सारी।।
चिंता नही खुद के चौथेपन का
क्या होगा बिटिया खुशहाल रहे
जीवन और जुगत लगा दी सारी।।
दूँनिया की कातिल नज़रों
से बिटिया को महफूज किया
बुरी नज़रों से बिटिया को दूर किया
चाहे किसी हद दर्द से हो गुज़रना
चाहे हो परेशानी झेल गए सारी।।
बिटियां हुई सयानी कूबत
दिल दौलत से
खोजा जीवन साथी बिटिया के मन माफिक।।
धुम धाम उत्साह उल्लास से
बिटिया की कर दी शादी बाबुल
घर छोड़ बिटिया पराए कुल परिवार
की बन गयी थाती।।
खिशियों का दामन शुभ मंगल ही
मंगल चाहत का पिया घर प्रेम
स्नेह परिवार समाज का प्रियतम
जीवन साथी।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




जेठ की भरी दोपहरी

 

जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया दिया जलाने की
कोशिश में लम्हा लम्हा जिये
जिये जा रहा हूँ।।
शूलों से भरा पथ शोलों से
भरा पथ पीठ लगे धोखे फरेब
के खंजरों के जख्म दर्द सहलाते
खंजरों को निकालने का प्रयास
किये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
दर्द जाने है कितने
जख्म जाने है कितने
फिर भी युग पथ पर
फूल की चादर बिछाए जा
रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कभी सपनो में भी नही सोचा जो
वही जिये जा रहा हूँ।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
खुद से करता हूँ सवाल
कौन हूँ मैं ?
आत्मा से निकलती आवाज़
मात्र तू छाया है व्यक्ति
व्यक्तित्व तू पराया है
सोच मत खुद से पूछ मत
कर सवाल मत तू भूत नही
वर्तमान मे किसी हकीकत में
छिपी रहस्य सत्य की साया है।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।
कोशिश तू करता जा लम्हो
लम्हो को जिंदा जज्बे से जीता जा
भरी जेठ की दोपहरी में दिया जलाने
कि कोशिश करता जा।।
गर जल गया एक दिया
जल उठेंगे अरमानो के लाखों
उजालों के दिए चल पड़ेंगे
तुम्हारे साथ साथ लम्हो लम्हो
में एक एक दिया लेकर युग
समाज।।
जेठ की भरी दोपहरी में
एक दिया जलाने को लम्हा
लम्हा जिये जा रहा हूँ।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर




वह औरत मुझे अच्छी नही लगती !

दुनिया के इस भिड में मुश्किल है स्वयंका चेहरा खोजना.

हर एक चेहरा आइने मे आगे पिछे प्रतित होता.

कभी सुअर का तो कभी लोमडी का.

हर एक परेशांन है जहां मे.

शामल वर्ण तेजतर्रार आंखे.

अहंकार और अंधकार.

एक ऐसा कुआं.

कालेपन की छाया.

सूखा हुआ अकेला.

धरती के लिये छोटा परंतु आसुओं से भरा.

अनचाही ख्यायिशे थी मेरी उसे चरित्र हनन करने की.

मैने की है ऊसकी हत्या मन के किसी कोने में.

साजिश की है हमने उसे आत्मघात दिखाने की.

इतनी भी वह अच्छी नही लगती .

की ऊसके खुन का ईल्जाम हमारे मथ्ते चढे.

दुसरा भी हनने पैंतरा अपनाया है.

उसको घर से बेदखल किया है.

बदनामी कि कई दिवारे चढा दी है.रिश्तों के आंगन मे.

क्योंकी वह औरत मुझे अच्छी नही लगती.

साजिशे की है हमने .उसे गिराने की.

निती,परिवार,समाज के हर एक मोडपर.

उस ओरत ने किये है गुनाह.

सजा है उसको करना है बेदखल.

लटका देना है फांसी पर ,क्पोकी वह औरत मुझे अच्छी नही लगती.

एक तुफान गया है करीब से.

आत्मलांछना,आत्मक्लेश,कर्मबंध की परछाईयोंका.

कब आती है मुठ्ठी में ? मेरे मन तुम बोलो.

द्बंद्व के इस भवसागर मे धकेलो.

उस औरत से छुटकारा दिलाओ.क्पोकी वह औरत मुझे अच्छी नही लगती.

जनम के साथ हमारे उतरता परिवार हमारा कायनात से.

संगी,साथी,मित्र ,शत्रु भी.चाहनेवाले और घ्रुना करनेवाले.

परंतु अमर आत्मा भी आती है साथ में.

प्रकाश देती ,सुगंध देती,ज्ञान के मार्ग पर आनंद का सहारा.

प्रेम का द्बिप ह्रुदय मे.नियत द्रुश्यों को बदलने का ईरादा.

सब मेरे है.मै सबकी हुॅ.हक है मुझे.

मन मे बसे हर किरदार बदलने का.

क्योकी वह औरत भी मुझे अच्छी लगती हैं !




अंबा सन्मति दे,वरदे

 

अंबा सन्मति दे,वरदे

 

काश्मीर पुरवासिनी शारदे,

अंबा सन्मति दे, वरदे।

जीवन वीणा झंकृत कर दे।     

लय,तालयुत श्रुति भर दे,       ।।1।।

 

वीणा वादिनी हे जगदंबा,      

नाद सुवाहिनी माँ शारदांबा।

सकल कला विशारद, जननी,

जन मन सद्बोध प्रदायिनी।      ।।2।।

 

कर में अलंकृत माला जप-मणि,

हे कमलासनि जगदंबा वाणी,

सुशोभित कमंडल हस्त धारिणी,

शुभ्र श्वेत वस्त्र विभूषिणी रागिनी ।।3।।

 

विद्याधीश्वरी वीणा पाणि,

विधि प्राणेश्वरी अंबा जग त्राणी।

जगदोद्धारिणी माँ तू कल्याणी,

नित नमन हे शारदा मातारानी।   ।।4।।

 

पुस्तक धारिणी सुज्ञान रूपिणी,

भक्त जन अज्ञान तम हारिणी।

सुज्ञान ज्योति भर दे माते,

मुनिजन वंदिता हे शुभदाते।      ।।5।।

 

वरदा भय हारि, माँ गीर्वाणी,

सु रुचिर वदना, तोयज नयनि।

हरि,हर ब्रह्म देव से वंदिता,

कोमल गात्रा, परम पुनीता।     ।।6।।

 

सृजनहार के मनोल्लासिनी,

हे विरिंचि के प्रिय अर्धांगिनी।

विद्या-बुद्धि नित प्रदायिनी,

कोटि नमन हे भव-तारिणी।     ।।7।। 

 

मयूर वाहनी माता वाणी,

मराल गामिनी, हे वर गुण-मणि।

सुर,नर,किन्नर से नित वंदिता,

तव चरण में माँ मैं शरणागता।    ।।8।।

 

सकल पाप हारिणी जननी,

हे शुभदे भगवती ब्रम्हाणी।

शरणागत रक्षक माँ कल्याणी,

कुमति मत दे हे जग-तारिणी।    ।।9।।

 

सुज्ञान पुंज के आलोक प्रदाते,

अज्ञान तिमिर नित हर दे माते ।

विमल मति दे हे माँ भगवती,

पावनी जगदंबा देवी सरस्वती।    ।।10।।

 

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****** स्वरचित एवं सर्वाधिकार सुरक्षित

-अनुराधा के,

वरिष्ठ अनुवाद अधिकारी,

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,

क्षेत्रीय कार्यालय, मंगलूरु