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कर्ज़

“मालिक ! अब मुझे इस कर्ज़ से उऋण कर दीजिए। जितने रूपये मैंने आपसे लिए थे, उसके तीन गुना तो अबतक दे चुका हूँ। ” –  हरिया, बाबू श्यामलाल के सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा था। बाबू श्यामलाल जमींदार थे। वक्त-बेवक्त जरूरत पड़ने पर गाँव वालों को सूद पर पैसे भी लगाते थे। संतान के नाम पर एक ही लड़का था, जो शहर में पढ़ता था। कल वह दीवाली की छुट्टी में गाँव आने वाला था। 
 
 ” जितने रुपये तूने अब तक दिए हैं, वो तो सूद में ही चले गये। मूलधन तो अभी जस-का-तस पड़ा है। फिर तू ही बता, मैं तुझे कैसे उऋण कर दूँ? ” – बाबू श्यामलाल बोले। 
 
 ” ऐसा अन्याय मत कीजिए, मालिक। जिस बेटे की बीमारी में मैंने आपसे रुपये लिए थे, उसे भी भगवान ने छीन लिया। थोड़ी बहुत ज़मीन थी, वह भी बिक गई। अब मेरे पास बचा ही क्या है, सिवाय इस घर के ? ” – हरिया बोलते-बोलते रोने लगा था।
“तो बेच दे घर, और मुक्ति पा ले इस ऋण से…।” – बाबू श्यामलाल ने बड़ी निर्दयता से उसकी ओर देखते हए कहा।  हरिया गरीब जरूर था, पर आजतक उसने किसी का एक रुपया भी नहीं रखा था। उसने सोचा…अब पास में है ही क्या…और बचाकर रखें भी, तो किसके लिए ?
 
 दूसरे ही दिन वह घर की ज़मीन के कागज़ात लेकर बाबू श्यामलाल के घर की ओर चल पड़ा। अभी कुछ दूर ही आया होगा कि सड़क किनारे से किसी के कराहने की आवाज़ ने उसके बढ़ते कदमों को रोक लिया।  पास जाकर देखा तो एक नौजवान लड़का औंधे मुँह गिरा हुआ था और उसके सिर से खून निकल रहा था। सड़क पर कुचली हुई मोटर साइकिल पड़ी थी और बैग-जूते बिखरे हुए थे…!  हरिया दौड़कर उसके नजदीक गया और ज्योंही उस लड़के को देखा, तो उसका कलेजा मुँह को आ गया। उसने सड़क की दोनों तरफ नज़र  दौड़ाई, पर कहीं कोई गाड़ी आती न देख, उसे अपने काँधे पर लादकर तेजी से अस्पताल की ओर दौड़ पड़ा…..।  बाबू श्यामलाल को  जब इस बात का पता चला, तो वह भी  दौड़ते-हाँफते बदहवास-से अस्पताल पहुँचे। डाक्टर ने बताया कि अगर थोड़ी भी देर हो जाती, तो उसे बचा पाना मुश्किल था। वो तो भला मनाइए उस देवता का जिसने सही समय पर आपके लड़के को यहाँ पहुँचाया और अपना खून देकर उसे बचाया।
 
बाबू श्यामलाल ने बेड पर पड़े अपने बेटे को देखा। उसके सिर पर पट्टी बँधी हुई थी। पास ही बेड पर हरिया लेटा हुआ था और उसका खून बेटे को चढ़ाया जा रहा था। श्यामलाल हरिया के पास गये और उसकी बेड पर बैठ गये। हरिया ने सिरहाने से घर की ज़मीन के कागज़ात निकाले और बाबू श्यामलाल को देते हुए हाथ जोड़ लिए – ” मालिक ! अब मुझे इस कर्ज़ से उऋण कर दीजिए।”  बाबू श्यामलाल की आँखों से अश्रुधार बह चली। उन्होंने हरिया का हाथ पकड़ लिया और हरिया को उसकी ज़मीन के कागज़ात लौटाते हुए कहा – “हरिया! मुझे माफ़ कर दे।….तू तो उऋण हो गया। पर, तूने मुझे आजीवन अपना सबसे बड़ा कर्ज़दार बना लिया। अब मैं इस कर्ज़ से कैसे उऋण होऊँगा….? “
 
 
मैं प्रमाणित करता हूँ कि यह मेरी मौलिक और अप्रकाशित रचना है।
_______ राकेश कुमार पंडित
 
 



भीख का मोल

समुद्र के किनारे बसे एक शहर में मेला लगा हुआ था । बहुत दूर दूर से व्यापारी मेले व्यापार करने आये हुए थे । अनेकों तरह के सामानों से सजे मेले में लोगों के चहल पहल लगी हुई थी । वहीं एक भिखारी फटे पुराने चीथड़ों में लिपटा जन जन से भीख मांग रहा था । कुछ लोग पैसा दो पैसे देते और कुछ सिर हिला कर आगे की ओर जाने का इशारा कर देते । भिखारी अभी युवा ही था । तभी वो भीख मांगता मांगता एक युवा व्यापारी के पास जा पहुंचता है और उस से भीख की मांग करता हुआ बोला , “बाबू जी कुछ पैसे दे दो , ईश्वर तुम्हारा भला करेगा ” ।
उस युवा व्यापारी ने भिखारी की तरफ देखा और पूछने लगा ,” मैं तुम्हें पैसे क्यों दूं क्या इसके बदले तुम मुझे कुछ दे सकते हो ? ” इस पर भिखारी भोला , मैं तो एक साधारण सा भिखारी हूँ । मैं आपको क्या दे सकता हूँ ? मैं तो खुद मांग कर खाता हूं । ये सुनकर वो युवा व्यापारी बोला ,मैं तो एक व्यापारी हूँ वस्तु के बदले ही कुछ देता या लेता हूँ । यदि तुम मुझे कुछ दे सकते हो तो उसके बदले में तुम्हे पैसे दे सकता हूँ अन्यथा नही “। ये कहकर वो युवा व्यापारी आगे बढ़ गया ।
व्यापारी द्वारा कहे गए शब्द भिखारी के दिल में बैठ गए । वो सोचने लगा । मैं लोगों से कुछ न कुछ मांगता हूं पर देता कुछ भी नहीँ । शायद इसी लिए मैं अधिक भीख प्राप्त नही कर पाता । मुझे कुछ न कुछ लोगों को देना भी चाहिए ।ऐसा विचार मन में सोचता सोचता वो समुद्र तट पर चलता रहा । तभी एक समुद्र की तरफ से एक लहर आती है और पानी उसके नँगे पैरों को छूता हुआ वापिस लौट जाता है पर कुछ रंग बिरंगी सीपियाँ और छोटे छोटे शंख छोड़ जाता है । उन्हें देख कर उस भिखारी के चेहरे पर चमक आ जाती है और मन में एक विचार आता है कि क्यों न मैं ये रंग बिरंगी सीपियाँ और ये छोटे छोटे शंख लोगों को भीख के बदले में दूँ । ये सोच कर अपनी झोली में कुछ सीपियाँ और शंख इकट्ठा कर लिए । और भीख के बदले उन्हें लोगों में बांटने लगा । उस दिन उसे पहले के मुकाबले ज्यादा भीख मिली । अब रोज़ाना वो सुबह सुबह जा कर सूंदर से सुंदर सीप और शंख चुन चुन कर इकट्ठा करता और भीख के बदले लोगों को देता । अब उसको और ज़्यादा पैसे मिलने लगे ।
एक दिन भीख मांगते उस भिखारी को वो युवा व्यापारी मिल गया जिसने उसको बस्तु के बदले वस्तु देने की बात बताई थी । उसके पास जा कर वो बोला , “बाबूजी आज मेरे पास आपको देने के लिए कुछ शंख और सीपियाँ हैं “। उस युवा व्यापारी ने वो सीपियाँ और शंख उस भिखारी से ले लिए और जेब से पैसे निकाल कर भिखारी को देते हुए बोला ” अरे वाह! तुम तो मेरी तरह एक व्यापारी बन गए हो ” ये बात कह कर वो युवा व्यापारी आगे की ओर चला गया । परन्तु भिखारी पैसे हाथ में लिए वहीं निःशब्द खड़ा रहा और विचार करने लगा । व्यापारी ? मैं व्यापारी कैसे ?
तभी उसके चेहरे पर एक चमक सी कौंध गई । उसे इस चीज़ का आभास हुआ कि आज तक मुझे इन सुंदर सीपियों और शंखों के बदले जो भीख मिल रही थी वो भीख नहीं थी बल्कि इन सीपियों शंखों का मूल्य था । वो खुशी से झूम उठा उसको एक नई राह मिल चुकी थी ।

कुछ वर्षों बाद हर वर्ष की तरह उस शहर में मेला लगा । इतेफाक से दो सुंदर परिधान पहने युवा व्यापारियों का मिलन हो गया । एक ने दूसरे से हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाते हुए दूसरे से पूछा क्या आपने मुझे पहचाना ? दूसरा बोला,” माफ कीजिये ,नहीं , मैंने आपको पहचाना नहीं क्या हम पहले कहीं मिल चुके हैं” ? ये सुनकर पहला बोला , “हाँ श्रीमान , एक बार नहीं बल्कि तीसरी बार हमारी मुलाकात हो रही है । पहली बार में आपको भिखारी के रूप में मिला पर आपने भीख देने से इनकार किया पर मुझे वस्तु विनिमय का ज्ञान दे गए । जब दूसरी बार मिला तो मैंने बस्तु के बदले भीख मांगी तब तक में भिखारी ही था एयर भीख ही मांग रहा था परंतु आपने मुझे बस्तु के मोल के बारे में बताया और मुझे व्यापार करने के लिए मार्ग दिखा गए । उस समय के बाद मैंने सीपियों और शंखों का व्यापार शुरू कर दिया । यहां के आस पासबके बाज़ारों में सजावटी वस्तियों के लिए इनकी बहुत मांग है । में इन्हें बेच कर जो भी धन एकत्रित किया उस धन से एक कारोबार खोला जिसमें शंखों सीपों का बना सजावटी सामान बनाया जाता है और देश विदेशों में भेज जाता है । मेरे इस सामान की बहुत मांग है । आज में एक सफल व्यापारी बन चुका हूँ । और व्यापार के सिलसिले में यहां इस मेले में आया हूँ ।”

ये सुनकर दूसरा व्यापारी बहुत खुश हुआ और फिर वे दोनों व्यापार की बातें करते करते आगे की ओर बढ़ चले ।
इस कहानी से हम समझ सकते हैं कि इस संसार में हमें कोई भी वस्तु पाने के लिए कोई न कोई मोल चुकाना पड़ता है । बिना कुछ दिए कुछ लिया नही जा सकता ।
यही प्रकृति का नियम भी है । हम लगातार प्रकृति का दोहन करते हैं लेकिन प्रकृति को कुछ देते नही । जो कि प्रकृति के नियमों के विपरीत है । यही बात सामाजिक रिश्तों पर भी लागू होती है की किसी को प्यार बांटे बिना प्यार पाने की आशा नही की जा सकती ।

सुरेश कौंडल 

ज्वाली जिला काँगड़ा हिमाचल प्रदेश




बेटी तुम संघार करो

 

शीर्षक : – बेटी तुम संघार करो

 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते की 

          प्रथा बदल रही भारत में,

बेबस बेचारी बेटी की 

         व्यथा बदल रही भारत में,

नित्य नित्य व्यभिचारों के

           नये नये ये किस्से हैं,

कुछ रोती बेटी रह जातीं

          कुछ राजनीति के हिस्से हैं,

आरोपों प्रत्यारोपों से 

        न्याय ना तुमको मिल पाये,

चीख चीरती है हृदय पर 

         सिंहासन ना हिल पाये,

नहीं सुरक्षा बेटी तुमको 

         स्वयं शक्ति संचार करो,

लाज बचाने नारी जाति की 

          बेटी तुम संघार करो।

मूक बना प्रशासन है जी

          शासन की जंजीरो से ,

सत्ता न्याय न कर पाती है

          राजनीति जंजीरों से,

सुनो विपक्षी बेपैंदे हैं

        ये वोट देख लुढ़कते हैं,

कायर मर्कट बने हुये हैं

         फायदे हेतु घुड़कते हैं,

बेटी तो बेटी होती है 

          नहीं निकम्मे जान सके,

माँ की पीड़ा पिता की इज्जत

     नहीं निकम्मे मान सके,

खड़ग उठाओ हाथों में

         हर क्षण तुम तलवार धरो,

लाज बचाने नारी जाति की

         बेटी तुम संघार करो।

तुम दुर्गा शेरावाली हो,

         तुम काली खप्परवाली हो,

तुम चण्ड – मुण्ड संघारिन हो,

         तुम रानी झाँसी वाली हो,

तुम भक्ति हो महाशक्ति हो

         तुम ही रणचंडी हो,

रक्त बीज का रक्त पान कर

        तुम ही मातु चामुंडी हो,

बनो सुदर्शन तुम कृष्ण का

        और राम का तीर बनो,

परशुराम का परशु बनकर

        हे बेटी तुम वीर बनो,

भाला भुजबल करो प्रचंड

       दानव पर तुम वार करो,

लाज बचाने नारी जाति की

        बेटी तुम संघार करो।

नेत्र उठाये तुझ पर बेटी

       नेत्र निकालो दानव का,

हाथ छुये बेटी तन को

       हाथ उखाड़ो दानव का,

करो संयमित शक्ति अपनी

       निर्बलता को त्यागो तुम,

बेबस लाचारी बेचारी

       और मोह को त्यागो तुम,

बने जागरुक भारत की बेटी

       और देश उत्थान करे,

आत्मनिर्भर बनकर बेटी

       भारत देश महान करे,

मत डरो झूँठी ललकारों से

       तुम पुनः पुनः प्रतिकार करो,

लाज बचाने नारी जाति की 

       बेटी तुम संघार करो।

 

रचनाकार

मृदुल पाराशर “गैर दिमागी “

गाजीपुर फ़ीरोज़ाबाद

उत्तर प्रदेश

मो .नं.9917562933

 




भारतीय दर्शन संस्कृति परम्पराएँ सहिष्णुता और शान्ति

भारतीय दर्शन संस्कृति परम्पराएँ सहिष्णुता और शान्ति
भारतीय समाज एवं संस्कृति की एक अनूठी विशेषता है- विविधता में एकता। इस विशेशता ने ही इसे अनन्त काल से अब तक जीवित रखा है। भारत में प्रजाति, धर्म, संस्कृति एवं भाषा की दृष्टि से अनेक विभिन्नताएं पाई जाती हैं। इन विभिन्नताओं के होते हुए भी सम्पूर्ण राष्ट्र में एकता के दर्षन होते हैं। इस सन्दर्भ में सर हर्बर्ट रिजले ने उचित ही लिखा है, ‘‘भारत में धर्म, रीति-रिवाज और भाषा तथा सामाजिक और भौतिक विभिन्नताओं के होते हुए भी जीवन की एक विषेष एकरूपता कन्या कुमारी से लेकर हिमालय तक देखी जा सकती है। वास्तव में, भारत का एक अलग चरित्र एवं व्यक्तित्व हैं, ‘‘ जो भी कारण हो, विचारों तथा जातियों के अनेक तत्वों में समन्वय, अनेकता में एकता उत्पन्न करने की भारतीयों की योग्यता एव ं तत्परता ही मानव जाति के लिए भारत की विशिष्ट देन रही है। भारत विभिन्न धर्मों की जन्मभूमि है। हिन्दू, जैन, बौद्ध एवं सिक्ख धर्मों का उदय भारत मे हुआ तथा इस्लाम और ईसाई धर्म विदेषों से यहां आए। प्रत्येक धर्म में कई मत-मतान्तर एवं सम्प्रदाय पाए जाते हैं और उनके नियमों एवं मान्यताओं में अनेक विविधताएं हैं। विभिन्न धर्मों के लोक सदियों से भारत में एक साथ रहते रहे है और धर्म न भारत में एकता पैदा की है। भारत में विभिन्न क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों के परिवारों में विवाह, रीति-रिवाजों, पहनावा आदि में विभिन्नता पाई जाती है। उसके बावजूद भी प्राचीनकाल से ही भारत की सामाजिक संरचना एवं संस्कृति में एकता के दर्शन होते है। अनेक सदियों पुरानी प्रथाएं, रीति-रिवाज रूढियां एवं परम्पराएं आज भी यहां प्रचलित हैं। सांस्कृतिक सहिष्णुता के कारण यहां अनेक बाह्य संस्कृतियों के सम्पर्क के बावजूद भी भारतीय संस्कृति का स्वरूप अक्षुण्ण बना रहा। वर्तमान समय में भी विभिन्न, धर्म, जाति, क्षेत्र एवं भाषा समूहों के बावजूद भी यहाँ एकता के भाव विद्यमान हैं। भारतीय संस्कृति की महान् विशेशता इसकी सहिष्णुता है। भारत में सभी धर्मों, जातियों, प्रजातियों एवं सम्प्रदायों के प्रति उदारता, सहिष्णुता एवं प्रेम-भाव पाया जाता है। भारतीय संस्कृति की उदार एवं सहिष्णु प्रकृति के कारण ही इसमें विभिन्न संस्कृतियो ं का समन्वय हो पाया है। हमारी संस्कृति समस्त मानवीय गुणों की एक लहलहाती फसल है तथा सद्भाव, सहिष्णुता, त्याग, बलिदान, आत्मीयता सर्वधर्मसमभाव एवं विश्वबन्धुत्व के उदार गुणों ने इसे सदा-सर्वदा खींचने का कार्य किया है। संकीर्ण विचारधाराओं से ऊपर उठकर सम्पूर्ण विष्व के कल्याण के लिए चिन्तन करना हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रहा है। इसलिए कहा गया है
‘‘ सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।।’’
शान्ति, प्रगति के लिए अव्यंत आवश्यक है। यह बात वैश्विक प्रगति पर लागू होती है। विश्वशांति से ही वैश्विक प्रगति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है, वैश्विक समुदाय द्वारा इस बात को अरसे से महसूस किया जाता रहा है। एक सुदर विकासोन्मुखी एवं वास्तव में सुसभ्य व मानवीय गुणों से परिपूर्ण समाज के निर्माण की पहली षर्त विश्वशांति है? शान्ति, से सृजन होता है और अषांति से विध्वंश। विध्वंश से मानवता कराहती है, जबकि सृजन से इसका रूप निखरता है। यही कारण है कि विश्वषांति को एक बेहतर दुनिया बनाने के आदर्ष के रूप में देखा जाता है। मानव अपने भौतिक तथा सामाजिक वातावरण के साथ अपने समायोजन की प्रक्रिया में तरह-तरह के अनुभव प्राप्त करता है तथा अपने इन विभिन्न प्रकार के अनुभवो ं के आधार पर जीवन के कुछ सामान्य सिद्धान्त विकसित करता है। व्यक्ति द्वारा अपने लिए निर्धारित जीवन के इन सामान्य सिद्धान्तों को ही मूल्यों के नाम से पुकारा जाता है। मूल्य वास्तव में मानव के व्यक्तित्व का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष प्रतिबिम्बित करते है। जब हम शिक्षा की बात करते है तो सामान्य अर्थों में यह समझा जाता है कि इसमें हमें वस्तुगत ज्ञान प्राप्त होता है तथा जिसके बल पर हमें कोई रोजगार प्राप्त कर सकते है। वस्तुपरक शिक्षा हर क्षेत्र में उपयोगी है। परन्तु जीवन में केवल पदार्थ ही महत्वपूर्ण नहीं है। पदार्थों का अध्ययन आवश्यक है, राष्ट्र की भौतिक दषा सुधारने के लिए, जीवन मूल्यों का उपयोग हम राष्ट्र की उन्नति के लिए कर सकते हैं। शान्ति, शिक्षा प्यार, सत्य, न्याय, समानता, सहनशीलता, सौहार्द, विनम्रता , एकजुटता और आत्म संयम इन सारे मूल्यों को व्यवहार में लाने पर बल देती है। शान्ति, शिक्षा के आधार के रूप में धार्मिक एवं नैतिक शिक्षा जहाँ एक ओर धर्म के विषय में उसकी बुनियाद और उनमें अन्र्तनिहित मूल्यों के विषय में जानने तथा सही समझ के लिए प्रेरित करती है, वहीं दूसरी ओर नैतिक शिक्षा मानव के आचार विचार व्यवहार को सकारात्मक दिरूाा में ले जाने में सहयोग देती है। व्यक्तियों में ऐसे मूल्यों, कौषलों, अभिवृत्तियों का समावेश करे जिससे उन्हें दूसरों के साथ सौहृार्दपूर्ण व्यवहार रखने वाले एवं उत्तरदायी नागरिक बनने में मदद मिले। ऐतिहासिक दृष्टि से नैतिक शिक्षा एवं मूल्य शिक्षा शान्ति, शिक्षा के लिए पूर्वज है या दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि ये शान्ति, शिक्षा के लिए आधार है। शान्ति, शिक्षा मूल्यों के उद्देश्यों को ठोस रूप देती है और उनके आंतरीकरण को प्रेरित करती है। शान्ति, के लिए शिक्षा को ऐसे ज्ञान, कौशल, मूल्यों एवं अभिरुचि का पोषण करना होता है जिससे शान्ति, की संस्कृति निर्मित होती है। अंहिसक तरीके से द्वन्द्वों का समाधान करने वाले अमनपसंद लोग तैयार करना इसकी एक दीर्घकालिक उद्देश्य/रणनीति है। शान्ति, शिक्षा समग्रतामूलक है। मानवीय मूल्यों के एक ढांचे के भीतर बच्चों का भौतिक, भावनात्मक, बौद्धिक और सामाजिक विकास इसके दायरे/परिधि में आता है। संक्षेप में शान्ति, शिक्षा के समग्र रूप के दो निहितार्थ है-
लोगों को हिंसा का मार्ग चुनने के बजाय शान्ति, का मार्ग चुनने में सशक्त बनाना।
उन्हें शान्ति, का उपभोक्ता बनने के बजाय उसका सर्जक बनाना।
संस्कृति शब्द का सम्बन्ध मानवता से है हम जिस संस्कृति का स्मरण करते हैं उस संस्कृति का परिचय वेद, उपनिषद, वेदांग, पुराण धार्मिक साहित्य, स्मृतियों से प्राप्त होता है। संस्कृति मानव समुदाय की आत्मा है संस्कृत और संस्कृति का आधार आधेय सम्बन्ध है शास्त्रकारों ने भी कहा है-
या संस्कृतिः संस्कृतं भारती च, भवन्तमाश्रित्य विवर्धमाने
तत्वो वियुङक्तकथमेश्यतस्ते क्षेमं पुनःसम्प्रति नैव ज्ञाने
भारतीय संस्कृति के अन्तर्गत जीवन दर्षन का मूलाधार ही मूल्य है अर्थात् भारत का पौराणिक दर्षन मूल्य दर्षन हैं। ऋतं, सत्यं, आनन्दतत्व, पुरूषार्थ की कल्पना, वर्णाश्रम व्यवस्था, आदि के माध्यम से जीवन मूल्यों की अवधारणा अभिव्यक्त हुई है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि समय और आवष्यकतानुसार मूल्य सदा परिवर्तनशील है। मूल्य बदलने से जीवन पद्धति बदल जाती है और जीवन पद्धति बदलने से मूल्य भी बदल जाते है। वर्तमान में हमारा देष लोकतंत्रीय मूल्यों का पोषक है। स्वतन्त्रता समानता, भ्रातृत्व, न्याय, समाजवाद और पंथ निरपेक्षता उसका प्राण है किन्तु अमानवीयता अलगाववाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद आदि विघटनकारी षक्तियाँ हमारे लोकतंत्र को कमजोर कर रही है। अतः आवष्यक है कि विश्वबन्धुत्व तथा वसुधैव कुटुम्बकम् जैसे प्राचीन जीवन मूल्यों व लोकतंत्रीय मूल्यों व आदर्षों से अपने मानव जीवन को चरितार्थ करें। भारतीय संस्कृति परम्परा आचरण और व्यवहार का प्रतिविम्बात्मक स्वरूप है।संस्कृति का बोध शिष्टाचार सद्व्यवहार से होता है मनुस्मृति में कहा गया है-

अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः
चत्वारी तस्य वर्द्धन्ते आयुर्विद्या यशोबलम्
‘‘अगर हम विश्व को वास्तविक शान्ति, का पाठ पढाना चाहते हैं, तो हमें शुरूआत बच्चों से करनी होगी।’’- महात्मा गाँधी जी
भारतीय दर्शन संस्कृति परम्परा में विश्व कल्याण की भावना गंूजती है। सभी जीवों पर दया भाव रखना कल्याण्कारी मार्गों का आश्रय लेकर सर्व कल्याण की भावना सहिष्णुता के भाव रखना परम लक्ष्य है। भारतीय दर्शन विश्व दर्शन है, वास्तविक विचार दर्शन है। ग्रहणशीलता, कर्म धर्म को स्वीकार करने वाला,व्यावहारिकता आत्मबोध, सर्वदुःख निवारण, सर्वकल्याण की भावना रखने वाली संस्कृति यत्र विश्वं भवत्येक नीडम् की भावना का विकास करती है।विश्व शान्ति की कामना करती है-
द्यौः शान्तिरन्तरिक्षं शान्तिः पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोाधयः शान्तिः
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिब्रह्म शान्तिः सर्वं शान्तिः।
डाॅ अनूप बलूनी

Associate Professor

Faculty of Education

Motherhood University Roorkee

 Uttrakhand




ज़िम्मेदार बचपन

मेरे घर से कुछ ही दूरी पर रेलवे स्टेशन है । और रेलवे स्टेशन की दूसरी ओर एक छोटा सा बाजार । हमारे गांव के लोग अकसर बज़ार जाने के लिए रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म से हो कर गुजरने वाले रास्ते का इस्तेमाल कर लेते हैं । जून माह था और रविवार का दिन था । मैं और मेरा मित्र मुनीष भी उसी रास्ते से बाजार जा रहे थे । बहुत गर्मी पड़ रही थी । प्लेटफॉर्म वाला रास्ता पार करते मैंने मुनीष से कहा गर्मी बहुत पड़ रही है मुझे बहुत प्यास लगी है ,गला सूख रहा है । सुन कर मुनीष बोला आओ प्लेटफॉर्म पर लगे वाटरकूलर से पानी पी लेते हैं । हम ने पानी पिया और फिर उसी प्लेटफॉर्म पर लगे पंखे की ठंडी हवा लेने बेंच पर बैठ गए और ठंडी हवा का आनंद लेने लगे । तभी मुनीष ने रेलवे पटरियों की दूसरी ओर इशारा करते हुए मुझे कुछ दिखाने लगा । प्लेटफॉर्म के ठीक सामने पटरियों के उस पार दो छोटे छोटे बच्चे सूखी लकड़ियां बीन रहे थे । एक लगभग आठ या नौ साल की छोटी सी लड़की और लगभग सात साल का लड़का शायद उसी का भाई था ।
तपती धूप के कारण लोहे की पटरियां आग उगल रही थीं ।और वो नन्हे मासूम नंगे पांव छोटे छोटे हाथों से पतली पतली लकड़ियां बीन रहे थे । उस समय शायद उनकी ज़रूरत बहुत बड़ी रही होगी कि उनको गर्म लोहे की तपन का एहसास तक नही था और वे बेख़ौफ़ लकड़ियां चुगने में व्यस्त थे । उनको धधकती गर्मी में संघर्ष करते देख कर मेरे तन बदन में सिरहन सी उठ गई । मैंने हैरानी से मुनीष की ओर देखते हुए प्रश्न किया , क्या इनको गर्मी नही लग रही होगी ? क्या इनके नंगे पैर जल नही रहे होंगे ? मुनीश भी निरुत्तर था वो भी बड़ी हैरानी से उन बच्चों को देख रहा था। उस लड़की ने लगभग 25 से 30 लकड़ियों का छोटा सा गट्ठड़ बनाया फिर सिर पर रख कर अपने भाई की अंगुली पकड़ कर प्लेटफॉर्म की तरफ आने लगी । जब हमारे बेंच के पास से गुजरी तो मैंने बरबस ही पूछ लिया बेटा तुम्हारा नाम क्या है ? वो शरमा कर बोली….. ‘लक्ष्मी’ मैं ने पूछा ये साथ में छुटकू कौन है ? वो बोली ..ये कालू है… मेरा भाई ।
मैंने पूछा स्कूल नही जाते हो ? उसने ना के भाव से गर्दन हिलाई और शरमाते हुए प्लेटफॉर्म के पीछे की ओर भाग गई । थोड़ी देर हम प्लेटफार्म ही पर बैठे और लगभग आधे घण्टे के बाद बाजार के रास्ते की ओर मुख कर लिया । रास्ता प्लेटफार्म के पीछे की ओर से जाता था । कुछ कदम चलने पर हम रास्ते के किनारे बनी एक तिकोनी सी दो तरफ से खुली तिरपाल की झुग्गी के पास से गुजरे । जिसमें एक महिला फ़टी पुरानी सी चद्दर ओढे सोई थी और बाहर ईंटों से चूल्हा बना कर एक छोटी सी बच्ची रोटियां पका रही । नन्हे नन्हे हाथों से रोटियां बेलती और तवे पर सेंकती वो बच्ची । वो लक्ष्मी थी जो कुछ क्षण पहले लकड़ियां चुन कर लाई थी । हमारे कदम एकाएक थम गए । मैंने लक्ष्मी को आवाज़ दी बेटा तुम खाना क्यों बना रही हो ? तुम्हारी माँ कहाँ है ? वो तोतली ज़ुबान में बोली “मेरी माँ बीमार है । उसको बहुत बुखार है । मेरा भाई भूखा है उसको खाना खिलाना है ।” उसके मुख से निकलने वाले ये शब्द सुनने में बेशक तोतले थे पर उनमें वज़न बहुत था । मैंने मुनीष की तरफ देखा वो भी निशब्द उस बच्ची को सुन रहा था । बड़ी छोटी सी उम्र में ही वो दुनिया में जिम्मेदारी का वो एहसास सीख चुकी थी जो शायद कुछ लोग 40 -45 साल तक भी नही सीख पाते । परन्तु आज नन्हे कंधों पर जिम्मेदारी का बोझ देख कर आखों में आंसू भर आये ।फिर कुछ क्षण बाद हम बाज़ार की तरफ बढ़ चले । गर्मी का एहसास जा चुका था । हम निशब्द आगे की ओर बढ़ रहे थे । पर उस बच्ची का मासूम चेहरा रह रह कर आंखों के सामने आ रहा था । बाज़ार पहुंच कर लक्ष्मी और उसके भाई के लिए दो जोड़ी चप्पल , कुछ कपड़े,और खाने का सामान खरीद कर अलग थैले में पैक करवाते वक्त एक जिम्मेदारी का सुखद एहसास हो रहा था जो कि घर लौटते समय उसको देना था ।




वापस आओ ओ मेरी माँ

 

वापस आओ ओ मेरी माँ

 

सात समंदर पारकर, हुई हो तुम आँखों से ओझल,

मिले बिन तुझे ओ मेरी माँ मेरा मन हुआ है मरुस्थल।

विदेश में रहकर है क्या हाल तेरा, कैसे ये मैं जानूँ ?

विडियो कॉल से बात किए, तेरी आँखों से क्या पहचानूँ ?

 

भैय्या- भाभी, मुन्ना- मुन्नी तो देखभाल करेंगे तेरी,

अपना देश -अपनापन कहाँ मिलेगा ओ माँ मेरी प्यारी?

आया होगा सपनों में बार-बार अपना घर, गलियारा।

भूलेगी कैसे सारे रिश्ते-नाते जीवन-भर जो तेरा मनहारा।

 

अपनी सहेलियाँ, यहाँ के मंदिर, अपना भगवद्गीता सत्संग।

हुआ है सूना, निहारे हैं राह सारे, लेकर तेरी वापसी की उमंग।

कब आओगी वापस ओ माँ, तरस रहीं है ये तेरी बिटिया,

पल-पल तेरी राह निहार किए थकी हैं मेरी अखियाँ।

               *****

-अनुराधा के, वरिष्ठ अनुवाद अधिकारी,

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,क्षेत्रीय कार्यालय,मंगलूरु

 




कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी के गांव में

<span;>कल जहां बसती थी खुशियां आज है मातम वहां…। हिंदी फिल्म ‘वक्त’ का यह मशहूर गीत रामवृक्ष बेनीपुरी के गांव पर सटीक बैठता है। जिस बेनीपुर में कभी साहित्यिक गोष्ठियों में कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी के ठहाके गूंजते थे आज वहां सन्नाटे में अगर सुनाई देती है तो मात्र हवाओं की सनसनाहट। 2021 में पहले दिन हमसभी बेनीपुर के लिए निकले थे। एक बार फिर इस यात्रा के प्रेरक नूतन साहित्यकार परिषद के अध्यक्ष व अभिभावक चंद्रभूषण सिंह चंद्र थे। उनकी प्रिय मारुति आल्टो कार हमलोगों की हमसफर थी। साथ में थे दैनिक भास्कर के रोहित रंजन व दैनिक जागरण के पत्रकार ब्रजेन्द्र भाई।

<span;>         सीतामढ़ी रोड में जनार बांध से पूरब की ओर ईंट सोलिंग सड़क पर हमसभी बढ़ रहे थे। इसी बीच बेनीपुर हाल्ट के पास बाइक पर सवार हेलमेट लगाए एक व्यक्ति ने हमलोगों की कार को रोका। कार से निकलने के बाद देखा कि औराई के दैनिक जागरण रिपोर्टर शीतेश भाई थे। उन्हें देखकर हमसभी चौंक गए। साथ में खुशी भी हुई कि बेनीपुरी जी के गांव में अब हमसभी की यात्रा आसान हो जाएगी। चंद्रभूषण सर ने कहा कि सच्ची व अच्छी नीयत हो तो किसी भी काम के लिए रास्ता आसान हो जाता है। ऐसा हुआ भी। शीतेश भाई के नेतृत्व में हमलोगों की कार आगे बढ़ चली। बेनीपुरी के गांव में जाने के लिए बागमती की उपधारा नाव से पार करना होता है। ग्रामीणों ने बताया कि यह उपधारा बागमती तटबंध बनाने के दौरान मिट्टी काटने से बनी है। मुख्य धारा बेनीपुरी जी के घर से पूरब व उत्तर है। नाव खेवने के लिए पतवार शीतेश भाई ने थाम ली थी। नाव से उतरने के बाद दूर दूर तक खेतों में खेसारी की फसल दिख रही थी। यह देखकर मुझे व ब्रजेन्द्र भाई को अपने गांव के बूढ़ी गंडक नदी के किनारे के ढाब में उपजने वाले खेसारी के खेत याद आ गए। बचपन के दिनों में खेसारी के साग में हरी मिर्च व नमक डाल कर बनने वाले लहरा का स्वाद जेहन में ताजा हो गया। खेतों के बीच आड़े-टेढ़े लीक से होकर हमसभी बढ़ चले बेनीपुरी की के घर की ओर। प्यास लगी तो हमलोगों ने एक सज्जन के घर चापाकल का पानी पिया। सभी ने पानी के स्वाद की तारीफ की। गृहस्थ ने बताया कि 190 फीट का चापाकल है। आगे बढ़ने पर बागमती परियोजना की त्रासदी दिखने लगी। खंडहर बना स्कूल भवन हो या लोगों के मकान। सभी एक सभ्यता के मरने की गवाही दे रहे थे। बिना तार के बिजली के पोल इस बात के गवाह थे कि कभी गांव में रौशनी बरसती रही होगी। आज वीरानगी का आलम है। बेनीपुरी जी के घर के पहले मिले अनिल कुमार सिंह। लगभग पांच फीट की उंचाई पर बना है उनका मकान। 2007 में बागमती परियोजना लागू होने के बाद पूरा गांव विस्थापित हो गया है। गांव में रहने वाले दर्जनभर परिवार में उनका भी परिवार शामिल है। गांव में रहने का कारण कही न कही अपनी मिट्टी से गहरा जुड़ाव दर्शाता है। मिलने पर पूरी आत्मीयता से उन्होंने हमसभी की आगवानी की। उनके यहां बेनीपुरी जी के स्मारक से लौटकर लौटकर चाय पीने की इच्छा  शीतेश भाई ने जाहिर की। तब अनिल जी ने कहा कि ‘हमनी त लोग के इंतजार करईछी’। उनके इस वाक्य ने सभी को स्नेह से अभिभूत कर दिया। सचमुच इतनी आत्मीयता अब कहां मिलती है? आगे बढ़ने पर खंडहर मकानों से गुजरने हुए हमसभी बेनीपुरी जी के स्मारक के सामने थे। जिस स्मारक व मकान को सालों से अखबारों के पन्नों में देखते थे आज उससे रूबरू होकर धन्य महसूस कर रहे थे। चंद्र जी के साथ हमसभी ने बेनीपुरी जी की प्रतिमा को प्रणाम किया। प्रतिमा की हालत देखकर चंद्र जी ने इसे दुरुस्त करने की जरूरत बताई। गांव के ही देवकी मंडल ने बताया कि उटखाटी (बदमाश) चरवाहा सब मूर्ति के खराब कर देले हय। हमलोगों को देखकर पहुंचे ग्रामीण संजीव कुमार सिंह से सभीलोगों की एक साथ की तस्वीर मोबाइल में खींचने का आग्रह किया। तब संजीव ने कहा कि हमरा फोटो खींचे न आबाईअ। हमनी के मोबाइल न हंसुआ व खुरपी चाही। इस वाक्य ने आइना दिखाया कि भौतिकता के दौर में खेती-किसानी ही गांव की जड़ों को मजबूत रखेगा। बहरहाल,ब्रजेन्द्र भाई की ट्रेनिंग से संजीव ने हमसभी की ग्रुप फोटो बखूबी खींची। बेनीपुरी जी का  मकान जिसे उन्होंने स्मारक के रूप में रखने की अपनी जिंदगी में ही घोषणा कर रखी थी आज खस्ता हालत में है। अपनी डायरी के पन्ने में आठ दिसंबर 1952 को उन्होंने लिखा है कि यह मेरा मकान नही मेरा स्मारक है। इस बदनसीब देश मे जहां कालिदास व तुलसीदास के स्मारक नही बन सके तो बेनीपुरी के स्मारक की याद किसे रहेगी ? ऐसे में अपने मकान को ही ऐसा मजबूत बनाये जो कम से कम चार पांच सौ साल कायम रहे।  सचमुच उनकी आशंका सच साबित हो गई। विशाल व भव्य पोर्टिको व बरामदे,बड़े-बड़े कमरे व खिड़कियों वाला मकान बागमती नदी की लाई मिट्टी से कमर तक भर चुका है। हालांकि 23 दिसंबर 2020 को उनकी जयंती पर डीएम चंद्रशेखर सिंह ने स्मारक के संरक्षण के लिए तीन करोड़ से अधिक की लागत से डीपीआर तैयार किये जाने की घोषणा की है। जिससे ग्रामीणों को साहित्यप्रेमियों को उम्मीद है कि बेनीपुरी जी की इच्छा पूरी हो सकेगी। स्मारक से लौटते समय अनिल जी के दरवाजे पर चाय व बिस्कुट के साथ आतिथ्य स्वीकार किया। वहां से यादों को संजोए हमसभी वापस लौटने लगे। उपधारा को पार करने के बाद उपधारा की दूसरी ओर बांध किनारे बनने वाले बेनीपुरी स्मारक स्थल की जमीन को भी हमने देखा। लौटने के क्रम में जनार बांध पर दैनिक भास्कर के औराई के संवाददाता नवीन झा मिले। वहां विशेष आग्रह पर दो रसगुल्ला व दो बालूशाही यानि कुल चार-चार मिठाई का लुत्फ उठाया। हालांकि चंद्र सर ने मात्र दो रसगुल्ला खाया। फिर स्पेशल चाय पीने के बाद शीतेश भाई को विशेष धन्यवाद देते हुए हमलोग खादी भंडार कन्हौली के लिए निकल पड़े।