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जिंदगी और सूरज

कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
जिंदगी दौड़ती है चाहतों के रफ्तार में।
कहीँ जब शाम ढलती है जिंदगी
ठहर सी जाती है चाहतों के चाँद
के इंतज़ार में।।
इंसा हर लम्हे को जीता चाहतों
ख्वाईसों के इंतज़ार में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है ..:….
सुबह औ शाम इंसा तन्हा ही जीता जन्हा ही जीता रिश्तों के खुमार में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
उम्र गुजरती जाती है उम्र गुजरती जाती है धुप छाँव गम ख़ुशी बहार
में ।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
सांसो धड़कन का इंसा कस्मे है खाता जिन्दगी के प्यार इज़हार में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
बचपन याद नही यौवन बीता जाता जश्न जोश जज्बा गुमान में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
जँवा इंसा उगता सूरज उम्मीदों
आरजू की उड़ान में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है
ढलता यौवन मकशद मोशिकी का
तराना जिंदगी की शाम में।।
रौशन चाँद का आना जिंदगी का
मुस्कुराना सफ़र है सुहाना
कभी जिंदगी ऐसी दुनिया को मिलती है दुनियां सूरज चाँद संग ज़मीं पे जीती है खुशियों के
कायनात में।।
कहीँ जब सुर्ख सूरज निकलता है।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश




चाँद से सवाल

चाँद से सवाल

चंदा मामा हमारे घर भी आओ ना,
मेरे संग बैठकर हलवा-पूड़ी खाओ ना ।

मुझे करनी हैं, तुमसे ढेर सारी बातें
तुम्हें बुलाते-बुलाते गुज़र गई कई रातें ।

अब ना चलेगा तुम्हारा कोई भी बहाना
जल्दी से मेरे सवालों के जवाब देते जाना ।

तुम्हें घेरे हुए हैं जो- बहुत से टिमटिम तारे,
क्या वे सब हैं – दोस्त तुम्हारे ?

तुम रोज़ छोटे-बड़े, कैसे हो जाते हो,
कभी पूरे गोल तो कभी ग़ायब हो जाते हो ?

सुना है तुम सूरज चाचा से बहुत डरते हो,
उसके आते ही छिपने की क्यों करते हो ?

अगर तुम नहीं आए तो मैं ग़ुस्सा हो जाऊँगा,
तुम्हारे हिस्से के भी पकवान , खुद खा जाऊँगा ।

रचनाकार:- संदीप कटारिया (करनाल,हरियाणा)

 




यूँ मायूस मत बैठो

यूँ मायूस मत बैठो ।

यूँमायूस मत बैठो, हँसों मुस्कुराओं दोस्तों ।
ख़्वाब से निकलो हक़ीक़त में आओ दोस्तों ।।

एक उम्र गुज़ार दी ज़माने वालों के काम देखते-देखते;
अब बारी तुम्हारी है-कुछ कारगुज़ारी करके दिखाओ दोस्तों ।

फूलों की मासूम-महक़ती वादियों में बहुत रह लिए;
अब काँटों में रहने का हुनर भी सीखों और सिखाओ दोस्तों ।

चाँद-सितारों को घर तक लाना जब ना हो मुमकिन;
तो जुगनुओं से ही अपने सहन को सजाओ दोस्तों ।

दौलत और शोहरत के ढेर लगा कर क्या करोगे;

बस,सदाकत-हक़गोई पर फ़ना हो जाओ दोस्तों ।

दुनियाँ वाले तो चाहेंगे ही-आपको हर बार गिराने की;
पर ख़ुद को ख़ुद की नज़र से कभी मत गिराओ दोस्तों ।

मंदिर मस्जिद में जाकर क्यों वक़्त ज़ाया करते हो;
जब क़ाबलियत है तुममें , पहले ख़ुद को ख़ुदा बनाओ दोस्तों ।

खैर इस ‘दीप के साये तले भी अंधेरे ही पनपते हैं;
बेहतर होगा ख़ुद को चाँद-सूरज की तरह चमकाओ दोस्तों ।

यूँ मायूस मत बैठो, हँसों मुस्कुराओं दोस्तों ।
ख़्वाब से निकलो हक़ीक़त में आओ दोस्तों ।।

रचनाकार – संदीप कटारिया (करनाल,हरियाणा)




प्रेम महज ढ़ाई अक्षर का शब्द नहीं

प्रेम महज 

ढ़ाई अक्षर का एक शब्द नहीं

प्रेम में है समाहित

भावना रुपी समुद्र

ज्ञान रुपी नभ।।

प्रेम महज 

ढ़ाई अक्षर का एक शब्द नहीं

प्रेम पूजा है

प्रेम की परिभाषा

चंद शब्दों में नहीं दी जा सकती

प्रेम अपरिभाषित है।।

प्रेम महज

ढ़ाई अक्षर का एक शब्द नहीं

प्रेम की महिमा का वर्णन

शब्दों में वर्णित करना

है सरल नहीं।।

प्रेम महज

ढ़ाई अक्षर का एक शब्द नहीं

जिस तरह मात-पिता की महिमा

लफ़्जों में व्यक्त करना है कठिन

ठीक उसी तरह

प्रेम को प्रेम की विशेषताओं को

लफ़्जों में व्यक्त करना है नामुमकिन।।

प्रेम महज

ढ़ाई अक्षर का एक शब्द नहीं

और जिसने भी प्रेम को 

समझा है महज एक शब्द

उससे बड़ा

अल्पज्ञ कोई नहीं।।

©कुमार संदीप

मौलिक, स्वरचित