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देशभक्ति काव्य लेखन प्रतियोगिता हेतु- अतुल्य भारत

अतुल्य भारत

भारत माँ की हम सन्तान, 

मिला हमें है यह वरदान |

देव भी जन्म लेने को आतुर, 

ऐसी है भारतभूमि की शान |

राष्ट्र प्रहरी हैं इसका मान, 

विश्व भी गाए जिसका गुणगान |

नव्य समन्वय को व्याकुल, 

प्राचीन विरासत की है खान |

विविधता में एकता का भान

कराती, भारतीय संस्कृति महान |

धर्म व जाति भिन्न है बिल्कुल

परन्तु हृदय में मातृभूमि का सम्मान|

– डॉ. उपासना पाण्डेय, प्रयागराज




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता

रचना -1

पग में मेरे नूपुर बंध गए ,मन में ठहरे साज बजे,
हर धक पर भैरवी बजी,हर धड़कन राग सजे ,
संदल सा महका है तन मन,रोम रोम उद्गार बसे, 

पग में मेरे नूपुर बंध गए,मन में ठहरे साज बजे।।

मैं तो ठहरी सी हरदम, चहकि आज फिर भाग जगे,

अमलताश सी मै बिल्कुल, हर अंग अब पलाश सजे।।

तुम वीणा के तार सजन, मै सरगम सी मात्र प्रिये,
सुर से सुरीला राग छिड़ गया, सुबह शाम राग रचे।।

चमक बीजुरी सी मै घिर_ती,तुम विराट आकाश धजे,
कोयल सी मीठी बोली मेरी,तुम प्रेम_प्रीत राग प्रिये।।

रचना -2

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न शब्द है न आधार है 
सिर्फ़ रहता मौन क्या ये प्यार है?
जब बार बार होती तकरार है
तो कैसे कह दूँ ये प्यार हैै!
आशा अपेक्षा – इसकी नीति नही 
जिसमें सिर्फ़ उम्मीद हो-वो प्रीति नही।।
🍁फिर आख़िर प्यार क्या है??

🍁प्यार क्या है-क्या ये आस है,
जो कभी न बुझी – वो प्यास है,
ये शब्द है — ये धवनि है ,
जो नित नयी – कभी न सुनी है ।।

रूह मे – ह्रदय में-बसता  लोक है,
प्यार श्लोक है – प्यार आलोक है,
अंतः से उठती -वो सुगंध है,
ये स्नेह का -ऐसा बँध  है ।।

प्यार मंत्र है – ऐसा तंत्र है ,
जो शुरू तो है- कभी न अंत है,
ये बुझी -बुझी ,सी आग है ,
जो कभी न- ख़त्म हो वो प्यासहै।।
जो न कभी ———

कभी धन में है – कभी फ़क़ीरी मे है,
ये मन मे मोती है-नयनो मे ज्योति है
प्यार कुबेर है – प्यार वो ढेर है,
कभी हिम्मतों में दिखता वो शेर है।

कभी चढ़ती उम्र का उबाल है,
प्यार रक्त है- प्यार लाल है,
कभी लब पर दिखता-कभी गालों पर 
कभी प्रेम में -उड़ते गुलालो पर ।।

प्यार वो लपट है-प्यार वो आग है,
जो कभी न ख़त्म हो- वो प्यास है,
प्रेम नारी है या – कोई व्यक्ति है,
प्रेम क़ुदरत की सबसे सुंदर अभिवक्ति है —
सबसे सुंदर अभिवक्ति है – ——-




पधारो तुम-2021

नववर्ष में छत्तीसगढ़ बस्तर के चर्चित अन्तर्राष्ट्रीय खोजी लेखक युवा हस्ताक्षर विश्वनाथ देवांगन उर्फ मुस्कुराता बस्तर की पंक्तियां पढ़िये आज…. *”पधारो तुम-2021″*

*”पधारो तुम*

उमंग,पुलकित,
प्रखर-सौम्य,अल्हड़-पावन,
स्वागत,वंदन,अभिनंदन,
मुस्कुराइये,,,नव वर्ष है,
चहुं ओर हर्ष ही हर्ष |
हो सुखमय जीवन,
चराचर जगत का |
वसुधैव कुटुम्बकम् ,
आपको वंदन अभिनंदन,
तिलक केशर-कुमकुम,
मन हर्षित पुण्य-प्रसून |
आपका स्वागत है,,,,
नव वर्ष-2021 में,
उर अंतस,सुर लय ताल,
गीत छंद मकरंद पुलकित |
अभिनंदन है,पधारो तुम,
उज्जवल भविष्य वर्ष 2021 |

 

विश्वनाथ देवांगन’मुस्कुराता बस्तर’
कोंडागांव,बस्तर,छत्तीसगढ़(भारत)




सब कुछ समझ लिया हमने,,,,,,,,

मानव के भीतर की पशुता,
पशुता के अंदर की सभ्यता,
पशु के भीतर की मानवता,
मानवता भीतर की महानता,
देख लिया है अब सब तुमने,
सब कुछ समझ लिया हमने।1।

सभ्य बनाने में लगी मजहबें,
फिर क्यों गायब है, मानवता,
इबारत नहीं लिखती किताबें,

फिर क्यूँ पशु में होती मानवता,

लगता है नियति से लिया तुमने,

दंभ औ द्वेष से गुमा दिया हमने।2।

विकासवाद के आंधी ने मुझे,

विरासत में, जो दे दी पाखंड,
देवता बनने के चक्कर में हम,

संतों के फेर में, पी लेते हैं मंद,
क्रूरता से पिसता सारा जीवन,
गुमसुम हो समझ लिया हमने,
डूबे चिंता से भांप लिया तुमने।3।

बीते वैभव ने छल करके हमसे,

इस संध्या पर दिया एकांत वास,
इस बेला का सच्चा साथी बनके,
तू रहना चाहता है अब मेरे पास,
जीवन भर पाला सबको तुमको,
परख लिया मैने देख लिया तुमने।4।

ओमप्रकाश गुप्ता बैलाडिला
03:01:2021

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प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता

कविताएँ –
———–

प्रेम
———

नयनों के झरोखों से
उन्हें निर्निमेष निहारना।
चिरंतन साहचर्य की
असीम उत्कंठा लिए,
उनके आसपास मंड़राना।
और – 
अंकुराते मन में
स्वप्नों के –
असंख्य दीपों का
जल जाना।
क्या प्रेम नहीं है?
    *              *
उनके आते ही –
मन – प्रसून का खिल जाना
चहकना – नाचना – गुनगुनाना
दिवा – रात्रि का सँवर जाना।
और –
उनसे दूर होते ही
हदय – कमल का मुरझाना।
जैसे –
शरीर से प्राण का निकल जाना!
मर्यादाओं  में आबद्ध
बेसब्र अश्रुओं का –
नेत्र कोटरों में उतर आना।
प्रेम नहीं तो क्या है?
    *               *
नजरों से दूर होकर भी
दिल के करीब रहना।
अहर्निश –
कोमल अहसासों की बारिश में
भींगना।
कुछ चाह की नहीं
सर्वस्व अर्पण की
अंतहीन लालसा लिए –
हर पल जीना
प्रेम ही तो है!

ख्वाब तुम्हारी आंखों में
———————————
एहसासों की तपिश लिए,
मैं ढूँढ़ूँ  साँसों-साँसों  में।
बैठे – बैठे  देख  रहा हूँ,
ख्वाब तुम्हारी आँखों में।
 
यादों  के  रपटीले  पल,
जब अपनी ओर बुलाते हैं।
कतरा-कतरा घुल जाता,
मधुमास तुम्हारी आँखों में।
 
सपनों की उन गलियों में,
मन यायावर-सा फिरता है।
मिल जाता  है  जीने का, 
अंदाज तुम्हारी आँखों में।
 
एहसासों की इस वादी में
तेरी ही खुशबू बसती है।
इस क्लांत-श्रांत मन-उपवन का
चिर हास तुम्हारी आँखों में।
 
तुमसे मिलकर जीवन की,
सारी उलझन मिट जाती है।
मिलता है, इस जीवन का,
विस्तार तुम्हारी आँखों में।
 
तुम्हीं बता दो, कैसे भूलूँ,
उन उजियाली यादों को।
बिन बोले, सब कहने का,
अभिप्राय तुम्हारी आँखों में।
 

चश्मे का फ्रेम
——————
बांकी-चितवन,
भोली-सी सूरत,
और – 
मासूम अदा !

क्लास में – 
बगल वाली बेंच से
तिरछी नजर से,
मुझे देखते देखकर
तुम्हारा –
मंद-मंद मुस्कुराना !

नाजुक उंगलियों में फंसी 
कलम से –
कागज के पन्नों पर,
कुछ शब्द-चित्र उकेरना!
और –
उन्हीं उंगलियों से,
नाक तक सरक आये
चश्मे को –
बार-बार 
ऊपर करना !

उफ़ ! 
वो चश्मे का फ्रेम !!
और –
फ्रेम-दर-फ्रेम
मेरे बिखरते सपनों का
फिर से –
संवर जाना !

——————-

– विजयानंद विजय
पता –  आनंद निकेत 
बाजार समिति रोड
पो – गजाधरगंज
बक्सर (बिहार) – 802103
शिक्षा – एम.एस-सी;एम.एड्; एम.ए. (हिंदी)
संप्रति – अध्यापन ( राजकीय सेवा )
निवास – मुजफ्फरपुर (बिहार)

ईमेल – [email protected]
फोन / ह्वाट्सएप – 9934267166




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता

नारी तूं सच में बलशाली।

नारी हर परिवार की धुरी,

सुबह से शाम,

सबको घुमाती,

सारा प्रबंध करती,

फिर आखिर में आराम करती,

इसलिए ये परिवार की सीईओ कहलाती,

नारी तूं सच में बलशाली।

 

अगर एक दिन तूं हो जाए अनुपस्थित,

सबकी अक्ल ठिकाने आ जाती,

जब सुबह से शाम लगती दौड़,

अच्छे अच्छों को आते फिर होश,

नारी का होता वोध,

नारी तूं सच में बलशाली।

 

अगर आ जाए घर में बिमारी,

तो तूं चिकित्सक बन जाती,

डट जाती रात दिन,

जब तक बिमारी भाग न जाती,

नारी तूं सच में बलशाली।

 

अगर हो बच्चों को पढ़ाना,

तूं बन जाती अध्यापिका,

फिर बच्चों को ऐसे ऐसे घुर सिखाती,

सब अध्यापकों पे पड़ती भारी,

इसलिए तूं पहली गुरु कहलाती,

नारी तूं सच में बलशाली।

 

अगर करना हो किसी का आदर सत्कार,

नारी पे आता सबका ध्यान,

उसको सौंपा जाता ये काम,

और तूं उसमें भी सफल हो जाती,

नारी तूं सच में बलशाली।

 

अगर संभालना हो परिवार का वित्तीय विभाग,

नारी जैसा न हो दुसरा विकल्प,

जब कभी पड़ती पैसे की आवश्यकता,

तूं तूरंत आगे बढ़कर काम आ जाती,

नारी तूं सबसे बलशाली।

ये तो रही इंसानों की बात,

नारी के आगे तो भगवान भी नतमस्तक,

अगर तूं ठान लें कुछ करने की,

भगवान भी नहीं रोक पाते तेरा दृढ़ निश्चय, नारी तूं सच में बलशाली।

 

जब इतनी प्रतिभाओं से संपन्न,

हर काम में निपुण,

परिवार की धूरी,

समाज की रीढ़ की हड्डी,

तो फिर सब मिलकर क्यों न करें इसका गुणगान,

और बोलें,

नारी तूं सचमुच महान,

नारी तूं हैं दुनिया की शान,

नारी तूं हैं सच में बलशाली।

 




देश भक्ति काव्य प्रतियोगिता,,, शीर्षक,,,शहीद सैनिकों का कथन,,,,3/1/2021

ग़ज़ल,,,

उस घड़ी हमने नहीं की फिक्र,अपनी जान की।।

बात आगे आ गई जब देश के सम्मान की।।

आईनों में बिम्ब उनके उम्र भर जिंदा रहे।

देश की खातिर जिन्होंने जिंदगी कुर्बान की।।

हाथ में कुछ बूंद रखकर कह रहा खुद को नदी।

बस यही औका़त है उस मुल्क पाकिस्तान की।।

हम नहीं करते कभी कब्जा किसी भी मुल्क पर।

यह रिवायत है पुरानी मुल्क हिंदुस्तान की।।

सिक्ख हिंदू और मुस्लिम और ईसाई सुने।

फिक्र सब मिलकर करें इस देश के मुस्कान की।।

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महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता –मैं नारी……

1. मैं नारी………
मैं नारी सदियों से
स्व अस्तित्व की खोज में
फिरती हूँ मारी-मारी
कोई न मुझको माने जन
सब ने समझा व्यक्तिगत धन
जनक के घर में कन्या धन
दान दे मुझको किया अर्पण
जब जन्मी मुझको समझा कर्ज़
दानी बन अपना निभाया फर्ज़
साथ में कुछ उपहार दिए
अपने सब कर्ज़ उतार दिए
सौंप दिया किसी को जीवन
कन्या से बन गई पत्नी धन
समझा जहां पैरों की दासी
अवांछित ज्यों कोई खाना बासी
जब चाहा मुझको अपनाया
मन न माना तो ठुकराया
मेरी चाहत को भुला दिया
कांटों की सेज़ पे सुला दिया
मार दी मेरी हर चाहत
हर क्षण ही होती रही आहत
माँ बनकर जब मैनें जाना
थोडा तो खुद को पहचाना
फिर भी बन गई मैं मातृ धन
नहीं रहा कोई खुद का जीवन
चलती रही पर पथ अनजाना
बस गुमनामी में खो जाना
कभी आई थी सीता बनकर
पछताई मृगेच्छा कर कर
लांघी क्या इक सीमा मैंने
हर युग में मिले मुझको ताने
राधा बनकर मैं ही रोई
भटकी वन वन खोई खोई
कभी पांचाली बनकर रोई
पतियों ने मर्यादा खोई
दांव पे मुझको लगा दिया
अपना छोटापन दिखा दिया
मैं रोती रही चिल्लाती रही
पतिव्रता स्वयं को बताती रही
भरी सभा में बैठे पांच पति
की गई मेरी ऐसी दुर्गति
नहीं किसी का पुरुषत्व जागा
बस मुझ पर ही लांछन लागा
फिर बन आई झांसी रानी
नारी से बन गई मर्दानी
अब गीत मेरे सब गाते हैं
किस्से लिख-लिख के सुनाते हैं
मैने तो उठा लिया बीड़ा
पर नहीं दिखी मेरी पीड़ा
न देखा मैनें स्व यौवन
विधवापन में खोया बचपन
न माँ बनी मैं माँ बनकर
सोई कांटों की सेज़ जाकर
हर युग ने मुझको तरसाया
भावना ने मुझे मेरी बहकाया
कभी कटु कभी मैं बेचारी
हर युग में मैं भटकी नारी |
 
 
 
 

2. नारी-परीक्षा

मत लेना कोई परीक्षा अब

मेरे सब्र की

बहुत सह लिया

अब न सहेंगे

हम अपने आप को

सीता न कहेंगे

न ही तुम राम हो

जो तोड़ सको शिव-धनुष

या फिर डाल सको पत्थरों में जान

नहीं बन्धना अब मुझे

किसी लक्ष्मण रेखा मे

यह रेखाएँ पार कर ली थी सीता ने

भले ही गुजरी वो

अग्नि परीक्षा की ज्वाला से

भले ही भटकी वो जन्गल-जन्गल

भले ही मिला सब का तिरस्कार

पर कर दिया उसने नारी को आगाह

कि तोड़ दो सब सीमाएँ

अब नहीं देना कोई परीक्षा

अपनी पावनता की

नहीं सहना कोई अत्याचार

बदल दो अब अपने विचार

नारी नहीं है बेचारी

न ही किस्मत की मारी

वह तो आधार है इस जगत का

वह तो शक्ति है नर की

आधुनिक नारी हूँ मैं

नहीं शर्म की मारी हूँ मैं

बना ली है अब मैने अपनी सीमाएँ

जिसकी रेखा पर

कदम रखने से

हो सकता है तुम्हारा भी अपहरण

या फिर मैं भी दे सकती हूँ

तुम्हें देश-निकाला

कर सकती हूँ तुम्हारा बहिष्कार

या फिर तुम्हें भी देनी पड सकती है

कोई अग्नि परीक्षा

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पहली बार नारी की आजादी की पहल की थी तो जानकी सीता ने लक्षमण-रेखा को लाँघ कर

और कर दिया आज की नारी को आगाह कि नहीं देना कोई परीक्षा |प्रणाम है उस नारी को

जिसने आधुनिक नारी को राह दिखाई




वक्त की पुकार – बदलना है व्यवहार

परिवर्तन ही नियति का सनातन नियम है,

जल प्रवाहित होना ही नदी का संयम है,

निश्चल खडा पर्वत ही दृढता का सूचक है,

चलता काल चक्र ही लयता का द्योतक है,

हवा के दिशा साथ बदले वही समझदार है,

व्यवहार को बदलना, अब वक्त की पुकार है।1।

चिलचिलाती गर्मी में, ज्यों ढूढते छाया,

कंपकपाती सर्दी में ज्यों बचाते काया,

वर्षा के हास से इस धरा का अट्टहास है,

बसंत के विकास में सुगंध का आभास है,

इन मुसीबतों से बच गये तो फिर सदाबहार है,

व्यवहार को बदलना अब वक्त की पुकार है।2।

जाति धर्म छोडकर मानवता धर्म जोड लें,

संवेदनाएँ ओढकर विरोध से नाता तोड लें,

दिल मिलाकर जुबां हर एक के उत्कर्ष में, 

नहीं किसी की भलाई है आपसी संघर्ष में, 

पंछी को करो प्रेम तो वो भी लुटाता प्यार है,

व्यवहार को बदलना वक्त की पुकार है।3।

नम्रता ही मानव जाति का महा मूलमंत्र है,

अतिरेक में अकडने से बिगडते परितंत्र है,

मुसीबत की आंधी में जो झुका वो बचा,

सब्र किया जो कभी वक्त ने भी उसे रचा,

पतझड़ में जो जुडे वक्त ने किया श्रृंगार है,

व्यवहार को बदलना वक्त की पुकार है ।4। 

 




आचार्य रामचंद्र गोविंद वैजापुरकर की कविता – ‘मॉं’

मुझे खिलाती मुझे पिलाती
बांहों मे लेकर सो जाती।
तिरस्कार की गंध न जिसमें
साक्षात ममता की प्रति मूर्ति।

क्या जाने मानव उस मां को
नव मास तक कष्ट झेलती।
प्रसव वेदना की घड़ी में वह
अपना धैर्य कभी न खोती।

आशा चाहे पुत्र पुत्री की
सबको अपने हृदय लगाती।
दुग्धपान का सुख देकर वह
हृष्ट पुष्ट बालक को करती।

क्षण प्रशिक्षण चिंतन उस सुत का
जिसकी आशा लेकर बैठी।
ज्येष्ठ श्रेष्ठ हो पुत्र यह मेरा
मोती सदृश भाव पिरोती।

उच्च भाव यह उस मां के प्रति
जिसके मन में प्रतिदिन होता।
वही पुत्र सच्चा कहलाता
अन्य सभी बस मिथ्या मिथ्या।

मां ने दिया प्रेम पुत्र को
प्रीति पात्र वह कहलाता।
उसकी आंखों का तारा वह
यदि उसे न भूल जाता।

अपने-अपने सब होते हैं
पर मां का प्रेम नहीं देते हैं।
गोपी सदा कृष्ण को प्यारी
फिर भी नाम यशोदा का लेते हैं।

भावपूर्ण पूजन माता का
यह संस्कृति की उज्जवल गाथा।
तभी विश्व जगत में भारत
सदा पूजनीय कहलाता।

मां की सेवा करता जो नन्दन
घर में कभी न होता क्रन्दन।
देव विवश होकर भी करते
प्रतिदिन उसका वन्दन वन्दन।

वृक्ष विशाल होते हैं फिर भी
उन्हें कल्पना भू से मिलती।
जिसकी गोद में पलती प्रकृति
उसकी चिंता मां भी करती ।

फल के भारों से लद कर भी
वृक्ष सदा झुक जाते हैं।
मानों मां का आदर करने
नतमस्तक हो जाते हैं।

यही प्रकृति शिक्षा देती है
मां के उस सम्मान की।
जीव जगत अनुकरण करें जो
मां निधि आशीर्वचनों की।

आचार्य रामचंद्र गोविंद वैजापुरकर
श्री जगद्देव सिंह संस्कृत महाविद्यालय सप्तर्षि आश्रम हरिद्वार