परवरिश…!!!
हेलीकॉप्टर की गड़ गड़ गड़ गड़ करती आवाज़ से सारा आसमान गूंज रहा था। रोहन “पापा…पापा…” चिल्लाते हुए छत की ओर भागा। किसी काम में व्यस्त राधेश्याम भी दौड़ता हुआ भागा…और रोहन को गोद में लेकर झटपट छत पर पहुंच गया। हेलीकॉप्टर देखते ही मानों रोहन की खुशी का ठिकाना नहीं था। खुशी से नाचने लगा वो। चिल्ला चिल्ला कर हेलीकॉप्टर में बैठे लोगों को पुकारने लगा वो…इस विश्वास से कि कोई तो झांकेगा बाहर…और हांथ हिलाकर उसको भी टाटा करेगा।
“पापा…कौन बैठा है उसमें…???” सवाल पूछने की आदत थी रोहन को।
“मंत्री…मिनिस्टर होंगे…!” राधेश्याम का नपा तुला सा जवाब आया।
“हमको भी बैठना है उसमें…!” रोहन का एक स्वाभाविक सा बाल हठ उत्पन्न हुआ।
“जो लोग बहुत पढ़े लिखे होते हैं…वो लोग बैठते हैं उसमें…ऐसे ही कोई भी नहीं बैठ जाता…!” राधेश्याम ने समझाया।
“कितना पढ़े होते हैं…??” जिले के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में तो रोहन भी पढ़ता था।
“बी.ए. तक पढ़े होते हैं…!” राधेश्याम के इस जवाब पर रोहन खामोश हो गया।
“हां…फिर तो बहुत पढ़ना पड़ेगा। मैं भी बी ए करूंगा। और एक दिन मैं भी बैठूंगा हेलीकॉप्टर में।” रोहन के बाल मन ने संकल्प लिया।
संकल्प लेना भी एक गुण है… प्रबल इच्छा शक्ति का प्रतिरूप होता है संकल्प। और राधेश्याम ने संकल्प लेने का यह गुण बड़े ही सहज और सरल तरीके से अपने बेटे को दे दिया। सकारात्मक विचारों को हृदय में आसानी से संकल्प रूप दे देने वाला ऐसा ज्ञान…शायद ही दुनिया के किसी स्कूल कॉलेज में पढ़ाया जाता होगा। किताबी ज्ञान नहीं…राधेश्याम की शिक्षा तो रोहन के लिए व्यक्तित्व विकास की शिक्षा थी।
शाम का समय था। अंधेरा हो गया था। आज बिजली बिल ना जमा हो पाने के कारण, राधेश्याम के घर की बिजली काट दी गई थी। दिए की रोशनी में, रोहन के चेहरे का रोष भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
लेकिन रोहन के तानों से बचने का राधेश्याम ने भी एक बढ़िया रास्ता पहले ही सोच रखा था। दिए कि रोशनी में श्रीरामचरितमानस ले कर राधेश्याम बैठ गया…और साथ में बैठे रोहन और छोटी। शुरू हो चला था…कथा कहानियों का दौर।
“मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।”
“मच्छर के समान रूप लेकर हनुमान जी लंका में प्रवेश कर गए…प्रभु श्रीराम को अपने मन में याद करते हुए। उसी लंका में…जहां का राजा था…..!!!” कौन था राजा…???” राधेश्याम ने पूछा।
“रावण…!!” रोहन ने झट से बोल दिया।
“हां…तो हनुमान जी गए थे लंका…. माता सीता का पता लगाने।” कहानी बढ़ती जा रही थी।
“कहहुं कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिले अहारा।।”
“हनुमान जी इतने बलशाली थे…लेकिन घमंड ज़रा भी नहीं था उनके अंदर। वो विभीषण से बोलते हैं कि… है तात मैं कौन सा बहुत कुलीन हूं। चंचल वानर हूं और हर प्रकार से नीच हूं। सुबह सुबह कोई मेरा नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन नहीं नसीब होता।”
“तो हमे कभी भी खुद पर घमंड नहीं करना चाहिए क्यूंकि हर व्यक्ति में कोई ना कोई कमी अवश्य होती है।” राधेश्याम की बातों को रोहन और छोटी बड़े ध्यान से सुन रहे थे।
कहानी थोड़ा आगे बढ़ी।
“तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।”
“सीता माता रावण के प्रकोप से इतना दुखी थी कि वो अपनी सखी त्रिजटा से कहती हैं… हे मां…कोई ऐसा रास्ता बता दो जिससे मैं अपना शरीर त्याग सकूं। प्रभु श्री राम से ये विरह अब मुझसे सहा नहीं जाता। हे मां… ऐसा करो कि लकड़ी की एक चिता ही सजा दो। फिर उसमे आग लगा दो। मैं उसी में जल जाना चाहती हूं।”
इतना कहते कहते राधेश्याम की आंखें सजल हो उठी। आंसुओं की धारा बह उठी उसकी आंखों से। रोहन भी भावुक हो उठा। कैसा सजीव चित्रण था भावनाओं का वहां पर। लगा सच में सीता माता सामने बैठी हैं…और खुद के भाग्य पर रो रही हैं।
“पापा….रावण तो बड़ा दुष्ट था। क्यूं उठा ले गया वो माता सीता को लंका में।” रोहन ने एक मुक्त प्रश्न छेड़ा।
“अरे नहीं…रावण दुष्ट नहीं था। वो तो महा ज्ञानी था। तीनों लोकों में उसके इतना ज्ञान शायद ही किसी की पास हो। उसके पास दंभ था…घमंड था। जिसकी वजह से उसने ये सब किया। अपनी बहन सूर्पनखा के बहकावे में आकर उसने ये कदम उठाया।”
“व्यक्ति कितना भी ज्ञानी हो जाए….उसे कभी भी उसपर घमंड नहीं करना चाहिए…अहंकार नहीं करना चाहिए। फल से लदे हुए वृक्ष तो झुक जाते हैं…कभी तन के खड़े नहीं रहते।” राधेश्याम के एक एक शब्द रोहन के मानस पटल पर छपते जा रहे थे।
कितने सरस हैं ये धर्म ग्रंथ। राधेश्याम ने धर्मग्रंथ की जो व्याख्या आज की थी उसमें ये स्पष्ट दिखाई दे रहा था। धर्म शास्त्र की शिक्षा का समय था आज…जब राधेश्याम भाव विह्वल हो कर अपने बच्चों को सुंदर कांड की चौपाइयों का अर्थ और महत्व समझा रहा था। वो समझा रहा था कि जीवन जीने की एक शक्ति मिलती है… इन ग्रंथों से। ईश्वर में आस्था, एक विश्वास जगाती है मनुष्य के अंतर्मन में… कि ये जो कठिनाईयां हैं…वो एक दिन अवश्य ही दूर होंगी।
श्रीरामचरितमानस की एक गहरी और अमिट छाप पड़ी रोहन पर। आज वो पिता एक गुरु की भूमिका में खड़ा…अपने बच्चों को वास्तविक ज्ञान से ओत प्रोत कर रहा था। जहां एक ओर उसने सुबह सुबह उद्देश्य प्राप्ति के लिए संकल्पित होने की शिक्षा दी…वहीं दूसरी ओर धर्मशास्त्र से जोड़ कर ईश्वर के प्रति आस्था का संचार भी किया।
शायद बिजली का प्रकाश आज रोहन को किताबों की चंद पंक्तियों से ही अवगत करा पाता। लेकिन दिए की रोशनी में, राधेश्याम ने रोहन के हृदय पर जो अमिट छाप छोड़ी थी…वो शायद अब उसके हृदय पटल से उम्र भर कभी खत्म नहीं होगी।
“अरे चलो…हो गया…बहुत हो गया रामायण…!! सब लोग चलो खाना खाओ। सुबह स्कूल भी जाना है…!” कुसुम ने रसोई से ही एक आवाज़ लगाई।
राधेश्याम के संघर्ष की एक और अंधेरी रात खत्म होने की ओर थी।