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“मेरे भी सपने हैं “

“मेरे भी सपने हैं”
नारी हूं मैं वस्तु नहीं
मेरे भी सपने हैं।
जननी हूं मैं सृष्टि की
नवजीवन मुझसे पाता।
केवल जननी नहीं मात्र
मैं भी हूं जग की ज्ञाता।
शक्ति तुझको मिली अधिक
बांधा जिसने वे थे अपने।
नारी हूं मैं वस्तु नहीं
मेरे भी सपने हैं ।
सभी क्षेत्र में कदम बढ़ाया
आगे चलकर दिखलाया।
ज्ञानचक्षु खोला कितनों का
कितनों को है सिखलाया।
खड़े आज भी दानव जैसे
प्रगति देख लगते वे तपने।
नारी हूं मैं वस्तु नहीं
मेरे भी सपने हैं।
तरह तरह के उपक्रम करते
बस नारी करे गुलामी।
तुच्छ सोच ले यही सोचते
उनकी वह करे सलामी।
विकसित होता देश मगर
लगते वे टूटी माला जपने।
नारी हूं मैं वस्तु नहीं
मेरे भी सपने हैं।

डॉ सरला सिंह स्निग्धा
दिल्ली




महिला दिवस पर प्रतियोगिता हेतु रचना, “शक्ति स्वरूपा “

 “शक्ति_स्वरूपा”

हे -नारी तू ही है नारायणी
और तू ही है शक्ति स्वरूपा
जीती है तू दो -दो रूपों को
लेकर जन्म नारी रूप में
इस पावन वसुधा पर
हे -नारी तू ही है नारायणी ,
दो -दो कुलों की मान है तू
एक कुल का मान बढ़ाती
लेकर जन्म बेटी के रूप में
उस कुल में खुशियाँ बिखेरती
उस वंश बेल में वृद्धि करके
हे -नारी तू ही है नारायणी ,
ममता की मूरत बन प्यार लुटाती
बच्चों पर ,,करती नहीं भेदभाव उनमें
वहीं जरूरत पड़ने पर तू धारण करती
रूप शक्तिस्वरूपा माँ चंडी का –और
करती है संहार उन दुष्ट दरिंदों का
हे -नारी तू ही है नारायणी
और तू ही है शक्तिस्वरूपा …. ||

शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली ,पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना

 22-01-2021

  




भारत मां का यौवन

भारत मां का यौवन

भारत मां के यौवन को न छेड़ों ,
ये मुश्किल से संवरा है ।
श्रृंगार झलकता है, स्त्री से कलित,
इसके क्षोभ से सुरक्षित रहो न ।।
             ललाट पर आभा है कश्मीर की,
             हृदय में मध्यप्रदेश संवरता है ।
             बजती है कन्याकुमारी सी झंकार पैरो में ,
             हिन्द सागर पैरों को निर्मल कर जाता है ।।
एक हाथ अरूणांचल से आंचल संवारे ,
एक हाथ सूरत से गहने सवारे ।
जन्मदात्री व पालनहार में कोई फर्क नहीं ,
भारत मां की शान में हर बेटा खड़ा है ।।
           कौन संहार चाहे, जीवंतता कोई चाहे
           देश की नशों में रक्त प्रवाह दिखता है ।
           कौन सा दावन मानव शरीर से मुक्ति चाहे ,
           जब मां की प्रतिष्ठा पर कोई अंगुली उठा दे ।।
कौन वीर भूलता है, अपनी वीरता को
उसकी वीरांगना वीर पुत्र ही जनती है ।
फिर से बन जाती है ,कोई नई कहानी
जब वो वीर पुत्र मैदान में खड़ा करती है ।।
          कौन सा पुत्र कलंकित खुद को करे,
          उससे पहले वो शहादत प्राप्त करे ।
          विश्वासघात उसके खून में नही तो ,
          दुश्मन फिर उम्मीद क्यों ये रखे ।।




दोहे

 

दोहे

अन्न वस्त्र भी चाहिये, 

    थोड़ी बहुत जमीन । 

 समाधान खोजें सभी, 

    किस पर करें यकीन ।। 

 

कृषक देश की आन है,

   कृषक देश की जान।

सबको वो ही पालता,

   करें कृषक का मान।।

 

धरती सुत की आज तुम,

    सुनो इतनी पुकार।

अनुशासन की बेड़ियां,

नहीं हमें स्वीकार ।।

 

पास उनके समय बहुत,

        व्यर्थ करें बरबाद।

चौराहे पर जाम है,

        किसका करें हिसाब।। 

 

राजनीति का शोरगुल,

        छल छंदी व्यवहार।

 

श्वेत कबूतर उड़ गए ,

      अपने पंख पसार।

 

डॉ भावना शुक्ल

 




बेगाना बेगाना लगता है

हर रातें तो अंधेरी लगती हैं पर

हर सुबह भी धुंधला धुंधला लगता है।




संघर्ष : संघर्षविराम ( भाग ७ )

संघर्षविराम…!!!

दिन बीतते रहे। साल जाते रहे। अनगिनत समस्याएं आयीं , परंतु राधेश्याम के संकल्पों और दृढ़ इच्छाशक्ति के सम्मुख उन कठिनाइयों को परास्त होना पड़ा।

शिक्षा के क्षेत्र में राधेश्याम के बच्चों ने भले ही कोई अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित ना कर पाया हो…परंतु उन बच्चों ने कभी उसे निराश भी नहीं किया था। दसवीं और बारहवीं में रोहन जब प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ…तो राधेश्याम ने खुशी जाहिर करते हुए और अधिक मेहनत करने की राह पर रोहन को अग्रसित किया।

अभावों के सागर से राधेश्याम एक एक मोती चुन चुन कर अपने बच्चों के भविष्य की माला को बुनता जा रहा था।

नवंबर महीने की शुरुआती ठंड थी। राधेश्याम यूं ही घर में बैठा कहीं खयालों में डूबा हुआ था। तभी अचानक फोन की घंटी बजती है।

“हैलो…पापा…प्रणाम…!!” रोहन का फोन था।

“हां…बोलो बेटा…??” राधेश्याम ने पूछा।

“पापा…नौकरी लग गई मेरी…! आशीर्वाद दीजिए।” रोहन आत्मविश्वास से भरा हुआ था।

एक सहकारी संस्थान में एक अधिकारी के पद पर रोहन चयनित हुआ था। राधेश्याम की आंखे आज सजल हो उठी थी। खुशी के आंसू थे ये।

दशकों के दुखों का ऐसा सुखद परिणाम…!! आह…!! हे ईश्वर…तेरे घर में देर है…अंधेर नहीं। आज राधेश्याम बहुत खुश था। कुसुम भी बहुत खुश थी। त्याग से भरा हुआ उसका मातृत्व आज विजयी हुआ था।

जिनकी नज़रों में राधेश्याम की कभी कोई अहमियत नहीं थी…आज अचानक से वो सभी उसके हितैषी बन बैठे थे। बधाइयों और शुभकामनाओं का दिन था। राधेश्याम और कुसुम का अंतर्मन किसी उत्सव भाव से आह्लादित हो उठा था। और हो भी क्यूं न…राधेश्याम और कुसुम के संघर्ष और सकारात्मक सोच ने ही तो आज उन्हें ये मुकाम दिया था। परिस्थितियों से लड़ कर उसने अपने वर्तमान को लिखा था।

सकारात्मकता की राह पर, राधेश्याम के संघर्षों की कहानियां, निश्चित रूप से रोहन को जीवन पर्यन्त एक शिक्षा देती रहेंगी…माता पिता के ऋण से उसे कभी विमुख नहीं होने देंगी।

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संघर्ष : परवरिश ( भाग ६ )

परवरिश…!!!

हेलीकॉप्टर की गड़ गड़ गड़ गड़ करती आवाज़ से सारा आसमान गूंज रहा था। रोहन “पापा…पापा…” चिल्लाते हुए छत की ओर भागा। किसी काम में व्यस्त राधेश्याम भी दौड़ता हुआ भागा…और रोहन को गोद में लेकर झटपट छत पर पहुंच गया। हेलीकॉप्टर देखते ही मानों रोहन की खुशी का ठिकाना नहीं था। खुशी से नाचने लगा वो। चिल्ला चिल्ला कर हेलीकॉप्टर में बैठे लोगों को पुकारने लगा वो…इस विश्वास से कि कोई तो झांकेगा बाहर…और हांथ हिलाकर उसको भी टाटा करेगा।

“पापा…कौन बैठा है उसमें…???” सवाल पूछने की आदत थी रोहन को।

“मंत्री…मिनिस्टर होंगे…!” राधेश्याम का नपा तुला सा जवाब आया।

“हमको भी बैठना है उसमें…!” रोहन का एक स्वाभाविक सा बाल हठ उत्पन्न हुआ।

“जो लोग बहुत पढ़े लिखे होते हैं…वो लोग बैठते हैं उसमें…ऐसे ही कोई भी नहीं बैठ जाता…!” राधेश्याम ने समझाया।

“कितना पढ़े होते हैं…??” जिले के एक प्रतिष्ठित विद्यालय में तो रोहन भी पढ़ता था।

“बी.ए. तक पढ़े होते हैं…!” राधेश्याम के इस जवाब पर रोहन खामोश हो गया।

“हां…फिर तो बहुत पढ़ना पड़ेगा। मैं भी बी ए करूंगा। और एक दिन मैं भी बैठूंगा हेलीकॉप्टर में।” रोहन के बाल मन ने संकल्प लिया।

संकल्प लेना भी एक गुण है… प्रबल इच्छा शक्ति का प्रतिरूप होता है संकल्प। और  राधेश्याम ने संकल्प लेने का यह गुण बड़े ही सहज और सरल तरीके से अपने बेटे को दे दिया। सकारात्मक विचारों को हृदय में आसानी से संकल्प रूप दे देने वाला ऐसा ज्ञान…शायद ही दुनिया के किसी स्कूल कॉलेज में पढ़ाया जाता होगा। किताबी ज्ञान नहीं…राधेश्याम की शिक्षा तो रोहन के लिए व्यक्तित्व विकास की शिक्षा थी।

शाम का समय था। अंधेरा हो गया था। आज बिजली बिल ना जमा हो पाने के कारण, राधेश्याम के घर की बिजली काट दी गई थी। दिए की रोशनी में, रोहन के चेहरे का रोष भी स्पष्ट दिखाई दे रहा था।

लेकिन रोहन के तानों से बचने का राधेश्याम ने भी एक बढ़िया रास्ता पहले ही सोच रखा था। दिए कि रोशनी में श्रीरामचरितमानस ले कर राधेश्याम बैठ गया…और साथ में बैठे रोहन और छोटी। शुरू हो चला था…कथा कहानियों का दौर।

“मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी।।”

“मच्छर के समान रूप लेकर हनुमान जी लंका में प्रवेश कर गए…प्रभु श्रीराम को अपने मन में याद करते हुए। उसी लंका में…जहां का राजा था…..!!!” कौन था राजा…???” राधेश्याम ने पूछा।

“रावण…!!” रोहन ने झट से बोल दिया।

“हां…तो हनुमान जी गए थे लंका…. माता सीता का पता लगाने।” कहानी बढ़ती जा रही थी।

“कहहुं कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना।।
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिले अहारा।।”

“हनुमान जी इतने बलशाली थे…लेकिन घमंड ज़रा भी नहीं था उनके अंदर।  वो विभीषण से बोलते हैं कि… है तात  मैं कौन सा बहुत कुलीन हूं। चंचल वानर हूं और हर प्रकार से नीच हूं। सुबह सुबह कोई मेरा नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन नहीं नसीब होता।”

“तो हमे कभी भी खुद पर घमंड नहीं करना चाहिए क्यूंकि हर व्यक्ति में कोई ना कोई कमी अवश्य होती है।” राधेश्याम की बातों को रोहन और छोटी बड़े ध्यान से सुन रहे थे।

कहानी थोड़ा आगे बढ़ी।

“तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसहु बिरहु अब नहिं सहि जाई।।
आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई।।”

“सीता माता रावण के प्रकोप से इतना दुखी थी कि वो अपनी सखी त्रिजटा से कहती हैं… हे मां…कोई ऐसा रास्ता बता दो जिससे मैं अपना शरीर त्याग सकूं। प्रभु श्री राम से ये विरह अब मुझसे सहा नहीं जाता। हे मां… ऐसा करो कि लकड़ी की एक चिता ही सजा दो। फिर उसमे आग लगा दो। मैं उसी में जल जाना चाहती हूं।”

इतना कहते कहते राधेश्याम की आंखें सजल हो उठी। आंसुओं की धारा बह उठी उसकी आंखों से। रोहन भी भावुक हो उठा। कैसा सजीव चित्रण था भावनाओं का वहां पर। लगा सच में सीता माता सामने बैठी हैं…और खुद के भाग्य पर रो रही हैं।

“पापा….रावण तो बड़ा दुष्ट था। क्यूं उठा ले गया वो माता सीता को लंका में।” रोहन ने एक मुक्त प्रश्न छेड़ा।

“अरे नहीं…रावण दुष्ट नहीं था। वो तो महा ज्ञानी था। तीनों लोकों में उसके इतना ज्ञान शायद ही किसी की पास हो। उसके पास दंभ था…घमंड था। जिसकी वजह से उसने ये सब किया। अपनी बहन सूर्पनखा के बहकावे में आकर उसने ये कदम उठाया।”

“व्यक्ति कितना भी ज्ञानी हो जाए….उसे कभी भी उसपर घमंड नहीं करना चाहिए…अहंकार नहीं करना चाहिए। फल से लदे हुए वृक्ष तो झुक जाते हैं…कभी तन के खड़े नहीं रहते।” राधेश्याम के एक एक शब्द रोहन के मानस पटल पर छपते जा रहे थे।

कितने सरस हैं ये धर्म ग्रंथ। राधेश्याम ने धर्मग्रंथ की जो व्याख्या आज की थी उसमें ये स्पष्ट दिखाई दे रहा था। धर्म शास्त्र की शिक्षा का समय था आज…जब राधेश्याम भाव विह्वल हो कर अपने बच्चों को सुंदर कांड की चौपाइयों का अर्थ और महत्व समझा रहा था। वो समझा रहा था कि जीवन जीने की एक शक्ति मिलती है… इन ग्रंथों से। ईश्वर में आस्था, एक विश्वास जगाती है मनुष्य के अंतर्मन में… कि ये जो कठिनाईयां हैं…वो एक दिन अवश्य ही दूर होंगी।

श्रीरामचरितमानस की एक गहरी और अमिट छाप पड़ी रोहन पर। आज वो पिता एक गुरु की भूमिका में खड़ा…अपने बच्चों को वास्तविक ज्ञान से ओत प्रोत कर रहा था। जहां एक ओर उसने सुबह सुबह उद्देश्य प्राप्ति के लिए संकल्पित होने की शिक्षा दी…वहीं दूसरी ओर धर्मशास्त्र से जोड़ कर ईश्वर के प्रति आस्था का संचार भी किया।

शायद बिजली का प्रकाश आज रोहन को किताबों की चंद पंक्तियों से ही अवगत करा पाता। लेकिन दिए की रोशनी में, राधेश्याम ने रोहन के हृदय पर जो अमिट छाप छोड़ी थी…वो शायद अब उसके हृदय पटल से उम्र भर कभी खत्म नहीं होगी।

“अरे चलो…हो गया…बहुत हो गया रामायण…!! सब लोग चलो खाना खाओ। सुबह स्कूल भी जाना है…!” कुसुम ने रसोई से ही एक आवाज़ लगाई।

राधेश्याम के संघर्ष की एक और अंधेरी रात खत्म होने की ओर थी।




संघर्ष : संकल्प (भाग ५)

संकल्प…!!!

रात के अंधेरे में उम्मीद की कोई रोशनी अगर दिखाई ना दे…तो अंधेरे की कालिमा और बढ़ जाती है। सामान्य सी रात भी अमावस की रात का रूप ले लेती है। निगाहें सूर्य की उस किरण की राह तकती रहती हैं…जिससे इतनी उम्मीद तो रहती है कि थोड़ी सी राह तो दिखेगी…लेकिन रात बीतती ही नहीं।

संघर्ष से भरी हुई वो रातें भी राधेश्याम के जीवन से समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। रोज़ रात में लिए गए उसके संकल्प, अगले ही दिन सच्चाई के धरातल पर आते ही अपना दम तोड़ देते थे।

राधेश्याम की तबीयत आज कुछ ठीक नहीं थी। काम से लौटते लौटते आज काफी देर भी हो चुकी थी।

“कहां रह गए थे…??आज इतनी देर कैसे हो गई..?? तबीयत तो ठीक है…??” कुसुम ने पानी का लोटा राधेश्याम को देते हुए पूछा।

“कुछ नहीं…ठीक है सब…!! जा रहे हैं छत पर…सोने..! बच्चे सो गए सब क्या…???” राधेश्याम कहते कहते ही छत की ओर जाने लगा।

“खाना नहीं खाएंगे…..??” कुसुम ने पूछा।

“नहीं…भूख नहीं आज…!” मानों राधेश्याम को आभास था पहले से ही… कि आज तो अनाज का एक कण भी नहीं था घर में। बना ही क्या पाई होगी वो…खाने में आज। पिछले छह महीने से कुसुम की तनख्वाह भी नहीं मिल रही थी। पता नहीं बच्चों को क्या खिलाया होगा उसने। राधेश्याम चुप चाप छत पर जा कर लेट गया।

“सुनिए…सुनिए जी…चलिए खाना खा लीजिए…!” कुसुम राधेश्याम का हांथ हिला हिला कर उसे उठा रही थी।

“चलिए ना…बच्चे भी कुछ नहीं खाए अभी तक…आपके इंतज़ार में। कभी कभी  तो सब साथ बैठ कर खा सकते हैं। चलिए उठ जाईए। चूरमा बनाए हैं। आज सब साथ में ही खाएंगे।” कुसुम, राधेश्याम का हांथ पकड़ कर उसे रसोई में लिए जा रही थी।

रोहन और छोटी पहले से ही थाली की ओर अपनी कातर निगाह दिए बैठे थे। एक ही थाली लगी थी आज। राधेश्याम और कुसुम भी बैठ गए वहीं।

राधेश्याम कुसुम की ओर देखे जा रहा था।

“अब मुझसे और नहीं होता ये सब। ठकुराइन के यहां से आज आधा किलो आंटा ले कर आए थे। कितना जलील किया उन्होंने। बच्चों का मुंह देख के ले आना पड़ा। आखिर कब तक एक एक मुट्ठी के लिए ऐसे ही तरसते रहेंगे। मैं आपसे एक बात कहूं…??” कुसुम ने अपना सर नीचे कर के कहा।

“हां…बोलो…!”

” मैंने खाने में ज़हर मिला दिया है…!! क्या फायदा ऐसे जीवन का।” कुसुम कहते कहते रो पड़ी।

राधेश्याम की आंखे फटी की फटी रह गई।

“हे भगवान…ये क्या दिन दिखा रहे हो..?? अपने हांथों से कोई अपने परिवार को ही ज़हर कैसे दे सकता है। कितना ज्यादा अपमानित महसूस किया होगा कुसुम ने आज..?? तभी तो ऐसा निर्णय लेने के लिए मजबूर हुई वो। क्या आत्महत्या ही एक रास्ता बचा है अब..??” राधेश्याम सोचता ही जा रहा था।

“हां…शायद यही एक रास्ता है अब। ना जीवन शेष रहेगा…ना ही ये दिन देखना पड़ेगा। ये दो चार पांच सौ रुपए में क्या कर पाएंगे हम लोग। बेवजह रोज़ की जलालत से एक पल में छुटकारा मिल जाएगा।”

राधेश्याम ने थाली से पहला निवाला उठाया और खा लिया। रोहन और छोटी को भी अपने हांथ से खिलाया। कुसुम की आंखों से मानों आसूं रुक ही नहीं रहे थे। कुसुम ने भी निवाले का पहला कौर खा लिया। रोहन और छोटी दोनों टूट पड़े थे थाली पर। राधेश्याम और कुसुम दोनों रोए जा रहे थे।

थोड़ी देर में ही…सब के सब जमीन पर शिथिल पड़ गए। पेट की जलन से तड़पने लगे। रोहन दर्द के मारे चिल्ला रहा था। छोटी भी खूब रोए जा रही थी। कुसुम ने गिलास में पानी लिया और तुरंत छोटी और रोहन को पानी पिलाया। राधेश्याम जोर जोर से चिल्लाने लगा।

“हे…भगवान…ये क्या किया मैंने…??? क्या किया भगवान…??”

कुसुम, रोहन और छोटी जमीन पर छटपटाते पड़े हुए थे। राधेश्याम सभी को गले से लगाए रोए जा रहा था।

“भगवान…माफ कर दो मुझे…!! माफ़ कर दो भगवान…!!”

“क्या हुआ…आपको…काहे इतना चिल्लाए जा रहे हैं…काहे की माफी मांग रहे भगवान से महाराज…???” कुसुम ने जोर से राधेश्याम को झकझोरा।

राधेश्याम का चेहरा पसीने से लथ पथ था। एक बुरे स्वप्न से जाग गया था वो। उठते ही सबसे पहले वो भागा…रोहन और छोटी के पास। दोनों सोते हुए बच्चों के सर को चूम लिया उसने।

“नहीं…हम लोग आत्महत्या नहीं कर सकते कभी। कोई भी परिस्थिति आ जाए…हमें लड़ना होगा। ये समय है…गुजर ही जाएगा। आज अभाव ना हो तो…कोई संघर्ष ही क्यूं करेगा। क्यूं कोई भगवान को याद करेगा। ये जीवन अमूल्य है। ऐसे कायरों की तरह मैं हार नहीं मान सकता। और ज्यादा मेहनत करूंगा। जीवन में अपने बच्चों को इस काबिल बनाऊंगा कि कम से कम उन्हें ये दिन ना देखना पड़े।” राधेश्याम एक नए संकल्प के बंधन में बंध चुका था।

अगले दिन ही उसने कापी किताब की एक दुकान खोलने का संकल्प लिया। अपने मित्र की एक पुरानी टपरी में पुरानी किताबों और कापियों की एक दुकान खोल ली थी राधेश्याम ने।




संघर्ष : जीवनसाथी ( भाग ४ )

जीवनसाथी….!!!

“जीवनसाथी”…!!! ये शब्द सुनते ही मन में सर्वप्रथम “पत्नी” शब्द की आवृत्ति अवश्य होती है। लेकिन मेरे विचार से पत्नी, जो ये शब्द है…थोड़ा संकुचित भावार्थ से पूर्ण है। “जीवनसाथी” शब्द ज्यादा गूढ़ और अर्थवान है। यह शब्द सिर्फ सांसारिक नियमों को पूर्ण करने के उद्देश्य से एक दूसरे का हो जाने वाली विचारधारा का समर्थन नहीं करता…बल्कि जीवन में एक दूसरे के सुख दुख, यश अपयश, अमीरी गरीबी, कीर्ति अपकीर्ति में कंधे से कंधा मिला कर खड़े रहने का बोध भी कराता है। ये शब्द बोध कराता है…उस भाव का…जो ये बताता है… कि पति और पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं…एक दूसरे के पूरक हैं…बिना एक दूसरे के दोनों अधूरे हैं।

कुसुम भी सही मायने में पत्नी कम….जीवनसाथी ज्यादा थी। वो जीवनसंगिनी थी….राधेश्याम के दुखों की…। आर्थिक रूप से भले ही वो उसकी कुछ मदद ना कर पा रही हो…लेकिन उसको संबल और साहस रूपी धन वो हमेशा प्रदान करने की कोशिश करती रहती थी।

रात के नौ बज रहे थे। राधेश्याम काम से लौटा था। हांथ मुंह धुल कर वो खाना खाने बैठा। थाली में पड़ी चार रोटियां और मिर्ची की चटनी देख कर वो साहस नहीं जुटा पाया… कि कुसुम की नज़रों से नज़रें मिला पाए।

“बच्चे सो गए…???” खाते खाते ही राधेश्याम ने सुमन से पूछा। कुसुम खामोश ही रही। राधेश्याम अपना सर झुकाए खाना खाता रहा।

“और रोटी दें…??” कुसुम ने पूछा।

“नहीं…!” राधेश्याम उठ चुका था हांथ धुलने के लिए।

“आप बुरा ना मानिए तो हम एक बात कहें…??”  कुसुम ने सालों के बाद अपने मन की बात आज कहने की ठान ली थी।

“मैं सोच रही थी…कुछ काम मैं भी कर लेती। बच्चे भी सब स्कूल चले जाते हैं। खाली ही तो रहती हूं। समय भी कट जाएगा। कुछ पैसे भी मिल जाएंगे। कब तक ऐसे ही अकेले जान देते रहेंगे आप। बच्चे भी बड़े हो रहे हैं…खर्चे भी बढ़ रहे हैं…!!” कुसुम ने अपने मन की बात उजागर की।

बिल्कुल सन्नाटा था घर में। कुसुम बर्तन साफ करते करते राधेश्याम के जवाब का इंतज़ार कर रही थी।

“क्या कहेंगे मोहल्ले के लोग…?? कुसुम, जिसका चेहरा आज तक बहुतों ने नहीं देखा…वो आज कैसे जाएगी बाहर..?? पत्नी की कमाई खा रहे हैं सब..?? वाह राधेश्याम…इतनी भी कुबत नहीं बची तुझमें…जो अब अपनी पत्नी को कमाने भेज रहा। लोगों के तानों का जवाब कैसे दे पाएगा तू…?? फिर कौन सा काम मिलेगा भला उसे??? ज्यादा पढ़ी लिखी भी तो नहीं है वो। दसवीं पास महिला को भला कौन सी नौकरी मिल सकती थी।” राधेश्याम का स्वयं से प्रश्न युद्ध चल रहा था।

कुसुम…ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखने वाली एक सामान्य सी महिला थी। वैसे तो वो सिर्फ दसवीं पास थी…लेकिन सामाजिकता का ज्ञान रखने वाली वो एक विदुषी थी। सही गलत की पहचान करना उसके लिए क्षण मात्र का काम था। जिम्मेदारियों का आभास इतना था… कि आज तक कभी उसकी वजह से किसी के कोई काम में बाधा नहीं आयी। क्या-क्या नहीं किया उसने आज तक…अपने परिवार के लिए।

इधर राधेश्याम का अन्तर्द्वन्द जारी था।

“समाज…!!! कैसा समाज…?? ये समाज क्या हमे खाने को देता है। हमारी जरूरतों को पूरा कर पाने के लिए एक फूटी कौड़ी भी आज तक दिया है क्या…इस समाज ने। फिर क्यूं चिंता करूं मैं…इस समाज की???  लोगों का तो काम है कहना…ताने मारना। ये कुसुम…मेरी जीवनसंगिनी…क्या दे पाया हूं इसे मैं आज तक…सिवाय दुखों के…सिवाय जिम्मेदारियों के। आज अगर ये कुछ काम कर भी लेती है…तो किसके लिए…??? हमारे लिए ही तो…हमारे बच्चों के भविष्य के लिए ही तो..!!! दुखों में तन, मन, धन से जो साथ खड़ा रहे….वहीं तो जीवनसाथी है।” राधेश्याम का संकल्प, समाज के अर्थहीन रीतियों और विधानों पर आज भारी था।

कुसुम…एक प्राइवेट स्कूल में छोटे छोटे बच्चों को पढ़ाने का काम करने लगी। पांच सौ रुपए…उसका पारिश्रमिक…आज भले ही राधेश्याम की गरीबी दूर ना कर पाए…लेकिन ये पांच सौ रुपए उसे गर्व की अनुभूति कराने के लिए काफी थे। ये पांच सौ रुपए राधेश्याम को विश्वास दिलाते थे… कि राधेश्याम तुम अकेले नहीं हो… मैं…कुसुम…तुम्हारी जीवनसंगिनी…हमेशा तुम्हारे साथ हूं…हर सुख में…हर दुख में…!!!




संघर्ष : राम नाम सत्य है… ( भाग ३ )

राम नाम सत्य है…!!!

दोपहर के करीब तीन बजे थे। मौसम का मिज़ाज बड़ा ही अजीब था। सूर्य की लालिमा ऊर्जा का संचार नहीं कर रही थी बल्कि किसी अशुभ समाचार का संकेत दे रही थी। कुत्तों के भूकने की आवाज़ अचानक ही तेज होती जा रही थी। घर में भी अफरा तफरी का माहौल था।

वैसे तो रोहन की उम्र काफी छोटी थी। लेकिन उसे इतना आभास अवश्य था कि कुछ तो गंभीर बात है। घर के कुछ सदस्यों के रोने की आवाज़ अब कुछ स्पष्ट सुनाई दे रही थी। राधेश्याम की वृद्घ माता जी का देहांत हो गया था आज। बरामदे में उनका मृत शरीर एक चादर से ढका हुआ पड़ा था। सिर्फ चेहरा दिखाई दे रहा था।

“बोलती क्यूं नहीं हैं…ये??? कैसी चुपचाप से सो रही है…बस..??? उठती क्यूं नहीं…?? शाम को तो सोती नहीं…???” रोहन का बाल मन शायद अभी मृत्यु की स्थिति से अवगत नहीं था।

सभी का रो रो के बुरा हाल था। कुसुम की आंखें आंसुओं से लबालब थी। लेकिन वो ना जाने किस काम में व्यस्त थी। बस एक ही व्यक्ति था वहां…जिसकी आंखों में आसूं नहीं थे। और वो था…राधेश्याम।

लेकिन क्यूं…???

जिम्मेदारियों के बोझ ने मानों उसके आंखों से पानी छीन लिया था। या वो जनता था… कि मृत्यु ही तो अटल सत्य है। मनुष्य जन्म लेता है…तो मृत्यु भी होना तो सुनिश्चित है। शरीर मरता है…आत्मा नहीं। आत्मा अज़र और अमर है। लेकिन राधेश्याम की आत्मा दुखी थी। हृदय के आंसू दिखाई कहां देते हैं..??? संघर्ष के पथ पर चलने वाली वो मां…आज इस दुनियां में नहीं थी। राधेश्याम कभी उसे कोई सुख नहीं दे पाया। यही सोच सोच कर राधेश्याम का मन दुख से बैठा जा रहा था।

“राम नाम सत्य है…!! राम नाम सत्य है…!!!” का स्वर हवा में गूंजने लगा था। बांस की एक सीढ़ीनुमा वस्तु पर उस मृत शरीर को चार लोग लिए जा रहे थे।

सिर्फ राम का नाम ही सत्य है। बाकी सब मिथ्या है। लेकिन ये शब्द आखिर है किसके लिए…?? उस मृतक आत्मा के लिए…या फिर उन पंद्रह बीस लोगों के लिए, जो उस मृतक शरीर के साथ जा रहे थे…?? लेकिन राम नाम की महिमा का अर्थ अब उस मृतक शरीर के लिए किस महत्व की थी..??

निःसंदेह ये उन्हीं के लिए था…जो इस सांसारिक मोह और भौतिकता में लिप्त हैं। अपने धन संपत्ति के प्रेम और घमंड में चूर हैं। किसी के गरीबी की परीक्षा लेने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं।

राधेश्याम अपने कंधे पर अपनी मां को लिए, कुसुम की बातों को सोचता चला जा रहा था। अपनी गरीबी को धिक्कारता चला जा रहा था। एक सेर आंटे के लिए कैसे कुसुम आज रो पड़ी थी। आज उसके पास इतना भी अन्न नहीं था कि वो मृतक शरीर के साथ दान स्वरूप भेज सके।
कैसे राधेश्याम के पड़ोसी ने ज़रा सा अन्न देने से भी मना कर दिया था आज।
“अभी इस महीने का राशन नहीं आया है कुसुम…!! नहीं किलो दो किलो आंटा चावल कोई बड़ी चीज नहीं थी।” पहली बार किसी के सामने हांथ फैलाई कुसुम को ये जवाब मिला था। राधेश्याम की आत्मा उसके मन को कचोट रही थी।

क्रिया कर्म की सामाजिक रीतियों को निभाने के चक्कर में राधेश्याम कर्ज के बोझ में धंसता ही चला गया।

“क्यूं मैं इस कर्ज़ के बोझ में पहले ही नहीं दब गया…?? क्यूं ये ब्राह्मण भोज मैंने माता जी के जीते जी ही नहीं कर दिया..?? अब जब वो ही जीवित नहीं…तो ऐसे भोज का क्या अभिप्राय शेष बचता है…??” सामाजिक रीतियों और विधानों से अन्तर्द्वन्द करता हुआ, राधेश्याम…छत पर ही लेटे लेटे सो गया…और किसी स्वप्न में खो गया।