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अशांत मन…!!

अशांत मन…

मन का युद्ध स्वयं के मन से,
जीत भला कैसे होगी…!
विमुख हुए अपने वादों से.,
प्रीत भला कैसे होगी…!

मौन शब्द का अर्थ…
अगर ना समझो तुम…
हृदय मध्य का मर्म…
अगर ना समझो तुम…
अफसोस मेरे मन में बैठा,
आघात करे…!
प्रतिघात…अगर ना समझो तुम…!

जन का युद्ध अगर नियमों से,
रीत भला कैसे होगी…!
सप्तक युद्ध अगर हो सुर से,
संगीत भला कैसे होगी…!

ये कैसा है साथ…
अगर तुम मन से मेरे साथ नहीं…
बस क्षणिक तनिक से प्रेम विवश…
मेरे हांथों में हांथ नहीं…

ये कैसी है दृष्टि तेरी…
ना देख रहे मेरे मन को…
हर बंजर को तुम देख रहे…
बस काट रहे मेरे वन को…

प्रेमी का जो युद्ध प्रियम से,
मीत भला कैसे होगी…!
प्रण के उस युद्ध से भाग लिए,
वो नीति भला कैसे होगी…!
अब प्रीत भला कैसे होगी…!
अब जीत भला कैसे होगी…!

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तब गांव हमें अपनाता है…!!!

रचना शीर्षक : “तब गांव हमें अपनाता है…!!!”
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ग्रामीण भाव की धारा में,
जब शहर कोई बह जाता है,
शहरी होने का दंभ हृदय से,
मिट्टी सा बन रह जाता है,

तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!

संघार गांव का कर कर के,
हर रोज़ शहर की नींव धरी,
ईंटों की ऊंची दीवारों से,
कैसे हो पृथ्वी हरी भरी,

जब शहर श्रेष्ठ और गांव तुच्छ,
का भूत उतर सा जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!

सब बड़े हुए और शहर गए,
वो बूढ़ा कैसे प्रस्थान करे,
जन्म भूमि की माया में बंध,
कैसे उसका अपमान करे,

शहरी बेटा बूढ़े मन को,
जब सहज भाव पढ़ पाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!

वो मिट्टी में है सबल बना,
तुम चिकने पत्थर पर फिसल रहे,
ईश्वर प्रदत्त संसाधन छोड़,
भौतिकता में बस विकल रहे,

उस निर्बल अन्नदाता की खातिर,
जब सम्मान ज़रा बढ़ जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!

बाबू जी का प्रेम छोड़,
मम्मी डैडी वो सीख रहा,
सभ्य समाज की आशा में,
एकल स्वभाव सा दीख रहा,

सम्मानजनक भाषा का ज्ञान,
जब शहरी बेटा कर जाता है,
तब गांव हमें अपनाता है…!
तब गांव हमें अपनाता है…!!

सादर,
🙏😊




तुम राम नहीं बन सकते तो…!!

निंदित कर्मों के बीच फंसे,
सत्कर्मों के अभिराम बनो,
तुम राम नहीं बन सकते तो,
कण के इक भाग सा राम बनो।

पर निंदा की तुम धारा में,
बहते ही बहते जाओगे,
कलुषित मन के दुर्भावों पर,
पर्वत सा पूर्ण विराम बनो,
तुम राम नहीं बन सकते तो,
कण के इक भाग सा राम बनो।

नीति अनीति के सागर में,
नाविक तो तुम अब बन बैठे,
लहरों से क्यूं भयभीत हुए,
इक सत्यनिष्ठ संग्राम बनो,
तुम राम नहीं बन सकते तो,
कण के इक भाग सा राम बनो।

आराध्य नहीं हो सकते तुम,
जब तक ना अहम का त्याग करो,
जलधि सदृश तुम हठी नहीं,
निर्मल जल सा अविराम बनो,
तुम राम नहीं बन सकते तो,
कण के इक भाग सा राम बनो।

शत्रु भाव परिलक्षित हो,
तुम मित्र भाव ही दर्शाओ,
निंदक की निन्दा को तुम,
प्रेम भाव से भर जाओ,

श्रीकृष्ण सा इक प्रेमी बनकर,
तुम सबल एक बलराम बनो,
तुम राम नहीं बन सकते तो,
कण के इक भाग सा राम बनो।

सादर🙏🙏




जीवनसंगिनी…!!!

प्रीत की रीत कहूं तुमसे,
दिल उनसे आज ये जुड़ बैठा,
प्रीत की परछाई लेकर,
मन उनको आज ले उड़ बैठा।

फिर साथ मिला तेरा मुझको,
जीवन में तुम मेरे आए,
फेरों से वचन पिरोया यूं,
सांसों की माला बन जाए।

डगमग डगमग जब नाव चली,
पतवार लिया हांथो में तब,
जब धाराएं विपरीत हुई,
विश्वास भरा सांसों में तब।

एहसान है ये तेरा मुझपर,
संगिनी बन तुमने साथ दिया,
खुद के अरमानों का गला घोंट,
परहित में अपना हांथ दिया।

महसूस नहीं कर सकते हम,
तेरे मन जो भी द्वंद चले,
जग के कर्कश कुछ तानों पर भी,
मन तेरे प्रीत के छंद चले।

अब मुक्त नहीं हो सकते हम,
एहसान जो तुमने दान दिए,
सह बोझ निरंतर हम सब का,
कर्तव्य इसे तुम नाम दिए।

प्रेम भरी परिपाटी पढ़,
कृत कृत्य किया तुमने हमको,
हर जन्म तुम्हारा प्रेम मिले,
प्रभु से वरदान मिले हमको।

✒️✒️




मत हो कृतघ्न…!!!

वो तुच्छ समझता था जिसको…
उसने ही उसका साथ दिया…
वक़्त ज़रा बदला उसका…
देखो कैसे अभिशाप दिया…

जो ना दे कुछ वो दाता तो…
अपमान भला यूं क्यूं करना…
दुष्ट निकम्मों मक्कारों का…
सम्मान भला यूं क्यूं करना…

जिससे ही आज प्रतिष्ठा उसकी…
जिससे ही आज सब मंगल है…
कैसे सब भूल चुका देखो…
ये उसके मन का जंगल है…

धिक्कार तुझे उन एहसानों का…
जिनको तू आज भूला बैठा…
जिन तख्तों पर बैठा इस युग में…
उनको ही आज हिला बैठा…

धिक्कार तुम्हे उन उपकारों का…
दाता से तुमने प्राप्त किए…
है अधीर तू इतना क्युं…
जो ऐसे तल्ख आघात किए…

एहसान ज़रा तुम मानो तो….
थोड़े से एहसानों का..
जो नहीं मिला इस जन्म तुझे…
मत गला घोंट अरमानों का…

जो मिला मुझे उस ईश्वर से…
देखो उसमें ही “ऋषि” मग्न…
जो नहीं मिला उस ईश्वर से…
देखो मत होना कभी कृतघ्न…

सादर🙏🏻🙏🏻




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता

सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी
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जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

मैं पुरुष नहीं, बदल जाय जो हालात के संग
मैं नारी हूं, जो बदले खुद को हालात के रंग।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

मैं राम नहीं ,ना ही मैं हूँ कृष्णा,
न रावण के जैसी मुझमें मृगतृष्णा।
खुद को मिटाकर तुम्हें बचाऊं
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

मैं समय नहीं जो बदल जाए,_
पत्थर भी नहीं जो थम जाए।
सागर हूं,गगरी नहीं जो छलक जाए ,
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

भुला सकते हो तुम अपनी खुशी में मुझ को,
हो सकता है याद भी ना आऊँ तुम को।
पर याद करो दुख का कोई एक पल ,
सदा ही साथ खड़ा पाया होगा मुझ को ।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

तुम मेरी फ़िक्र करो, ना करो ,
तुम मेरा ज़िक्र करो, ना करो ।
मेरे रहते घर से बेफिक्र हो तुम।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

चाहे युग वैज्ञानिक हो,
या कोई सा भी युग रहा होगा ।
याद करो मैनें नहीं ,
तुमने ही मुझे छोड़ा होगा ।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।

मैं बाहर से कोमल,भीतर से कठोर,
तुम भीतर से कोमल,बाहर से कठोर ।
इक दूजे के पूरक,ना अस्तित्व कहीं और।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है .

( स्वरचित)

…समिधा नवीन वर्मा