सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी
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जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
मैं पुरुष नहीं, बदल जाय जो हालात के संग
मैं नारी हूं, जो बदले खुद को हालात के रंग।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
मैं राम नहीं ,ना ही मैं हूँ कृष्णा,
न रावण के जैसी मुझमें मृगतृष्णा।
खुद को मिटाकर तुम्हें बचाऊं
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
मैं समय नहीं जो बदल जाए,_
पत्थर भी नहीं जो थम जाए।
सागर हूं,गगरी नहीं जो छलक जाए ,
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
भुला सकते हो तुम अपनी खुशी में मुझ को,
हो सकता है याद भी ना आऊँ तुम को।
पर याद करो दुख का कोई एक पल ,
सदा ही साथ खड़ा पाया होगा मुझ को ।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
तुम मेरी फ़िक्र करो, ना करो ,
तुम मेरा ज़िक्र करो, ना करो ।
मेरे रहते घर से बेफिक्र हो तुम।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
चाहे युग वैज्ञानिक हो,
या कोई सा भी युग रहा होगा ।
याद करो मैनें नहीं ,
तुमने ही मुझे छोड़ा होगा ।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है ।
मैं बाहर से कोमल,भीतर से कठोर,
तुम भीतर से कोमल,बाहर से कठोर ।
इक दूजे के पूरक,ना अस्तित्व कहीं और।
जानती हूँ मैं,और भीतर ही भीतर मानते हो तुम भी,
कि सच्ची हितैषी हूँ तुम्हारी।
पर व्यक्त करने का तरीका तुम्हारा, शायद अलग है .
( स्वरचित)
…समिधा नवीन वर्मा