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जमीन…!

गोधुलि बेला का वक़्त। आकाश की लालिमा किसी अशुभ घटना का संकेत लिए हुए रात्रि के अंधेरे में डूबने को व्याकुल हो रही थी। एक वृद्धा अपने पति के सिरहाने बैठ, असहाय सी बस उस वृद्ध पुरुष के सर पर हांथ फेरे जा रही थी।

“अब सांस नहीं बची…कमलावती…! भगवान का बुलावा आ गया है अब। सोचे थे कमली की शादी कर लेते तो कितना अच्छा होता। अरे ओ बेटा गोपाल…ज़रा प्रधान जी को बुला ला..! जल्दी कर बेटा…!” खटिया पर पड़ा हुआ दशरथ, एक जर्जर शरीर लिए हुए अपनी आखिरी सांसे गिन रहा था।

“बाबू जी ऐसा मत बोलिए। कुछ नहीं होगा आपको।” पास में ही बैठी उसकी इकलौती बेटी कमली ने रोते हुए अपना सर उसके सीने पर रख दिया। गोपाल अपने पिता जी के पैरों को घीसे जा रहा था।

मृत्यु का भी कैसा स्वरूप है…! जीवन का एक अटल सत्य होने के बाद भी जीवन जीने की एक अप्रतिम भावना से परिपूर्ण। मृत्यु के द्वार पर खड़ा व्यक्ति कभी भी उस द्वार को सहर्ष पार नहीं करना चाहता। उसके चाहने वाले भी आखिरी सांस तक उसे रोक लेने का प्रयास करते हैं। और उसके विरोधी…रोज़ ईश्वर से कामनाएं करते हैं कि… हे ईश्वर…! कब बुलाओगे इसको अपने पास।

उन्हीं विरोधियों में था…दशरथ का बड़ा बेटा… शिव और उसकी बहू विमला। सुबह से ही विमला का ध्यान बगल के झोपड़े में पड़े अपने ससुर की गतिविधियों पर लगा हुआ था।

“अजी सुनते हो…?? बाबू जी ने परधान जी को बुलवाया है। वसीयत बाटेंगे…ऐसा लग रहा है। और तुम यहां बैठे बैठे बस चारपाई तोड़ो। वो तुम्हारा छोटा भाई…गोपाल सब हड़प लेगा…फिर हांथ मलते रहना। मेरी तो कोई सुनता ही नहीं यहां। अरे जाओ वहां…ज़रा देखो तो क्या हो रहा है। अपने हक की बात करना कोई गुनाह है क्या…??” विमला ने फुसफुसाते हुए कहा।

गोपाल वैद्य जी को बुलाने के लिए भागा। तब तक प्रधान जी भी आ पहुंचे थे।

“परधान जी…अब मेरा जीवन ज्यादा बचा नहीं। मेरे ना रहने पर कोई विवाद ना हो…इसलिए आपको बुलवाया मैंने।” दशरथ बड़ी मुश्किल से कराहते हुए बोल पा रहा था।

” बेटा गोपाल…तुझे जिम्मेदारियों के अलावा कुछ और नहीं दे सका मैं। एक आखिरी जिम्मेदारी है ये कमली…इसका ध्यान रखना। ये झोपड़ी और इसके सामने जो नीचे की जमीन है…वो तुम्हारी है।” गोपाल सर झुकाए बस रोता ही जा रहा था।

“वो ऊपर वाली जमीन और दो जोड़ी बैल…शिव के लिए हैं। वैसे तो तिनके भर का साथ नहीं दिया उस जोरू के गुलाम ने…लेकिन बेटा उसे कुछ ना दिया तो वो तुम लोगों को चैन से ना सोने देगा।” इतना कहते कहते उसने गोपाल को अपने पास आने का इशारा किया और उसके कानों में धीरे से बोला..” बेटा…कमली की शादी के लिए थोड़े से…..!!!!”

आवाज़ नहीं बची थी दशरथ की जुबान में। प्राण निकल चुके थे उसके। कमली और गोपाल उस निष्प्राण शरीर से लिपट कर रोए जा रहे थे। कमलावती, उसकी पत्नी…एक टक बस उसे देखे जा रही थी।

विमला की खुशी का ठिकाना नहीं था आज। बिन मांगे ही काफी कुछ दे दिया था…दशरथ ने उन्हें। अच्छी जमीन…दो जोड़ी बैल…और क्या चाहिए।

“कैसा मूर्ख है ना गोपाल..!! अपने अधिकारों के लिए लड़ नहीं सकता…कह नहीं सकता। वो क्या करेगा अपने जीवन में। क्यूं जी…ठीक कहा ना मैंने??” विमला ने शिव से सहमति मांगी। लेकिन शिव खामोशी से बस सुनता रहा।

रात्रि का दूसरा प्रहर प्रारंभ हो चुका था। चांदनी रात में गोपाल आकाश के नीचे बैठ अपनी ही किसी चिंता में डूबा हुआ था।

“इस बार गेहूं कि फसल अच्छी हो जाती…तो कम से कम खाने के लिए अनाज ना खरीदना पड़ता। और होगी क्यूं नहीं…ये लहलहाती फसल क्या इतना भी ना दे कर जाएगी।” अपनी मेहनत और सामने दिख रही गेहूं की फसल पर गोपाल को पूरा विश्वास था।

तभी अचानक तेज हवाएं चलने लगीं। काले बादल के एक समूह ने चन्द्र की रोशनी को पूरी तरह ढंक लिया था। चांदनी रात एक अंधेरी रात में बदल चुकी थी। गोपाल का अंतर्मन एक दृश्य भय से पूर्ण था।

“हे भगवान… रहम करो। ये बिना मौसम की बारिश। कम से कम इस गड्ढे जमीन में लगे मेरी मेहनत की तो फिक्र करो भगवान।” गोपाल का अंतर्मन ईश्वर को कोस रहा था।

मानव का स्वभाव भी अजीब है। एक तो बुरे वक़्त में ही पूर्ण श्रद्धा से वो ईश्वर को याद करता है…दूसरे कुछ ऊंच नीच हो जाए तो जिम्मेदार भी वही…ईश्वर…भगवान। लेकिन गोपाल ऐसा नहीं था। उसे तो पूर्ण आस्था थी भगवान में। भगवान शिव का अनन्य भक्त था वो। फिर क्यूं उसके साथ ऐसा हो रहा था। कठिन परीक्षा का समय आने वाला था गोपाल के लिए।

देखते ही देखते, मूसलाधार बारिश। खेतों में पानी भरने लगा। शिव रात में अपना फरसा लिए मेड़ बनाने में जुट गया। मेड़ की राह भी उसने गोपाल के खेतों की ओर कर दी। गोपाल और कमली दोनों बाल्टी लिए अपने खेत से पानी निकालने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन कुछ मिनटों में ही बरसात के पानी ने एक तालाब का रूप ले लिया था। गोपाल की आंखों से आसुओं की धारा बह निकली थी। खड़ी फसल डूब चुकी थी उस जल भराव में। और इसी के साथ डूब गई थी उसकी उम्मीदें, उसके स्वप्न, उसकी मेहनत और कुछ हद तक उसका आत्मविश्वास भी।

“कैसा चुकाऊंगा साहूकार का कर्ज..?? फिर से उधार लेना पड़ेगा। दो वक़्त की रोटी भी उधार से ही आ पाएगी अब तो। ये कैसा न्याय कर गए पिता जी मेरे साथ..?? छोटा होने का ये कैसा अभिशाप है…भगवान??” सर पर हांथ रखे वहीं उस तालाब के सामने गोपाल खड़ा रहा।

उधर शिव और विमला की खुशी का ठिकाना नहीं था। गोपाल पर आयी इस विपदा ने उन्हें प्रसन्न होने का एक बहाना दे दिया था। विमला रोज़ रास्ते में गोपाल के जलाशय रूपी खेत को देख कर उनका परिहास करती…उनका मजाक उड़ाती।

जहां एक ओर शिव ने गेहूं की एक अच्छी खासी फसल पैदा की थी…वहीं दूसरी ओर गोपाल की सारी फसल पानी की वजह से बर्बाद हो चुकी थी। जमीन के नाम पर एक गड्ढा ही तो मिला था उसको। आखिर क्या कर सकता था वो…सिवाय अपने भाग्य को कोसने के अलावा..!!

अभाव एक ऐसी परिस्थिति है, जो किसी भी व्यक्ति को नए रास्ते ढूंढने की ओर प्रेरित करती है। सुख में पड़ा हुआ व्यक्ति कभी जीवन के नए रास्तों की तलाश नहीं करता। अपितु दुख और अभाव में पड़ा हुआ व्यक्ति एक प्रयास अवश्य करता है…कैसे पार किया जाय कष्टों से भरे जीवन को।

गोपाल के सकारात्मक विचारों ने भी उसे प्रेरित किया…जीविकोपार्जन के नए आयामों की खोज करने के लिए। अंततः उसने निर्णय किया कि अब वो इस गड्ढे रूपी जमीन को और गहरा करेगा। मछली पालन का कार्य करेगा वो उसमें। और फिर क्या था…लग गया वो रोज़ उसी गड्ढे को और गहरा करने में।

मध्य दुपहरी का समय था। सूर्य बिल्कुल गोपाल के सर के ऊपर चमक रहा था। गर्मी की मारे गोपाल का शरीर पसीने से तर हो रखा था। लेकिन गोपाल तो बस अपना फावड़ा लिए अपने काम में मगन था। खोदता ही जा रहा था जमीन। तभी अचानक उसके फावड़े से एक आवाज़ आयी। किसी ठोस धातु से टकराने की आवाज़ थी वो। उसके कौतूहल ने ऊर्जा का संचार किया और गोपाल ने दोगुनी ऊर्जा के साथ उसी स्थान पर खोदना शुरू किया।

“अरे…ये तो कोई घड़ा है…पीतल का..!!” गोपाल विस्मित सा देखता रहा। पीतल के घड़े को जब गोपाल ने खोला तो उसकी आंखे ही चौंधिया गईं। सोने की करीब दस एक मुहरों के अलावा कुछ गहने भी थे उसमें। उसके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं था। अपने पिता जी के आखिरी शब्दों को याद करके गोपाल की आंखे सजल हो उठी। “कमली की शादी के लिए थोड़े से….” यही तो कह रहे थे वो।

गोपाल ने अपनी जमीन को एक तालाब का रूप दे दिया। मछली पालन का उसका कार्य भी बहुत अच्छे ढंग से चलने लगा। पानी से भरा हुआ वो जलाशय, जिसने कभी उसके आत्मविश्वास को कमजोर कर दिया था…आज वही उसके रोज़गार का प्रमुख कारण था। रोज़ गोपाल उस तालाब के किनारे खड़ा होकर अपने पिता जी की यादों में खो जाया करता था।

“पिता जी…क्षमा कर दीजिए मुझको। आज आपके आशीर्वाद से ही मैं इतना कुछ कर पाया। आपने कभी भी मेरा बुरा नहीं चाहा।” आसमान की ओर देखता हुआ गोपाल मानों साक्षात अपने पिता जी से बातें कर रहा था।

©ऋषि देव तिवारी




A Rainy Day With a Beautiful Girl…!!

सुबह के नौ बजे थे। मैं तैयार था स्कूल जाने को। आंगन में किसी के पायल की आवाज़ एक मधुर गीत का संचार कर रही थी। मेरी उत्सुकता ने बाहर झांक कर देखा । सफेद रंग की पोशाक में लिपटी वो…स्वर्ग की परी सी…बारिश की बूंदों के बीच…भींगती…नाचती…मुस्कुराती। मैं…स्तब्ध सा देखता रहा।

अचानक…अपनी धुन में ही खोई हुई उसकी आंखों ने मुझे देख लिया। फिर क्या…वो भागी मेरी ओर। वैसे तो बारिश में भीगने का मेरा कोई इरादा नहीं था लेकिन उसके निः शब्द आदेश के आगे मैं कुछ भी ना कह सका। अपने कोमल हांथों से उसने मेरा हांथ पकड़ा…और खींच ले गई मुझे भी अपने साथ…उस आंगन में…जहां बादलों से साक्षात इंद्रदेव पानी की बौछार कर रहे थे।

अपने हांथो में मेरे हांथ को लेकर वो नाचने लगी…झूमने लगी। अपनी गर्दन आसमान की ओर किए…बारिश की हर एक बूंद को महसूस करती उस लड़की ने मेरे हृदय को एक अद्भुत प्रेम से परिपूर्ण कर दिया था।

पूरी तरह भींग चुके थे हम लोग। ना तो बारिश रुकने का नाम ले रही थी…ना ही उसका मिजाज़। बिजली कड़कती…तो वो मेरे गले से लग जाती…और जैसे ही बिजली का कड़कना बंद होता…फिर से झूमना शुरू हो जाता उसका। गजब का दिन था वो बरसात का।

मैंने उससे कहा…अंदर चलो…तबीयत खराब हो जाएगी। मत भीगो इतना। लेकिन वो कहां मानने वाली। जितना ही मैं मना करता…उतनी ही जोर से हंसती वो…उतनी ही जोर से नाच उठती। सच मानो तो पहली बार मैंने ऐसी नैसर्गिक सुंदरता को महसूस किया। पहली बार महसूस किया…उस प्रकृति को…जो ईश्वर ने हमें निःशुल्क दे रखी है। उन बारिश की बूंदों ने मुझे एहसास कराया कि दुनिया में और भी बहुत कुछ है…जहां कोई अपनी खुशियों को तलाश कर सकता है।

उस परी ने ना सिर्फ मुझे एक खुशी की राह दिखाई बल्कि ये भी बताया कि कैसे ये बारिश की बूंदे हमारे जीवन को एक नया आयाम प्रदान करती हैं।

मैं और वो…!! वो परी…!!! काफी देर तक उस बारिश में भीगते रहे…नाचते रहे…गाते रहे… सच कहूं तो…जीवन को सही मायने में जीते रहे।

उस सर्वशक्तिमान ईश्वर के प्रति मैं कृतज्ञ हूं कि मेरे जीवन में उसने उस परी को भेजा। वो परी…जो बेहद खूबसूरत है…प्यारी है…मेरे हृदय के बेहद करीब है। वो छः वर्ष की नन्ही सी परी…मेरी जान है…मेरी बहन है।

©ऋषि देव तिवारी




बरसात की एक रात…!!!

ये बात है १२ जुलाई २०१७ की। ऋषभ अभी अभी अपने ऑफिस से घर पहुंचा ही था। रात के करीब आठ बज रहे थे। बारिश की हल्की हल्की फुहारें पड़ रहीं थी। इतनी तेज़ भी नहीं थीं…लेकिन बारह किलोमीटर के सफर में ऋषभ थोड़ा भीग सा गया था।

” अरे आप तो बिल्कुल भीग गए। कहीं रुक जाते ना। तबीयत खराब हो जाएगी।” तौलिया देते हुए माधवी ने ऋषभ से बोला।

“अरे कुछ नहीं हो रहा हमको..!!” ऋषभ अपनी पत्नी की बात से किनारा कसते हुए…अपना सिर पोछने लगा। तभी अचानक से उसका फोन बजा…

“भाई…कहां हो अभी…” विजय का फोन था। बहुत समय के बाद फोन आया था उसका। थोड़ा परेशान लग रहा था।

“इलाहाबाद में हूं भाई…!! क्या हाल है???बड़े दिन बाद???”

ऋषभ की बात को बीच में ही काटते हुए…विजय बोला…
“यार…बहन का एक्सिडेंट हो गया है…स्वरूपरानी में भर्ती है वो। प्लीज़ देख सकते हो क्या…??? सरिता नाम है उसका..!!” विजय की आवाज़ में एक विश्वास था।

“हां…भाई टेंशन मत लो… मैं अभी जा रहा।” ऋषभ कपड़े पहनते पहनते बोला।

बारिश अब थोड़ी तेज़ हो चुकी थी। माधवी चाय लेकर रसोई से बाहर आयी ही थी कि ऋषभ तैयार था…जाने को।

“अरे अब कहां…इतनी बारिश में…???”
“आता हूं यार…थोड़ी देर से…विजय भाई की सिस्टर का एक्सिडेंट हो गया है…!! हॉस्पिटल में है वो..!” विजय अपनी बाइक निकालते हुए बोला।

“अरे…चाय तो पीते जाओ…!!”

“नहीं…आता हूं बस…” ऋषभ अपनी मोटरसाइकिल से निकल गया था।

“कैसे हो गया ऐक्सिडेंट…?? कितनी लगी होगी…?? अरे…उसका मोबाइल नंबर ले लेना चाहिए था। लेकिन हो सकता है…वो बात कर पाने की हालत में ही ना हो…??” हजारों सवाल ऋषभ के अंतर्मन में चल रहे थे। जैसे जैसे बारिश तेज होती थी…ऋषभ के बाइक की रफ्तार भी बढ़ती जा रही थी। ऋषभ इन्हीं सवालों में उलझा अस्पताल पहुंच गया। भागते हुए सीधे इमरजेंसी वार्ड में पहुंचा। कुछ लोग एक बेड को घेर के खड़े थे। हृदय धक्क सा हो गया ऋषभ का।

“भाई…ये सरिता……..!!!” ऋषभ ने एक जिज्ञासु की भांति पूछा।

“हां…भैया….आ गए आप। यही है सरिता।” एक लड़के ने बताया ऋषभ को।

बेहद मासूम सी थी…सरिता। कुछ बीस एक वर्ष उम्र रही होगी उसकी। बड़ी मुश्किल से धड़कन चलती हुई दिख रही थी उसकी। कृत्रिम श्वास देने में एक लड़का खासी मेहनत करता हुआ दिख रहा था। लेकिन सरिता…तनिक भी चैतन्य नहीं थी।

एक जिम्मेदार से दिख रहे लड़के से ऋषभ ने पूछा…”कैसे हुआ ये सब???”

” भैया…एक ऑटो वाले ने पेट पर ऑटो चढ़ा दी है। चार घंटे इलाहाबाद रेलवे स्टेशन के सामने पड़ी रही ये लड़की…कोई हॉस्पिटल तक ले नहीं गया। फिर हम लोग ले आए। कोई डॉक्टर भी गंभीरता से अटेंड नहीं करता। पैसे भी हम लोगो के पास नहीं हैं।” ऋषभ सुनता रहा।

“कोई बात नहीं… मैं आ गया हूं। ” ऋषभ ने सांत्वना भरे भाव से बोला और सरिता के पास खड़ा हो गया।

कृत्रिम श्वांस की मशीन अब ऋषभ के हांथ में थी। बेड के पास खड़ी सारी भीड़ कहीं जा चुकी थी। सिर्फ सरिता थी…और श्वांस देता ऋषभ। ऋषभ की आंखों में आसूं थे।

“हे भगवान…कुछ मेरी सांसें भी दे दो इस बच्ची को। कोई डॉक्टर भी नहीं आता। क्या करूं…???” ऋषभ कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। तभी उसे लगा…अगर वो यहां बैठा रहा…तो इसे इलाज नहीं मिल पाएगा।

एक नर्स को बुला कर उसने कहा…”सिस्टर सिर्फ दस मिनट देख लो…इसको….मैं आता हूं…!!”

इतना कह कर ऋषभ डॉक्टर्स लॉबी की ओर भागा।

“कौन ड्यूटी पर है अभी…??” ऋषभ ने पूछा।
“अभी सीनियर डॉक्टर आए नहीं हैं…” एक स्टाफ नर्स ने बोला।
“अरे तो कब आएंगे…जब पेशेंट मर जाएगा तब…नाम बोलो डॉक्टर का…नंबर बोलो…???” ऋषभ मानों क्रोध के मारे आग बबूला हो चुका था।

“हैलो…डॉक्टर साहब… दस मिनट के अंदर अंदर हॉस्पिटल आ जाइए…निवेदन है आपसे…यूनिवर्सिटी से बोल रहा हूं मैं…” इतना कह कर ऋषभ ने अंधेरे में एक तीर सा चलाया था और फोन काट दिया।

डॉक्टर साहब शायद नौ मिनट में ही आ गए होंगे।

“कैसी व्यवस्था है। देश विकसित होना चाहता है। और एक मरीज़ को पहला इलाज मिलने में ६ घंटे लग गए।” ऋषभ का अंतर्मन स्वयं से बातें कर रहा था।

” कौन है पेशेंट के साथ…?? डॉक्टर साहब ने सरिता को देखने के बाद बोला।
“मैं हूं….!!” ऋषभ ने जवाब दिया।

“इधर आइए…!!” इतना कहते हुए डॉक्टर और ऋषभ सरिता से थोड़ी दूर चले गए।

“देखिए…वेंटिलेटर अवेलेबल नहीं है यहां पर। देर भी बहुत हो चुकी है। आप कहीं और चाहें तो ले जा सकते हैं।” डॉक्टर बोल के चला गया।

ऋषभ दो मिनट तक सरिता का चेहरा आंखों में लिए उसी ओर देखता रहा…जिस ओर डॉक्टर साहब चले जा रहे थे.. निः शब्द…स्तब्ध…!!!!

तब तक वो दो चार यूनिवर्सिटी के लड़के, जो सरिता को हॉस्पिटल तक ले कर आए थे वो भी आ गए।

” क्या हुआ भैया??? क्या बोला डॉक्टर ने??” एक ने पूछा।
“वेंटिलेटर चाहिए… अरेंज करना पड़ेगा..” ऋषभ के चेहरे पर चिंता के भाव थे।

रात के करीब साढ़े दस बज रहे थे। बरसात मानों की उफान पर थी। मूसलाधार बारिश। सब ने एक एक कर के सभी हॉस्पिटल में फोन लगाना शुरू किया। कोई भी पेशेंट लेने को तैयार नहीं।

अचानक ऋषभ ने बोला…
“भाई ऐसे काम नहीं चलेगा…चलना पड़ेगा हॉस्पिटल तक…पैसे फेंकने पड़ेंगे। मैं जाता हूं…तुम लोग यहां रुको।”

तीन लड़के और साथ हो लिए। और वो लोग पहुंच गए वहां से करीब दो किमी दूर स्थित एक बड़े ही संभ्रांत हॉस्पिटल में।

ऋषभ ने बोला…” मैडम… पेशेंट एडमिट करना है… इमरजेंसी है…वेंटिलेटर की जरूरत है अभी तुरंत।”

” हां ठीक है…पंद्रह हजार जमा करवा दीजिए… पेशेंट कहां है???” मैडम ने पूछा।

“ले आना पड़ेगा…स्वरूपरानी से… मैं पैसे जमा कर दे रहा…!” ऋषभ ने बोला।

“रुकिए… मैं डॉक्टर से पूछ लूं ज़रा…” मैडम ने फोन लगाया।
पांच मिनट के बाद रिसेप्शन पर बैठी वो मैडम बोली…
“अभी वेंटिलेटर अवेलेबल नहीं है।”

ऋषभ के सर पर मानो शैतान बैठ गया।
“कौन साला बोला रे…वेंटिलेटर नहीं है…कहां है डॉक्टर बुला उसको…???” ऋषभ चिल्लाया।

लड़ाई का माहौल हो गया! डॉक्टर आया। बोला मैं पुलिस को बुलाता हूं अभी।

“बुला साले पुलिस को…तुझे इस लायक नहीं छोडूंगा कि तू बुला पाए।” ऋषभ ने डॉक्टर का कॉलर पकड़ कर उसे वहीं कुर्सी पर बिठा दिया।

” बोल…है कि नहीं वेंटिलेटर…??? बोल???” ऋषभ पागल सा हो गया था।

डॉक्टर को अंदाजा नहीं था कि ऐसा भी हो सकता है। तुरंत नर्स ने पंद्रह हजार रुपए जमा किए। और ऋषभ निकल पड़ा स्वरूपरानी हॉस्पिटल…सरिता को लिवाने।

हॉस्पिटल पहुंचते पहुंचते साढ़े ग्यारह बज चुके थे। ऋषभ ने देखा कि डॉक्टर सरिता की नब्ज़ देख रहे थे।

“शी इज नो मोर…” डॉक्टर ने ऋषभ को देखते ही बोला।

सरिता…ऋषभ की गोद में अपना सर रख कर लेटी हुई थी। ऋषभ मूक सा उसे ही निहार रहा था। उसकी आंखों से आंसू मानों रुक ही नहीं रहे थे।

सरिता बोल रही थी शायद ऋषभ से,
“भैया… देर कर दी आपने…मुझे बचा नहीं सके आप। इस देश में इलाज समय से मिल पाना आज भी बहुत मुश्किल है।”
ऋषभ रोता हुआ चल पड़ा था घर की ओर। बरसात की वो रात आज भी भारी है ऋषभ पर।

कहीं लिखा हुआ पढ़ा उसने….
Nöne could chase God’s decesion….
Life loose….
Death win…..
😥😥😥




आराध्या…एक प्रेम कहानी…!

आराध्या : एक प्रेम कहानी…!!!

जीवन में किसी से पहली बार मुलाकात हो..ये संयोग हो सकता है। लेकिन उस “किसी” से ही दुबारा मुलाकात हो जाए…और मुलाकात ऐसी कि रोज़ ही उससे रूबरू होना  पड़े…बेशक एक दिलचस्प संयोग होता है।

ये बात है २००६ की। स्नातक में प्रवेश हेतु काउंसलिंग का  दिन था। ऋषभ…अपने निर्धारित कक्ष की तलाश कर ही रहा था कि…उसके सामने अचानक ही आ गई थी सुंदरता की एक मूरत, श्वेत नील परिधान में लिपटे हुए, पूर्ण आत्मविश्वास से भरी हुई, मुस्कान ऐसी कि जैसे कोई मंझी हुई फिल्मी अदाकारा, क़दमों में इतना विश्वास कि उनका दुपट्टा, विजय पताका की तरह फेहरा रहा था। दृष्टि स्थिर हो गई….इक टक।

अभी अभी छोटे से शहर से एक बड़े शहर में कदम रखा था…ऋषभ ने। एक संकोची स्वभाव का दुबला पतला सा एक सामान्य लड़का था वो। किसी से भी स्वछंद व मुक्त भाव में बात कर पाना शायद उसके लिए संभव ना था…फिर ये तो अप्रतिम और बेहद ही खूबसूरत छवि के थे। ऋषभ का संकोच, उसकी त्वरित अभिलाषा पर भारी था। जब तक कि उसकी नज़रें, उस सुंदर अदाकारा का दीदार कर पाती…वो छवि कहीं लुप्त हो चुकी थी। हां…ये थी पहली मुलाकात… महज़ एक संयोग।

अब बारी थी…दिलचस्प संयोग की। ऋषभ को प्रवेश मिला था डी. ए. वी. कॉलेज में। अगले दिन जब ऋषभ पहुंचा था अपने कॉलेज… मन अचंभित हो उठा। वहीं अदाकारा पुनः एक बार उसके सामने थी। वहीं कॉलेज, वहीं क्लास, वहीं सेक्शन…दिलचस्प संयोग था ये तो।

इश्क़ नहीं था वो लेकिन इश्क़ से कुछ कम भी नहीं था। १८ वर्ष की उम्र लिए हुए, ऋषभ एक आकर्षण में था…उस आकर्षण में…जिसका वो अभी तक नाम भी नहीं जानता था। खैर…संयोग कुछ इस तरह दिलचस्प था कि…अब तो एक ही क्लास में बैठना था। तो ऋषभ ने भी अपनी भावनाएं व्यक्त करने में कोई जल्दबाजी नहीं दिखाई।

आराध्या…! हां आराध्या नाम था उस अदाकारा का। बेहद ही शांत स्वभाव। ना किसी से बात करना, ना ही अनावश्यक का कोई क्रियाकलाप। बस तीन चार घंटे में दो या तीन बार मुस्कुरा देते थे वो। उस मुस्कान पर बरबस ही कोई आसक्त ना हो जाए…तो मेरा मानना है कि वह व्यक्ति इंसान नहीं हो सकता। ऋषभ के हृदय में जो इकतरफा प्रेम की अनुभूति थी…उसके लिए तो आराध्या की वो दो तीन मुस्कान ही काफी थी। यद्यपि उनकी मुस्कान कभी भी ऋषभ की ओर उन्मुख नहीं थी…फिर भी इश्क़ में कल्पनाएं भी तो कोई चीज होती हैं।

वैसे ऋषभ का ध्यान पढ़ाई की ओर जरूर था…लेकिन पढ़ाई के बाद कहीं ध्यान था…तो वो था आराध्या का ध्यान अपनी ओर खीच पाने में, जिसमें वो अभी तक तो पूरी तरह असफल था।

इश्क़ में कोई प्रतिद्वंदी ना हो…ऐसा भी भला हो सकता है क्या…?? तो ऋषभ के प्रतिद्वंदी थे भैया विजय धर त्रिपाठी। मुस्कुराते तो बहुत थे बंधु…लेकिन ज़रा ज़रा सी बात पर क्रोधित हो जाना भी उनके व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता था। भावनाओं को तुरंत व्यक्त कर देने की कला में माहिर थे वो। पक्के बनारसी थे भैया विजय धर त्रिपाठी। जहां ऋषभ अपनी खामोशी को ही इश्क़ की राह बना बैठा था…वहीं भैया विजय धर त्रिपाठी ठान लिए थे कि इश्क का शोर वो इतना कर देंगे कि ऋषभ की खामोशी को हार मानना ही पड़ेगा।

आराध्या का व्यवहार शुरू शुरू में तो सभी के प्रति सामान्य ही था। लेकिन थे तो वो भी बनारसी ही। एक बनारसी, बनारसी को ज्यादा जल्दी समझ लेता है…ऐसा ऋषभ का सोचना था। तो एक भय हमेशा ऋषभ को सताता रहता था… कि सच में कहीं भैया विजय धर बाज़ी ना मार जाएं।
प्रथम वर्ष बीता  किसी तरह।

भैया विजय धर त्रिपाठी का भौकाल चरम पर था। ऋषभ से पढ़ाई में भले नहीं…लेकिन इश्क़ की राह में दो चार कदम आगे ही थे वो। शायद आराध्या के हृदय को प्रभावित करने में सफल भी हो गए थे। वैसे तो मित्र मानते थे वो ऋषभ को…लेकिन आराध्या के विषय में एक से एक बाते बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करते थे। ऋषभ को वो पूरा यकीन दिलाना चाहते थे…अपनी विजय का।

धीरे धीरे ऋषभ को भी यकीन हो चला था कि आराध्या भी भैया विजय धर को पसंद तो करती ही हैं। लेकिन ऋषभ का ध्येय तो कभी आराध्या को पाना था ही नहीं। पहली मुलाकात से ही वो तो बस मोहित था उनकी छवि पर…उनकी एक मुस्कान पर। प्रेम में तो त्याग की भावना होनी चाहिए…कहीं पढ़ा था उसने। किसी के प्रेम को हृदय में बसा कर प्रसन्न रहना भी तो प्रेम पर विजय प्राप्त करने जैसा ही है। ऋषभ के अंतर्मन में उत्पन्न हुए यही विचार तब और भी ज्यादा मजबूत हो गए, जब एक दिन अचानक भैया विजय धर त्रिपाठी…ऋषभ को बुलाए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय स्थित वीटी टेंपल पे…अपनी विजय गाथा सुनाने और उसका प्रमाण देने। जैसे ही ऋषभ वीटी पहुंचा, आराध्या उसके सामने से निकली। देखा था उसने एक नज़र ऋषभ की ओर…लेकिन नज़रें फेर कर वो सीधे निकल गईं। और पीछे खड़े थे…भैया विजय धर अपनी चिर परिचित विजयी मुद्रा में। ऋषभ समझ गया था कि विजय धर क्या बोलने वाले हैं।

“देखा…डेट पर आए थे आज…!” आवाज़ में एक तंज़ था विजय बाबू के।
“आज के समय में सिर्फ चुपचाप देखते रहने से कुछ नहीं होता। मन की बात दिल से निकाल के सामने बोलनी पड़ती हैं। लेकिन ऋषभ भाई तुम्हारे बस की ये बात नहीं।” भैया विजय धर बोले ही जा रहे थे।

लेकिन ऋषभ एक खामोश चिंतन में डूबा रहा…जैसे कुछ सुना ही नहीं।
“क्या यही प्रेम है??? ऐसा क्या था भैया विजय धर में…जो मेरे पास नहीं??? पढ़ाई में भी तो मैं विजय से अच्छा हूं…कभी भी बुरी नज़र से देखा नहीं???” हजारों सवाल ऋषभ के अंतर्मन में युद्ध कर रहे थे। ” क्या सच में आराध्या ने विजय धर के प्रणय निवेदन को स्वीकार कर लिया था???” सोच सोच के ऋषभ व्याकुलता के सागर में डूबा जा रहा था।

“नहीं…!! आराध्या इतनी सुंदर है। अप्सरा सी सुंदर आराध्या कैसे विजय धर जैसे  लोगों की बातों में आ सकती है???” ऋषभ के विचारों ने पलटी मारी। लेकिन ऋषभ ये सब क्यूं सोच रहा था। क्या उसे भी वैसा ही प्रेम था आराध्या से…जैसा विजय धर करता था।

“नहीं…धिक्कार है…ऋषभ तुझको…! आराध्या को तू आदर्श मानता है। जिस मूरत से प्रेम करते हैं…उसकी पूजा करते हैं। तू कैसी मानसिकता से प्रेरित हो रहा है?? क्या अंतर है तुझमें और विजय धर में। धिक्कार है तुझको…!” ऋषभ का अंतर्मन उसे कोस रहा था।

“ऋषभ…!!! तू ही विजयी हुआ है। तेरा प्रेम अब निष्काम है। आराध्या तो तेरी ही आराधना का एक भाग है। कभी उसने तुझे हेय दृष्टि से देखा है क्या??? कभी तुझे नीचा दिखाया है क्या??? नहीं…!! व्यर्थ में परेशान है तू।”

ऋषभ के हृदय में आराध्या के प्रति प्रेम  और भी प्रगाढ़ होता जा रहा था। मंद मंद  मुस्कान लिए…वो चल पड़ा था अपने घर की ओर…आराध्या की उसी मुस्कान को याद करते हुए…जब उसने पहली बार उसका दीदार किया था…और आसक्त हो गया था उसके उस मोहक रूप को देखकर।

सादर,
ऋषि देव तिवारी




बाबू साहब..!!!

एक कहानी : बाबू साहब…!!!

तपस्या, संकल्प सिद्ध करने का एक मात्र सर्वमान्य रास्ता है…मेरे विचार से। लेकिन एक वक़्त होता है…जब विमुखता आ जाती है…कर्तव्य मार्ग से, तप भाव से। कोई तो कारण होता है जब कोई अपने उद्देश्य मार्ग से विचलित हो जाए…..और अक्सर ये तब होता है जब कोई किसी के प्रेम पाश के वशीभूत हो जाता है।

ऋषभ त्रिवेदी, उम्र २१ वर्ष, अभी-अभी स्नातक पास कर के पहुंचा ही था…नवाबों के शहर लखनऊ में…एक स्वप्न लिए हुए। कर्तव्य पालन के लिए स्वयं से एक प्रण था उसका। कोई ना कोई एक सरकारी नौकरी का वरण करना था उसको। पहुँचते ही सबसे पहले महेंद्रा कोचिंग ज्वाइन की। सुबह ०६:३० से शाम ८ बजे तक… मैथ, रीजनिंग, इंग्लिश… मैथ , रीजनिंग, इंग्लिश…बस कुछ और नहीं था उसके जीवन में। बैंकिंग सैक्टर मे एक क्लर्क बनने की अभिलाषा थी उसकी।

मवैयां में था एक विद्यालय…नाम था गांधी विद्यालय। स्पीड टेस्ट दे रहा था वो…जब पहली बार देखा उसने…बाबू साहब को। बिल्कुल सरल सी मुस्कान लिए हुए… लटों को बार बार चेहरे से हटाते हुये।  जो नज़र पड़ी उनके चेहरे पर…तो फिर हटी ही नहीं। ” लव एट फर्स्ट साइट ” सुना था फिल्मों में उसने…लेकिन महसूस तब किया । टेस्ट मे तो फ़ेल हो गया ऋषभ…लेकिन पास हुआ था वो…खुद के खयालों में।

कर्तव्य मार्ग से विमुख ना होने का उसका जो प्रण था…टूट गया। फिर क्या…शुरू हुआ…फिल्मी सड़क छाप लफाड़ियों वाला काम। टेस्ट में बैठता था इस तरह कि…एक नज़र दें पाएं। इकतरफा इश्क़ में डूबे रहना और फिर जैसे ही बाबू साहब उठते…वो भी उठ लेता था और  हो लेता था पीछे उनके…! समय वही था…बस जो ०६:३० से ०८ का टाइम किताबों में जाता था….वो उन्हें देखने और सोचते रहने में बीतने लगा। कैसे बात हो जाए…कैसे दोस्ती हो जाए…बस रोज़ नए नए ऐसे ही विचार आते थे। किताबों से इश्क छोड़…ऋषभ एक अनाम के इकतरफा इश्क में पड़ बैठा था।

कुछ तीन चार लड़कियों और तीन चार लड़कों का ग्रुप था बाबू साहब का। देखने में तो सब एक से एक पढ़ाकू ही लगते थे। बड़ी हिम्मत कर के एक दिन उस ग्रुप में अपनी जगह बनाने के उद्देश्य से ऋषभ जा बैठा बाबू साहब के करीब लेकिन उनकी नज़रों से बचते हुये। प्रतिक्रिया ऐसी आयी…कि फिर दुबारा हिम्मत ना पड़ी उसकी । कोई शाहिद कपूर तो था नहीं वो। एक सीधा साधा सा दुबला पतला इंसान था…ऋषभ।

दिन बीतते जा रहे थे। लखनऊ आने के प्रमुख कारण को तो वो पूरी तरह भूल चुका था। बस निगाहों में हर पल वहीं चेहरा… रातो दिन। रोज़ उनके स्वभाव का अंदाज़ा अपने तरीकों से लगाना, उनकी हर एक मुस्कुराहट के मायनों को  समझने की कोशिश करना…बस यही चल रहा था।

एक लड़का और था…जिससे वो थोड़ा ज्यादा बात करती थी। किसी के करीब जाना हो तो…उसके करीबी के करीब हो जाओ…उसके अंतर्मन ने उसे आदेश दिया….यही रास्ता सही है।

” यार…कब से कोचिंग में हो भाई??” ऋषभ ने एक मुक्त प्रश्न छेड़ा।
” ज्यादा दिन नहीं हुआ…बस।” थोड़े अनमने मन से बोला था उसने।

लेकिन ऋषभ कहां छोड़ने वाला था। आज तो दोस्ती कर के रहेगा वो…जबर्दस्ती ही सही। सवाल पे सवाल…दागता रहा । पर एक जवाब ऐसा था…जो शायद यादगार बन गया। अपने ग्रुप की ओर से उसने बोला , “भाई…क्या है कि हम लोग २०० प्रश्नों में से करीब पौने दो सौ तक अटेम्प्ट करते हैं। बस उतने में टॉप १० में रैंक आती है। हो गया अपना काम। कई इंटरव्यू पेंडिंग हैं मेरे।”

दिमाग ठनक गया उसका। एक अलग राह मिली उसकी सोच को। यद्यपि राह के अंतिम छोर पर… बाबू साहब ही खड़े थे…अपनी अद्वितीय मुस्कान लिए हुए…। फिर भी इस जवाब ने उसे मजबूर कर दिया था…एक नयी दिशा मे सोचने के लिए।

सोचने लगा कि सबसे मुस्कुरा मुस्कुरा के बात करते हैं बाबू साहब …बस हम से नहीं। एक दो बार कोशिश भी की थी उसने…लेकिन नकार दिया गया था वो । क्या कारण हो सकता है?? स्वयं से स्वयं के प्रश्न और फिर जवाब भी स्वयं से ही। तभी अचानक उसके मन के अंतर्द्वंद ने जवाब दिया…” ऋषभ…तू पढ़ने में कमजोर है। कभी टॉप ५०० में आया है?? देख वो सब टॉप १० में आते हैं। तू पढ़ पहले…इस लायक बन…! कर सकता है ऐसा…??? बोल…??? “

इश्क़ छोड़ा नहीं था उसने…बस राह बदल दी…उसी पल…उसी क्षण..! कोचिंग में सबसे पहले प्रवेश…और सबसे आखिरी में बाहर। फिर से वही…. मैथ, रीजनिंग, इंग्लिश…. मैथ, रीजनिंग, इंग्लिश…बस। परिणाम ये हुआ… कि तीन महीने में ही एक  बैंक में पीओ की लिखित परीक्षा पास हो गया वो।

प्रश्न – उत्तर का दौर फिर शुरू हुआ ऋषभ के अन्तर्मन में।

किसको श्रेय दिया जाए…??? ऋषभ खुद की मेहनत को दे…या फिर उसे, जो वास्तव में इसका हकदार था….??? जवाब स्पष्ट था।

स्टेज मिला महेंद्रा कोचिंग में…और सामने था वही ग्रुप…और फिर से वही मुस्कान…उसके ठीक सामने। ऋषभ के आंखों की चमक…जरूर देखी होगी बाबू साहब ने भी। पूर्ण आत्मविश्वास से ऋषभ अपना भाषण देता रहा। इसी कविता के साथ अपनी वाणी को विराम दिया था उसने,

” असफलता एक चुनौती है….स्वीकार करो…!
क्या कमी रह गई देखो और…सुधार करो…!
जब तक ना सफल हो…नींद चैन को त्यागो तुम…!
संघर्षों का मैदान छोड़ मत भागो तुम…!
कुछ किए बिना ही जै जै कार नहीं होती…
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती…!

कुछ किए बिना ही जै जै कार नहीं होती…
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती…!!”

तालियों की गड़गड़ाहट थी…उस हाल में। गज़ब का अनुभव था वो…और उससे भी गजब तब हुआ…जब बाबू साहब आ खड़े हूए ऋषभ के बिलकुल सामने।
” Congratulations Rishabh…!”
जवाब नहीं सूझ रहा था…बस ऐसे ही मुंह से निकल गया….
” Thanks…”!

नहीं…अभी बात खत्म नहीं हुई…यहां…!

“अपना नंबर दो…?” बाबू साहब बोले। शायद आशा नहीं थी ऋषभ को।
930791…….….” तपाक से बिना किसी देरी के….दो सेकंड में जवाब दिया था उसने । नौकरी पाने की उतनी खुशी नहीं थी उसको…जितना कि…वो दो या तीन मिनट की मुलाक़ात।

स्वप्न पूरा हुआ…और अब दौर था बातों का..मुलाकातों का…! उस ग्रुप का सदस्य बन गया था ऋषभ, जिससे कभी नकार दिया गया था उसको…और जगह भी  मिली उसको…तो बाबू साहब के ठीक बगल में।
लेकिन अब  लफाड़ी नहीं था ऋषभ । एक स्थान था उसका…जो दिलाया था उसे बाबू साहब ने।  एक सम्मान  था उसके  मन में बाबू साहब के लिए।

यहाँ बाबू साहब के व्यक्तित्व पर भी प्रकाश डालना आवश्यक है। एक प्रसन्नचित, उन्मुक्त विचारों वाली शख्सियत थी उनकी। स्वभाव अत्यंत सरल। प्रेम से तो कुछ भी करा लो…लेकिन उनकी नाराजगी को झेल पाना उतना ही कठिन। “अरे भैया…तुम्हारी तो चाँदी है….!!!” इतना कह कर जब वो ज़ोर से हसते थे…तो दुनिया का कोई भी व्यक्ति अनायास ही आसक्त हो जाए। हृदय से इतने कोमल कि किसी का दुख उनसे देखा नहीं जाता था। जानवरों से भी बहुत लगाव था उनको। कपड़ों का भी गज़ब का शौक। ड्रेस कोड तो पूछो मत…बेहतरीन।

ऋषभ की इस सफलता पर पार्टी का दिन था…! मस्ती चल रही थी। किसी ने अचानक  ही पूछ लिया…”आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहते हैं…!!” ऋषभ खामोश हो गया…! कैसे नाम लेता उनका सबके सामने। कैसे कह देता कि ये सारी मेहनत जो उसने की…बाबू साहब ही हैं उसके पीछे। अभी तक तो शायद वो ऋषभ को सिर्फ अपना दोस्त ही मानते थे। इश्क़ मे जब तक इज़हार ना हो जाए…इश्क़ होता तो इकतरफा ही है।  टाल गया उस सवाल को एक चतुराई से…लेकिन जवाब दिया था उसने…तब जब लखनऊ छोड़ना था उसको अंततः।

“एक बात बोलूं???” मैसेज किया ऋषभ ने।
“हां…बोलो ना..!”
“अपनी लाइफ का तीस मिनट दे सकती हो हमको??? बिना कोई सवाल किए??? “
“ok”… सीधा सा जवाब था।

मुलाकात हुई। बहुत सी बातें हुई। ऋषभ ही बोलता रहा। बाबू साहब सुनते रहे। अपनी सफलता का श्रेय अर्पित कर दिया उसने। दिल की सारी बातें केह डाली। जीवन का एक यादगार पल था वो। इकतरफा मोहब्बत का इकतरफा इजहार हुआ। और फिर ऋषभ निकल पड़ा अपने घर की ओर। एक निःस्वार्थ और निष्काम प्रेम के भाव थे उसके मन में। हृदय मे अप्रतिम सम्मान भाव था…बाबू साहब के लिए।

आटो में बैठ के चला ही था कि मोबाइल पर एसएमएस आया…

” I love u too”…!

मन में उमंगों की तरंगे उफान पर थी..! खुशी इतनी कि ऋषभ सातवें आसमान पर खड़ा हुआ…मानो चिल्ला रहा था। खुद में मुस्कुराने लगा वो…जोर जोर से हंसने लगा…पागलों की तरह…! ऐसा ही होता है…जब इष्ट की प्राप्ति हो जाती है।

उसका इकतरफा इश्क़ आज सफल हुआ था। उसकी सफलताओं में बाबू साहब के निःस्वार्थ प्रेम और विश्वास का भी एक अभूतपूर्व योगदान था। बाबू साहब का दिया उपनाम “मिट्टी के माधव” कम से कम इस जन्म में तो ऋषभ के मानस पटल से मिटना नामुमकिन सा है।

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कैसे प्रिय पर अधिकार करूं…??

रचना शीर्षक :
” कैसे प्रिय पर अधिकार करूं : एक अन्तर्द्वन्द “
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तुम प्रेम गीत का राग चुनो,
मैं कर्कश ध्वनि विस्तार करूं,
प्रणय मिलन कैसे हो फिर,
कैसे प्रिय पर अधिकार करूं…!

मधुर मिलन की बेला में,
तुम चन्द्र सदृश दैदीप्यमान,
मेरे मुख का सब तेज क्षीण,
कैसे प्रिय से अभिसार करूं…!

तुम विवश हृदय से प्रेम सुमन,
अर्पित करके कर्तव्य मुक्त,
मैं अविरल प्रेम की अभिलाषा ले,
कैसे प्रिय का प्रतिकार करूं…!

द्वय भाव लिए तुम उन्मुख हो,
अनुतप्त हृदय और मुख प्रसन्न,
अभिनय मुझमें कण मात्र नहीं,
कैसे प्रिय से व्यवहार करूं…!

परिणय विधान है सृष्टि का,
मन से मन का जब मिलन पूर्ण,
बंधन तन का, परिणय नहीं,
कैसे यह भाव प्रसार करूं…!

है द्वंद मेरे अंतर्मन में,
मैं दोष मुक्त या दोष युक्त,
पर तेरा कोई दोष नहीं,
कैसे प्रिय का परिहार करूं…!

कर्तव्य बोध की मर्यादा में,
बरबस बंधक तुम बन बैठे,
मैं भी तो स्वार्थ के वशीभूत,
कैसे प्रिय से प्रतिसार करूं…!
कैसे प्रिय पर अधिकार करूं…!!

सादर🙏




हे मेघ…हृदय के भाव सुनो…!!!

हे मेघ…! हृदय के भाव सुनो…!!
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निर्जन वन के पुनर्सृजन को,
हे मेघ…! घुमड़ के आ जाओ,
मन की दुर्बलता पर सघन वृष्टि,
बादल बन कर तुम छा जाओ…!

विश्वास विकल दुर्बल हृदय,
इस एकांत और सूनेपन में,
हे मेघ…! प्रबल गर्जन लिए,
सुप्त हृदय को जगा जाओ…!

भावहीन बंजर सा मन,
हर क्षण दुविधा के पाश में,
हे मेघ…! सुमन वर्षण लिए,
जीवन को महका जाओ…!

अडिग अचल निष्ठुर शरीर,
प्रिय के अभाव में श्वास हीन,
हे मेघ…! वायु सा वेग लिए,
प्राण वायु बरसा जाओ…!

संगीत हीन अब हृदय मेरा,
ना राग का अब अनुराग बचा,
कल कल ध्वनि अब लिए मेघ,
मल्हार राग तुम बन जाओ…!

हृदय मध्य के प्रेम भाव,
अदृश्य बांध से बंधे हुए,
हे मेघ…! घोर वर्षा ले कर,
तुम एक प्रवाह सा दे जाओ…!

प्रिय बिन सम्पूर्ण नहीं “ऋषि”,
व्याकुल मन के कुछ भाव सुनो,
हे मेघ…! प्रेम के पथ पर अब,
इक सरस राह तुम बन जाओ…!!

सादर🙏🙏




तुम सरल जरा बन कर देखो…!!!

जीवन पथ यदि कठिन लगे,
तुम सरल ज़रा बन कर देखो,
रस सुधा मात्र की होड़ मची,
तुम गरल ज़रा बन कर देखो।

क्षुधा नहीं मिट सकती,
धन लोलुपता की आसानी से,
सघन कपट के वन में फिर,
तुम विरल ज़रा बन कर देखो।

पाषाण बने इस कलयुग में,
मानवता खत्म हुई तेरी,
काठ हृदय परित्याग कर,
तुम तरल ज़रा बन कर देखो।

माया मोह की मिथ्या में,
तुम घिरे हुए हर क्षण जैसे,
निर्बल मन की चतुराई से,
तुम सबल ज़रा बन कर देखो।

सुख दुख के क्षण इस जीवन में,
दिन रात सदृश हैं रूप लिए,
नित रोज़ नई बाधाओं के,
तुम युगल ज़रा बन कर देखो।

पुरुषार्थ भली है चीज मगर,
रण के पथ पर भी ले जाती,
जब बल से ना हो सिद्घ मनोरथ,
तुम निर्बल ही ज़रा बन कर देखो।

परहित जैसा ना धर्म कोई,
फिर स्वार्थ भाव है क्यूं हावी,
सूखी नदियों से नीरस क्यूं,
तुम सज़ल ज़रा बन कर देखो।

हम बने राम तो रामराज्य,
लंका हो निर्मित रावण से,
कुमति की काली छाया से,
तुम निर्मल तो ज़रा बन कर देखो।
तुम सरल ज़रा बन कर देखो।

सादर🙏




निः स्वार्थ प्रेम…!!!

मन की दीवारों के भीतर,
मौन धरे वो कौन पड़ा..?
अहम और निःस्वार्थ प्रेम में,
हर क्षण सोचे है कौन बड़ा..??

निःस्वार्थ प्रेम की परिभाषा में,
अहंकार का मान नहीं,
फिर सबल रूप लेकर इस मन में,
अडिग अचल सा कौन अड़ा..!

कैसे परित्याग करे बेबस मन,
पुरुषत्व भाव…मन पर छाए,
पुरुष सबल…नारी है अबला,
ऐसे विचार ही क्यूं आए..?

वो सहन करे अभिमान पुरुष का,
ऐसी परिपाटी क्यूं बना दिए..?
फिर विजय पताका अहम भाव की,
लेकर जन जन में उड़ा दिए..!!

वो प्रेम सुधा की वर्षा लेकर,
नित नए वेश है दिखलाती,
बेटी, भगिनी, अर्धांगिनी बन,
मातृत्व भाव भी सिखलाती..!!

मद, मान, दर्प, अभिमान भरे,
इस जग को तुमने साधा है,
निःस्वार्थ प्रेम के धागों से,
अगनित रिश्तों को बांधा है..!!

अविरल प्रेम सरोवर पर,
अभिमान मेरा भारी है क्यूं..?
है पतन सुनिश्चित अहम भाव से,
हृदय द्वंद जारी है क्यूं..??

“ऋषि” हृदय जो अहम बसा,
हे ईश्वर…! संघार करो…!!
जन – जन में हो… निःस्वार्थ प्रेम,
ये भाव प्रभु संचार करो…!!

सादर🙏




संवाद होना चाहिए…!!

रिश्तों की डोर में,
हो तनाव जब ज्यादा,
टूटने को आतुर,
और खिचाव हो ज्यादा,

बादलों का क्षितिज पर,
इक झुकाव होना चाहिए…!
तोड़ कर खामोशियां,
संवाद होना चाहिए…!!
तोड़ कर खामोशियां,
संवाद होना चाहिए…!!

अहम का वर्चस्व हो,
और विवेक शून्य हो कभी,
भय के प्रभाव में,
विचार शून्य हो सभी,

दंभ की दीवार से,
इक रिसाव होना चाहिए…!
नीर के बहाव सा,
संवाद होना चाहिए…!!
नीर के बहाव सा,
संवाद होना चाहिए….!

प्रीत की दीवार पर,
द्वेष का ना रंग हो,
प्रीत की मीनार पर,
प्रीत की तरंग हो,

राग पर अनुराग का,
इक प्रभाव होना चाहिए…!
सरगमों के स्वर सा इक,
संवाद होना चाहिए…!!
सरगमों के स्वर सा इक,
संवाद होना चाहिए…!!

अनीति हो जहां कहीं,
नीति को हम राह दें,
पाप की हो बस्तियां,
तो पुण्य को पनाह दें,

कुकृत्य लिप्त दैत्य से,
इक विवाद होना चाहिए…!
मौन भाव त्याग कर,
संवाद होना चाहिए…!!
मौन भाव त्याग कर,
संवाद होना चाहिए…!!

सादर🙏