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संघर्ष : पुरस्कार…! ( भाग २)

पुरस्कार…!!!

सुबह सुबह राधेश्याम अखबार बांट कर घर पहुंचा ही था… कि रोहन स्कूल ना जाने की जिद्द लिए बैठा था। और जिद्द इतनी की वो रोने लगा कि वो आज स्कूल नहीं जाएगा।

“अरे क्यूं नहीं जाना बेटा स्कूल..?? आज तो तुम्हारा रिजल्ट आने वाला है ना…??” राधेश्याम ने समझाते हुए रोहन से कहा।

“पापा…हम स्कूल नहीं जाएंगे। कल मैडम ने मुझे क्लास से निकाल दिया। बोला तुम्हारी फीस नहीं जमा है। कल पापा को लेकर आना। आप मेरी फीस क्यूं नहीं जमा करते…???” रोहन रोते रोते बोला।

राधेश्याम खामोश सा खड़ा था। इस प्रश्न का जवाब तो था उसके पास…लेकिन रोहन का बाल रूप अभी उस जवाब को समझ पाने में असमर्थ था।

कैसी बेबसी है उस पिता की…??? एक ओर वो अपने बच्चे को सिखाता है कि झूठ बोलना गंदी बात है…वहीं खुद झूठ बोलने को मजबूर।

“बेटा…मेरी बात हो गई है…प्रिंसिपल मैडम से…!! तुम स्कूल जाओ…कोई कुछ नहीं बोलेगा तुम्हे।” राधेश्याम के इस झूठे दिलासे पर रोहन तुरंत तैयार हो गया स्कूल जाने को।

अपनी कक्षा में प्रथम श्रेणी में पास हुआ था…रोहन। चमचमाती हुई शील्ड मिली थी उसे पुरस्कार में। तालियों की गड़गड़ाहट थी पूरे स्कूल में। लेकिन घर आते ही रोहन के चेहरे पर ज़रा भी खुशी नहीं थी। बल्कि गुस्से से लाल रोहन शाम को अपने पापा के इंतजार में चुपचाप बैठा हुआ था। फीस ना जमा हो पाने के कारण…उसकी मार्कशीट नहीं मिली थी उसको। रोहन के गुस्से को आज फिर झेलना था…राधेश्याम को… हसते हुए…मुस्कुराते हुए।

भगवान की भी गजब लीला है। जब उस पिता की हार्दिक इच्छा है कि कोई उसकी मजबूरी को समझे…तो समझने वाले को बाल रूप दे दिया। अबोध की संज्ञा दी उसको। खाने का…पीने का…पढ़ने का..लिखने का, पिता को छोटी छोटी चीजों के लिए ताना मारने का ज्ञान दे दिया उस छोटे बच्चे को…बस नहीं दिया तो…उसकी मजबूरी समझ पाने का विवेक।

राधेश्याम, रोहन के गुस्से का कोपभाजन हो चुका था।

“नहीं मिला मेरा रिजल्ट। मैडम ने बोला जब फीस जमा होगी तब मिलेगा। ये मिला है।” रोहन ने अपनी शील्ड राधेश्याम के हांथों में रख दी।

“अरे वाह…यही तो असली चीज है। इनाम…!!! ये सबको नहीं मिलती। रिजल्ट तो सबको मिलता है…चाहे वो पास हो या फेल…लेकिन शील्ड सिर्फ उसे…जो फर्स्ट आता है क्लास में।” वाकपटुता में कोई दूसरा सानी नहीं था राधेश्याम का।

और हो भी क्यों ना…? आखिर अपने अभावों को ढक पाने के लिए कोई ना कोई चादर तो चाहिए थी उसे। अब वाकपटुता से अच्छी चादर क्या हो सकती है।

रोहन के बाल मन पर अपने पिता की यह बात छप गई थी। जो काम तालियों की गड़गड़ाहट नहीं कर पाई थी…वो राधेश्याम की बातों ने कर दिया था। रोहन अब खुश था। अब जा कर उसने अपने पापा मम्मी का पैर छू कर आशीर्वाद लिया था।




संघर्ष : अखबार वाला ( भाग १ )

अख़बार वाला…!!!

दसवीं की परीक्षा के परिणाम का दिन था आज। राधेश्याम सुबह सुबह करीब तीन बजे ही उठ गया।

“अरे…इतनी सुबह सुबह ही उठ गए…क्या हुआ..?? आज जल्दी जाना है क्या???” राधेश्याम की पत्नी कुसुम ने पूछा।

“हां…आज रिज़ल्ट आएगा। सुबह सुबह ही जाना पड़ेगा। पेपर उठाना है…! कुछ पैसे मिल जाएंगे।” राधेश्याम की साइकिल तैयार थी और शायद उसका विश्वास भी… कि आज तो कमाई थोड़ी ज्यादा ही होगी उसकी।

समाचार पत्र बांटने का काम था राधेश्याम का। और ये दौर था तब का…जब दसवीं बारहवीं के परीक्षा परिणाम समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ करते थे।

राधेश्याम की साइकिल हवा से बातें करती हुई चल दी थी रेलवे स्टेशन की ओर।

“कुसुम के लिए कितने सालों से कोई साड़ी नहीं ली। रोहन का जूता फट गया है।  छोटी की स्कूल ड्रेस भी तो पुरानी हो गई है। कैसे श्रीवास्तव जी के बेटे की छोटी साइकिल देख कर रोहन रोने लगा था। रोहन के लिए साइकिल ही ले आऊंगा। लेकिन तीन माह से स्कूल की फीस भी तो नहीं जमा की। फीस जरूरी है। पहले तो फीस ही जमा कर दूंगा। पढ़ाई बहुत जरूरी है। हां…फीस का हिसाब ही पूरा करूंगा…आज की कमाई से।” राधेश्याम अपनी जिम्मेदारियों के बोझ का कोई एक छोटा सा भाग हल्का कर पाने का स्वप्न लिए चला जा रहा था।

वैसे तो राधेश्याम कुछ ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था, लेकिन शिक्षा के प्रति उसका एक अटूट विश्वास था। कारण शायद ये ही रहा होगा… कि शिक्षा का अभाव उसे अवश्य ही पग पग पर महसूस होता रहा था। कैसे जीवन की कठिनाईयों को झेलने के कारण उसे अपनी पढ़ाई का परित्याग करना पड़ा होगा। जिम्मेदारियों के बोझ ने कैसे उसके कंधों से किताबों का बोझ उतार दिया होगा। जिंदगी की छोटी छोटी जरूरतें पूरी हो सकें…उसके लिए एक एक रुपए जुटा पाने की उसकी मेहनत ने जरूर उससे किताबों का मोह खत्म कर दिया होगा।

लेकिन अभाव में जीवन बिताने वाला राधेश्याम, संकल्पित था…अपने बच्चों को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने के लिए। संकल्पित था…हर वो सुख अपने बच्चों को देने के लिए, जो शायद उसे कभी नहीं मिली।

लेकिन…क्या संकल्प ही पर्याप्त है… मन की हर इच्छा पूरी कर पाने के लिए…?? क्या सिर्फ संकल्प मात्र से रोहन का जूता खरीदा जा सकता था। छोटी की स्कूल ड्रेस या फिर स्कूल की फीस भरी जा सकती थी…??? शायद नहीं…!!! लेकिन हां…एक संबल अवश्य मिलता होगा…क्यूं कि वास्तविकता की धरातल पर संकल्प एक ऐसे वचन पत्र की तरह होता है…जिसका वर्तमान में भले ही कोई मूल्य ना हो…लेकिन भविष्य में उसकी ठीक ठाक कीमत पा लेने की संभावना तो होती ही है। राधेश्याम का ऐसे विचारों में पूर्ण विश्वास था। उसे पूर्ण विश्वास था…उसके यही संकल्प एक दिन उसके सहायक साबित होंगे…अपने अभावों को समाप्त कर पाने में…उसके मददगार होंगे।

हाकरों की भीड़ लगी हुई थी…रेलवे स्टेशन पर। सभी मानों किसी अप्रदर्शित रोष से भरे हुए थे। सभी के चेहरों पर दुख के भाव स्पष्ट देखे जा सकते थे।

“का भवा यार अनिल…??? काहे मुंह लटकाए खड़ा हय सब लोग…??” राधेश्याम ने अपने एक हाकर साथी से  पूछा।
अनिल ने बिना कुछ बोले…राधेश्याम को एक समाचार पत्र पकड़ा दिया।

“इंटरनेट पर प्रकाशित होंगे दसवीं के परिणाम!” समाचार पत्र की प्रमुख व पहली न्यूज यही थी।

ख़बर दुखद थी। मानों, बिना परीक्षा दिए ही राधेश्याम दसवीं में अनुत्तीर्ण हो गया था। किसी ने सही ही कहा है…”अगर सपना अपना होता तो हर कोई राजा ही होता।” सुनहरे स्वप्न की मीनारें जो राधेश्याम ने खड़ी की थी…उसकी नींव ही धंस गई। जिम्मेदारियों के निर्वहन का उसका संकल्प…टूटता सा दिखाई दे रहा था।

एक क्रांति का दिन था वो। एक ओर प्रौद्योगिकी के विकास के एक अद्भुत चरण की क्रांति थी…तो वहीं दूसरी ओर राधेश्याम जैसे अनगिनत निर्बलों के टूटते आत्मविश्वास की धारा का प्रवाह था।

सुबह के आठ बज चुके थे। रविवार का दिन था।
“अरे ये साला राधेश्याम कहां मर गया…पेपर नहीं लाया आज…!!!” इंजीनियर साहब रामधीर पांडेय जी मन ही मन बुदबुदाए।
“शिवम् के पापा…आज पेपर नहीं आया है…कैलेंडर में लिख लेना…नहीं एक दिन का पैसा फालतू में ले जाएगा…राधेश्याम।” डॉ सुमन कि चाय फीकी थी आज बिना पेपर के।
“इस महीने कोई दूसरा पेपर वाला लगवा लो जी…रविवार है आज…और पेपर नहीं आया।” सुनिधि मैडम मानों अखबार का गुस्सा अपने पतिदेव पर ही निकाल रही थी।

लेकिन राधेश्याम शोक के सागर में था। अख़बार बाटने नहीं गया आज। बैठा रहा वहीं रेलवे स्टेशन पर। घर भी नहीं गया। सीधे नौकरी पर चला गया था आज वो।

शायद साहस नहीं था उसके पास…कुसुम से नज़रें मिला पाने का… कि एक साल से एक साड़ी तक नहीं दे पाया वो।

साहस नहीं था उसके पास…रोहन से नज़रें मिला पाने का… कि उसका फटा हुआ जूता नहीं बदल सका वो। उसके लिए एक साइकिल ना ला सका।

साहस नहीं था उसके पास… कि वो छोटी के सामने जा पाए…अपनी बेटी के पुराने स्कूल ड्रेस को बदल कर एक नई ड्रेस ला पाए।

साहस नहीं था उसके पास…अपने बच्चों के स्कूल में आज अखबार पहुंचा पाने का…।

साहस नहीं था उसके पास…फिर से तीन माह की स्कूल फीस ना जमा कर पाने का तकादा सुन पाने का।

रात के आठ बजे थे। अपने खोए हुए आत्मविश्वास को बटोर कर…राधेश्याम निकल पड़ा अपने घर की ओर। कल फिर से उसे अखबार बांटने घर घर जाना है।

#मौलिक
#स्वरचित
©ऋषि देव तिवारी




चाय भाग ४ : प्रणय निवेदन वाली चाय…!!

प्रणय निवेदन वाली चाय…!!!

सुबह से ही आज घने बादल थे। बस बारिश नहीं हो रही थी। मानसी अकेले ही घर में पड़ी पड़ी बार बार खिड़की से बादलों की ओर निहार रही थी। तभी घर की डोर बेल बजी। डोर बेल लगातार ही बजती जा रही थी।

“अरे…आती हूं भाई…कौन है…??? दरवाज़ा ही तोड़ दो…इससे अच्छा तो…!!”  खुद से ही बात करते मानसी ने दरवाजा खोला।

“दीदी… मैं आ गई…!!” प्रीती ने मानसी को गले से लगाते हुए बोला।

” अच्छा तो तुम हो ये…घंटी पे घंटी बजाए जा रही… मैं सोच रही कौन है ये पागल…!!” मानसी हसते हुए बोली।

“हां… मैं ही हूं वो पागल….दीदी। चलो आप बैठो…आज मैं बनाती हूं…चाय आपके लिए….चार चम्मच शक्कर वाली…!!!” प्रीती ने बड़े ही चुलबुले अंदाज़ में बोला।

“ठीक है बाबा…तुम्हीं बनाओ…लेकिन मैं एक बात बोलूं…मुझे तुम दीदी ना बुलाया करो…आंटी बोला करो।” मानसी ने प्रीती से कहा।

“अरे…क्यूं…आप आंटी लगती ही नहीं..!!! मुझसे चार पांच साल ही तो बड़ी होगी आप…??” प्रीती ने मानसी से अपने बात की सहमति मांगी।

“तुम्हारे जितना बड़ा तो मेरा बेटा है….!” मानसी , प्रीती के गालों पर स्नेह भरे हांथ फेरती हुई बोली।

” ओहो…ये तो मैं पूछना ही भूल गई… कौन कौन है आपकी फैमिली में..??” प्रीती ने रसोई से ही पूछना शुरू किया।

“फिर हाल तो मैं…यहां अकेली ही हूं। बैंगलोर में मेरे पति हैं…दिल्ली में मेरा एक बेटा है…और बेटी भी वही है। बेटी की शादी हो गई। बेटा वहां जॉब करता है…विवेक नाम है उसका।”

“अच्छा…! तभी कोई दिखाई नहीं देता यहां।” प्रीती ने हामी भरी।

“हां…लेकिन विवेक से आज मिल लोगी तुम…रास्ते में है वो…आ ही रहा होगा…मैंने बुलाया है उसे…!!!” मानसी बोली।

“अच्छा…तो तीन कप चाय बना दूं क्या…??” आज प्रीती काफी प्रसन्नचित थी।

विवेक…एक सौम्य हृदय, आज्ञाकारी व सामान्य सा लड़का था। बचपन से मानसी ने ही उसे मां और बाप दोनों का प्यार दिया। आज मानसी ने उसे प्रीती से मिलवाने के लिए ही बुलाया था।

“कैसे कहूंगी विवेक से??? कैसे प्रस्ताव रखूंगी उसके सम्मुख… प्रीती का..??? क्या विवेक मेरी बात मानेगा…??? फिर उसके पापा को कौन समझाएगा…?? सबको समझा लो…फिर प्रीती को भी तो राज़ी करना पड़ेगा।” अनगिनत सवाल थे मानसी के मन में।

दोनों चाय पी ही रहे थे कि…विवेक आ गया।

” मां…कैसी हो..??” पैर छूते हुए विवेक ने पूछा।

“मस्त…तुम कहो..?? इतनी देर कहां कर दी आने में…??” इससे मिलो….ये प्रीती है…मेरी टी पार्टनर…!!” मानसी ने प्रीती की ओर इशारा करते हुए कहा।

दोनों ने हांथ उठा कर एक दूसरे का अभिवादन किया…”हाई….!!”

“अच्छा तो मैं चलती हूं दीदी…..आ…आ…. सॉरी…आंटी..” प्रीती मुस्कुराती हुई चल दी।

रात के नौ बज रहे थे। बारिश के बादल छंट गए थे। चांदनी रात थी। विवेक और मानसी छत पर बैठे लूडो खेल रहे थे।

“विवेक…अगर मैं कहूं कि मैंने तुम्हारी शादी के लिए एक लड़की पसंद कर ली है…??” मानसी ने विवेक की ओर देख कर बोला।

“कौन…?? वो प्रीती से…??” विवेक ने मानों मानसी के मन की बात पढ़ ली थी।

“तुझे अच्छी लगी वो…???” मानसी उत्साहित हो कर विवेक की ओर उन्मुख हो गई।

” हां…लड़की जैसी है…उसमे अच्छा और बुरा क्या लगना…??” विवेक चुप हो गया। काफी देर तक दोनों चुप ही बैठे रहे।

“हां…तो शादी पक्की समझूं मैं…??” विवेक ने हंसते हुए कहा।

“विवेक… प्रीती एक विधवा है…!” मानसी की आंखे बिल्कुल विवेक के चेहरे पर ठहरी हुई थी।

“क्या…??? ये क्या कह रही हो मां…?? और तुम मेरी शादी उससे कराना चाहती हो?? पूरी दुनियां में अब लड़कियां ही नहीं बची…?? मजाक कर रही हो ना…??” विवेक का नाराज़ होना शायद स्वाभाविक भी था।

“अच्छा…तो क्या कमी है उसमें…??? विधवा होना तुम्हारी नज़र में कमी है क्या??? यही कारण है कि उससे तुम्हारा विवाह नहीं हो सकता??? फिर तो तुम्हे मुझे भी अस्वीकार कर देना चाहिए??”

“मां…!!! अब तुम्हारी और प्रीती की क्या तुलना है…??” विवेक कटाक्ष करता है।

“क्यूं…अगर… प्रीती एक विधवा है…फिर तो मैं भी एक विधवा ही हुई ना…उसके भी पति नहीं हैं??? मेरे भी नहीं हैं??? क्या अंतर है…मुझमें और उसमे…अगर सिर्फ पति का होना ना होना ही एक स्त्री को विधवा का दर्ज़ा दे सकता है तो… पिछले चार सालों से तुम्हारे पापा ने कभी मेरी खबर नहीं ली…कभी मुझसे मिलने नहीं आए…!” मानसी की आंखें भर आयी थी।

“मां…ये कैसी बात कर रही तुम…??” विवेक ने अपने हांथ मानसी के मुख पर रख दिए।

” बात तो सही है…कैसा घिनौना शब्द है ये…विधवा…!!! जब मैं अपनी मां के लिए ऐसे शब्द नहीं सुन सकता…तो उस दुखियारी प्रीती के लिए…!! उसमे उसका क्या दोष। कैसा अज्ञानी हूं मैं?? बल्कि सामान्य लड़कियों की अपेक्षा तो प्रीती को और अधिक संबल की आवश्यकता है। उसे एक ऐसे साथी कि जरूरत है…जो उसे यह विश्वास दिला सके… कि वो उम्र भर उसका साथ देगा। उसके हर दुख सुख में साथ रहेगा। फिर मां ने कहीं ना कहीं प्रीती में अपनी ही कोई ना कोई प्रतिमूर्ति देखी होगी…तभी तो मेरे लिए चुना उसको। कोई भी मां अपने बेटे के लिए बुरा क्यूं चाहेगी।” विवेक अपराधबोध में धंसा जा रहा था।

“मां…मुझे माफ़ कर दो…!!! मैं स्वार्थी हो गया था। समाज के दिखावे में खुद को भुला बैठा था। सोचा…लोग क्या कहेंगे?? मैं क्या जवाब दूंगा खुद को…ये सोच ही नहीं पाया। तुम्हारे विचारों से मेरा जरा भी विरोध नहीं। माफ़ कर दो…!” विवेक ने मानसी को गले से लगा लिया था।

हमारा समाज अपनी सुविधानुसार नियमों और सिद्धांतों को अपनाता है। उन नियमों की व्याख्या करता है। लेकिन समाज के बने बनाए दकियानूस नियमों के विरुद्ध जाकर आज सोचने की आवश्यकता है। जन मानस की भावनाओं को महसूस करने की आवश्यकता है।

शाम की चाय का वक़्त था। आज प्रीती के घर पर मानसी के साथ विवेक भी गया हुआ था।

“प्रीती…अगर तुम्हे कोई ऐतराज़ ना हो…तो मेरी ये दिली ख्वाहिश है कि तुम्हारी चाय मुझे इस जन्म में यूं ही रोज़ मिलती रहे। तुम मुझे अगर अपने योग्य समझो तो…मुझे स्वीकार करो।” विवेक ने अपना प्रणय निवेदन प्रीती के सम्मुख रख दिया था।

प्रीती की आंखों के आंसुओं ने विवेक का प्रणय निवेदन स्वीकार कर लिया था। मानसी ने उसे गले से लगा लिया।

“बैठो तुम दोनों…बातें करो… मैं सबके लिए लाती हूं…चाय बना कर…चार चम्मच शक्कर वाली खूब मीठी चाय….!!” मानसी ये कहते हुए रसोई की ओर चल दी।

🙏😊




चाय भाग ३ : चाय की तासीर…!!

चाय की तासीर…!!!

चाय के दीवानों का भी क्या कहना है। गर्म से गर्म चाय की तासीर को भी वे ठंडी ही बताते हैं। ठंडी हो चुकी चाय में कोई रस नहीं होता यहां। पांच रुपए भी कोई खर्च नहीं करता…ठंडी चाय पर।  हमारे समाज में प्रायः एक व्यक्ति और एक चाय में एक विरोधाभास पाया जाता  है। चाय गर्म पसंद होती है सबको…लेकिन तासीर उसकी ठंडी है। व्यक्ति ठंडे स्वभाव के अच्छे माने जाते हैं…तो देखो…तासीर सबकी गर्म ही होती जा रही है आजकल।

खैर, आज प्रीती की बारी थी चाय बनाने की। सो,
समय का बिल्कुल पाबंद विद्यार्थी, जैसे अपने गुरुजी के आने से पांच मिनट पूर्व ही अपनी जरूरी किताबों को लेकर यथा स्थान उनके इंतजार में बार बार दरवाज़े पर झांकता रहता है…ठीक उसी तरह प्रीती भी बार बार मानसी के दरवाजे की ओर झांक रही थी।

“दीदी….अरे ओ दीदी…कहां हो…आ जाओ..!! बन गई चाय…” प्रीती ने आवाज़ लगाई।

उदास सी बैठी मानसी, प्रीती की आवाज़ सुनते ही जैसे एक ऊर्जा से पूर्ण हो गई। बैठ गए दोनों…चाय की प्याली लिए हुए।

“प्रीती…तुमने दुबारा शादी क्यूं नहीं की…?” मानसी ने एक मुक्त प्रश्न छेड़ दिया था। “इतनी सुंदर हो तुम…फिर नौकरी भी करती हो…बहुत सी शादियां मिल जाती तुम्हें…दुवाह…!!”

“दुवाह….ये दुवाह क्या होता है दीदी….???” प्रीती ने बड़ी उत्सुकता से पूछा।

“अरे…मतलब ऐसे आदमी जिनकी पत्नियां नहीं होती या ऐसी औरतें जिनके पति नहीं होते…सेकंड मैरिज वाले लोग यार….!!!” मानसी ने जवाब दिया।

प्रीती का चेहरा जैसे एक उदासी से भर गया।
“क्यूं दीदी… मैं इतनी बुरी हूं क्या?? सिर्फ सेकंड मैरिज वाले ही मुझसे शादी कर सकते हैं…नॉर्मल लड़के नहीं…???” प्रीती ने मजाक भरे लहजे में बोला।

“बात तो सही है…! एक विधवा के लिए एक विधुर ही क्यूं…?? या फिर एक विधुर के लिए एक विधवा ही क्यूं??? ऐसे सामाजिक विभाजन का क्या अभिप्राय हो सकता है…?? ऐसे वैवाहिक विधानों की स्थापना क्यूं हुई??? क्यूं लोग आगे आ कर, पूर्ण सामाजिक सम्मान के साथ ऐसी वीर वधुओं का वरण नहीं करते…?? अभी उम्र ही क्या है बेचारी की…?? पच्चीस वर्ष…!! आजकल यही तो एक सामान्य उम्र है शादी की। फिर ऐसी सोच…क्यूं है समाज की….???” मानसी अंतर्युद्ध से घिरी हुई थी।

“अरे दीदी…कहां खो गई…?? इतना ना सोचो आप…!!” प्रीती ने विषय को बदलने की कोशिश की।

“लेकिन दीदी…ये बताओ…ये पुनर्विवाह जरूरी है क्या…?? एक स्त्री का अस्तित्व क्या एक पुरुष के साथ ही सार्थक हो सकता है..?? विवाह एक संस्कार है…मेरा इससे तनिक भी विरोध नहीं…और उस संस्कार का मैंने वरण भी कर लिया। अब दुबारा उसी संस्कार को निभाना क्यूं जरूरी है…??भगवान की इच्छा होती तो…आज मेरे पति मेरे साथ होते। विवाह के तीन माह बाद ही…मुझे यूं अकेला छोड़ क्यूं चले जाते।” प्रीती ने अपने मन के भावों को मानसी के हवाले कर दिया था।

“ऐसा नहीं है बहन…विवाह सिर्फ सामाजिक रीतियों की बात नहीं है। वंश वृद्धि की एक राह है…ये विवाह। मातृ, पितृ, भाई, बहन, सास, ससुर जैसे अनगिनत रिश्तों का आधार है…ये विवाह। जीवन के इक पड़ाव पर जब कोई तुम्हारे साथ नहीं होता…जीवनसाथी ही तो होता है…जो तुमसे बात करता है…तुम्हे ढांढस देता है…तुम्हारे सुख दुख में साझीदार बनता है…!” मानसी कह तो रही थी ये बातें…लेकिन एक हद तक वो खुद पूर्णतया सहमत नहीं थी उन बातों से…।

“उम्र के इस पड़ाव पर कहां है…मेरा जीवनसाथी?? धन की लोलुपता…!!! हां…इसी धनलोलुपता ने ही दूर कर रखा है अमित को…मुझसे…!! कहां है मेरे सुख दुख का साझीदार…?? मैं भी तो प्रीती की ही तरह हूं। बस मेरी मांग में सिंदूर है…और उसके नहीं..!! जीवनसाथी का अभाव तो दोनों को ही है। ऐसे विवाह से तो अविवाहित होना ही ठीक है।” मानसी अपने किए हुए सवालों में ही घिरती जा रही थी।

“लेकिन इसका मतलब क्या…पुनर्विवाह बुरी चीज है…??? बड़े बड़े महापुरुष हुए हैं…जिन्होंने इसी के लिए लड़ाइयां लड़ी…समाज का विरोध झेला…निरुद्देश्य तो नहीं रहा होगा ये सब। सिर्फ संतानोत्पत्ति या वंश वृद्धि ही इतने बड़े जन आंदोलनों का आधार तो नहीं रही होगी।” मानसी को अपने ही विचारों से विरोधाभास हो रहा था।

विचारों के इसी विरोधाभास में, आज फिर मानसी की चाय ठंडी हो गई थी…!!! आज फिर वो चाय अपना सम्मान खो बैठी थी…!!! क्यूं??? क्यूं कि अब वो ठंडी हो चुकी थी।  लेकिन आज उस ठंडी चाय ने मानसी को एक संकल्प लेने पर मजबूर कर दिया था।

“मैं अपने बेटे का विवाह… प्रीती से ही करूंगी। भले ही मुझे भगवान का विरोध भी क्यूं ना झेलना पड़े। विवेक, मेरा बेटा है…मेरा अंश है…। मेरी भावनाओं से उसका विरोध हो ही नहीं सकता। एक साल ही तो छोटा है वो प्रीती से। ऐसा कोई लिखित विधान है क्या…की लड़की छोटी ही होनी चाहिए।”
मानसी बहुत दिनों बाद आज हृदय से प्रसन्न हुई थी। चलते चलते उसने प्रीती को गले से लगा लिया था। भावुक सी हो गई थी वो।

जारी है…..

😊😊🙏🙏




चाय भाग २ : दो चम्मच शक्कर…!!!

दो चम्मच शक्कर…!!!

“प्रीती….चाय बन गई है…आ जाओ जल्दी से।” मानसी ने शाम होते ही आवाज़ लगा दी। मानसी और प्रीती को मानों रोज़ ऐसी ही आवाज़ सुनने की आदत सी हो गई थी।

मानसी जैसे ही बरामदे में चाय की ट्रे लेकर पहुंची… प्रीती पहले से वहां बैठी हुई थी। अब इसे चाय के प्रति सम्मान की भावना कहें या दोनों के मध्य उत्पन्न हो चुके आत्मीय प्रेम में समर्पण का भाव…चाय की पुकार पर कभी भी मानसी या प्रीती की ओर से कोई भी देरी या कोई भी इंतजार संभव ही नहीं था।

अभी पहली ही चुस्की ली थी दोनों ने…. कि मानसी उठ खड़ी हुई और प्रीती के हांथों से कप ले लिया।

“अरे क्या हुआ दीदी….???” प्रीती समझ ही नहीं पाई।

“सॉरी यार…बहुत मीठी हो गई है चाय। भूल से एक की जगह दो चम्मच शक्कर डल गई। क्या हो गया है मुझको…?? रुको…मैं दूसरी बना के ले आती हूं।” मानसी के चेहरे पर एक सशंकित भय के बादल व्याप्त थे…मानों कोई अपराध हो गया हो उससे।

“अरे दीदी…बहुत अच्छी चाय है। बस थोड़ी मीठी ज्यादा है आज। वैसे दीदी…एक बात कहूं…शक्कर चाय को कभी मीठी कर ही नहीं सकती। ये तो आपका प्यार है मेरे लिए…जो ये चाय इतनी मीठी लग रही है।” असीम प्रेम के भाव थे…प्रीती के इस कथन में।

वैसे तो प्रेम भाव से उत्पन्न हुए प्रीती के इस बात पर, मानसी क्षण भर के लिए मुस्कुराई जरूर थी…लेकिन अचानक वो बिल्कुल उदास हो गई और बैठे बैठे एक स्वप्न में खो गई…………!!!!

“मानसी…एक कप चाय मिल सकती है क्या…??” अमित अभी अभी ऑफिस से घर पहुंचा था।
अमित…मानसी का पति…एक कंपनी में वाइस प्रेसिडेंट है।  वैसे तो उच्च शिक्षित और एक संभ्रांत परिवार से संबंध रखता है अमित…लेकिन बात बात में क्रोध के वशीभूत हो जाना…अपशब्दों की बौछार कर देना…आपा खो बैठना…अमित के स्वभाव में है।

“हां…बस अभी ले आयी…! तुम फ्रेश हो लो।” मानसी की चाय करीब करीब तैयार ही थी।

“कैसा रहा दिन…??” मानसी ने अमित को चाय देते हुए पूछा।

अमित ने कोई जवाब ना देते हुए पहली ही चुस्की ली थी कि,
“अरे यार…तुम्हे इस जन्म में चाय बनाने नहीं आयेगी। महीने भर का शक्कर इसी एक कप में डाल दिया है क्या तुमने।” अमित गुस्से से मानों लाल हो चुका था।

“अमित…ये तो मेरा प्रेम है इस कप में…जो ये इतनी मीठी लग रही है…शक्कर तो बस दो चम्मच ही डाली है मैंने।” मानसी ने अमित के गुस्से पर अपने प्रेम की चादर बिछा देने की कोशिश की।

गरम चाय मानसी के हांथों पर जा गिरी…और चाय की प्याली कई टुकड़ों में जमीन पर बिखर गई।

“असल में गलती तुम्हारी नहीं है…तुम्हारे मां बाप की है। जाहिल बना कर बांध दिया मेरे मत्थे। चाय बनाना तक नहीं सिखाया। पूरे दिन ऑफिस में माथा खराब कर के घर आओ…और फिर तुमको झेलो। किस मनहूस घड़ी में तुमसे मेरा विवाह हुआ… हे भगवान…!!!” अमित का गुस्सा सातवें आसमान पर था।

मानसी स्तब्ध और भयाक्रांत चुपचाप खड़ी रही। अपने हांथों में पड़े छालों पर तो उसकी नज़र ही नहीं गई। अश्रुपूरित आंखों और जले हुए हांथों से कप के टुकड़ों को उठाती मानसी अपनी मां की यादों में खो गई…….

“बेटा…घर का काम मत सीख…!! जब शादी के बाद पति खाना मांगेगा  तो बस यही गाना बजाना परोस देना…। एक कप चाय तो बनाना सीख लो…मेरी नाक तो कटवा के ही रहोगी तुम ससुराल में…!” मां के ऐसे ताने सुनना अब मानसी की आदत सी हो गई थी। गाने का बहुत शौक था उसको।

“हां…हां…परोस दूंगी गाना ही। अब खुश….! वैसे भी मेरी शादी जहां होगी…वहां नौकरों की फौज़ होगी…माताश्री…! रानी बन के रहूंगी मैं…रानी…।” मानसी और उसकी मां के बीच ऐसे वाद विवाद होना एक आम बात थी।

“अरे फिर सुबह सुबह शुरू हो गई…मेरी प्यारी बिटिया को कोसने का कोई भी मौका मत छोड़ो।” मां बेटी के इस विवाद में मानसी के पापा बिना बुलाए ही कूद पड़े थे।
“मेरी बेटी नहीं…मेरा बेटा है ये…क्यूं बनाएगी ये खाना…इसका पति बनाएगा…और अपने प्यार भरे हांथों से खिलाएगा भी। काशी नरेश के खानदान में करूंगा अपने बेटी की शादी…मैं। मानसी की मम्मी…शास्त्रीय संगीत की संध्या में जब मेरी बेटी अपना कार्यक्रम प्रस्तुत कर रही होगी ना…तुम्हारे जैसे चाय बनाने वाले तब इससे मिलने को तरसेंगे…!!!” मानसी का भरपूर पक्ष ले लिया था उसके पापा ने।

“बिगाड़ लो…बेटी को…मेरा क्या है..!! तुम भी चले जाना ससुराल साथ निभाने…! जिसका घर चूता है ना…उसी को छवाना पड़ता हूं….।” मानसी की मां ने हथियार डाल दिए थे।

हमारे समाज की भी एक अलग ही परिपाटी है…एक अलग ही विडंबना है। यहां स्त्री को पूज्य माना जाता है…लेकिन तब जब वो सर्व गुण संपन्न हो। उसे खाना बनाना आता हो…वो भी अच्छा खाना। उसे घर के सारे काम हंसते हुए करने होते हैं। मां सबसे पहले अपनी बेटी को ही रसोई में आने को प्रेरित करती है। मां के हांथ से छूटा बेलन सबसे पहले बेटी के हांथ में ही आता है।

लेकिन बेटे के हांथों में क्यूं नहीं???

इस सवाल का जवाब व्यक्तिगत तौर पर शायद नहीं दे सकता मैं। मेरा अहंकारपूर्ण पुरुषत्व मुझे इसकी आज्ञा नहीं देता। हां…लेकिन एक लेखक के तौर पर…अवश्य कुछ कह सकता हूं।

शायद, ये व्यवस्था किसी पुरुष ने ही लिखी होगी। शायद फिर बलात अपनी इस व्यवस्था का पालन भी सुनिश्चित करवाया होगा। शायद, हर मां को मजबूर किया होगा…इस पुरुष प्रधान समाज को स्वीकार करने के लिए। शायद, यह भी कहा हो… हे मां…तेरा कर्तव्य सिर्फ पुरुष को जन्म देने के साथ ही पूर्ण हुआ…अब तुझे उसी पुरुष के बनाए नियमों पर चलना होगा। शायद, दमन कर दिया होगा…एक स्त्री के सभी उन्मुक्त विचारों को…जो उसके अंतर्मन में उत्पन्न हुए होंगे।

फिर किसी मां ने इसका विरोध क्यूं नहीं किया…?? क्यूं नहीं कहा… कि खाना बनाना एक कार्य नहीं…एक कला है… जो समान रूप से बेटे और बेटी दोनों को सीखना होगा।  क्यूं नहीं कहा कि पुरुष और स्त्री, एक ही गाड़ी के दो पहिए हैं…दोनों एक दूसरे के बिना पूर्ण नहीं।  क्यूं नहीं बताया कि…चाय की मिठास शक्कर से नहीं…दो लोगों के आत्मीय प्रेम से होती है।

अपने ही स्वप्नों में खोई मानसी को अमित ने बांह पकड़ के ऐसे जोर से झकझोर दिया…मानो आज अमित के उपर तो जैसे कोई शैतान ही सवार हो गया हो।

मानसी चौंक गई। स्वप्न लोक से बाहर आ गई थी वो।

“अरे दीदी…क्या हुआ??? कहां खो गई आप??” प्रीती, मानसी की बांह पकड़े उसे स्वप्न से जागते हुए बोली….
“ऐसा क्या सोचने लगी दीदी…दो चम्मच शक्कर ही तो है….कौन सी बड़ी बात हो गई…?? अच्छा मैं चलती हूं…कल की चाय मैं बनाऊंगी…! और बिना शक्कर की फीकी चाय पिलाऊंगी आपको….!!!” प्रीती मुस्कुराती हुई अपने घर की ओर चल दी।

जारी है……………




चाय भाग १ : परिचय….!!!

परिचय…!!!

चाय…! प्रथम दृष्टया ये शब्द सुनते ही किसी देश भक्त को  तो यही लगता होगा… कि अंग्रेजियत का ये फॉर्मूला आज हम भारतीय अपने मत्थे लिए ढो रहे हैं। लेकिन चाय का जो भारतीय स्वरूप मेरे मानस पटल पर उत्पन्न होता है…. वह थोड़ा भिन्न है। चाय एक ऐसा साधन है…जिसके माध्यम से लोग विचारों व स्वप्नों के सागर में गोते लगाते हैं। चाय एक ऐसा साथी है…जिसके साथ लोग मन ही मन अनगिनत यादों का सफर तय कर लेते हैं।

मानसी, सुबह सुबह करीब ६ बजे… चाय की प्याली लिए अपने बरामदे में बैठी किसी दिवा स्वप्न में खोई हुई थी। ये आज कोई पहली बार नहीं था। रोज़ तड़के उठ जाना…नित्य क्रियाओं के बाद यूं चाय ले कर स्वप्नों में कहीं खो जाना….उसकी दिनचर्या में शामिल था। लेकिन आज के चाय की चर्चा इसलिए की गई है यहां…क्यूं कि आज किसी ने इस बात को संज्ञान में लिया है…नोटिस किया है।

प्रीती, अभी अभी मानसी के पड़ोस में रहने आयी है। पच्चीस वर्ष की प्रीती, नगर निगम ऑफिस में एक सहायक के पद पर कार्यरत है। वैसे तो उसका रूप अत्यंत मोहक और आकर्षक है, किन्तु अनापेक्षित दुर्घटनाओं ने उसके चेहरे के तेज को मानो छीन सा लिया है। प्रीती, देश पर शहीद हो चुके एक वीर की नवविवाहित विधवा है।

“विधवा”…कैसा शब्द है ये??? अजीब…बहुत अजीब…! किसी स्त्री को शाब्दिक रूप से कमजोर प्रदर्शित करने के लिए शायद इससे बड़ा कोई शब्द नहीं हो सकता। स्त्री कितनी भी सबल क्यूं ना हो…कितनी भी मानसिक शक्ति से मजबूत क्यूं ना हो…ये शब्द समाज की निगाहों में उसे दया का पात्र बना ही देता है।

खैर, प्रीती तो एक वीरांगना है…जिसने कभी भी अपनी सुन्दरता और यौवन का सहारा लेकर अपने पति को देश सेवा की राह से विचलित नहीं किया। उसे याद है…जब वो नई नई शादी कर के आयी थी…पूरे गांव में सिर्फ उसकी सुंदरता के ही चर्चे थे। सशक्त इतनी कि…कभी भी पति के शहीद हो जाने का भय नहीं रहा उसको।

आज प्रीती ने जब मानसी को इस तरह चाय की प्याली लिए किसी स्वप्न में बिल्कुल उदास सा देखा तो….उसने खुद को मानसी की जगह पाया। कैसे वो खो जाया करती थी। कुछ तो समानता थी…उसमे और मानसी में। रोज़ वो दोनो चाय की प्याली लिए कुर्सी पर बैठती तो थी…चाय पीने…लेकिन दो चुस्कियों के बाद वो चाय कभी खत्म नहीं हो पाती थी…दोनों अपने अपने स्वप्नों में कहीं खो जाया करती थीं।

करीब एक महीने हो चुके थे… प्रीती रोज़ मानसी को भरी निगाहों से देखती रहती…लेकिन कोई प्रतिक्रिया ना मिल पाने के कारण कुछ बोल नहीं पाती। लेकिन आज प्रीती ने ठान ही लिया था कि बात तो हो के रहेगी। उसकी उत्सुकता के तूफ़ान रोज़ विशाल हिलोरों के साथ मानसी के बिल्कुल करीब जा कर लौट आते थे।

लेकिन आज प्रीती ने बोल ही दिया,
“दीदी…नमस्ते…! मेरा नाम प्रीती है। मैं यही नौकरी करती हूं…!”
“नमस्ते…!!!” मानसी से इतने अल्प प्रतियुत्त्तर की आशा नहीं थी प्रीति को।

“दीदी…आइए ना चाय पीते हैं…रोज़ रोज़ यूं ही अकेले अकेले चाय पीना भी कोई चाय पीना हुआ ???” प्रीती ने बात को थोड़ा आगे बढ़ाया।

चाय के आशिक़ कभी चाय को इनकार नहीं करते। बस लग गई दो कुर्सियां आज प्रीती के बरामदे में। और बन गई दो प्याली चाय। अब मानसी और प्रीती दोनों के बरामदे में…दो दो कुर्सियां थी। दोस्ती हो गई थी दोनों की। चाय की दोस्ती थी ये…भावनाओं की नहीं।

कहानी अभी जारी है…😊😊




प्रतिशोध भाग ४ : अवसान…!!!

अवसान….!!!

अंधेरे का रंग ज्यादा गाढ़ा और गहरा होता है। कुविचारों का प्रभाव भी सुविचारों पर जल्दी ही होने लगता है। अविनाश के मन की नकारात्मकता भी उस पर पूरी तरह हावी होती जा रही थी।

सुमन के बारे में जो स्वप्न उसने देखा था…उसका ह्रदय ना जाने क्यूं उसे सच मान बैठा था। अपने विचारों के इसी आपाधापी में, अविनाश बीच रास्ते में ही बस से उतर गया। जिस विश्वास से उसने अपने पापा को सुमन के भरोसे छोड़ा था, वो मात्र एक स्वप्न के कारण खत्म सा हो गया। बस से उतरते ही अविनाश ने सोचा क्यूं ना सुमन को फोन लगा के बात की जाए। लेकिन ये क्या…जल्दबाजी में वो अपना मोबाइल फोन बस में ही भूल गया। खुद की गलती का गुस्सा उसने अपने हांथों पर उतार दिया और ज़मीन पर जोर से अपना हांथ दे डाला।

रात के दस बजे होंगे। चन्द्र की रोशनी हर तरफ अपनी चांदनी फैलाए हुए थी। अविनाश एक सुनसान सी सड़क पर बैठा गोरखपुर जाने वाली बस का इंतजार कर रहा था। अविनाश को लगा कोई उस पर हंसे जा रहा है। कौन है ये?? अरे ये तो मेरी परछाई है।

“क्यूं अविनाश….!! बड़ा चालाक बनता था ना?? बदला लेगा तू सुमन से??? हा हा हा हा… देखा कैसे फंस गया सुमन के जाल में। तूने तो बस उसकी शादी तुड़वाई…फिर से हो जाएगी। वो इतनी सुंदर है। कौन उसका वरण नहीं करना चाहेगा। तेरे हृदय में भी तो फिर से प्रेम जागृत हो ही गया था…उसके लिए। लेकिन तू अपने पिता जी  को दुबारा कैसे पा सकेगा। स्वप्न नहीं था वो…सच्चाई थी। सुमन का स्वांग था वो। और तू कैसा एक बालक के समान फंस गया।”

अविनाश चिल्लाया, ” चुप हो जा। सुमन ऐसी नहीं है। वो कभी भी ऐसा नहीं कर सकती।”

“हा…हा…हा…हा….क्यूं नहीं कर सकती?? क्यूं कि वो एक स्त्री है?? अबला है?? तू एक पुरुष है तो कुछ भी कर सकता है। तुझसे बड़ा मूर्ख नहीं इस दुनिया में। इतना ही भरोसा था उसपर तो क्यूं उतर गया बस से। क्यूं बेचैन है वापस गोरखपुर जाने को।”

अविनाश को कुछ सूझ नहीं रहा था। ये क्या हो रहा था उसके साथ। उसी के मनोभाव उसे धिक्कार रहे थे। फिर कोई बस भी नहीं आ रही थी। मन के इन्हीं उहापोहों के बीच अविनाश सारी रात वहीं सड़क पर बैठा रह गया। तब जा कर सुबह उसे बस मिल पाई। गोरखपुर पहुंचते पहुंचते दोपहर हो चुकी थी। अविनाश सीधे हॉस्पिटल पहुंचा।

“अरे…ये बेड तो खाली है। पापा कहां गए?? सुमन भी कहीं दिखाई नहीं दे रही।” अविनाश के मन में हजारों सवाल उमड़ रहे थे।

एक नर्स से उसने पूछा, ” सिस्टर, पापा कहां है मेरे। मेरा मतलब है विद्याधर पांडेय यहां एडमिट थे कई दिनों से।”

” वो तो डिस्चार्ज हो गए कल शाम को ही। उनकी बेटी लिवा गई उनको।” नर्स ये कहते हुए निकल गई।

“बेटी…उनकी बेटी…लेकिन मेरे सिवा और कौन है उनका इस दुनिया में। हां ज़रूर ये सुमन के बारे में बोल रहे होंगे। कैसी मायावी है ये सुमन..! बेटी का दर्ज़ा भी ले लिया। छोड़ो…! शायद घर चले गए होंगे वो लोग।” एक क्षणिक तसल्ली लिए हुए अविनाश भागता हुआ घर पहुंचा। लेकिन घर पर लगा ताला देख कर तो वो भौचक ही रह गया। उसका धैर्य अब खोने लगा था।

“अरे कहां गए होंगे पापा..!! कहीं कुछ अनहोनी तो नहीं हो गई..!!” अविनाश समझ ही नहीं पा रहा था क्या हो रहा है। आसपास पूछने पर पता चला कि घर पर तो कई दिनों से ताला लगा हुआ है।

अविनाश को पूरा यकीन हो गया था, हो ना हो सुमन ने ही मुझसे बदला लेने के लिए कोई ना कोई स्वांग रचा है। मेरे विश्वास का फिर से फायदा उठाया है। अपना सर पीटते वो वहीं जमीन पर लेट गया। विवेकहीन और विचारशून्य हो गया था वो। कुछ समझ में नहीं आ रहा था क्या करे। कहां जाए??
“लेकिन सुमन तो उस दिन माफी मांगने आयी थी मुझसे। मैं क्यूं बेवजह शक किए जा रहा उसपर। मुझे लखनऊ ही जाना होगा। हो सकता है उसने मुझे फोन किया हो। मैंने फोन गुमा दिया। या फिर कोई मैसेज किया हो शायद।” अविनाश तर्क वितर्क में डूबा जा रहा था।

बिना किसी देरी के अविनाश निकल पड़ा वापस लखनऊ के लिए। एक एक मिनट एक एक दिन सा लग रहा था उसको। सुमन को लेकर ना जाने क्या क्या भाव उसके मन में आते जा रहे थे। फिर अपने पिता जी को लेकर भी अविनाश चिंतित हुआ जा रहा था। सुबह सुबह ही वो सुमन के घर पहुंच गया।
एक खामोशी सी व्याप्त थी सुमन के घर में। सुमन के पापा ने दरवाज़ा जैसे ही खोला,

“अरे अविनाश…कहां हो बेटा आप….आपका फोन…” अविनाश ने उनकी बात आधे में ही काटते हुए बोला,
“सुमन कहां है?? क्या वो यहां है??”
“हां…वो छत पर है। जाओ मिल लो।” सुमन के पिता जी की आधी बात ही शायद सुनी अविनाश ने और वो भागा छत की ओर।

“सुमन…पापा कहां हैं??” अविनाश ने पूछा।
“वो……………….!!!!!!” सुमन की आधी बात सुनते ही अविनाश भड़क उठा।
“क्या…??? क्या हुआ उनको?? हैं कहां वो?? सुमन अगर उन्हें कुछ हो गया ना, मैं तुम्हें कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।”

“अरे यार अविनाश…इतना परेशान मत हो तुम। अंकल यहीं पर हैं। बिल्कुल ठीक हैं वो।” सुमन बोल ही रही थी कि अविनाश के पिता जी वहीं छत पर आ गए। उन्हें देखते ही अविनाश उनके गले से लग गया। इस तरह रोने लगा कि उसके मुंह से कुछ आवाज़ ही नहीं निकल रही थी।

“पापा…आप ठीक तो हैं?? अचानक इस तरह आप लोग यहां कैसे आ गए।”

“बेटा जी…ये तो तुम सुमन से ही पूछो। डिस्चार्ज होने के बाद सुमन मुझे लेकर सीधे यही आ गई। मुझे अकेले छोड़ आने के लिए राज़ी हो ना हुई। बहुत कोशिश करते रहे हम लोग कि तुमसे बात हो जाए लेकिन तुम्हारा फोन लगा ही नहीं।”

अविनाश शर्म के मारे अपनी आंखे नीचे किए सुनता रहा बस।
“सुमन…!! मुझे माफ़ कर दो। मैं तुम्हारा गुनहगार हूं।” अविनाश ने सुमन के सामने सर झुका लिया था।

तभी सुमन की भाभी पीछे से आयी और बोली,
“माफी तो मिलेगी अविनाश…लेकिन सज़ा भुगतनी पड़ेगी इसकी। सुमन से शादी करनी पड़ेगी तुमको।” भाभी ने अविनाश को छेड़ते हुए अंदाज़ में कहा।

सभी के ठहाकों से सारा माहौल खुशनुमा हो गया था। सुमन भी शर्म से नीचे की ओर चली गई।

सब चले गए बस अविनाश वहीं छत पर खड़ा रहा। फिर से अपने पिता जी की बातों को याद करने लग…
” बेटा जी…ये प्यार व्यार कुछ नहीं होता। मात्र क्षणिक आकर्षण ही तो होता है। किसी को देखने, साथ कुछ दिन व्यतीत कर लेने से प्रेम कभी पूर्ण नहीं होता। तीनों युगों में प्रेम तो सिर्फ कृष्ण और राधा का था। कुछ भी पाने की भावना नहीं थी वहां…सिर्फ त्याग था, वैवाहिक बंधनों से मुक्त… निष्काम..! पूज्य है वो प्रेम!”

“अरे…अविनाश ये तू क्या करने जा रहा। क्यूं सुमन के स्वप्नों में बाधक बन रहा है। सच्चे प्रेमी तो अपने प्रिय के स्वप्नों को पूरा करते हैं। तू फिर वही जिम्मेदारियों का बोझ लादने जा रहा…सुमन पर। विवाह, परिवार, समाज, इससे ज्यादा और क्या दे पाएगा तू उसे। क्या सिर्फ विवाह ही एक रास्ता है…संबंधों को निभाने का। सुमन ने भी तो बिना किसी आत्मीय रिश्ते के निः स्वार्थ ही तेरे पापा की सेवा करती रही। मत कर ऐसा। तू नहीं समझेगा सुमन को तो कौन समझेगा। भाग जा यहां से। किसी से कुछ मत बोल। चुपचाप चला जा।” अविनाश का अंतर्मन उसे एक दूसरी ही राह पर ले जाने को आतुर था।

अविनाश ने अपने मन की सुनी। जाते जाते एक पत्र छोड़ गया वो…सुमन के लिए,
“मेरी प्यारी सुमन, मैं तुम्हारे योग्य नहीं। तुम अपने स्वप्नों को पूरी करने की कोशिश करना। सिर्फ तुम्हारा…अविनाश।”

सुमन अब अविनाश के पिता के घर ही रहती है…बेटी का धर्म निभा रही है वो अब।
नौ साल हो गए…अविनाश को गए। सुमन घर की छत पर बैठी अक्सर किसी सोच में डूब जाया करती थी,
“अविनाश…आखिर निकाल ही लिया तुमने अपना प्रतिशोध। ले ही लिया तुमने अपना बदला। मैंने तुम्हारा तिरस्कार क्या किया तो तुमने भी मुझे नहीं अपनाया। कोई बात नहीं…यह जीवन अब तुम्हारा है। शायद यही पश्चाताप है मेरा।”

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प्रतिशोध भाग ३ : पश्चाताप…!!!

पश्चाताप….!!!

इच्छित कार्य पूर्ण ना हो तो व्यक्ति कितना भी मजबूत क्यूं ना हो…एक आघात सा अवश्य लगता है। सुमन भी आजकल ऐसे ही दौर से गुज़र रही थी। सुमन के घर वाले भी शादी टूटने के लिए सुमन को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। लेकिन सुमन के मन में तो कुछ और ही चल रहा था।

“ये सब अविनाश का किया कराया है। वो चाहता ही नहीं कि मैं खुश रहूं। जब सब खत्म ही हो गया तो वो आया ही क्यूं उस दिन। जरूर उस दिन वो प्रदीप से मिला होगा । उसे सब कुछ बताया होगा। भला इतनी सी बात पर इतना बड़ा निर्णय कौन करता है। शादी ही तोड़ दी। आजकल किसके पुरुष मित्र नहीं होते या किसी पुरुष की कोई महिला मित्र नहीं होती। सब के सब दुश्मन हैं हमारे।” नकारात्मक भाव पूरी तरह सुमन के मन पर हावी थे।

“अरे ओ सुमन…!! क्यूं किसी और को दोष देती हो? सब तेरी ही गलती है। और अधिक के लालच में तूने थोड़ा भी जाने दिया। अविनाश के प्रेम का तिरस्कार किया…उसे उसके पिता के सामने जलील किया…उसका अपमान किया। अब तो अपनी गलती मान के। भगवान की लाठी में आवाज़ नहीं होती। अभी भी देर नहीं हुई है। अपना ले उसे। पलकों पर बिठा के रखेगा तुझे वो।” एक दूसरी ही सुमन, उस सुमन को धिक्कार रही थी ।

“अब मुझे वो क्यूं स्वीकार करेगा भला।” सुमन के मुख से सहसा ही ये शब्द निकल पड़ा।

“अरे दीदी…क्या हुआ??” सुमन को पता भी नहीं चला कब उसकी भाभी उसके पास आकर बैठी हुई थी।
“कौन नहीं स्वीकार करेगा आपको?? प्रदीप….??? या फिर….अवि….!!!!!!!!!”

भाभी की बात खत्म होने से पहले ही सुमन चिल्ला उठी,
” नाम ना लो भाभी उस दुष्ट का। मेरी जिंदगी बर्बाद कर के ही मानेगा वो। इससे अच्छा मैं मर क्यूं नहीं जाती।” सुमन इतना कहते कहते रो पड़ी।

“दीदी…अगर कहो तो मैं अविनाश से बात करूं क्या?? मुझे लगता है वो अभी भी तुमसे बहुत प्रेम करता है।” भाभी ने सुमन को धीरज देते हुए कहा।

“नहीं भाभी…अब कोई फायदा नहीं। अपमान का घूंट ना तो पिया जाता है और ना ही उगला। मैंने बहुत गलत किया है उसके साथ। अब वो सिर्फ बदला लेना चाहता है मुझसे।” सुमन का गला भर आया था। शायद पहली बार उसे अपनी गलती का एहसास हुआ था।

इधर अविनाश जहां एक ओर अपने प्रतिशोध की आग में जल रहा था तो वहीं दूसरी ओर उसे सुमन की शादी टूट जाने की आत्मग्लानि भी सताए जा रही थी। सुमन के घर वालों को जो आर्थिक व सामाजिक क्षति पहुंची थी इस घटना से…क्या अविनाश उसे वापस दे सकता था। अगर नहीं…तो क्या अधिकार था उसे इस तरह सुमन की शादी में बिना बुलाए चले जाने का?? इन्हीं खयालों में अविनाश डूबा हुआ था कि उसके ऑफिस के एक चपरासी ने उसे बताया कि गेस्ट रूम में कोई उससे मिलने आया है।

अविनाश जैसे ही वहां पहुंचा…विस्मित हो उठा।
“अरे भाभी आप…??? यहां कैसे??? आपको मेरा पता किसने दिया।” सुमन की भाभी का पैर छूते हुए ऐसे कई प्रश्न अविनाश ने कर डाले।

“कैसे हो अविनाश तुम?? भई नाराज़गी तो सुमन से है तुम्हारी…हम लोगों ने क्या बिगाड़ा है?? शादी वाले दिन बिना हमसे मिले ही चले गए तुम??” भाभी ने ज़रा छेड़ने वाले अंदाज़ में बोला।

“नहीं भाभी…ऐसा कुछ नहीं है। बताइए ना कैसे आना हुआ??” अविनाश विस्मय से भरा हुआ था।

“मैं अकेले नहीं आयी…सुमन भी आयी है मेरे साथ। बाहर खड़ी है वो। अपने किए पर पछतावा है उसे। माफी मांगना चाहती है अविनाश तुमसे। क्या तुम उसे माफ कर सकते हो??” भाभी ने जैसे एक आत्मीय भाव से सुमन की भावनाओं को अविनाश पर थोप ही दिया था।
तब तक सुमन भी वहां आ पहुंची। अविनाश बिल्कुल मुंह फेर कर खड़ा हो गया।

कुछ बोलने ही वाला था कि फोन की घंटी बजी।
” हैलो…बेटा अविनाश… मैं नरेश अंकल बोल रहा हूं।”
“जी अंकल जी…प्रणाम…बोलिए…??”
“बेटा…जल्दी से गोरखपुर आ जाइए। पापा जी को हार्ट अटैक हुआ है। हॉस्पिटल में हैं वो…!!”

अविनाश का हृदय जोर जोर से धड़कने लगा। पसीने से भर गया था उसका चेहरा। भाभी को समझते जरा भी देर नहीं लगी…कुछ तो गंभीर बात है।

“अविनाश…क्या हुआ??? कोई बात है क्या??”
“पापा को हार्ट अटैक आया है। मुझे जाना होगा।” इतना कहते ही अविनाश की आंखों में आसूं आ गए।
“अविनाश…मेरी कार ले जाओ। ड्राइवर छोड़ आएगा तुम्हें।” भाभी का एक भावुक आदेश था ये…तो अविनाश मना नहीं कर सका।
जैसे ही अविनाश जाने को तैयार हुआ…सुमन ने भाभी की ओर मुंह कर के मानों अविनाश से ही बोला,
” भाभी… मैं भी जाऊंगी अविनाश के साथ।”

दोनों चल पड़े थे। एक दम सन्नाटा था कार में। सुमन के हृदय में हज़ारों बातें थीं…लेकिन आज खामोशी ही विजयी थी। करीब पांच घंटे के सफ़र में, सुमन अविनाश को देखती रही और अविनाश अपने पिता जी की यादों में मन ही मन रोता रहा।

सीधे हॉस्पिटल ही पहुंचे दोनों। वहां पहुंच कर पता चला कि अभी हालत सुधार की ओर है। लेकिन अभी दस बारह दिन अस्पताल में ही रहना होगा। अविनाश ने चैन की सांस ली। सुमन ने पहुंचते ही अविनाश के पिता जी के देखभाल की सारी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर ले ली। खाना पीना दवा और अन्य सभी दैनिक कार्य के लिए सुमन सहर्ष हर क्षण तैयार रहती। अविनाश का तो कोई काम ही नहीं था वहां। सुमन, एक बेटी की तरह अविनाश के पिता जी को अपना पिता मानकर सेवा भाव से चौबीस घंटे वहीं हॉस्पिटल में पड़ी रहती।

“बेटा अविनाश…!!!” पापा ने अविनाश को पुकारा। सुमन भी तुरंत खड़ी हो उनके बेड के पास पहुंच गई।
“हां…पापा…!” अविनाश अपनी अर्धनिद्रा से जागते हुए बोला।
“बेटा…अब मैं ठीक महसूस कर रहा हूं। सुमन पिछले दस दिनों से यहीं है। बहुत खयाल रखा इसने मेरा। शायद तुम भी इतना ना कर पाते। अब इसे घर छोड़ आओ। और तुम भी जा कर अपनी नौकरी ज्वाइन कर लो। यहां तो नर्स लोग हैं ही। नरेश अंकल भी आ ही जाते हैं।”

अविनाश कुछ बोलता, इससे पहले सुमन ही बोल पड़ी,
“नहीं अंकल…आप ऐसा मत बोलिए। शायद मैं आपकी अपनी बेटी नहीं इसलिए आप ऐसा बोल रहे। मैं कहीं नहीं जाऊंगी…जब तक आप बिल्कुल ठीक होकर घर नहीं पहुंच जाते। हां…अविनाश तुम लखनऊ चले जाओ। आखिर कब तक छुट्टी लिए यहां पड़े रहोगे। मैं जब तक हूं.. तुम ज़रा भी चिंता मत करना।”

अविनाश ये सब सुनते ही अवाक रह गया।
“अरे सुमन…ये तुमने क्या कह दिया। मैं तुम्हे समझ ही नहीं पाया। कैसा स्वार्थी हूं मैं?? हमेशा बदला लेने की ही सोचता था मैं बस। लेकिन सुमन…तुम्हारे हृदय में इतना प्रेम है हमारी खातिर…मुझे एहसास ही नहीं था।” अविनाश अपने अंतर्मन में सोचता रहा।

सुमन और पापा के काफी जिद्द करने पर अविनाश लखनऊ लौटने लगा। सुमन के बारे में ही सोचता हुआ सो गया था वो…लखनऊ की बस में।

शाम का वक्त था। दवा का वक़्त हो गया था। सुमन ने देखा अविनाश के पापा गहरी नींद में सो रहे थे। सुमन एक टक उनकी ओर देखती रही। सुमन को अपनी ही परछाई बिल्कुल अविनाश के पिता जी के सम्मुख खड़ी दिखाई दी।
“वाह रे सुमन…कैसा माया जाल फैलाया तूने…! तेरे एहसान के तले ये दोनों अब दब गए हैं। बस यही मौका है। अपना बदला पूरा कर तू। कल जो ज़हर की पुड़िया ले आयी थी…दे क्यूं नहीं देती। फिर मौका नहीं मिलेगा। किसी को शक भी नहीं होगा। और होगा भी तो क्या…तेरा अविनाश से बदला तो पूरा हो जाएगा। तेरी खुशियों को बर्बाद किया है उसने। अपने पूरे परिवार की नज़रों में गिर गई तू। क्या भरोसा…तेरे इतना सब कुछ करने के बाद भी अगर उसने तुझे ना आपनाया तो। ज्यादा सोच मत। सेवा तो बस नाटक था। असल उद्देश्य तो बदला लेना था तुझे।”

ज़हर की उस पुड़िया को सुमन दवा में मिलाकर अविनाश के पापा को जगाती है।
“अंकल…उठ जाईए। दवा का समय हो गया।” सुमन के हांथ कांप रहे थे।
“क्या हुआ बेटा…तबीयत तो ठीक है तुम्हारी।” बड़ी आत्मीयता से उन्होंने सुमन से पूछा।
“हां… मैं ठीक हूं। आप दवा पीजिए।” सुमन ने दवा की ग्लास उनके मुंह से लगा दिया।

अविनाश के पापा बेड पर मूर्छित से पड़े हुए थे। सुमन उन्हें देख कर अचानक ही अट्टहास कर के हसने लगी। उसकी अट्टहास में एक गर्जना थी।
सुमन चिल्ला रही थी,
“अविनाश…देख मैंने ले लिया अपना बदला । अविनाश….अविनाश….बोलता क्यूं नहीं अब तू….!!”

तभी अचानक जैसे अविनाश अपनी निद्रा से जाग उठा।
“अरे….क्या ये स्वप्न था। हे भगवान…ये मैं क्या कर आया??” अविनाश को लगा जैसे सुमन के भरोसे अपने पापा को छोड़ कर उसने बहुत बड़ी गलती कर दी।

कहानी अभी जारी है…..🙏🙏😊




प्रतिशोध भाग २ : अपराध बोध…!!

अपराध बोध…!!!

अपमान के बादल आसानी से नहीं छटते। रोज़ यादों की ऐसी मूसलाधार बारिश करते हैं कि एक एक दिन गुजारना मुश्किल हो जाता है। अविनाश को भी लखनऊ से आए करीब चार महीने हो आए थे। पढ़ाई लिखाई भी छोड़ दी थी उसने। सुमन से अपमानित होने के बाद मानों अविनाश रोज़ बस प्रतिशोध की आग में जला जा रहा था।

जनवरी माह की कड़ाके की ठंड शुरू हो गई थी। रात के दस बजे होंगे। अविनाश अपने घर की छत पर बैठा इक टक आसमान की ओर देखे जा रहा था। अभी पिछले साल ही अविनाश की मां का देहांत हुआ था। तब से ही घर में बिल्कुल अकेला सा हो गया था वो। मां के चले जाने से जहां एक ओर अविनाश पूरी तरह टूट सा गया था… वहीं दूसरी ओर ये सुमन वाला मामला हो गया। कभी कभी उसे लगता कि इस दोमुंहे समाज में उसके जीने का क्या फायदा है। लेकिन आज तक उसके जीवित रहने का एक ही उद्देश्य था…बस सुमन से बदला।

इन्हीं सब विचारों के बीच में किसी ने पीछे से अविनाश के कंधे पर हांथ रख दिया। पापा थे ये अविनाश के।
“क्या बात है बेटा…?? क्यूं इतनी ठंड में यहां बैठे हो?? अब बहुत हो गया। छः महीने हो गए उस घटना को। कब तक उन बातों को दिल से लगाए बैठे रहोगे। पढ़ाई लिखाई से कोई नाता नहीं रहा तुम्हारा अब। चाहते क्या हो भाई??” पिता जी बोलते जा रहे थे…लेकिन अविनाश तो बस बिल्कुल खामोश…बस ना जाने क्या सोचता ही जा रहा था।

“अच्छा सुनो…एक खुशखबरी है तुम्हारे लिए। नरेश अंकल आए थे। तुम्हारे लिए एक जॉब का ऑफर लेकर। अकाउंटेंट की जॉब है। पंद्रह हजार मिलेंगे। लखनऊ में ज्वाइन करना है… मंडे को चले जाओ। जीवन चलते रहने का नाम है बेटा। आगे बढ़ो। पीछे की बातों को भूल जाओ।” इतना कह कर पापा नीचे चले गए।

वैसे तो अविनाश को जैसे लखनऊ नाम से ही नफरत हो गई थी। लेकिन इतने दिनों बाद उस शहर…!! उस शहर क्या बल्कि सुमन के शहर में जाने का एक मौका मिला था। उसे लगा यही एक मौका है…सुमन से बदला लेने का। अचानक से बिल्कुल वो जैसे कि चैतन्य हो उठा था। लाखों खयाल उसके मन में ही हिलोरें मारने लगे।

बिना किसी देरी के अविनाश ने वो नौकरी ज्वाइन कर ली। रोज़ दस से सात बजे तक अविनाश का समय अब ऑफिस के काम में जाने लगा। एक साल तक ऐसे ही चलता रहा। सुमन का खयाल भी धीरे धीरे अविनाश के मानस पटल से धूमिल सा होता चला गया। लेकिन अविनाश अब वो अविनाश नहीं था। हमेशा प्रसन्न रहना…बिना बात के भी हसने के कोई ना कोई बहाने ढूंढ़ ही लेना…उसके व्यक्तित्व में कभी शामिल हुआ करता था। अब बिल्कुल खामोश ही रहता था वो।

आज बहुत दिनों के बाद उसका मन हुआ…चलो कहीं घूम के आते हैं। रविवार भी था आज। तो अविनाश पैदल ही निकल पड़ा। शाम हो गई थी। लखनऊ के हृदय हजरतगंज चौराहे पर अविनाश ऐसे ही बैठा कहीं विचारों में खोया हुआ था। तभी अचानक से एक पहचाना हुआ चेहरा उसके सामने आ खड़ा हुआ।
“अरे अविनाश…! तुम यहां…!! कहां रहे इतने दिन??? तुमने अपना नंबर भी बदल दिया। मैंने तुम्हे ढूंढने की कितनी कोशिश की यार। अपनी बेस्ट फ्रेंड के साथ ऐसा कोई करता है क्या??” ये सुमन थी। वहीं चुलबुला पन था उसकी आवाज़ में…जिसपर कभी अविनाश अपनी जान देता था। लेकिन आज तो वो बिल्कुल खामोश था। कोई प्रतिक्रिया नहीं।

“मैं आपको नहीं जानता मैम…! आपको शायद कोई गलतफहमी हो रही है…मुझे पहचानने में।” बड़ी रूखी सी आवाज़ में अविनाश ये कहते हुए वहां से चलने लगा।

“अरे यार…अविनाश…इतनी नाराज़गी है मुझसे??? माफ़ कर दो बाबा..!!” सुमन ने अविनाश का हांथ अपने हांथों में लेकर बड़े ही आत्मीय भाव से बोला, ” चलो…कहीं चल कर कॉफी पीते हैं।”

अविनाश बिना कुछ बोले सुमन कि स्कूटी पर बैठ गया। दोनों के बीच एक खामोशी थी। सिर्फ कॉफी के चुस्कियों की ही आवाज़ आ रही थी। तभी सुमन ने बोलना शुरू किया। “अविनाश… मैं तुम्हें शुरू से अपना एक अच्छा दोस्त मानती थी। लेकिन मेरे आगे एक लाइफ है। तुमसे एक बात कहना चाहती हूं।” अविनाश बिल्कुल खामोशी से सुमन की हर बात को ध्यान से सुनता जा रहा था।
” यार…हमारी कुछ तस्वीरें हैं तुम्हारे पास..! शायद वो अब तुम्हारे किसी काम की नहीं। तुम्हे याद है ना…बहुत सारी तस्वीरें हमने बनवाई थी जो?? प्लीज़…वो मुझे वापस कर दो। मेरी शादी होने वाली है। इसी महीने की बीस तारीख में मेरी शादी है। मैं नहीं चाहती कि उनकी वजह से मेरी लाइफ में कभी कोई समस्या आए। तुम समझ रहे हो ना मुझको?? कुछ बोलते क्यूं नहीं यार???”

अविनाश का प्रतिबिंब उसके ठीक सामने खड़ा था। बोला, “देखा…ये कारण है…जो इसने तुझसे बात की। तुझे कॉफी के लिए ऑफर किया। तू इसके झांसे में मत आ। इन तस्वीरों के सहारे तू सुमन के जीवन में तूफ़ान ला सकता है। उसकी जिंदगी बर्बाद कर सकता है। बेवकूफ मत बन। उठ और निकल यहां से। बदला ही तो लेना चाहता था तू। अब तो सुमन ने ही तुझे वो रास्ता बता दिया। कैसे भूल सकता है तू वो अपमान का दिन। तेरी सच्ची मोहब्बत का क्या मूल्य लगाया था उस दिन…सुमन ने। सब भूल गया क्या??”

अविनाश ने कॉफी के पैसे टेबल पर रखे और बिना कुछ कहे ही वहां से निकल पड़ा। सुमन की मधुर आवाज़ भी आज उसे रोक नहीं पाई।

घर पहुंचते ही सबसे पहले एक एक कर के अविनाश वो सारी तस्वीरें देखने लगा। सारी यादें मानों जीवंत हो उठीं। सुमन के साथ बिताया हर एक पल मानों आंखों के सामने आ गया। वो गुलाब का फूल जो पहली बार सुमन ने दिया था। सुख गया था लेकिन सुगंध उतनी ही थी आज। वो तस्वीर, जब अविनाश ने सुमन को अपना प्रेम पुष्प अर्पित किया था…चारबाग रेलवे स्टेशन पर सारे ज़माने के सामने।  बंद कमरे में अविनाश चिल्ला चिल्ला कर रोने लगा।

“नहीं…नहीं वापस करूंगा ये तस्वीरें। जिंदगी बर्बाद कर दूंगा उसकी मैं…! देखता हूं कैसे शादी करती है वो। उसी मंडप में ये तस्वीरें उसके होने वाले पति को दूंगा। सोशल मीडिया पर डालूंगा सारी तस्वीरें अभी। फेसबुक, इंस्टाग्राम हर जगह। मेरी जिंदगी तबाह की है उसने। आज ये बस पंद्रह हजार की नौकरी…उसी की वजह से है। मेरे सारे सपने चूर हो गए…और वो अपने सपने पूरी करेगी। नहीं होगा कभी ऐसा।” अविनाश पर अविनाश का प्रतिबिंब हावी था।

तभी उसे लगा कि उसकी मां उसके सामने खड़ी थी।
“अरे मां…!! आप??”
“हां बेटा… मैं ही हूं। तुम परेशान हो तो मुझे आना ही था।”
एक दूसरा बिम्ब था वहां…अविनाश की मां का रूप धारण किए हुए।
“ये क्या करने जा रहा बेटा?? क्या यही सिखाया था मैंने?? सुमन एक स्त्री है..बिल्कुल मेरी तरह। कौन सा अपराध किया है उसने। सभी को हक है अपना बुरा भला सोचने का। वहीं तो किया उसने। अपने पिता जी के अतिरिक्त और क्या पहचान थी तुम्हारी उस वक़्त?? क्या हैसियत थी तुम्हारी?? सिर्फ प्यार से पेट तो नहीं भरता। जिंदगी के तमाम भौतिक सुखों के लिए पैसे चाहिए। वो थे क्या?? फिर तुम्हारा तिरस्कार कर के सुमन ने कोई गलती तो नहीं की। अपनी जिंदगी तो तुमने खुद ही खराब की है। पढ़ाई खुद छोड़ी…उसकी याद में खुद पड़े रहे…उसने तो नहीं कहा था…अब दोष उसे देते हो…!!”

अविनाश का आवेश थोड़ा शांत हो गया था। इस दिशा में तो उसने कभी सोचा ही नहीं।

लेकिन पुनः अविनाश के प्रतिबिंब ने अपनी उपस्थिति दी।
“अरे तो क्या हुआ?? सिर्फ पैसे रुपयों से ही प्रेम लक्षित होता है क्या?? जीवन में सच्चे प्रेम का क्या कोई मूल्य नहीं। जीवन के तमाम ऐशो आराम…लेकिन प्रेम से कोई उसे परोसने वाला ना हो…ऐसी धन संपत्ति किस काम की?? उसे आज भी अपने किए पर कोई पछतावा नहीं। क्या भरोसा कि उसका होने वाला पति उसकी कोई जरूरत ना पूरी कर पाए तो वो उसे भी छोड़ दे।” प्रतिशोध से भरा अविनाश आज किसी की भी सुनने को तैयार नहीं था।

शहनाइयों की मधुर ध्वनि की आवाज़ सुनाई दे रही थी। चमकती रोशनी सारे आसमान को विभिन्न रंगों से दैदीप्यमान कर रही थी। सुमन का वैवाहिक समारोह पूरे उफान पर था। अविनाश अपने हांथों में एक लिफाफा लिए हुए सुमन के ठीक सामने जा खड़ा हुआ।

सुमन का अंतर्मन बिल्कुल डर गया।
“कहीं ये वही तस्वीरें तो नहीं। हे भगवान…ये अविनाश तो मुझे बर्बाद कर के ही मानेगा। कहीं ये बात प्रदीप (सुमन का होने वाला पति) को पता चली तो मैं क्या कहूंगी भला। हां…एक काम करती हूं…प्रदीप को मैं खुद ही सब बता देती हूं।” और सुमन जोर से भागी प्रदीप के कमरे की ओर। सुमन इतनी डरी हुई थी कि उसने हर एक बात बिना कुछ सोचे समझे प्रदीप से बता दी। प्रदीप मानों क्रोध से तिलमिला उठा था। वैवाहिक कार्यक्रम वहीं रुक गया। अविनाश को जैसे ही महसूस हुआ…उसने निमंत्रण से भरा वह लिफाफा सुमन के पिता जी को देकर वहां से निकल पड़ा।

अंतर्मन का युद्ध भी अजीब होता है। अविनाश सोचने लगा, “क्या मिला उसे ये सब कर के?? लेकिन मैंने क्या किया। ये तो सुमन का अपराधबोध था…जिसने उसकी खुशियों के साथ खिलवाड़ किया। ये तो भगवान की सज़ा थी। फिर मेरे प्रतिशोध का क्या?? मेरे बदले का क्या??”
अविनाश जैसे जैसे सोचता…उसकी प्रतिशोध की भावना और प्रबल होती जाती।
“नहीं…अभी मेरा बदला पूरा नहीं हुआ।”
अविनाश क्रोध के वशीभूत…चलता ही चला जा रहा था…अपने घर की ओर…!!!

कहानी अभी जारी है…🙏🙏




प्रतिशोध भाग १ : प्रणय निवेदन…!!

प्रणय निवेदन….!!!

शाम का समय। सूर्य क्षितिज पर उतरने को था। सुमन अपने छत के एक कोने में खड़ी मुस्कुराए जा रही थी। रोज़ सूर्य की लाली के सामने खड़े होकर मुस्कुराना अब सुमन की आदत में शुमार था। वैसे तो सुमन मोहल्ले के तमाम नौजवानों के मुस्कुराहट का एक जरिया थी, लेकिन आज कल सुमन की मुस्कुराहट का कारण था…उसके सामने की छत पर खड़ा एक छः फुटा नौजवान अविनाश। अविनाश अभी अभी एमबीए की पढ़ाई करने लखनऊ पहुंचा था। कुछ एक माह से अविनाश और सुमन के मनोभाव, रोज़ एक दूसरे को खामोश आंखों से पढ़ने व समझने की कोशिश कर रहे थे।

करीब उन्नीस वर्ष की सुमन, अपने कौमार्य की आभा, सूर्य की सुनहरी लालिमा की तरह अनायास ही अपने चारो तरफ बिखेर देती थी। उसके चेहरे का तेज़, मानों पूर्ण चन्द्र के समान अद्भुत व प्रकाश वान सा प्रतीत होता था। अपने नाम के ही अनुरूप, पुष्प के समान आकर्षक सुमन, अपने हृदय पटल पर अविनाश का नाम अंकित कर चुकी थी। अब सुमन को तलाश थी तो बस एक मौके की… कि कैसे वो अपने मन के भावों से अविनाश को परिचित करा सके। अपना प्रणय निवेदन अविनाश को समर्पित कर सके।
वैसे तो अब तक अविनाश भी सुमन के खामोश प्रेम से पूर्णतया वाक़िफ हो गया था, परंतु दोनों के ही हृदय में बैठा एक अनजान सा डर, प्रणय भाव व्यक्त कर पाने में एक दीवार की भूमिका निभा रहा था।

बड़े मंगल का भंडारा लगा हुआ था। अविनाश प्रसाद लेने लाइन में लगा ही हुआ था। तभी उसे महसूस हुआ कि कोई उसे पीछे से देख रहा है। वो सुमन ही थी। मुस्कुराती सुमन की आंखों ने अविनाश से बिन कुछ कहे ही केह दिया था कि  आज मुझे तुम्हारा थोड़ा सा वक़्त चाहिए। दोनों निकल पड़े थे आलमबाग से चिनहट वाली सिटी बस में सवार हो कर अपने मनोभावों को व्यक्त करते हुए।

“क्या इतना ही आसान था दोनों का इश्क़, जो आज इतनी आसानी से व्यक्त हो गया। क्यूं मैंने पिछले ढाई माह से अपने भावनाओं को व्यक्त नहीं किया। अविनाश  ने भी तो कुछ नहीं कहा। वो तो लड़का है…आगे आ के बोल सकता था। लेकिन नहीं… मैं लड़की हो के बोलूं…वो सही है।” घर लौटते वक्त कुछ ऐसे ही सवाल सुमन के मन में चल रहे थे। लेकिन सुमन और अविनाश दोनों की ही खुशी का ठिकाना नहीं था आज। अब दोनों एक दूसरे से रोज मिलते थे, बातें करते थे, घंटों साथ रहना, घूमना फिरना अब उनकी दिनचर्या में शामिल था। करीब सात आठ महीनों के साथ में ही , सुमन ने अविनाश से असंख्य वादे कर डाले थे। अविनाश भी अब सुमन की बातों का आंख बंद कर विश्वास करता था।

“हैलो…सुमन…!” अविनाश ने फोन किया।
“हां…बोलिए जनाब…!!” सुमन ने एक कृत्रिम हंसी के साथ जवाब दिया।
“यार एक सरप्राइज है… मैं तुम्हारे घर के बाहर खड़ा हूं…! गेट तो खोलो..!”
“अरे…मजाक मत करो अविनाश। मैं नहीं आ सकती। घर पर पापा, मम्मी, भैया भाभी सभी हैं। तुम जाओ।” सुमन ने आश्चर्यचकित भाव से बोला।
“अरे यार… मैं भी क्या तुमसे मिलने आया हूं क्या…मेरे पापा आएं हैं मेरे साथ…आज तुम्हारे घर वालों से मिलने। आओ दरवाजा खोलो।” अविनाश ने अधिकार भरे लहजे में जैसे सुमन को एक आदेश सा दिया।

एक मध्यमवर्गीय परिवार से आता था अविनाश। अविनाश के पापा रेलवे में एक क्लर्क थे। बड़ी मुश्किल से आज उसने अपने पापा को सुमन से शादी करने के लिए तैयार कर पाया था और अचानक ही ले आया था उन्हें सीधे सुमन के घर…सुमन का हांथ मांगने। अविनाश के पिता थोड़ा संकोच में थे। और हों भी क्यूं नहीं…एक बनी बनाई सामाजिक रीति के विरूद्ध ही तो आज आए थे वहां वो। हमारे समाज में तो लड़की वाले जाते हैं..लड़कों के यहां..शादी की बात करने। लेकिन अविनाश और उसके पिता दोनों ही ऐसी रूढ़िवादी विचारधारा से बैर रखते थे। सुमन के घर के सभी सदस्य बैठे थे वहां…बस नहीं थी तो सुमन। अविनाश की आंखे हर क्षण उसे ही ढूंढ़ रही थी। सुमन के घर के सभी सदस्यों को अविनाश ने प्रभावित कर लिया था।

तभी अचानक सुमन वहां आयी और बिल्कुल खामोशी से अपनी भाभी के बगल में बैठ गई। जैसे उसने अविनाश को देखा ही नहीं और ना ही अविनाश के पापा को।

“अरे सुमन…पैर छू कर आशीर्वाद तो लो..! देखा नहीं तुमने अंकल आए हैं। तुमने कभी बताया नहीं कि तुम और अविनाश एक दूसरे को पसंद करते हो। भई…हम सबको तो अविनाश बहुत पसंद है।” सुमन के पिता जी बोले जा रहे थे। लेकिन सुमन के चेहरे पर जैसे खुशी के कोई भाव ही नहीं थे। अविनाश और अविनाश के पापा दोनों ही सुमन के इस व्यवहार से आश्चर्य में थे।

“पापा… अगर आप लोगों का पारिवारिक मिलन हो चुका हो तो… मैं अविनाश से अकेले में कुछ बात करना चाहती हूं।” मन के ज्वार मानों सुमन के मुख से बाहर आए थे। एक अजीब सा सन्नाटा छा गया घर के उस हाल में। सुमन खड़ी हुई और अविनाश को इशारा किया…उठ कर आने के लिए।

शाम का समय था। संयोग कुछ यूं कि…जहां खड़ी होकर सुमन रोज़ अविनाश को दूर से निहारा करती थी…आज उसी छत पर दोनों एक साथ थे। लेकिन अविनाश को आज सुमन खुद से बहुत दूर खड़ी नज़र आ रही थी।
“देखो अविनाश… मैं तुमसे शादी नहीं कर सकती। प्यार व्यार तक तो ठीक है…लेकिन मेरी लाइफ के भी कुछ मायने हैं। कुछ सपने हैं मेरे।” अविनाश स्तब्ध आंखों से बिल्कुल मूक…बस सुने जा रहा था।
“मुझे ऐसी मीडियम क्लास लाइफ नहीं जीनी। शादी करो…बच्चे करो..हो गया जीवन समाप्त। तुम्हे यहां आने से पहले एक बार मुझसे पूछना चाहिए था। बस मुंह उठा के चले आए।” सुमन की आंखों में आसूं थे।

“फिर वो सब साथ रहने के वादे…क्या सब झूठ थे???” अविनाश के दुखी मन से अनायास ही ये शब्द निकल पड़े।

“यार…प्यार तो हम जानवरों से भी करते हैं…तो क्या शादी कर लें?? मैं एक हाई स्टैंडर्ड लाइफ जीना चाहती हूं। पैसे रुपए गाड़ी बंगले। वर्ल्ड टूर करना है मुझे। मेरी शादी उससे होगी जो ये सब सपने पूरे कर पाए। है ये सब तुम्हारे बस का??? बोलो??? बस एम बी ए कर लिए… दस बीस पच्चीस हजार की नौकरी पा लिए और आ गए शादी करने। तुमसे प्यार करना सिर्फ एक जरिया था… कि मैं अपने अधूरेपन को दूर कर सकूं…बातें कर सकूं…अपना समय गुजार सकूं। लेकिन तुम लड़कों को समझ ही नहीं आता। चले आए घर पर…मुझे अपने परिवार वालों की नजरों में गिराने..!” सुमन बोलती ही जा रही थी। अविनाश को यकीन ही नहीं हो रहा था कि ये वही सुमन है। दोनों  एक दूसरे की ओर देखते बस खामोश से खड़े थे।

तभी अविनाश ने अपनी चुप्पी तोड़ी।
” सुमन…तुम परेशान मत हो…! किसी की नजरों से नहीं गिरोगी तुम। जा रहा हूं मैं।” अविनाश अपने क्रोध का घूंट पिए नीचे की ओर आया। सभी के पैर छुवे और अपने पिता जी को साथ लेकर चलते हुए बस इतना ही बोल पाया,
“अंकल…मेरी गलती है…आप लोग सुमन को गलत मत समझना। मैं उसके योग्य नहीं। क्षमा कर दीजिए हमको।”

अविनाश निःशब्द था। अपने पिता जी की बातों को याद कर रहा था शायद…” बेटा जी…ये प्यार व्यार कुछ नहीं होता। मात्र क्षणिक आकर्षण ही तो होता है। किसी को देखने, साथ कुछ दिन व्यतीत कर लेने से प्रेम कभी पूर्ण नहीं होता। तीनों युगों में प्रेम तो सिर्फ कृष्ण और राधा था। कुछ भी पाने की भावना नहीं थी वहां…सिर्फ त्याग था, वैवाहिक बंधनों से मुक्त… निष्काम..! पूज्य है वो प्रेम!”

दूसरे ही क्षण अविनाश के अंतर्मन ने उसे धिक्कारा।
“यही प्रेम किया तुमने। ऐसी ही विश्वास की डोर थी तुम दोनों के बीच। छिः…!!! कैसा अपमान किया तुम्हारा। प्रेम का कोई मूल्य नहीं है…इस सुमन को…तुम्हारी सुमन को। जानवरों से तुलना कर दी तुम्हारी। तुम्हारे पिता जी का कैसा अपमान किया। और तूने क्या किया। अविनाश, सुमन के योग्य नहीं। उसकी कोई गलती नहीं। धिक्कार है तुझे अविनाश। अपना ना सही अपने पिता जी के अपमान का बदला लेना होगा तुझको। अपनी भावनाओं के साथ खेलने वाले को ऐसे ही छोड़ दोगे क्या?? क्या सोच रहे हो??बोलते क्यूं नहीं??” उसका अंतर्मन मानों खेल रहा था अविनाश के मन से।

“हां… वो ऐसा नहीं कर सकती…!!! मैं अपने अपमान का बदला लूंगा सुमन से..!!” अविनाश ने खुद से एक प्रतिज्ञा ले ली थी। और चल पड़ा था अपने घर की ओर…गोरखपुर की बस में….!!!!

कहानी अभी जारी है….पढ़े भाग -२ में….जल्द ही आएगा।
🙏