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नशा

#नशा
ये -धुआँ भी चीज अजीब है
नशा इसका बेमिसाल है,
जकड़ता है लोगों को गिरफ्त में
धीरे -धीरे,
ये -धुआँ भी चीज अजीब है |
भूल जाते हैं लोग अपनों को
और  दुनिया  जहान  को ,
जब…,
डूबते हैं वो इसके आगोश में,
ये -धुआँ भी चीज अजीब है |
जलती भी है और जलाती है,
गलती  भी है और  गलाती है,
उड़ती  भी है और  उड़ाती है,
उनको  अपनी  ही  तरह
धीरे -धीरे,
ये -धुआँ भी चीज अजीब है |
करती है ये उनको खोखला
राख के मानिंद
फिर,
मिट्टी में मिलाती है संग अपने,
धीरे -धीरे,
सदा के लिए,
क्योंकि…,
ये -धुआँ भी चीज अजीब है ||
 
शशि कांत श्रीवास्तव
डेराबस्सी मोहाली, पंजाब
©स्वरचित मौलिक रचना



“महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता” हेतु कविता।

बेटियाँ

घर मेरे मौसम की, बहार आयी,

घर मेरे  शबनम की, फुहार आयी,

दे दिया तोहफ़ा, मुझे कुदरत ने,

बागीचे में मेरे, एक कचनार आयी।

 

ओस सी नाज़ुक, मासूम तितलियों सी,

कमल से नयन, चमक बिजलियों सी,

मुस्कुराहट तो ऐसी कि गम भूल जाऊँ,

सभी को हँसाने, एक गुलनार आयी।

 

ज़माने से लड़ना, है सिखाना तुम्हें,

आगे और आगे, है बढ़ाना तुम्हें,

पढ़ेगी, बढ़ेगी, होगा मुकाम हासिल,

मेरा सपना वो करने साकार आई।

 

बेटियाँ अमानत, हैं किसी और की,

सोच को ऐसी, बदलना ही होगा,

सम्भलेगी अभी, सम्भालेगी तभी,

दो-दो कुलों का, बढ़ाने मान आई।

नवल किशोर गुप्त

वाराणसी

मो. 7752800641




“प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता” हेतु कविता।

एहसास

मन भावों को कैसे उकेरूं,

शब्द नहीं हैं पास मेरे,

कैसे गढ़ू मैं चित्र घनेरे,

रंग नहीं हैं पास मेरे।

 

एहसासों के बादल बरसें,

चढ़े रंग तेरे प्यार का,

भीनी-भीनी खुशबू फैले,

मौसम हो यह बहार का।

स्नेह-शिला पर प्रकृति बैठी,

करती हो श्रृंगार रे,

आलिंगन में भरके मुझको,

देती चुम्बन-हार रे।

 

यादों की इस बेला में,

शाम सुहानी लगती है,

मध्धम सी दीपक की लौ,

अनकही कहानी कहती है।

जीवन की आपा-धापी में,

कब हो जाये प्यार रे,

मिलने की मैं आश करूँ,

अवलम्ब नहीं है पास रे।

नवल किशोर गुप्त

वाराणसी

मो 7752800641

 




तुम लौट आओ

 
शीर्षक -” तुम लौट आओ”
          
 
               
              वो सुर्ख़ ग़ुलाब
     जो थामा था तुमने हाथ में
           संग-संग चलने का
   किया वायदा था चाँदनी रात में
             वो कसमें , वो वायदे
         मुझको सब कुछ याद हैं………..!
       
      तुम लौट आओ………..
 
            तुम्हारी सब निशानिया
    नजरें चुराना, छुईमुई सा शर्माना
            आग़ोश की सरगर्मियां
             झील के उस छोर की
      वो मुलाकातें, वो कहानियाँ 
         मुझको सब कुछ याद हैं !
                              
    तुम लौट आओ………..
                            
                       वो शाम-ए-सहर
                 वो सावन की बरसातें
                  वो उल्फ़त,वो चाहत
                   दिल में  सुगबुगाहट
   भीगे-भीगे पल,बहकी-बहकी बातें !
             याद हैं सब मुझको 
                
                   बासंती, मदमस्त पवन
              खिलखिलाते पंखुड़ियों से
            लब पुलकित,मदहोश नयन
     बिखरी झुलफें झूमें ज्यों घटा सावन
               हां सब मुझको याद है………!
 
             तुम लौट आओ……….
 
                                  
     तेरी पायलों की खनक
       भवरों की गुनगुन
    अपलक निहारना
      मुझे मन ही मन
     नहीं भुला हूँ अब तक
   उन हँसी लम्हों की छुअन !
         
               वही आसमाँ, वही जमीं
       महफ़िल है जवाँ, और हंसीं-हसी
               सुर्ख़ गुलाबों में भी नमी
        क़ायनात गवाह है,साँसें हैं थमी !
     
तुम लौट आओ 
तुम लौट आओ कि
ग़ुलाब फिर से खिल गये हैं……….!
    
    ©कुलदीप दहिया ” मरजाणा दीप “
    हिसार ( हरियाणा )
    संपर्क सूत्र -9050956788
 



ए ज़िंदगी तू ही बता मुझको…

 

 
ए ज़िंदगी तू ही बता मुझको
और कितने इम्तिहान बाक़ी हैं,
                 **
      तेरे मयख़ाने में, मैं ही अकेला हूँ
               या और भी कई साक़ी हैं,
                             **
     कुछ इस क़द्र पिला ज़ाम तू ग़मों के
महफ़िल में सब कहें कि ये तो शराबी है,
                       **
                  हर बार ही मुझे क्यों मिलते हैं दिलासे
           बता तो सही मुझमें ऐसी भी क्या खराबी है,
                                      **
           मेरे सब्र के समंदर अब सूख चले हैं
रही ना कोई अब मेरे दिल मे प्यास बाकि है,
                           **
         अकेला नहीं हूँ मैं संग कारवाँ भी होगा
मुश्किल है डगर मग़र अभी तो जान काफी है,
                              **
        सूदूर तक मुझे यूँ तो नहीं लगती उम्मीद कोई
ख़ैर कोई बात नहीं,इस सफ़र में और भी कई साथी हैं,
                                 **
जिन्हें वहम था डूबने के वो संग छोड़ गए कब के
  अरे भोर की चाह में हमने तो कई रातें ताकी हैं,
                                   **
      मुद्दतों बाद ख़ैर कोई ऐसा तो मिला
दिये ज़ख्म पे ज़ख्म जिसने बेहिसाबी हैं,
                           **
               अच्छा सिला दिया हमें भी बड़ा गुमाँ था
     मेरी हस्ती को मिटाने में ना छोड़ी कसर बाकी है,
                               **
क्या हुआ जो तूने संग छोड़ दिया “दीप” का
हौंसलें तो अब भी मेरे यूँ ही आफ़ताबी हैं !!

प्रेषक :-  कुलदीप दहिया “मरजाणा दीप”
              हिसार (हरियाणा) भारत
              संपर्क सूत्र-905095678

 

 



फूल-फूल पर !

     फूल-फूल पर !

फूल-फूल पर लिखी है बात,
मनभावन सूरत उसके पास ।
आया सावन बरसे बदरा,
ओड़ कर आई काली चदरा ।।
उड़ी फुहार भीगी कलियां,
उड़ी सुगन्ध महके अंगना ।
भौंरों का भी शोर है आया ,
मंद-मंद को कोपल हर्षया ।।
आज मौसम ये कैसा आया,
झरने ने भी शोर मचया ।
कलकल मंद गति से,
सरिता ने संगीत सुनाया ।।
नर्तन जलजीवन का देखो,
जड़वत् जीवन कर देता है ।
घराना रहे आनंदित सबका,
ये संदेश  सबको दे जाता है।।




अपना कौन?

अपना कौन ?
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आज ही 10 बजे से बी.एड का पेपर है और साथ में नन्हे-नन्हे दो बच्चे और बुआ जी ने घर छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया कि “अभी घर छोड़कर जाओ ,चाहे जहाँ जाओ ।”
बुआ जी शमिता के पति की सगी बुआ थीं । शमिता उनके पास बी.एड करने के लिए आई हुई थी और उन्होंने उसे एक कमरा दे दिया था ।शमिता के दो छोटे बच्चे भी थे एक
तीन साल के करीब का और दूसरा लगभग छः माह का । दोनों बच्चों को संभालना ,अपनी बी.एड की पढ़़ाई करना और साथ में ही बुआ जी की भी तीमारदारी करना । बुआ जी पुराने सोच वाली संकीर्ण सोच वाली महिला थीं । उनके निगाह में पढ़ाई से ज्यादा अहमियत थी उनकी तीमारदारी । बस तीमारदारी में कमी देखी और आगबबूला हो उठीं ।
“बुआ जी आज ही मेरा पेपर है ,पेपर देने के बाद मैं खुद चली जाऊँगी,मुझे तो जाना ही है ।”
शमिता ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा ।
“नहीं जो कह दिया सो कह दिया अभी मेरे घर से निकल जा । चाहे जहाँ जा मुझे कोई मतलव नहीं ।बड़ी आई कलेक्टर बनने वाली ।”
बुआ जी रौद्ररूप धारण कर चुकी थीं ।
“अगर नहीं निकली तो समान उठाकर फेंक दूँगी ।”और फिर उन्होने शमिता का सारा सामान घर के बाहर करवा दिया ।
शमिता रोते हुए दोनों बच्चों को लेकर घर से बाहर खड़ी थी ,उसे कुछ समझ नहीँ आ रहा था कि क्या करे ,क्या ना करे ? अचानक उसे लगा की अभी तो पास के मन्दिर में जाकर ठहर जाये फिर सोचती है कि क्या करना है ?
उसने रिक्शा किया और उसमें अपना सामान रखकर मन्दिर पहुँच गयी । वहाँ उसने पुजारी जी से एक दिन ठहरने की अनुमति माँगी । पुजारी जी ने जब सारी बात सुनी तो तुरन्त बच्चों के खाने पीने की व्यवस्था की और शमिता से बोले , “बेटा पहले अपनी परीक्षा दे आओ फिर बात होगी । बच्चों की चिंता मत करो उन्हें मैं संभाल लूँगा ।”
शमिता एक गैर के हाथों में अपने दोनों बच्चों को सौंपकर परीक्षा देने चली गयी । वहाँ वह लगभग आधे घंटे लेट हो गयी थी किन्तु परीक्षा देने की अनुमति मिल ही गयी ।
“आप इतना लेट कैसे ?”शिक्षिका ने पूछा।
“कुछ नहीं मैम अभी मुझे पेपर देने दीजिए बाद में बताऊँगी ।”शमिता की आवाज़ भर्राई हुई थी। शिक्षिका ने भी आगे कुछ नहीं पूछा पर वे समझ गयीं थीं कि मामला गंभीर है।
किसी तरह परीक्षा देने के बाद वह सीधे मन्दिर आयी । वहाँ पुजारी जी ने बच्चों को दूध पिलाकर सुला दिया था तथा शमिता के लिए भी भोजन बनवाकर रखा था ।
” बेटा पहले कुछ खा लो फिर कुछ बात होगी।”पुजारी जी बोले ।
        शमिता चुपचाप खाना खा रही थी और आँखों से आँसू बहने को बेताब हो रहे थे । आखिर अपना कौन है ?

डॉ.सरला सिंह “स्निग्धा”
दिल्ली




103 साल के युवा : हमारे गोखले बुवा

103 साल के युवा : हमारे गोखले बुवा

               महाराष्ट्र की सांस्कृतिक राजधानी एवं ऐतिहासिक शहर पुणे के भी हर पुराने शहर की तरह दो चेहरे हैं, एक पुराना और दूसरा नया । पुराना पुणे विभिन्न मोहल्लों में विभाजित हैं, जिन्हें मराठी में पेठ कहा जाता है, जैसे हम मोहल्ले को हिंदी में गंज, पारा, पाड़ा, पुरा, टोला, नगर या बाद कहते हैं। पुराने पुणे के इन विभिन्न मोहल्लों में इतनी महान हस्तियां रहा करती थी कि आज यदि उनके बारे में बताया जाए तो यह सब कुछ किसी दंतकथा की तरह लगेगा। ऐसी ही एक हस्ती पुणे की पेरूगेट पुलिस चौकी के पास 60 वर्ष के लंबे समय तक समाचार पत्र बेचती रही हैं। परंपरागत सफेद कमीज, हाफ पैंट, कसा हुआ शरीर, जो कृशकाय दिखाई देता था और मुखारबिंद पर हमेशा कुछ इस प्रकार के भाव रहा करते थे कि आपने कुछ कहा और उन्होंने आप पर व्यंग्यबाण चलाकर आपको अपमानित किया । वैसे भी कटाक्ष एवं ताने प्रत्येक पुणेकर की जुबान पर रहते ही हैं। पुणे के बाशिंदों को पुणेकर कहा जाता है, जैसे भोपाल के भोपाली एवं लखनऊ के लखनवी।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी इस हस्ती की खासियत जानकर हम दांतों तले तले उंगली दबाने पर विवश हो जाते हैं। इस महान हस्ती का नाम हैं महादेव काशीनाथ गोखले । उनका जन्म 1907 में हुआ था। गोखले बुवा पुणे के सदाशिव पेठ इलाके में रहा करते थे। मराठी में बाबा को बुवा कहा जाता है। वे अधिक पढ़े लिखे तो नहीं थे केवल चौथी पास थे। उदर निर्वाह हेतु बुक बाइंडिंग एवं समाचार पत्र बेचने का काम करते थे। पुणे के भरत नाट्य मंदिर के पास अपनी छोटी सी दुकान पर सन 2010 तक नियमित तौर पर बैठा करते थे। तिलक से लेकर मनमोहन सिंह तक के युग को नज़दीक से देखने वाली यह शख्सियत बाबूराव के नाम से लोकप्रिय थी । लीक से हटकर कुछ अलग कर दिखाने का उनका शौक जुनून की हद तक पहुंच चुका था। बाबूराव के दिन की शुरुआत सुबह 3:30 बजे हुआ करती थी। पेरूगेट के पास स्थित अपने निवास से वे दौड़ लगाना शुरु करते थे तो कात्रज होते हुए सीधे खेड़ शिवापुर पहुंच जाते थे , वहां से सीधे सिंहगड़, सिंहगड़ से खड़कवासला होते हुए पुणे के पेरूगेट में अपनी दुकान पर लगभग 75 किलोमीटर की दौड़ लगाने के बाद सुबह ठीक 9:00 बजे हाजिर हो जाया करते थे । उनकी यह दिनचर्या 21 साल की उम्र से प्रारंभ होकर 90 वर्ष तक अबाधित रूप से चलती रही। दिन में कभी घूमने निकलते थे तो पैदल ही 70 किलोमीटर दूर स्थित लोनावला हो आते थे। शीर्षासन की मुद्रा में दोनों हाथों के बल पर पर्वती (पुणे की एक प्रसिद्ध पहाड़ी) की 103  सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाते थे । अपनी पत्नी को पीठ पर लादकर पर्वती पर चढ़ने का कीर्तिमान उन्होंने 43 बार बनाया था ।

मन में यह ख्याल आना स्वाभाविक है कि इतनी कठोर मेहनत करने वाले व्यक्ति की खुराक क्या होगी ? शर्त लग जाए तो 90 साल की उम्र में एक ही बार में 90 जलेबियां बड़े आराम से उदरस्थ कर जाते थे । सातारा में उनके एक मित्र थे- तुलसीराम मोदी, जो उन्हें प्रतिदिन सुबह नाश्ते के लिए सातारा के सुप्रसिद्ध कंदी पेड़े भिजवाया करते थे , तो पुणे के सुप्रसिद्ध काका हलवाई की दुकान से रोज 1 किलो पेड़े उनके घर पहुंच जाया करते थे।

 उनकी विलक्षण प्रतिभा, शक्ति एवं ख्याति का लाभ समय-समय पर अनेक लोगों ने उठाया है । स्वतंत्रता पूर्व क्रॉसकंट्री मैराथन प्रतियोगिताओं में उन्होंने 257 मेडल जीते थे। उनकी ख्याति पूरी दुनिया में फैल चुकी थी, जिसके कारण चार अंग्रेज अधिकारी ओलंपिक में भाग लेने के लिए उनके पास दौड़ का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए आते थे। बाबूराव फुर्सत के क्षणों में अंग्रेज अधिकारियों को मराठी एवं हिंदी भी सिखाया करते थे। कालांतर में उन्हें साठे बिस्कुट कंपनी में नौकरी मिल गई। कंपनी का मुख्यालय तत्कालीन भारत के कराची में था। बाबूराव वर्षा ऋतु के 4 महीनों में पुणे में रहते थे तो शेष 8 महीने कराची में। कराची में भी उन पर लीक से हटकर कुछ अलग करने की धुन सवार थी। वे पुणे से कराची एवं कराची से पुणे साइकिल से जाते थे। एक बार तो साइकिल से मानसरोवर की यात्रा भी कर आए।

 जब वे पुणे में थे तो उन्हें बाल गंधर्व के गीत संगीत का चस्का लग गया था। बाबूराव एक उत्कृष्ट तबला वादक थे। बालगंधर्व के गीत संगीत का आनंद उठाने के लिए वे बाल गंधर्व के कार्यक्रमों में डोरकीपर की नौकरी किया करते थे, जिसके कारण बाल गंधर्व के समस्त गीत शब्दों एवं धुनों सहित उन्हें याद हो चुके थे। जब वे कराची में थे तो उस समय की ख्याति प्राप्त दिग्गज गायिकाएं नरगिस की मां जद्दनबाई और बेगम आरा उनसे गंधर्व शैली की खयाल गायकी सीखने आया करती थी ।

जब बाबूराव की कीर्ति बड़ौदा नरेश सयाजीराव गायकवाड़ तक पहुंची तो उन्होंने बाबूराव को मुद्रण कार्य का प्रशिक्षण देने के लिए अपनी रियासत के मुद्रणालय में नौकरी पर रख लिया। बाबूराव प्रिंटिंग की दुनिया में एक जाना पहचाना नाम था। अंग्रेजों से उन्होंने प्रिंटिंग की सारी तकनीकी बारीकियां सीख ली थी। हालांकि बड़ौदा नरेश ने उन्हें प्रिंटिंग अनुदेशक का काम सौंपा था लेकिन इसके पीछे मूल उद्देश्य बाबूराव को विश्व स्तर का अजेय धावक बनाना था । सन 1936 में जब जर्मनी के बर्लिन शहर में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ तो बड़ौदा नरेश को हिटलर ने विशेष निमंत्रण भेजा था। बड़ौदा नरेश बाबूराव  को भी अपने साथ जर्मनी ले गए। मैराथन प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए जब बाबूराव मैदान पर उतरे तो बड़ौदा नरेश ने उनका परिचय हिटलर से करा दिया। प्रतिदिन 70 किलोमीटर नंगे पांव दौड़ने वाले बाबूराव से मिलकर हिटलर इतना अधिक प्रभावित हुआ उसने बाबूराव को अपना खास मेहमान बनाकर कुछ दिनों के लिए जर्मनी में ही रख लिया। जर्मनी प्रवास के दौरान बाबूराव की हिटलर से अच्छी दोस्ती हो चुकी थी । बड़ौदा नरेश के साथ जब वे पर्यटन हेतु लंदन गए तो उनके स्वागत के लिए बंदरगाह पर लंदन के गवर्नर स्वयं उपस्थित हुए थे। यह देखकर बड़ौदा नरेश आश्चर्यचकित हो गए । इस पर बाबूराव ने उन्हें बताया कि इन गवर्नर महोदय को वह पुणे में मैराथन दौड़ में सफलता के मंत्र दिया करते थे तथा मराठी एवं हिंदी पढ़ाया करते थे और वे अंग्रेज अफसर बाबूराव को मुद्रण का कार्य सिखाते थे। बाबूराव एवं इस अंग्रेज अफसर में गुरु शिष्य का संबंध स्थापित हो चुका था, जो आजीवन चलता रहा।

 बाबूराव का एक शौक बड़ा विचित्र था। अपनी युवावस्था में वे घर में अजगर, शेर, भालू आदि हिंसक जानवर पाला करते थे।मुझे लगता है कि शायद बाबूराव से प्रेरणा पाकर बाबा आमटे के सुपुत्र डॉक्टर प्रकाश आमटे ने महाराष्ट्र के गडचिरोली जिले में स्थित अपने हेमलकसा आश्रम में जंगली एवं हिंसक पशुओं को पालतू बनाया है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पुत्र पूर्व विधानसभा अध्यक्ष जयवंतराव तिलक बाबूराव के खास मित्र थे । दोनों मित्र शिकार के लिए घने जंगलों की खाक छानते फिरते थे। स्वतंत्रता के पश्चात बाबूराम ने समाचार पत्र बेचने एवं बुक बाइंडिंग करने हेतु अपनी छोटी सी दुकान खोल ली थी, लेकिन कभी भी अपने उच्च संपर्कों का इस्तेमाल नहीं किया। वे आजीवन समाचार पत्र बेचते तथा बुक बाइंडिंग करते रहे। उन्होंने 103 साल की लंबी आयु पाई। वे प्रतिदिन 15 भाकरी (ज्वार की बड़ी मोटी रोटी) खाते थे लेकिन उनकी तरफ देखकर यह विश्वास नहीं होता था कि इतना दुबला पतला व्यक्ति इतना सारा भोजन करता होगा। उनके बारे में खास बात यह थी कि वे कभी भी किसी डॉक्टर के पास या अस्पताल में नहीं गए इसलिए उनकी मृत्यु होने पर उनकी बेटी एवं दामाद को मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए काफी पापड़ बेलने पड़े । अजब गोखले बुवा की गजब कहानी पढ़कर यह खयाल मन में आ सकता है कि इस व्यक्तिचित्र को चटपटा, सनसनीखेज, रोचक एवं मसालेदार बनाने के लिए अतिशयोक्ति का सहारा लिया गया है लेकिन यदि आप आज भी पुणे के सदाशिव पेठ में जाएंगे तो बाबूराव के पराक्रमों के साक्षी अनेक वृद्धजन आपको मिल जाएंगे, जो बड़े उत्साह एवं अपनत्व के साथ आपको बाबूराव के जीवन की अनेक रोचक घटनाएं सुनाएंगे। सन 1998 से 2014 तक अपने पुणे प्रवास के दौरान मैं ऐसे अनेक व्यक्तियों से मिल चुका हूं, जो बाबूराव के कीर्तिमानों के साक्षी रहे हैं ।

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गीत

भीगी पलकें , स्वप्न अधूरे ,
किंतु निराशा में हो आशा,
यही जगत की है परिभाषा !

कभी मार खाकर मौसम की ,
दीपक एक हुआ बुझने को ,
पर उसके मन के साहस ने ,
हिम्मत दी उसको लड़ने को,
दीप लड़ा, बलिदान हुआ पर,
अंत समय तक हार न मानी ।
माटी का ,माटी में मिलकर ,
लिखी धरा पर अमर कहानी,
वही शिखर पर पहुँच सका है ,
जिसने ख़ुद को स्वयं तराशा ।
यही जगत की है परिभाषा !

खड़े धरातल पर यथार्थ के-
चुनौतियों को गले लगाते,
और निहत्थे जीवन रण में,
वर्तमान से द्वन्द रचाते,
कभी व्याधियों से घबराकर ,
तनिक नहीं जो विचलित होते
इतिहासों के पृष्ठों पर वो ,
स्वर्णाक्षर से अंकित होते ,

ठहरे क़दमों को समझा दो,
जीत हार में भेद ज़रा सा ,
भीगी पलकें,स्वप्न अधूरे ,
फ़िर भी मन में हो इक आशा ।

@ मुकेश त्रिपाठी




स्वामी विवेकानंद

स्वामी विवेकानंद

 

दीन- हीन के उत्थान पथ पर,

जग जीवन को किए उजागर।

भारतीय संस्कृति के निकुंज,

सकारात्मकता का साकार पुंज।

 

राष्ट्र प्रेम का स्रोत और गुणी,

विवेक संपदा का है महान धनी।

भारतीयता का पगपग साथ दिए,

काया पलटी आनंद विवेक लिए।

 

लक्ष्य की खोज में बना विवेकानंद,

लेकर परमहंस जी से परम ज्ञानानंद।

युवा पीढ़ी के रहे पथ प्रदर्शक,

हिंदुत्व का सदा सबल प्रतिपादक।

 

आत्म ज्ञान का हे महान तेज,

मिले सदा तृण मात्र तेरे ओज।

भारतीयता की अमित धरोहर,

नत मस्तक हूँ हे विश्व गुरुवर।

       ******

 

 

 

***मेरी मौलिक रचना है। सर्वाधिकार सुरक्षित***

-अनुराधा के,

वरिष्ठ अनुवाद अधिकारी,

कर्मचारी भविष्य निधि संगठन,

क्षेत्रीय कार्यालय,मंगलूरु,कर्नाटक