1

फूल जैसी बेटी

फूल जैसी बेटियों का ध्यान रखता हूंँ यहांँ

सुखद पल अनमोल क्षण में
बेटियांँ रहती हैं मन में …..
जगमगाते हुए सदन में – २
गुणगान करता हूंँ यहांँ
फूल जैसी बेटियों का
ध्यान रखता हूंँ यहांँ – २

तुम कहोगे ! बेटियों से रिश्ता क्या है ?
मैं कहूंँगा बेटियों में रब बसा है ।
तुम सुनोगे बेटियांँ तो हैं पराई – २
मैं कहूंँगा बेटियों ने सब रचा है ।
तुम सदा झूठ पर अफवाह उड़ाते
मैं तुम्हारी अफवाहों पर
कान रखता हूंँ यहांँ ।।

फूल जैसी बेटियों का
ध्यान रखता हूंँ यहांँ – २

बेटियों के अनगिनत किरदार देखो
बेटियों से सुखमय ये संसार देखो ।
बेटियों में तुम सदा देखोगे दुर्गा – २
बेटियों में मांँ – बहिन का प्यार देखो ।
बेटियों की गरिमा को पहचान लेना
मैं इसी अरजी का ऐलान करता हूंँ यहांँ

फूल जैसी बेटियों का
ध्यान रखता हूंँ यहांँ – २

गर्भ में क्यों बेटियों को मारते हो
कुल वधु को जीतते क्यों हारते हो ।
तुम नया इतिहास गड़ते हो यहांँ पर – २
तुम स्वार्थ हेतु अपनापन संँवारते हो ।
सुख समृद्धि की निशानी बेटियों पर
उनकी गरिमा के लिए
प्राण रखता हूंँ यहांँ

फूल जैसी बेटियों का
ध्यान रखता हूंँ यहांँ – २

शशि कान्त पाराशर “अनमोल”
नारी प्रधान लेखक
मथुरा, उत्तरप्रदेश




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – अब जागो माँ !

अब जागो माँ !

अब औरतों को

गड़े मुर्दे उखाड़ने की

आदत बदलनी होगी

इतिहास के पन्नों में छिपे

उन उदाहरणों को भी

चुनना होगा जहाँ

स्त्री शक्ति है

दुष्टों का संहार करनेवाली दुर्गा है

राक्षसों विनाश करनेवाली काली है

ज्ञान का प्रकाश फैलानेवाली शारदा है

धरा की प्यास बुझानेवाली गंगा है

क्षुधा शांत करनेवाली अन्नपूर्णा है

गृहस्थी का भार उठानेवाली गौरी है

मृत्यु को मात देनेवाली सावित्री है

वैभव में वृद्धि करनेवाली लक्ष्मी है

ये सभी रूप स्त्री के ही हैं

ये कोरे रूपक नहीं

शाश्वत सत्य है

क्योंकि स्त्री भूल जाती है कि

उसी की कोख से

जन्मते हैं पुरुष भी

वही पालती है बेटे को भी

वही संस्कार देती है पुत्र को भी

वही पोसती है नाती-पोते

और वही बनाती है घर को घर

और दिखाती है दिशा

न केवल अपने बच्चों को

बल्कि समाज को भी।

जिस दिन औरत

अपनी शक्ति और

सही उत्तरदायित्व को

पहचान लेगी

अपनी इच्छाशक्ति को

जान लेगी

वह बदल सकेगी

न केवल पुरुष को

बल्कि दुनिया को भी

जिस दिन वह खुद को

पुरुष की समानता करने की

होड़ से मुक्त करेगी

उस दिन वह जन्म देगी

मनुष्य को

और सच्चे अर्थों में

बन सकेगी माँ

क्योंकि ईश्वर के द्वारा

उसने ही पाया है

ईश्वर को रचने का गुण

स्त्री ही भर सकती है

अपनी कोख से हर सद्गुण

स्त्री ही सिखला सकती है

बेटों को करना स्त्री का सम्मान

पर उसे छोड़ना होगा पहले

करना स्त्री का अपमान

पुरुष में परिवर्तन

पुरुष नहीं लाता है

यह सुकर्म करनेवाली

केवल स्त्री है, माता है

गीता टण्डन

30.8.19




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – स्त्री

स्त्री सम्मान है

पृथ्वी का, प्रकृति का

समाज की रगों में

बहता गर्म लहू है

धड़कन है परिवार की

संबधो का ऊँचा मस्तक है

सपनों भरी आँख है बच्चों की

देश की प्रगति का चिह्न है

मंदिर की मूरत नहीं

वहाँ जलने वाली पवित्र

दीप और धूप है

स्त्री हर रूप में समाई है

वही विश्वरूप है

स्त्री गर्व से भरा

अहंकार है

स्त्री निराकार को भी

करती साकार है

गीता टण्डन

8.3.2020




महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता हेतु कविता – “औ” से औरत

“औ” से औरत

और भी बहुत कुछ है “औरत”

जीवन की वर्णमाला में

माँ, बहन, बेटी

बहु,पत्नी, सखी के

रिश्तों से परे भी है औरत

वो जो सुबह उठते ही

परिवार की भूख मिटाने के लिए

रसोई में जुट जाती है

घर चलाने के लिए

नौकरी पर भी जाती है

लात-घूसे ,गालियाँ खाकर भी

पति की सलामती के लिए

निर्जला व्रत करती है

देखा है मैंने औरतों को

जो अनपढ़ होकर भी

अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए

मजूरी करती हैं

दूसरों के घरों में बर्तन माँजती हैं

अपनी इज्ज़त और अमानत

गिरवी रख देती हैं

आँसुओं को पी लेती हैं

औरतें केवल रोती ही नहीं

शेरनी की तरह दहाड़ती भी हैं

अपने हक के लिए

चीखती-चिल्लाती भी हैं

अपने पंजों से नोंचती हैं

हँसुआ, कुदाल से राक्षसों का

सीना भी फाड़ देती हैं

आबरू पर बन पड़े तो

भरी भीड़ में थप्पड़ भी मार देती है

औरत केवल अपने लिए नहीं जी सकती

उसके सपने भी अपनों से जुड़े होते हैं

उसकी जीत दुनिया की जीत होती है

और इसी दुनिया के लिए

कई बार वह हार भी जाती है।

औरत में बहुत कुछ भरा होता है

फ़िर भी वह रिक्त होती है

और उसी रिक्तता में

सृष्टि की नई रचना को

असीम जगह मिलती है

पुरूष को सुख,

और प्रकृति को निरंतरता।

पुरूष के साथ बराबरी की

इच्छा रखने वाली औरत को

समझना होगा कि

वही जन्म देती है पुरूष को भी!

औरत अबूझ रहस्य है

मंदिर में स्थापित ईश्वर की तरह

जिसे देखा, छुआ जा सकता है

पर …

“औरत” के सीमित पर्यायवाची शब्द

हो सकते हैं

लेकिन उसका अर्थ अपरिमित है…

गीता टण्डन

20.1.2021




महिला काव्य प्रतियोगिता

  • महिला दिवस काव्य प्रतियोगिता

    1.फिर देखो

    फिर देखो

    हम नदी के दो किनारे हैं ,

    जब चलना साथ है

    तो इतना आघात क्यूँ

    तुम तुम हो तो

    मैं मैं क्यूँ नहीं

    मैं धरा हूँ तो

    तुम गगन क्यूँ नहीं

    मैं बनी उल्लास तो

    तुम विलास क्यूँ

    मैं परछाईं हूँ तुम्हारी,

    फिर अकेली क्यूँ

    तुम एक शख्सियत हो ,

    तो मैं मिल्कियत क्यूँ

    तुम एक व्यक्ति हो तो ,

    मैं एक वस्तु क्यूँ 

    तुम्हारी गरिमा की वजह हूँ मैं,

    फिर इतना अहम क्यूँ

    तुम मेरी कायनात हो तो ,

    मैं जायदाद क्यूँ

    मैं सृष्टि हूँ तो,

    तुम वृष्टि बन जाओ

    मैं रचना हूँ तो,

    तुम संरचना बन जाओ

    फिर देखो

    पतझड भी रिमझिम करेंगे

    और बसन्त बौराएगी

    संघर्ष की फ्थरीली राह भी

    मख़मलों हो जाएगी

    नयी भोर की अग॒वानी में

    संध्या भी गुनगुनाएगी

    संध्या भी गुनगुनाएगी

    रचनाकार

    ज्ञानवती सक्सैना

    ज्ञान’9414966976

    संगठन राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान,जयपुर

    पता सुभाष चन्द्र सक्सैना 68/171राजस्थान हाउसिंग बोर्ड, सांगानेर ,जयपुर राजस्थान

    [email protected]

    2.मैं स्त्री हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    जग जीतने के लिए

    अपने सपनों को वारती हूँ

    सौ सौ बार हारती हूँ 

    कब कहाँ क्या हारना है

    अच्छे से जानती हूँ

    तब कहीं जाकर

    जग जीतती हूँ

    दुनिया की जंग जीतती हूँ

    मैं स्त्री हूँ 

    अपने सपनों का पोषण करती हूँ

    अपनों को तृप्त  रखती हूँ

    बहुत कुछ सहन करती हूँ

    वहन करती हूँ

    मैं डरती हूँ

    संभल संभल कर पग धरती हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    कब कहाँ कितना नाचना है

    कितना नचाना है

    अच्छे से जानती हूँ

    कठपुतली नहीं,धुरी हूँ

    मैं स्त्री हूँ 

    चुप्पी की ताकत को

    पहचानती हूँ

    छोटीछोटी बातों पर

    उलझती नहीं 

    बड़ी बात पर बख्शती नहीं

    गरजती नहीं,बरसती हूँ

    दूरदर्शी हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    कई बार मरती हूँ

    तब कहीं जीती हूँ

    कई बार मरती हूँ

    तब कहीं,अपनों के

    दिलों को जीतती हूँ

    जिजीविषा की धनी हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    कई बार हारती हूँ

    तब कहीं हरा पाती हूँ

    कमियों को पीती हूँ

    तब कहीं जीती हैूँ

    सही वक़्त का इंतज़ार करती हूँ

    तूफ़ानों से नौका निकालना

    अच्छे से जानती हूँ

    ममता,नेह का

    समंदर हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    मैं सही

    तुम ग़लत,फिर भी

    अपनों को

    ग़लत सिद्ध करने की

    गलती कभी नहीं करती

    अनुकूल समय का

    इंतज़ार करती हूँ

    झेलती हूँ कई दंश

    मानस हँस हूँ

    मैं स्री हूँ

    संस्कार की चॉक हूँ

    घड़ती हूँ

    अपनों को,सपनों को

    संस्कृति को,सभ्यता को

    समाज की नींव को

    मैं स्त्री हूँ

    जग जीतने के लिए

    कई बार हारती हूँ

    अपने सपनों को वारती हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    मैं स्त्री हूँ

    रचनाकार

    ज्ञानवती सक्सैनाज्ञान

    9414966976

    संगठन राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान,जयपुर

    पता सुभाष चन्द्र सक्सैना 68/171राजस्थान हाउसिंग बोर्ड, सांगानेर ,जयपुर राजस्थान

    [email protected]

    3.देदीप्यमान लौ हूँ

     

    मैं मैं हूँ,

    आंगन की रौनक हूँ

    फुलवारी की महक हूँ,किलकारी हूँ,

    मैं व्यक्ति हूँ, सृष्टि हूँ

    अपनों पर करती नेह वृष्टि हूँ

    मैं अन्तर्दृष्टि हूँ,समष्टि हूँ

    सूक्ष्मदर्शी हूँ, दूरदर्शी हूँ

    ममता की मूरत हूँ  

    समाज की सूरत हूँ

    मैं मैं केवल देह नहीं  

    संस्कृति की रूह हूँ

    मैं पावन नेह गगरिया हूँ  

    मैं सावन मेह बदरिया हूँ

    मैं इंसानियत में पगी  

    अपनेपन में रंगी

    सपनों से लदी 

    अपनों में रमी  

    मौज हूँ

    धड़कता दिल हूँ

    आला दिमाग हूँ

    राग हूँ, रंग हूँ 

    फाग हूँ ,जंग हूँ 

    मंजिल हूँ, मझधार हूँ  

    मैं जन्नत हूँ,मन्नत हूँ

    मैं मैं हूँ  

    मैं ख्वाब हूँ, नायाब हूँ

    लाजवाब हूँ  

    किसी की कायनात हूँ

    मैं संस्कार हॅू

    सभ्यता का आयाम हूँ

    संस्कृति का स्तंभ हूँ 

    उत्थानपतन का पैमाना हूँ

    मैं दुर्गा हूँ, सरस्वती हूँ

    मैं सीता हूँ, सावित्री हूँ

    मैं  धरा हूँ, धुरी  हूँ  

    मैं शक्ति हूँ, आसक्ति हूँ

    मैं सावन की फुहार हूँ ,

    घनघोर घटा हूँ

    मैं आस्था हूँ ,विश्वास हूँ

    मैं उत्साह हूँ, उल्लास हूं  

    मैं साधन नहीं साधना हूँ,

    आराधना हूँ

    ना भोग हूँ, ना भोग्या हूँ

    परिपक्व क्षीर निर्झर हूँ

    परिवार का गुमान हूँ

    ईश्वर का वरदान हूँ

    देदीप्यमान लौ हूँ 

    देदीप्यमान लौ हूँ 

    मैं मैं हूँ

    मैं मैं हूँ

    ज्ञानवती सक्सैनाज्ञान

    9414966976

    संगठन राजस्थान लेखिका साहित्य संस्थान,जयपुर

    पता सुभाष चन्द्र सक्सैना 68/171राजस्थान हाउसिंग बोर्ड, सांगानेर ,जयपुर राजस्थान

    [email protected]

    उपर्युक्त तीनों रचनाएँ मेरी मौलिक एवं स्वरचित रचनाएँ हैं

    ज्ञानवती सक्सैना  ज्ञान




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता शीर्षक : ” प्यार का पौधा “

 

” प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता” 

शीर्षक  : ” प्यार का पौधा ”
———————————–
प्यार को यूँहीं नफरत में ,बदला न करो ।
तड़पते दिलों जैसी बातें ,किया न करो।।
बीत जाएँगे लम्हेँ,आहें यूँहीं भरा न करो ।
तुम मुझको याद इस तरह किया न करो ।।

गम के सागर में डूब कर ,
धूप की गर्मियों में यूँहीं ,
पसीना बहाया न करो ।
नफरत की निगाहों में यूँहीं ,
बारिश के पानी से नहाया न करो।।

तुम मुझको याद इस तरह किया न करो ।
प्यार भरी आस्था एक उपासना है,
वासना की पूर्ति इसे समझा न करो।।
शरद की ठण्ड में जब,

ठिठुरन सी लगने लगे,
यूँहीं प्यारा सा एक गीत गुन गुनाया करो।
तुम मुझको याद इस तरह किया न करो।।

सच्चे प्यार की होती है,
कुछ ऐसी ताकत उसे,
यूँहीं हर्जाया न करो।
दिल की हवेली को छेड़कर ,
उसे यूँहीं ढाहाया न करो ।।
तुम मुझको याद इस तरह किया न करो ।
जब लगे तुम्हें यह एहसास ।
नहीं मिलने की मुझसे पूरी होगी आस ।।
बस यूँहीं एक खुबसूरत सा ,पौधा लगाया करो ।।
तुम मुझको याद इसी तरह से किया करो ।।

नूतन सिन्हा
शिक्षिका लिट्रा वैली स्कूल
पटना बिहार।।




प्रेम काव्य लेखन प्रतियोगिता

काश!मैं सही से समझ पाऊँ..

बंधन में ना बांधू और तुम्हें कभी बाध्य भी ना करुँ,
बिना कहे तुम्हारे शब्दों को मैं सही से समझ पाऊँ…
व्याकुलता महसूस कर तुम्हारी कभी तुम्हें आघात ना करूं,
अक्सर जो छिपा जाते हैं मुझसे वो मैं समझ पाऊँ..

सिर्फ तन से ही नहीं मन से भी तुम्हें स्पर्श कर सकूँ,
तुम्हारे आयाम को मैं तुम्हारा विराम ना समझ पाऊँ…
स्थिरता पर तुम्हारी कभी प्रश्न ना करूं,
तुम्हारे ठहराव को मैं तुम्हारा भटकाव ना समझ पाऊँ…

जो दर्शाते नहीं हो,वो प्रेम मैं महसूस कर सकूँ,
तुम्हारे प्रेम की असीम गहराईयों को मैं स्वम में उतार पाऊँ…
जिसका उल्लेख नहीं करते हो,वो उत्कंठा को मैं छू सकूँ
मेरी सीमित सोच से परे मैं तुम्हारी विकसित दूरदृष्टि देख पाऊँ…

अनकही और अनसुलझी तुम्हारी उलझनों का एहसास करुँ,
विरह और वेदना के पलों को मैं समझ पाऊँ…
तुम्हारे तपन को बल सा मैं महसूस कर सकूँ,
अपने भीतर की शक्ति से तुम्हें ऊर्जावान कर पाऊँ….

जो कुछ क्षण तुमसे मिले हैं,उन्हें सकुन से जी सकूँ,
तुम्हारी व्यवस्था और व्यस्तता को मैं सही से समझ पाऊँ…
अपने अचार,विचार और व्यवहार से तुम्हें उन्मुक्त रख सकूँ,
अपनी स्वतंत्रता की परिधि को मैं सही से समझ पाऊँ….

डॉ निर्मला नीतू
प्रधानाचार्या
भारतीयम स्कूल,
डेल्टा-I,ग्रेटर नोएडा (उ. प्र.)
7042628813




शीर्षक : ” काश एक बार कहा होता “

मुझे क्या ! मालूम था कि तुझे,
मुझसे मोहब्बत थी इतनी।

अगर साहस और प्रेम भाव थे पास तेरे ।
कह देने में गुनाह क्या थी।।
नदी की धारा बहती है,
वो भी कुछ कहती है ।।
हिलोरें भरती है, गुन – गुन- गुनगुनाती है ,
दिल मे तरंगे जब उठती है ,
वो भी अपनी फरियादें कुछ सुनाती हैं ।।
दिल में मोहब्बत , होठों पे कयामत ,
यह क्या हुई….. इबादत ?
मोहब्बत होती है , निभाने की।
प्यार की ललक को छुपाई नहीं जाती ।।
ये मदहोश शीतल मस्त पवन,
सन -न -न -न पुरवैया बहे ,
फिर भी ,
अपने अन्तर्मन की बात कहे,
जैसे लगी खुशियोँ से भर आया आँगन!
विस्मित हुआ अब मेरा मन ।।
क्यों? दे दी तुने! एक पल में प्यार की ,
अपनी आहुति काश !! एक बार कहा होता…!

अगर थी मुझसे मोहब्बत…..
तो सीखो ! उस नदी की धारा से,
जो बिन रुके-झुके, बिन थमें-मिलने को,
व्याकुल हो उठती है ,अपने उस प्रियतम किनारा से।।

ओह ! तुमने ये कैसी भूल की।
काश!एक बार कहा होता!
ये जीवन संसार हमारा और तुम्हारा होता ।।

नूतन सिन्हा
पटना बिहार ।।




शीर्षक — ” मातायेँ लें संकल्प “

अन्तर्राष्ट्रीय महिला काव्य प्रतियोगिता

शीर्षक  — ” मातायेँ लें संकल्प “

**********************

माताएँ लें संकल्प!!
तभी बदलेंगी काया-कल्प!!
जब तक रहेगी मन में,
उमंगे भरी खुशहाली।
तब तक छाई रहेगी हमारे ,
जीवन की हरियाली।।
जल जीवन का है प्राण ।
वनस्पतियों के होते त्राण।।
बेटी ,वृक्ष और जल ,
संरक्षित करना सीखें ।
भावी जीवन में माँगनी
न पड़े इसकी भी भीखेँ ।।
बेटियों को बेटी ही समझो,
वो मातृस्वरूपा होती हैं ।
बेटा- बेटी एक समान।
फिर क्यों ?
होती हैं ,बेटियों की दान ?
दहेज जैसे संक्रामक रोग को ,
कोशिश करें जड़ से भगाने की,
अगर होती रहेंगी ,
दहेज देकर शादियाँ ।
न बच पायेंगे बेटे ,
न चैन से ,
जी सकेगी बेटियाँ ।।
अगर सच्चे दिल से जिस माँ ने ,
अपनी कोख से दिया जन्म,
बेटा- बेटी को ,
लेना होगा एक फैसला ,
पूरा करना होगा इस संकल्प को ,
हम माताएँ ,
न लेंगे दहेज !
न देंगे दहेज!!
तभी रह पायेंगे ,
रिश्तों की डोरी मजबूत
न होगा कोई बृद्धाश्रम,
न होगा विधवाश्रम,
आज इन कुरीतियों के
कारण और अभिशाप
ये दहेज ,दारु
इनके कारण हो रहे महानाश
जा रहीं हैं लोगों का प्राण।।
‘मानव शृंखला
सिर्फ शृंखला ही न
बनकर रह जाएं”
इन श्रृंखलाओं के पीछे,
छुपी हईं हैं आभाएँ ।
विश्वास भरी उम्मीदें,
और हमारी आशाएँ ।।




अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस प्रतियोगिता

युवा किशोर कोमल कली
किसलय आवारा अहंकार के
पुरुष समाज में रौदी जाती नारी।।
लज्या भय की मारी कभी
खड़ी न्यायालय में कभी किसी
कार्यालय में खुद के सम्मान की
गुहार लगाती नारी।।
आँखे सुनी ,आँखे सुखी स्वर्णिम
भविष्य का आश विश्वास का राह
खोजती नारी।।
कहती है दुनिया सारी मैं नारी हूँ
दुनिया है मुझसे ,मूझसे है दुनिया सारी।।
हर रोज पल मरती और मिटाई जाती बेबस ,लाचार तड़प -तड़प
कर जीती जाती नारी।।
कहती है दुनिया फिर भी
नर की नारायण हूँ
परम् शक्ति सत्ता ईश्वर की अर्ध
नारीश्वर सम मै नारी हूँ दुनिया सारी।।
नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश